अपनी इच्छाओं की महक जिंदा रखा करो जान

>> 30 August 2011

-> रेलवे ट्रैक को चीरकर धड़धडाती हुई जाती रेलें. रिमझिम रिमझिम होती बारिश. और छतरीनुमा प्लेटफोर्म की बैंच पर बैठा मैं. कितना हल्का, कितनी राहत. देखा जाए तो रेलवे स्टेशन जैसी शांत जगहें दुनियाँ मैं बहुत कम हैं. तमाम ध्वनियों के मध्य भी हम स्वंय के कितने पास होते हैं. कई रोजों बाद अपने आप के इतने पास हूँ . लगता है जिस उर्जा की आवश्यकता मुझे हरदम रहती है. वह मुझे अपने एकांत में ही मिलती है.

-> ठंडी हवा जब गालों को छूती है तो शरीर में एक लहर दौड़ जाती है. तुम्हारी बहुत याद आती है. तुम साथ होतीं तो यहाँ का मौसम और भी खूबसूरत हो जाता. तुम्हारे हाथों का स्पर्श, तुम्हारे गालों को छूते उड़ उड़ कर आते बाल और रह रह कर अपनी उँगलियों से तुम्हारे कानों के पीछे धकेलता मैं.

-> तुम अपने जिस्म में एक दिया जलाओ, एक दिया मैं अपने जिस्म में जलाऊँ. हमारे अँधेरे जंगल में रौशनी हो जाएगी. फिर हम इस जंगल को आसानी से पार कर लेंगे.

-> अपनी इच्छाओं की महक जिंदा रखो. तुम्हारी इच्छाओं के दीयों से ही मेरी जिंदगी रौशन रहेगी. नहीं तो मेरा यह जिस्म एक अँधेरा जंगल है. मैं अपने ही अँधेरे में गुम हो जाऊंगा.

-> मुझे याद है कि बचपन के अपने उन दिनों में जबकि मौहल्ले की बत्ती चली जाती थी और घर अँधेरे में डूब जाया करते थे. तब 'पोशम्बा भाई पोशम्बा, डाकुओं ने क्या किया' के स्वर गूंजने लगते थे. न जाने क्यों आज मुझे अपने वे दिन स्मृतियों में महक पैदा करते दीख रहे हैं. न जाने कल को इसी तरह का कोई और दिन फूल बनकर खिल जाए.

-> तब हम बड़े होने के लिए ईश्वर से कितनी जिदें किया करते. लाख मिन्नतों पर भी वह हमारी एक न सुनता और हमारी फ़रियाद को टालता जाता. हमारे गुस्से पर भी हमे एक-एक करके कितनी सौगाते देता रहता. किन्तु हम अपनी जिदों के कॉलर खड़े किये रहते. इस पर भी उसने हमे ठंडी हवा की थपकियाँ दे कर बहलाया. फिर भी जब हम ना माने तो एक रोज़ हमें बड़प्पन के रेगिस्तान में छोड़ गया. जो न तो ख़त्म होने का नाम लेता है और ना ही दूर तलक किसी पेड़ की छाँव दिखाई पड़ती. या मेरे मौला बच्चे की जिद पर नाराज़ नहीं हुआ करते. बच्चे को बच्चा ही रहने दो न.

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जाति प्रथा, आरक्षण, आर्थिक पिछड़ापन, वैचारिक पिछड़ापन और बराबरी की बातें

मैं अक्सर देखता और सुनता हूँ कि आरक्षण के मुद्दे पर वो वर्ग जिसकी वजह से आरक्षण की नौबत आई बहुत ज्यादा बेचैन हो उठता है. कभी कोई स्टेटस ठेल रहा है, कभी कोई स्टेटस फॉरवर्ड कर रहा है, कभी कोई फ़ोटो शेयर कर रहा है. लेकिन कभी जाति प्रथा को समाप्त करने के लिए इस वर्ग ने कभी कोई स्टेटस न तो लिखा और न ही फॉरवर्ड किया. एक नार्मल मनोरंजन वाले स्टेटस पर आपको इतने लाइक मिल जायेंगे और यदि आप जाति प्रथा से सम्बंधित कोई लेख, कोई फ़ोटो, कोई स्टेटस डालेंगे तो मज़ाल है कि उतने लाइक या कमेंट मिल जाएं.

यह है मानसिकता जो हज़ारों सालों से वहीँ की वहीँ जमी हुई है. उखड़ने का नाम ही नहीं लेती.

मैं अपने उन साथ में पढ़ने वाले लड़कों से पूंछना चाहता हूँ कि तुम्हारे साथ पढ़ने वाले उस वर्ग के सभी के सभी 75% लड़के क्या मुझसे बेहतर थे. मैं किसी एक का नाम नहीं लेना चाहता किन्तु क्या वो फलाना लड़का क्या मुझसे हर मामले में बेहतर था. क्या ज्यादातर वे 75% लड़के कोचिंग करके नहीं आये थे. और शेष 25% बामुश्किल कोई कोई ने कोचिंग की शक्ल देखी होगी.

और आप खुद जानते हैं कि उन 75% में से बहुत से कान्वेंट और प्राइवेट स्कूल के पढ़े हुए थे. कुछ की अंग्रेजी दूसरों को inferiority complex पैदा करने के लिए काफी थी. और आप चाहते हैं कि आपके उन अस्त्र शस्त्रों से निहत्ते लोग लडें और जीत जाएं.

आपकी जाति प्रथा को ख़त्म करने की ललक तो उसी दिन दिख गयी थी जब आपमें से ही एक लड़का अपने बचपन से लेकर बड़े होने तक के संस्कारों के साथ शराब पीकर 'चमार' शब्द का हीनता के साथ प्रयोग कर रहा था. और दरवाजे पीट पीटकर गालियाँ बक रहा था. तब आपमें से कोई आगे नहीं आया. आपने उसको 25% के क्रोध से बचाने के लिए एक कमरे में बंद कर लिया था. आपने बाद के दिनों में भी कभी उसको नहीं समझाया कि उसने जो किया वो गलत था. उसकी सोच गलत है. वो अपने में सुधार कर ले.

उन 75% में से ज्यादातर जिनके पहले से नाते रिश्तेदार कंपनियों में बैठे हैं और जिनके नंबर, जिनका ज्ञान मुझसे कितना दूर था. वे सबके सब उन्हीं कंपनियों में नौकरी कर रहे हैं. कोई क्षेत्रीयता की दुहाई देकर तो कोई जाति का उपयोग कर सबके सब चिपक गए. तो आप बताइये मेरे उनसे ज्यादा नंबर, ज्यादा ज्ञान किस काम का हुआ.

और आप जो दलितों, आदिवासियों के जलाये जाने, उनका शोषण किये जाने, उनकी बेटी बहुओं का बलात्कार किये जाने, उनको उनकी ज़मीनों से बेदखल किये जाने को एक सामान्य प्रक्रिया मानते चले आ रहे हैं और मान रहे हैं तो आप ये जान लीजिए कि आप कहीं से भी बराबरी की बात न तो सोच रहे हैं और ना ही कर रहे हैं.

न तो आप खबरें पढ़ते और ना ही उन ख़बरों का कोई संज्ञान लेते जिन ख़बरों को हमारी मेन स्ट्रीम मीडिया कभी नहीं दिखाती.

तो माफ़ करना आपके द्वारा आरक्षण के विरोध में स्टेटस ठेलना, फ़ोटो शेयर करना या किसी और की स्टेटस को शेयर करना मुझे आपके द्वारा कहीं से भी सभी को बराबरी पर लाने की बात नहीं लगती.

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हथेलियों में फूलों सी ताजगी, पवित्र प्रेम की नदी

>> 29 August 2011

-> कई विचार जुगनुओं की तरह जगमगाते हैं और फिर बुझ जाते हैं. मैं उन्हें पकड़ने के कई प्रयत्न करता हूँ. इन तमाम जुगनुओं में कभी कोई जुगनू हाथ आया तो आया. नहीं तो यह खेल चलता ही रहता है. सुबह के उजाले में जब यही जुगनू तितली बन जाते हैं तो कितने लुभावने हो जाते हैं. मैं अपनी हथेलियों को पसार देता हूँ किन्तु तब भी हर तितली कहाँ मेरी हथेली पर आकर बैठती है. या तो रात का अँधेरा ज्यादा लम्बा हो जाए तो मैं जुगनुओं को पकड़ सकूँ या मेरी हथेलियों में वह फूलों सी ताजगी आ जाए कि हर तितली उस पर आ बैठे.

-> ना जाने क्यों अपने गले में तौक लगाये जिंदगी घंटों के बावस्ते गुजरने से मन दूर भागता है. इस स्वछन्द मन की अभिलाषाओं की उड़ान उड़ना चाहता हूँ. मन माफिक क्रियाकलाप करने से जीवन के आर्थिक और सामजिक उद्देश्यों की पूर्ती हो जाए तो कितना अच्छा हो. अपने मन की अभिलाषाओं के पूर्ण संसार में तसल्ली की साँस लेना चाहता हूँ. मेरी जो रचनात्मक एवं भावनात्मक नदियाँ हैं, उन्हें में लबालब बहते हुए देखना चाहता हूँ. इतना कि वे कम से कम मेरी अपनी बंज़र जमीन में फूल खिला सकें.

-> मैं जानता हूँ कि प्रेम में यह रेतीले रेगिस्तान भी आते हैं और उनका आना तय है. जो थकाने और दिशा भ्रम के लिये बने होते हैं. कई कई बार वे हमें लू के थपेड़े देते हैं, ज़बान सुखा देते हैं और फिर पानी की बूंदों का धोखा देते हैं. मेरे मन की श्रृद्धा मुझे एक पल के लिये भी विचलित नहीं होने देती. मेरी सबसे बड़ी प्यास प्रेम में मिलने वाले आँसुओं की है, जो हमारे मिलने पर ख़ुशी से छलक उठेंगे. यह रेगिस्तान चाहे कितना भी लम्बा हो, मैं इसे पार करूँगा और अपने पवित्र प्रेम की नदी को हासिल करके रहूँगा.

-> कौन सही है, कौन गलत है. इन प्रश्नों के उत्तर हम कब तक माँगते रहेंगे. हम आखिर स्वंय से कब तलक धूप छाँव का खेल खेलते रह सकेंगे. हम जिस दुनिया में रहते हैं उसके सापेक्ष जरुरी तो नहीं कि हमें हमारे उत्तर मन मुताबिक़ मिलें. क्या यह मुनासिब नहीं कि हम उस बाहरी संसार और उसके लोगों से उम्मीदें करना छोड़ दें. आवश्यक तो नहीं कि हर कोई उन प्रश्नों के संसार में प्रवेश करे, उसे जिए और तब आप जिन सन्दर्भों में उनके उत्तर चाहते हैं, उनके उत्तर दे.

-> हमारे अपने अनुभवों के संसार में केवल हम स्वंय जीते हैं. उस संसार के रचयिता हम स्वंय होते हैं. हम लाख चाहें भी तो किसी अन्य को अपने उस संसार की ऊष्मा से परिचित नहीं करा सकते. उसके दुःख, पीड़ा, ख़ुशी, भावनाएं केवल हमारे अपने लिए होती हैं. दूसरों के लिए वह एक अलग संसार है. वह उसके बारे में जान सकता है, पढ़ सकता है, सुन सकता है किन्तु उसे महसूस नहीं कर सकता. ठीक वैसे ही जैसे बच्चे पढ़ा करते हैं किताबों में किसी अन्य ब्रह्माण्ड को.

-> आज इंसान बने रहने की शर्तें दुनिया ने जितनी महँगी कर दी हैं. वह निश्चय ही इंसानियत को दुर्लभ कारकों में शामिल कर देगा. कारक जो दुनिया में शांति और सौम्यता बनाये रखते हैं. इस पूरे बदलते परिदृश्य में मनुष्यता पर गहरे संकट छाते जा रहे हैं. मेरे वे सभ्य दोस्त जिनके कारण मनुष्यता कायम है. उनके अपने ही घरों में अशांति, दुःख, पीड़ा ने प्रवेश पा लिया है. कितना अच्छा होता कि अपने इंसान बने रहने के साथ साथ हम दूसरों की इंसानियत का कुछ हिस्सा भी बचा कर रख पाते.

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डायरी 28.08.2011

निपट सूनी दोपहर के बाद जब यह डूबती शाम आती है तब मन में रिक्तता का और भी अधिक आभास होता है. दूर पेड़ों के झुरमुट से पंक्षी एक एक कर निकल उड़ते हैं और धीमे धीमे एक समूह बना लेते हैं. ना जाने किन स्थानों पर उड़ कर जाया करते हैं. निश्चय ही उनके बनाये अपने घर होते होंगे. मेरा ना जाने क्यों उस सूने एकांत कमरे में लौटने का मन नहीं होता. मैं चाहता हूँ एक घर जिसे अपना घर कह सकूँ. जहाँ प्रेम हो, रूठना हो, मनाना हो, इंतजार करती हुई साथी हो जो मेरे देर से पहुँचने पर मुझसे झगडे. फिर मैं उसे अपना प्यार जताकर मनाऊँ.

वह जब ऑटो से उतरती है और फिर उसकी निगाहें मुझे तलाशने लगती हैं. तब उस एक पल को मैं भूल जाता हूँ कि अभी जो इस एक पल से पहले में यहाँ खड़ा था वह मेरा अपना ही एक सत्य था. जब हर ऑटो, हर वैन में मेरी नज़रें भीतर प्रवेश कर जाती थीं और मैं हर उस यात्री के पड़ोस में झांकता था जहाँ वह मुझे बैठी नहीं मिलती थी. हर एक नए पल में घडी की सुइयों का टिकटिकाना महसूसता था. और लगता था कि आज यह मुई इतनी सुस्त क्यों चल रही है. यह जानते हुए भी कि अभी उसके आने में देर है. मैं स्वंय को सड़क पर भागती-दौड़ती गाड़ियों की कतारों में उलझा लेता था.

इन दिनों ज़बान को एक नया रोग लग गया है. मुई दिमाग का साथ देना कभी कभी छोड़ देती है. लम्बे समय तक यदि किसी से फोन पर बात करता रहूँ तो इसके फिसलने के खतरे बढ़ जाते हैं. जब यह आभास दिल को अधिक होने लगता है कि यह अपनी लय छोड़ चुकी है तब वार्तालाप को विराम देने का मन हो आता है. नहीं तो कब किसी के सामने यह प्रेम प्रदर्शन करने लग जाए इसका अंदाजा लगाना मुमकिन नहीं. आज ही सुबह से शाम तलक दो बन्दों से "आई लव यू" कहते कहते बचा हूँ. कहीं किसी रोज़ इसका यह स्वाभाव मेरे सिर के लिए आफत मोल ना ले बैठे.

भूगोल ने मेरे संसार में उथल पुथल मचा दी. शिशुत्व से अब तलक इस विषय में मेरी कभी दिलचस्पी नहीं रही. हमारा सदैव छत्तीस का आंकड़ा रहा. और अब इतने बरसों बाद उसने अपने पुराने बही खाते खोल लिए हैं. और कह रहा है "बच्चू जिंदगी कोई आसान शह नहीं". यह मेरा अपना एक निजी सत्य है कि मुझे यदि कहीं खड़ा कर दिया जाए और पूँछा जाए कि पूरब किधर है और पश्चिम किधर. तो मैं खुद में ही भटक जाऊं. और आज वही पूरब-पश्चिम मुझे नाकों चने चबा रहे हैं. वाह रे भूगोल तेरी लीला अपरम्पार है. मुझे बख्श दे मेरे भाई. पुरानी बातों पर मिट्टी डाल.

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Diary 27.08.2011

-> सड़क के किनारे लगे खोखेनुमा दूकान पर चाय सुदक रहा हूँ. कमीज़ की जेब में शाम 06:20 के शो की टिकट रखी हैं. आज ना जाने क्यों इतनी बेतकल्लुफी छाई है. घर को ना जाकर यूँ सड़क पर धुल उड़ाने को आमादा हैं. निश्चय ही घर पर कोई इंतज़ार में बैठा होता तो कदम यूँ बेफिक्री ना दिखाते. सोचता हूँ एक और चाय गले से उतार लूँ उसमें किसी का क्या जाता है.

-> आज दोपहर भर सड़क की खाक़ छानता रहा. होने को ऐसा कुछ होना तय नहीं था किन्तु उस बीच इतना भर हो पाया कि शऊर आ जाने के लायक किताब खरीद लाये. और जब भूख मुँह को आ गयी तो ठेले पर निवाले पेट में डाले. सोचता हूँ शऊर आते-आते आ ही जायेगा. इस सबके बीच तुम्हारी बहुत याद आयी. वे सडकें तुम्हारे साथ चलने की आदी हो गयी हैं.

-> दूर कहीं से झींगुरों के स्वर मिश्रित होकर गूँजते हैं. कभी पास तो कभी दूर. यहाँ के घर अँधेरे में दुबके जान पड़ते हैं. लोग अपने-अपने घरों की सरहदों के पार निकल आये हैं. और मैं छत पर चारपाई बिछाए औंधे पड़ा हूँ. फिर आकाश देखता हूँ तो कभी उसमें फैले टिमटिमाते तारों की दुनिया. रह रह कर तुम्हारी शक्लें उभर आती हैं. अपनी आँखें मूँद लेता हूँ तो तुम और भी पास चली आती हो.

-> प्रेम होने भर के लिये नहीं होता. ना ही वो होता इतिहास रचने के लिये. वह होता है दिलों की सच्चाइयों को जिंदा रखने के लिये. वे जो चाहते हैं सच्चाइयों को झुठलाना. उन्हें प्रेम कभी पसंद नहीं आता. किन्तु सच्चाइयाँ कभी नहीं मरती. प्रेम बचा रहेगा हमेशा किसी जीते हुए सच की तरह.

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डायरी 23.08.2011

>> 24 August 2011

-> पंक्तिबद्ध खड़े सुस्ताते हुए ये पेड़ ऐसे प्रतीत होते हैं मानो दिन भर के थके मांदे हों और अब डूबती शाम को स्वंय को हल्का कर लेना चाहते हों. निश्चय ही क्या उन्हें थकान का अनुभव नहीं होता होगा ? जीवन तो उन में भी है. और हम जो सांस ले रहे हैं वह उनकी ही तो देन है. वे केवल देने के लिए बने हैं.

और हम ?
क्या केवल इस पृथ्वी को भोगने के लिए ही आये हैं.

मैं जब इन पर बारिश की बूंदों को गिरते हुए देखता हूँ तो उन पत्तियों पर रखी मोती सी बूंदों को छू लेने के लिए आतुर हो जाता हूँ. उन्हें छूकर शरीर में एक सुखद लहर दौड़ जाती है. आत्मिक सुख की अनुभूति शायद इसे ही कहते हों.


-> लिखने और ना लिख पाने के मध्य मानसिक द्वन्द चलता ही रहता है. फिर यह केवल मेरे अपने स्वंय के मन का ही सत्य तो नहीं. मेरी जो रचनात्मक जरूरतें हैं, उनका दुनियावी जरूरतों से सामंजस्य स्थापित कर पाना न केवल आवश्यक है बल्कि जीवनगत सच्चाई है.

मेरे अपने होने में और उसका शुद्ध बने रहने के बीच बस केवल एक फाँक है. इस पार से उस पार होने में कितना कुछ बदल जाता है. और बदलने के लिए तैयार रहता है. परिवर्तन जीवन के रहस्यों में से एक कटु सत्य है. मैं केवल अपने होने को बचाए रखना चाहता हूँ. बुद्धिशीलता में परिवर्तन आवश्यक हैं.

->प्रेम जिस पर ना जाने कितना लिखा गया है और कितना लिखा जाना शेष है. हर नई पीढ़ी ने इसे अपने शब्द दिए हैं. और अपने एहसासों को उन में पिरोया है. फिर भी जो लिखता है वह जीवन पर्यंत यही महसूसता है कि इस से सरल कोई शब्द नहीं किन्तु वह अपने जिन कौमार्य एहसासों को बयान करना चाहता था वह अभी भी कहना शेष है.

और वह शेष बना ही रहता है.

मैं जो प्रेम के अबाध सागर में डूबता, तैरता और उतराता रहता हूँ. आज उसी शेष के सिरे पर खड़ा हूँ. इस अपरिभाषित प्रेम के इस शेष सिरे को कितना आगे ले जा सकूँगा. मैं प्रेम में हूँ या प्रेम मुझ में. यह उलझ गया है.

-> चारों ओर काले बादल छाये हुए हैं. रह रहकर ठंडी हवा चलती है तो पेड़ों की पत्तियां हिलने लगती हैं. एक पल को लगता है कि वे सामूहिक नृत्यगान कर रहे हैं. फिर हवा का एक झोंका गालों को छू जाता है. स्नायुओं में झुरझुरी दौड़ जाती है. फिर बादल गरजता है, एकाएक बिजली चमक उठती है.

बारिश की बूँदें अपनी लय में गिरती ही जाती हैं. ऐसा लगता है मानों प्रकृति आज उत्सव मना रही है और मैं वह मूक दर्शक हूँ जो केवल उसका आनंद ले सकता है. मैं इस सृष्टि की रागात्मक प्रवृत्ति से भाव विभोर हूँ.

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