उस शहर में....

>> 14 February 2014



ये वही दिन थे जबकि देश में नयी सरकार हर हालत में हर एक पार्टी अपनी ही बनाना चाहती थी. जब फेसबुक पर हर कोई अपनी हर संभव कोशिश करता हुआ बुद्धिजीवी होने की कामयाब और नाकामयाब कोशिश में लगा हुआ था. जब एकाएक नयी और पुरानी सभी पीढ़ियों की चर्चाओं में राजनीति मुख्य मुद्दा थी. जब राजनीतिक पार्टियों को प्याज के दाम बढ़ने पर डर इसलिए लगता था कि होने वाले चुनाव बहुत जल्द आने वाले हैं. जब डीज़ल और पेट्रोल के दाम समय के मुताबिक़ घटाए और बढाए जाते थे.

ये वही दिन थे जबकि महिलाओं की सुरक्षा को लेकर आये दिन मोमबत्तियां जलायीं जाती थीं. और दिल्ली छोड़ दूर प्रदेशों में लुटती, पिटती, बलात्कार से पीढित औरत समाचारों में नहीं आ पा रही थी. ये वही दिन थे जबकि वेलेंटाइन डे, फादर्स डे, मदर्स डे और ना जाने कौन कौन से डे मनाने के लिए बाज़ार खड़े किये जा रहे थे और बाज़ार हर संभव कोशिश कर रहा था कि समाज को उनके सभ्य होने के तरीके अपने हिसाब से सिखाये जाएँ.

इन्हीं-किन्हीं दिनों में जबकि उत्तर प्रदेश बनाम उत्तम प्रदेश के सीने पर खड़े होकर हमारे समय के नेता खिलखिलाकर हँस-हँस कर अपना सम्मान करा रहे थे. और प्रदेश के किसी एक कोने में बसे शहर के पाक दामन में कई सौ दाग लगे थे. जिन्हें कोई नेता नहीं कहना चाहता था “कि दाग अच्छे हैं”. हाँ इन दागों को कोई आसानी से साफ़ नहीं होने देना चाहता था. इन दागों को कोई डिटर्जेंट पाउडर, कोई नेता, कोई अभिनेता, कोई मंत्री ना तो साफ़ कर सकता था और ना ही करने देना चाहता था. हर कोई उसे अपने फ़ायदे के लिए किसी और पर लगा देना चाहता था.

ऐसे ही समय में इसी प्रदेश के किसी श्रीकृष्ण भक्त संपन्न शहर में रहने वाले मोहित पाण्डेय और दीप्ति की प्रेम कहानी जन्म लेती है. उनका मिलना भी किसी अन्य प्रेम कहानी में मिले जोड़े की तरह ही बेहद सामान्य तरीके से हुआ था. हुआ असल में ये था कि उन दिनों में बी.टी.सी. और बी.एड. के द्वारा नौकरी पाने की बाढ़ सी आई हुई थी. हर बार की तरह इस बार भी लगता था कि इस बार जब फॉर्म जमा हो जायेंगे तो नौकरी लग जाएगी. हालांकि पिछली बीते सालों से लगातार यह प्रक्रिया दोहराई जाती थी और फिर हाई कोर्ट में फंसकर रह जाती थी. किन्तु इस बार ऐसा नहीं होगा की सोच को दिमाग में बिठाकर युवक-युवतियां हज़ारों रुपये खर्च करके फॉर्म भरकर जमा करने में लगे थे.

तो ऐसे ही समय में मोहित पाण्डेय और दीप्ति की मुलाक़ात पोस्ट ऑफिस में हुई थी. दीप्ति के पास लिफाफा चिपकाने के लिए गोंद नहीं था तो उसने पास में ही खड़े और अपने लिफ़ाफ़े को चिपकाते मोहित से गोंद माँगी. उस दिन उस गोंद ने केवल लिफ़ाफ़े को ही नहीं चिपकाया बल्कि मोहित और दीप्ति की दोस्ती को भी चिपका दिया था. और उनकी बातचीत के आरम्भ में ही दोनों को पता चला कि मोहित राधापुरम में रहता है और उससे कोई पांच किलोमीटर दूर बसे कृष्णापुरम में दीप्ति रहती है. फिर कुछ मामूली बातों के बाद दोनों ने एक दूसरे से विदा ले लिया था.

आपको क्या लगता है कि ऐसे समय में जबकि “हॉट लगदी मैनू”, “शीला, शीला की जवानी” और “लुंगी डांस” जैसे गाने किशोर-किशोरियों के ज़बान पर चढ़े हुए हैं. हर किशोर-किशोरी मोबाइल गर्ल फ्रेंड-बॉय फ्रेंड ढूढ़ता है. क्या मोहित और दीप्ति भी एक ही झटके में चाँद मुलाकातों में मोहब्बत उर्फ़ इश्क़ में पढ़ जायेंगे.

मोहित एक ऐसे परिवार से था जहाँ हर शख्स अपने ब्राह्मण होने पर गुमान करता था. जहाँ आये दिन कैसे चमार सा लग रहा है, कैसा भंगी सा लग रहा है जुमलों का इस्तेमाल बिना किसी डिस्क्लेमर के प्रयोग होता था. और दीप्ति जिस परिवार से थी वो मोहित के परिवार को डिस्क्लेमर का इस्तेमाल करने के लिए विवश नहीं कर सकता था. 

ऐसे में दोनों लोगों की फिर से एक बार मुलाक़ात होनी थी और जो हुई. इस बार वे दोनों किसी स्टेशनरी की दुकान पर नौकरियों से सम्बंधित टंगे हुए विज्ञापन और फॉर्म को देखते हुए टकरा गए. जहाँ पहचान बढ़ते बढ़ते यहाँ तक पहुँच गयी कि पता चला दीप्ति किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती है और सरकारी नौकरी की तलाश में है. वहीँ मोहित पाण्डेय अपना वक़्त कोचिंग लेने में और नौकरी की तैयारी करने में बिताता है........        

           

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