भविष्य का अतीत

>> 20 February 2011

जब शाम ढलने लगती तब वे सड़क के किसी छोर पर सुस्ताते से चल रहे होते । दोनों के सिरों पर अँधेरा घिर आता, तब लड़की अपने बैग को टटोलने लगती । वह ऐसा लगभग हर बार करती और लड़का जान जाता कि अब उसके जाने का समय आ गया है । उसे लगता कि लड़की के बैग की भी अपनी एक पूरी दुनिया है । और जब उसने लड़की को एक बार कहा था कि "लड़की के बैग के अन्दर झाँकने में उसे डर लगता है । ना जाने उसमें कितने दुःख, कितनी पीडाएं कैद हों ।" और लड़के की इस बात पर वह एकाएक हँस दी थी और फिर अगले ही क्षण उसका चेहरा भाव शून्य हो गया था । यह अपने आप में एक पीड़ा थी, किसी का चेहरा भाव हीन हो जाना । ना दुःख, ना सुख, ना चिंता और ना ही कोई प्रश्न दिखे तो उसे देखकर एक पीड़ा उभरती है । त्वचा पर बनी सफ़ेद फुंसी के चारों ओर महीन नोक से कुरेदती सी ।

लड़की शाम की आखिरी बस पकडती ओर अपने हॉस्टल को चली जाती । और तब लड़के के पास करने को कुछ नहीं रह जाता । बीतती दोपहरों में उसके पास एक उद्देश्य होता कि अभी शाम होने को है, जब वह अपनी ऑफिस से निकलेगी ओर वे दूर जाती सड़कों पर चहलकदमी करते फिरेंगे । परिचय से पहले के दिनों में लड़की अपने ऑफिस से सीधे गर्ल्स होस्टल चली जाती थी । किन्तु बाद के इन दिनों में वे साथ-साथ घुमते रहते । और उनके क़दमों तले एक प्रश्न चलता रहता कि "लड़के के बीते दिन दिये हुए इंटरव्यू का क्या हुआ ?" किन्तु लड़की उस प्रश्न को कभी ऊपर तैरने नहीं देती । अपनी ओर से कोशिश करती कि वह जितना उसे नीचे धकेल सके, धकेल दे ।

शुरू के दिनों में जब वे मिलते थे तो किसी मॉल के, सिनेमा हॉल में, पर्दे के सामने की पिछली कुर्सियों पर बैठ कर सुस्ता लेते थे । लड़का, लड़की के बालों से खेलता और अपने गर्म ओंठ उसके कानों के पास रख देता । लड़की अपने पास की जमा बातों को स्वतंत्र करती रहती । किन्तु हर सुख अपने साथ पीड़ा लेकर आता है । जिसका आभास धीरे-धीरे होता है । बाद के दिनों में लड़का चुप-चुप सा रहता और ऐसे में लड़की उसे छोटे-मोटे खर्चे करने देती । तब लड़के के चेहरे पर नई लकीरें उभर आतीं । वह नये उत्साह से अपना प्यार, अपना हक़ जताता । लड़की इस मनोवैज्ञानिक कारणों को जानती थी । और अपने उन साथ के पलों में उसे बीते दिनों की पढ़ी हुई किताबों की बात याद हो आती । उसने रिश्तों को बचाए रखने की कोई किताब, बहुत पहले के बरसों में पढ़ी थी । जब वह अकेली होस्टल में पड़ी रहती थी और उसके पास कोई रिश्ता नहीं था । इस बात के याद हो आने पर वह मुस्कुरा देती थी । तब लड़का पूँछता कि वह क्यों हँस रही है और वह टाल जाती कि कोई खास वजह नहीं । उसे अपने बचपन की बात याद हो आयी थी । लड़का बचपन की देहरी के उस पार नहीं जाना चाहता था । क्योंकि उन दिनों में वह उसके साथ नहीं था । और जिन दिनों में हम किसी के साथ ना हों । उन दिनों की उसकी पीड़ा और आनंद की बातों को हम सुन भले ही लें किन्तु अपने मन के कोनों से बुहार देते हैं ।

देर रात लड़की का फोन आता और वह लड़के से और अधिक खुल जाती । लड़का उसके इस खुलेपन पर घबरा सा जाता और ऐसे सोचता जैसे कि वह बिल्कुल उसके पास है । एक ही बिस्तर पर, ठीक पति-पत्नी की तरह । या साथ रह रहे उन जोड़ों की तरह । जिनमें उन प्रेम के क्षणों में लड़की केवल अपने कपडे ही नहीं उतार फैंकती बल्कि अपने मन की सभी तहों को उधेड़ कर रख देती है । तब वह केवल वह होती है । केवल शरीर मात्र नहीं । उसका पवित्र अस्तित्व । और इसी लिये पुरुष उन आखिरी के क्षणों में जल्दी से अलग होकर स्वंय को सीमित कर लेते हैं । असल में वे या तो डरे हुए होते हैं या उस पहचान की सामर्थ्य नहीं होती । जिससे कि वे उस उधेड़े हुए सच को प्यार कर सकें । और जो भी पुरुष ऐसा कर पाते हैं उनकी स्त्रियाँ सुखी रहती होंगी ।

सोने से पहले के अंतिम क्षणों में जब लड़की कहती कि वह उससे बेपनाह मोहब्बत करती है । तब लड़का उस दिन भर के दबे हुए प्रश्न को ऊपर ले आता । और भविष्य की नींव के भीतर प्रवेश करके ऊपर मुँह ताक कर चिल्लाता "मैं तुमसे
मोहब्बत करता हूँ । तुम दुनियाँ की सबसे खूबसूरत लड़की हो ।"


नोट: अपने लिखे की चोरी होती है तो मन बेहद दुखी होता है. जब वह बिना लेखक का नाम दिए उसका उपयोग स्वंय की रचना बता कर करने लगता है . एक चोर यह है :
http://zindagiaurkuchbhinahi.blogspot.com

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दायरा

>> 13 February 2011

दूर जाती सड़क पर से उतरते हुए धूल भरा कच्चा रास्ता प्रारम्भ हो जाता था . गाँव के किशोर एवं युवा उस छोर पर आसानी से दिख जाते थे . उनके मध्य स्त्रीलिंग की बातें हुआ करतीं . विषय कम ही बदलते और यदि ऐसा होता भी तो वह स्त्रीलिंग से पुल्लिंग हो जाते थे . उनका संसार घर की देहरी से निकल, रामदीन पंसारी की दुकान से होकर, गाँव के सभ्य व्यक्तियों की असभ्य योजनाओं से गुजरता हुआ, देर रात की छुप कर पढ़ी जाने वाली सस्ती अश्लील किताब तक जाता था .

चोपड़ा और ज़ोहरों के फ़िल्मी गाँव की तरह वे सभी खुशहाल नहीं थे और ना ही उतना भाईचारा जिसे देखकर लोग गाँव का सुख अनुभव करते . वहाँ हर घर में दूध की नहर नहीं बहती थी और हर आदमी ट्रैक्टर पर नहीं घूमता था . शहर जाने का किराया बहुत लगता था . आँगन में तुलसी नहीं उगा करती थी और पीपल पर भूत रहा करते थे . गाँव के लोग अनपढ़ या कम पढ़े लिखे थे और वे शहर से आये कौन बनेगा करोडपति के किस्से सुनकर बहुत खुश होते थे . वे पुरानी कहावत सुनकर खुश रहते थे कि भारत एक कृषि प्रधान देश है .

किशोर और युवाओं का मन जब गाँव में ऊब जाता तो वे शहर से आये मुरारी के चबूतरे पर पहुँच जाते . जो शहर के स्कूल में चपरासी था . मुरारी बताते हुए खुश होता था कि उसके स्कूल में एक बच्चे की फीस चार हज़ार रुपये है और दाखिले के समय एक लाख नगद . वह एक हज़ार घर पर भेजता था और बचे हुए दो हज़ार से शहर में अपना खर्चा चलाता था .

सरकार ने रोज़गार गारंटी योजना बना दी थी . जिससे गाँव की आबादी गाँव में ही रहे . वे एक खूँटे से बँधे थे . जिसकी रस्सी का अपना एक दायरा था . वे अधिक से अधिक परिधि को स्पर्श कर सकते थे किन्तु उसके बाहर नहीं जा सकते थे . उन्हें उतनी खुराक नहीं मिलती थी कि वे रस्सी तोड़ सकें और जल्दी से आत्महत्या का उन्हें शौक नहीं था . जिंदा रहने जितनी परिधि थी .

यह एक ऐसी व्यवस्था थी, जिसके अंतर्गत इस बात का ध्यान रखा जाता था कि स्वतंत्र पशु रेंकते हुए, कीमती उग आये क्षेत्र में प्रवेश कर जाएँ और फिर उन्हें लाठियां भांजनी पड़े . अतः वे जीवित रह सकें इतना उस परिधि में रहने दिया जाता था . असंतुष्टि की भावना उत्पन्न होने से मालिकों का बर्बर रूप सामने आने का खतरा था . इससे सामजिक सौहार्दय बिगड़ने की समस्या खड़ी हो सकती थी .

हाँ, कटाई और बुआई के समय उन्हें विशेष रूप से बुलाया जाता था . उस समय वे उन कीमती क्षेत्र में परिश्रम करते स्वंय को किस्मत का धनी समझते थे . कार्य समापन पर उन्हें जाने को कह दिया जाता था . फिर भी यदि कोई रुकना चाहे तो उसे खदेड़ कर उस क्षेत्र से दूर कर दिया जाता था .

दुस्साहस करने वाले पशुओं के लिए चौकीदार रखा जाता था . जिसको बन्दूक दे दी जाती थी . उसके बूढा होने या मर जाने पर, उसी के जैसे को पुनः रख लिया जाता था . रखने के लिए सिफारिशें चलती थीं .

यह एक व्यवस्थित समाज था . जिसको संतुलित रखने की बागडोर कीमती हाथों में थी . वे हाथ वर्षों से इस कार्य में दक्ष थे . कब पुचकारना है और कब चाबुक चलाना है .

सड़क पक्की होने की घोषणा थी और घोषणा को अमल में लाने की घोषणा थी .

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