खिड़कियाँ-2

>> 17 June 2015

बात वैसे तो कल की ही सी है लेकिन है तो. जब वह स्कूल के डिबेट कम्पटीशन में हिस्सा लिया करती और अक्सर जीत ही जाया करती. कितना कुछ तो पढ़ा हुआ होता था उसका. जब उसकी दोस्त पूंछा करती कि कहाँ से इतना सब लाती है दिमाग में. लेकिन उसे उन सब बातों पर हंसी सी आती. कितनी भोली और स्वच्छंद हँसी हुआ करती थी उसकी. ऐसा उसके चाहने वालों ने उसे कितनी दफा तो कहा था.

क्या वे दिन उसने भुला दिए हैं. नहीं नहीं भूली नहीं है वो. यदि भूल गयी होती तो आज यूँ स्मृतियों में कैसे आ धमकते. फिर ये कैसा अकेलापन है जो इतने बंद दरवाज़ों के भीतर भी अपने पैर पसार लेता है. क्या उसने बीते सात सालों में यही कमाया है. सात सालों का अकेलापन. ऐसी क्या वजहें हैं जो कि उसके अकेलेपन को और भी बढाती चली जाती हैं. पहले तो वो ऐसी कभी नहीं थी. फिर वह क्या था जो दिन ब दिन उसमें घुलता चला जा रहा था. एक अजीब सा नशा जो उसे अपनी गिरफ़्त में लेता ही चला जा रहा था.

पीछे रह गए 21 बरसों में कितना कुछ तो था. क्या उसमें से कुछ पल चुरा कर वो अपने पास नहीं रख सकती. 21 बरस में वह कितना कुछ हो जाना चाहती थी. क्या से क्या बन जाना चाहती थी. एक पत्नी और एक माँ तो बनना ही था. इससे उसे कभी इंकार कहाँ था. लेकिन ख्वाब यूँ परिंदे बन उड़ जायेंगे, और किसी शाख पर जा बैठेंगे उसने कभी ना सोचा था.

क्या एक भली लड़की होना इतना भर है कि वह कंक्रीटों के जंगल के किसी उगा दिए पेड़ की शाख पर बिठा दी जाये. क्या इतनी भर है ज़िन्दगी कि सातवें माले पर रहकर अपना आने वाला पूरा का पूरा जीवन बिता दिया जाए. इस इंतजार में कि एक दिन होगा. उसमें सुबह होगी, दोपहर होगी, शाम और फिर एक रात. और इस तरह से एक नया दिन उग आएगा. पुराने किसी नए दिन को काट फैंक कर. वो नए दिन का इंतजार करेगी. और इस तरह का इंतजार कब तलक तो इंतजार कहलाता रहेगा. फिर एक दिन ऐसा भी तो आता है जब किसी भी बात का, किसी भी दिन का, किसी भी शख्स का, किसी भी ख़ुशी का, किसी भी सुबह का कोई इंतजार नहीं बचा रहता. बचा रहना भी कितना बचाए रखा जा सकता है. एक दिन खर्च हो ही जाता है. दिन, प्रतीक्षाएँ, प्रतीक्षाओं में बीतती दोपहरें, शामें और इसी तरह बीत जाते हैं सालों साल. और खिडकियों के इस पार से उस पार यूँ ही बदलता रहता है समय.

कभी कभी रतिका सोचती कि क्या उसे अरुण से कोई शिकायत है. नहीं ऐसा तो कहीं से भी ज्ञात नहीं होता कि वह अरुण से दुखी है. वह तो अपनी सीधी सपाट जिंदगी जी रहा है. जैसा इस संसार के अधिकतर लोग जी लेते हैं अपनी जिंदगी वह भी एक दिन पूरी कर ही लेगा इस उम्मीद में कि मैं भी किसी एक रोज़ खड़ी मिलूंगी उस आखिरी के पल की उस सीमा रेखा पर जहां कहा जाता है कि हाँ हमने जी ली है अपनी ज़िंदगी. क्या जीना इतना भर है.

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खिड़कियाँ

>> 16 June 2015

खिड़कियों से आती हवा ना जाने क्यों अब उसे ताज़ी नहीं लगती. वह वही बासीपन लिए हुई सी होती है. रात बीत जाने के बाद सुबह की दिनचर्या और फिर वही पुरानी पड़ गयी सी हवा. ऐसे जैसे कि उसने स्वंय को उससे जोड़ के देखा. क्या किसी एक रोज़ वह भी ऐसे ही बासीपन का शिकार हो जाएगी. रोज़ सुबह उठना, बैड टी देना, स्वर्णा को उठाना, नाश्ता बनाना, स्वर्णा को स्कूल बस तक छोड़कर आना, फिर अरुण का अपने ऑफिस चले जाना. फिर नहाना धोना, साफ़ सफाई और फिर प्रतीक्षा करना कि कब स्वर्णा वापस लौट आएगी और फिर वो उसके कपडे बदलवाएगी, उसको खाना खिलाएगी और उसको सुलाकर फिर शाम की प्रतीक्षा में स्वंय को इसी खिड़की के पार कहीं टांग देगी.

बीते सात सालों ऐसा कोई दुःख तो उसे महसूस नहीं होता किन्तु वह क्या है जो उसके इस खालीपन का कारण है. ये जो बीत गए साल हैं उनमें ऐसा क्या है जो बीतते हुए भी नहीं बीता. समय कहने को तो बीतता ही चला गया किन्तु शायद वह अभी वहीँ खड़ी मालूम होती है. जब वह यहाँ इस फ्लैट में शादी के बाद अरुण के साथ आई थी. अपनी नई गृहस्थी, नए जीवन का आरम्भ करने. और फिर दिन बीते, महीने बीते और धीरे धीरे कर सात साल खिडकियों के इस पार से उस पार देखने में बीत ही गए. इस बीच स्वर्णा ने जीवन में दस्तक दी. बहुत कुछ बदला. जीवन और उससे जुडी जिम्मेदारियां. फिर भी वो क्या है जो कहीं भीतर अधूरा सा जान पड़ता है. क्या उसे कुछ और हो जाना चाहिए था जो वो ना हो सकी थी. या यूँ ही कोई अधूरे मन की ख्वाहिशें थीं जो मन के भीतर रेंगती रहती हैं. कभी इस कोने से उस कोने तो कभी उस कोने से इस कोने. मन का धरातल दिन ब दिन बंज़र होता जान पड़ता है.

क्या उसका अपना कोई स्वंय का अपने जीवन में एक रोल है. या वह अपने जीवन की कहानी को केवल जिए जा रही है. क्या केवल जी भर लेना जीना कहलाता है. क्या वह वही रतिका है जो स्कूल और कॉलेज के दिनों में हुआ करती थी. नई उमंगों, सपनों और ऊर्जा से भरी हुई रतिका. पढने लिखने और संगीत की शौक़ीन रतिका. अचानक से उसे याद हो आया कि बीते बरसों में उसने कोई फिल्म नहीं देखी. कोई नई किताब नहीं पढ़ी और नाहीं अपना मनपसंद संगीत सुना. उसके पास समय का आभाव नहीं किन्तु फिर भी वह ये अपने पसंदीदा काम नहीं करती. उसकी जिंदगी इतनी बासी सी क्यों महसूस होती है उसे.

खिडकियों के पार दूर तलक देखने पर उसे बिल्डिंगों के सिवाय कुछ दिखाई नहीं देता. हो सकता है किसी बिल्डिंग के किसी फ्लैट की किसी खिड़की से झांकती कोई उसकी हम उम्र लड़की होती हो किन्तु उसको वह दिखाई ना पड़ती हो. क्या मालूम वह रतिका ना हुई हो या रतिका हो जाने की सीमा रेखा पर खड़ी हो. क्या मालूम कोई एक नई विवाहित लड़की किसी नई बिल्डिंग के नए फ्लैट में नई ऊर्जा और नए सपनों के साथ आई हो जिसे रतिका हो जाना हो. या क्या मालूम उसने इस बासी जिंदगी को ही असल जिंदगी समझ उसे जीना सीख लिया हो. हो ना हो खिडकियों के पार भी ऐसी बहुत सी ज़िंदगियाँ होंगी.

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शोक

"चित्र गूगल से लिया गया है"











मेरा सुख और पूरापन यही है कि मैं आपको यह सब बता दूँ । जो समय के साथ अब बीती बात हो गयी है किन्तु स्मृतियों में पतंग की तरह उलझी है । जो फडफाड़ाती है, मुक्त होना चाहती है किन्तु उतना ही अधिक उलझ जाती है । उसकी उलझी हुई डोर मुझे जकड़े रहती है ।

अभिमन्यु को वो रात स्मृतियों में आज भी ठहरी प्रतीत होती है । वह कभी उससे अलग ही नहीं हुई, जैसे कि उसके वजूद के लिबास पर नक्शित हो । उन दिनों वह हॉस्टल में था । बुझे-बुझे पीलेपन में डूबी उस शाम से एक विचित्र अज्ञात-सा, आभासित, भय छलक रहा था । फिर उसी शाम उसकी अपने एक घनिष्ट मित्र से बात हुई । उसने संकुचित लय में बताया कि "तेरे पिताजी चले गये हैं ।" यह केवल बताना भर नहीं था । एक अस्वाभाविक सूचना थी जिसने उसके भीतर तूफ़ान ला दिया था । जो अपने साथ सब कुछ ले उड़ा था । अवशेषित था तो केवल सूना एकांत ।

माँ ने अब तक इस बारे में उसे कुछ भी क्यों नहीं बताया ? यह प्रश्न कितना विचित्र था और प्रतिउत्तर में उसने क्या-क्या सोच लिया था । शायद पढ़ाई में बाधा न आना इसका सहज कारण रहा हो या शायद उनके लौट आने की आस, कि जैसे सब कुछ पहले जैसा हो जायेगा । कितने अनगिनत ख्याल उसके मन में उमड़ पड़े थे । ख्यालों की रस्साकशी में उसे माँ का ध्यान आया । उस पल उसके ह्रदय से केवल एक ही आवाज़ निकली, माँ, ओह माँ, तुम कैसी होगी ? उसने निश्चय किया कि वह घर जायेगा ।

उस ठहरी, सुबकती रात को कब वह रेलगाड़ी में बैठा, उसे याद नहीं । वह स्वंय को उस अँधेरे बियावान जंगल में पाता जहाँ केवल उदासी में डूबी माँ की आत्मा नज़र आती और उनके कराहने के स्वर गूँजते । वह अपने कान बंद कर लेना चाहता किन्तु वे हर दीवार को भेदते हुए उस तक पहुँच जाते । वह तूफ़ान के बाद की तबाही के मंज़र को देखता । अपने घर की टूटी-गिरी दीवारों को टटोलता, चारों ओर चीखता, दौड़ता और गिर पड़ता । कभी उसे लगता कि सुर्ख, लाल, राक्षसी आँखें उसे घूर रही हैं और वो उनके सामने पिघलता जा रहा है ।

कब रात बीती और कैसे वह घर पहुँचा, उसे याद नहीं । उनींदी आँखों से राह के हर चेहरे को स्वंय पर हँसता पाता । लगता कि लोग पर्यावाचित प्रश्नों से उसे भ्रमित कर रहे हैं । कब ? कहाँ ? क्यों ? और कैसे ? एक क्षण तो लगा कि अपना सूटकेस फैंक वह चीखे, चिल्लाये और हर स्वर को शांत कर दे । फिर लगा जैसे उन चेहरों से दौड़ता हुआ वह घर जा पहुँचा है । उस घर में, जिसमें पिताजी कहीं नहीं ।

अँधेरे के विस्तार में डूबे उस कमरे में चार आँखें डबडबा रही थीं । ऐसे जैसे कि प्रश्न कर रही हों कि अब क्या होगा । उसे प्रतीत होता कि उसका कुछ भी कहना बाढ़ ला देगा । उन आँखों में क्रोध से अधिक भय था, उस आने वाले कल का, जिसमें पुराना कुछ भी शेष न था । यह क्रोध से पहले का समय था क्योंकि क्रोध वहाँ शुरू होता है जहाँ भय समाप्त होता है ।

अगले क्षणों में उसने माँ को स्वंय से लिपट कर रोते पाया । यह रोना फिर कई हफ़्तों तक जारी रहा । माँ और बहन अपने-अपने हिस्से का खूब रोयीं । उसने उन दोनों के साथ कभी अपना हिस्सा शामिल नहीं किया । वो जानता था कि उसका ऐसा करना उस उम्मीद को तोडना था जिसे माँ और तरुणा ने बचा कर रखा है ।

बाहरी दुनिया के लिए उसके पिताजी एक औरत के साथ फरार थे किन्तु अभिमन्यु के लिए वे उस अँधेरे जंगल में चले गए थे जिसके बारे में सोचने से डर लगता था । वे उस जंगल में खो सकते थे, बस सकते थे किन्तु लौट नहीं सकते थे ।

अभिमन्यु सोचता है । आदमी ऐसा करता क्यों है ? वह क्या है ? जिसके लिए वह यह सब कर गुजरता है । वासना ? नहीं, नहीं । सुख ? शायद हाँ, शायद नहीं । अकेलापन ? नहीं । लगाव ? नहीं । तो फिर प्रेम ? शायद हाँ, शायद नहीं । ऐसी कौन सी प्यास है जो बुझती नहीं ? जिसके लिए वह मारा-मारा फिरता है ।

फिर वह पिताजी को उन प्रश्नों से जोड़ कर देखता । क्या पिताजी वासना के लिए ऐसा कर सकते हैं ? नहीं । सुख के लिए ? दुखी तो वे यहाँ भी नहीं थे । अकेलापन ? उन्हें कौनसा अकेलापन था ? लगाव ? क्या हम से लगाव कम था ? तो फिर प्रेम ? शायद । फिर माँ का प्रेम ? क्या उसके कोई मानी नहीं ? क्या वह कम था ? उसे लगता कि वकील भी वो है और जज भी ।

माँ ने स्वंय को चाहरदीवारी में कैद कर लिया था । वे हँसती हुई प्रश्नात्मक आँखों का सामना नहीं करना चाहती थीं । जिनकी दिलचस्पी यह जानने में रहती कि उनका कुछ पता चला । कहाँ गए होंगे ? कहाँ रह रहे होंगे ? कैसे रह रहे होंगे ? जैसे प्रश्न शामिल रहते । जो दुहाई देतीं कि जो भी किया, उन्होंने अच्छा नहीं किया । यह बहुत बुरा हुआ । इतनी अच्छी बीवी और काबिल बच्चों को छोड़कर कोई जा सकता है भला । जो आत्मा को रुलाकर जाता है वो कभी सुखी नहीं रह सकता ।

अभिमन्यु के साथ कई दिनों तक यह बार-बार होता रहा । हर गली, हर मोड़, हर घर ने उसमें दिलचस्पी दिखाई । बार-बार दिखाई, कई बार दिखाई । उनके लिए यह दिलचस्प विषय था और उनकी दिलचस्पी एक लम्बे समय तक इसमें बनी रही । लोग राह चलते उसे रोक लेते और अपनी पवित्रता की महानता के बोझ तले अपना गुबार निकालते । वे बात की तह तक जाना चाहते कि अगर उन्होंने ऐसा किया तो क्यों किया ? बिन माँगी टिपण्णी करते "ऐसा करते हुए उन्हें शर्म न आयी । उन्होंने ज़रा भी न सोचा कि इसका क्या अंजाम होगा । बच्चों का क्या होगा ? बीवी का क्या होगा ?" इन बातों से लोग उसकी एक दुखती रग पर हाँथ नहीं रखते थे बल्कि उसकी सभी नसों को एक साथ चटका देते ।


माँ को विश्वास था कि पिताजी लौटेंगे । अपने विश्वास को जिंदा रखने के लिए वो तमाम पंडित, मौलवियों, बाबाओं और फकीरों के कहे को मानती रहीं । इसके लिए वे कहाँ-कहाँ न गयीं ? क्या-क्या न किया ? जादू-टोना, ज्योतिष, वास्तु दोष से लेकर उन्होंने व्रत, पूजा तक सब किया । पहले दिन बीते फिर महीने किन्तु उनमें से कोई भी असरदार साबित न हुआ । फिर माँ का विश्वास धीमे-धीमे धुंधलाता गया ।

तरुणा के अपने दुःख थे जिनका अभिमन्यु से कोई सरोकार न था । अभिमन्यु के लिए तो यह एक चक्रव्यूह की तरह था । जिसमें वह प्रवेश कर सकता था, लड़ सकता था किन्तु बाहर आने का उसे कोई रास्ता न सूझता । जब कभी वह तरुणा के बारे में सोचता तो उसे लगता कि माँ की तरह तरुणा की भी अपनी एक दुनिया होगी । जिसमें केवल वो ही रह सकती है और वो जानता था कि उसकी बनायी हुई दुनिया में झाँकने पर तरुणा को दुःख ही देगा । अतः वह उसे उसकी दुनिया में अकेले ही रहने देता ।

कभी-कभी माँ रात के किसी भी क्षण अचानक से उठ जाती और घंटों अँधेरे में डूबे घर के रिक्त स्थानों को देखा करती । ऐसा भ्रम होता जैसे बीते हुए समय में वहाँ कुछ था । जिसे पिताजी अपने साथ लेकर चले गए हैं । उसे दुःख और सुख में नहीं बाँटा जा सकता । वह अपने में सम्पूर्ण था । कुछ अज्ञान सा जिसकी चाबी केवल माँ के पास हो ।

अभिमन्यु और तरुणा जब कभी माँ को इस तरह बैठा हुआ पाते तो उन्हें भ्रम होता, क्या सचमुच वहाँ कुछ है ? जहाँ माँ घण्टों देखा करती है । जो कहाँ से शुरू होता और कहाँ ख़त्म, वे नहीं जानते थे । माँ, अभिमन्यु और तरुणा को देखकर पूंछती "शायद सुबह हो गयी ?" किन्तु अभिमन्यु को बाहर निपट अँधेरा नज़र आता । घर अँधेरे के विस्तार में डूबा प्रतीत होता । कई बार लगता कि जैसे माँ उनकी बातों को नहीं सुनतीं, सुनती हैं उस निर्भेद्य मौन को जो घर के भीतर फैला हुआ है ।

कभी-कभी माँ उठकर अकस्मात दूसरे कमरे में चली जाती, पुराने संदूक को खोलती और चीज़ों को एक-एक कर बाहर निकालतीं, मानो किसी भूली हुई चीज़ को तलाश कर रही हों । अकस्मात रुक जातीं और साडी के पल्लू से पिताजी की पुरानी तस्वीर के फ्रेम पर जमीं हुई धुल को साफ़ करतीं । बार-बार फ्रेम को साफ़ करते हुए विगत दिनों की स्मृतियों में खो जातीं ।

दिन बीतते रहे । अभिमन्यु हॉस्टल जाता और वापस आ जाता । फ़ोन पर माँ की आवाज़ सुनाई देती किन्तु माँ कहीं नहीं होती । माँ से यह कहना कि सब कुछ ठीक हो जायेगा, उसे यह बताना था कि कुछ भी ठीक नहीं । यह एक अजीब भय था जो अभिमन्यु को आ घेरता । माँ से कुछ भी न कह पाने की लाचारी उसे अजगर की तरह लीलती जाती ।

एक दिन माँ ने कहा "सब ठीक हो जायेगा" । यह एक सुख था जो कई महीनों बाद अभिमन्यु और तरुणा को प्राप्त हुआ था । माँ का स्वंय यह कहना एक तरह से उनका दुःख से लड़ना था । जिसे वे सुख में बदलकर अभिमन्यु और तरुणा को दे रही थीं । जैसे कि वे छलनी हों जो दुःख और सुख को अलग कर दुःख को अपने पास रख लेंगी और सुख उन्हें दे देंगीं ।

फिर एक दिन वह समय भी आ पहुँचा जब घर आर्थिक संकट से जूझने लगा । आय का कोई स्रोत न था । तंगहाली के दिनों में माँ और तरुणा ने सिलाई, कढाई और बुनाई का काम प्रारंभ कर दिया । उससे इतना हो जाता कि घर का खर्च और तरुणा की पढाई चल सके । उस दौर में अभिमन्यु कई बार सोचता कि वह किसी काम का नहीं । वह तो इतना भी नहीं कर सकता जितना तरुणा कर सकती है ।

वे गर्मियों की छुट्टियों के अंतिम दिन थे । अंतिम दिनों का समाप्त होना एक सहज सन्देश था कि अभिमन्यु को अपने अंतिम वर्ष की फीस का बंदोबस्त कर लेना चाहिए । सगे-सम्बन्धी बहुत पहले से अपने हाथ-पैर सिकोड़ चुके थे । भूलवश यदि सामना हो जाता तो वे अपने दुःख अलापना प्रारंभ कर देते । कहीं कोई सूरत नज़र नहीं आती । कई जगह हाथ-पैर मारने पर भी कुछ हासिल ना था ।

मदद के कहीं से कोई आसार नज़र नहीं आते और उधार उसे कोई किस संपत्ति पर देता ? जो परिचित, सगे सम्बन्धी एक-एक पाई का हिसाब रखने में अपना पूरा दिन जाया करते और अगर कहीं कोई पैसे फँसे होते तो उसके लिए फौजदारी तक कर आते, ऐसे लोगों से उधार तो दूर, उसके नाम पर वे दूर से सलाम कर जाएँ ।

अभिमन्यु रात को सोते महसूस करता कि उसका दम घुट रहा है । वह दलदल में फंसता जा रहा है । वह खुद को बाहर निकालने का प्रयत्न कर रहा है । कभी उसे लगता कि वह एक कुँए में गिर गया है, जो लगातार गहराता जा रहा है और जोर-जोर से आवाज़ देने पर भी कोई उसे निकालने के लिए नहीं आ रहा । उसमें गिरने से उसकी साँस रुक रही है, घ़ुट रही है । फिर जब अचानक से घबरा कर उठता तो खुद को पसीने से तर-बदर पाता ।

जब फीस के बंदोबस्त की कोई भी सूरत नज़र ना आई तब वह अपने पुराने मित्र के घर गया । वहाँ पहुँचने पर मालूम हुआ कि उसके पिताजी का तबादला किसी दूसरे शहर हो गया है । वह किसी भी दशा में उससे मिलना चाहता था । पड़ोसियों से मित्र का नया पता लेकर वह उसी रात की रेलगाड़ी से निकल गया ।

रास्ते भर उसे यह ख्याल आते कि जो यहाँ भी कुछ न हुआ तो ? यदि वह न मिला तो ? एक पीछा छोड़ता नहीं तब तक दूसरा आ धमकता है । जो अजीब सी, असमंजस की स्थिति में लाकर उसे खड़ा कर देते । फिर सभी निरर्थक ख्यालों को वह खुद से दूर छिटक देता है और खिड़की के बाहर झाँकने लगता । बाहर उसे केवल निपट अँधेरा दिखाई देता । ख्यालों के इन्हीं सायों तले उसने रात बिताई ।

बीते हुए दिनों में दोस्त के पिताजी ने कई पते बदले थे । नए शहर में कई स्थानों की ख़ाक छान लेने के बाद वह आखिरकार अगली रात को अपने मित्र के घर की देहरी पर पहुँच गया । अभिमन्यु को देखते ही उसका मित्र बेहद प्रसन्न हुआ । वह देहरी से ही हाथ पकड़ कर उसे भीतर ले गया । बैठते ही कई घनिष्ठ, पुरानी बातें छिड़ गयीं । स्नान और भोजन कर लेने के पश्चात, मध्य में बिखरे हुए मौन को तोड़ते हुए मित्र ने आने का कारण पूँछा । संकुचित मन से अभिमन्यु ने अपनी सम्पूर्ण व्यथा कही । इस बार अभिमन्यु निराश न हुआ । उसके मित्र ने ना जाने कहाँ से और कैसे फीस का बंदोबस्त कर दिया ।

हॉस्टल का अंतिम वर्ष जिंदगी का नया मोड़ था । जहाँ से उसे मंजिल तलाशनी थी, नए रास्ते बनाने थे । उस अंतिम वर्ष ने अभिमन्यु को जिंदगी का नया रूप दिखाया था । वह जानता था कि वो यूँ ही मर जाने के लिए पैदा नहीं हुआ । उसे कामयाबी अवश्य मिलेगी । दुःख उसके शरीर की पगडंडियों से गुजर जीवन रूपी ढलान से उतरता हुआ धीमे-धीमे समाप्त हो जायेगा ।

माँ के बाल पकने लगे थे जो बीते हुए दिनों की याद दिलाते थे । कभी-कभी आभास होता कि माँ के बालों का सम्बन्ध बीते दिनों से है । सब कुछ तो अभिमन्यु की आँखों के सामने बदल गया था, माँ के रूखे-सफ़ेद बाल, पतले, कमज़ोर हाथ और चेहरे पर असंख्य झुर्रियाँ । माँ के रूखे-सूखे बालों की कर्कशता घर के स्याह गाढे मौन को और बढाती । सुखद कुछ भी नहीं था । न बीते हुए विलापित, अँधेरे दिन और न ये ठहरी हुई कर्कशता ।

हॉस्टल के बाद हर नया दिन अभिमन्यु के लिए नयी समस्याएँ उपजाता और पीड़ादायी साबित होता । वह हर दिन उतना ही खाली और बेकारी के विस्तार में डूबा हुआ होता । कभी-कभी उसे लगता कि उसका अस्तित्व हवा में उड़ने वाले उस तिनके की तरह है जो बेवजह यहाँ-वहाँ भटकता रहता है । आखिरकार उसके जीवन की सार्थकता क्या है ? वह इन्हीं ख़यालों में डूबा सुबह से शाम, इधर-उधर नौकरी की तलाश में घूमता रहता ।

काम की तलाश, हताशा और अवसाद से भरे वे संघर्ष पूर्ण दिन इस कहानी का हिस्सा नहीं लगते । उनका अपना एक अलग अस्तित्व है जो किसी भी तरह यहाँ वर्णित नहीं हो सकता । जिनकी समाप्ति पर डेढ़ बरस बाद अभिमन्यु को नौकरी मिलना भी शामिल है । एक तरह से नौकरी संघर्षपूर्ण दिनों का प्रमाणपत्र है, जो जीवन पर्यंत स्मृतियों में सुरक्षित रहता है ।

नौकरी के बाद के दिनों में अभिमन्यु माँ से कई बार अपने साथ चलने के लिए कहता रहा किन्तु माँ ने तो जैसे उस घर से गाँठ ही बाँध ली हो । तरुणा साथ आना चाहती किन्तु माँ के बिना यह संभव न था । तरुणा पढाई का बहाना कर माँ के साथ ही रहती । कभी-कभी अभिमन्यु को लगता माँ ने इस घर में अपनी अलग ही दुनिया बसा ली है । जहाँ माँ है, तरुणा है और विस्तार लेती उदासी ।

पहले दिन बीते फिर महीने और कब तीन बरस हो गए, इसका हिसाब अभिमन्यु के पास न था । वो सोचता शायद माँ के पास बीते समय का हिसाब होगा । जिसे उन्होंने क्षणों में जिया था । शायद तरुणा ने भी कुछ गिनती की हो । उनके बहीखातों के अपने-अपने पैमाने होंगे । जिनमें कब कौनसा क्षण जोड़ना है यह केवल वे ही जानती होंगी ।

छुट्टी की एक रात अपने रेंगते अकेलेपन को दूर छिटकते हुए तरुणा ने कहा था
-"भैया तुमने देखा है ?
-क्या ?
-यही कि माँ के भीतर एक रीतापन जन्म लेने लगा है ।
-"रीतापन ?" उसे लगा कि वह नींद से जाग गया है ।

तब उस क्षण उसने माँ को ऐसे महसूस किया जैसे वे घर का एकांत कोना हों । जहाँ केवल उसका अपना अस्तित्व है । सूना और उदासी में डूबा हुआ । जो दिन भर उदास रहता है और रात होते ही अन्धकार में डूब जाता है ।

उन दिनों अभिमन्यु ने पहली बार देखा कि माँ के अन्दर सब कुछ ख़त्म हो गया था । क्रोध, मोह, भय और पीड़ा जैसा कुछ भी, कहीं न था । था तो केवल, निपट अकेलापन । अकेलापन जो भीतर पनपता है और जिसे बाहर कोई नहीं देख सकता । इंसान के होने और न होने के मध्य पसरा हुआ । मृत्यु पश्चात के अकेलेपन से भी भयावह होता है यह, क्योंकि तब स्मृतियों से प्रेम और मोह जुड़ा रहता है ।

अभिमन्यु ने माँ से कई बार कहा कि वे उसके साथ चलकर रहे, किन्तु वे हर बार मना कर देतीं । अभिमन्यु हर बार की तरह थक हार कर नौकरी पर वापिस चला जाता । कभी-कभी वह भीतर ही भीतर उनके इस व्यवहार से खीज भी जाता किन्तु उससे होता कुछ भी नहीं । न पहले और न बाद में ।

उन दिनों सगे-सम्बंधियों ने माँ के दुःख में एक नया दुःख यह जोड़ दिया था, कि लड़की बड़ी हो गयी है और उसकी शादी कैसे होगी ? बाप के गुण क्या छिपे रहेंगे । अगर कहीं रिश्ता ले भी गए तो कोई क्या ख़ाक चुप रहेगा ? तमाम हैं बेवजह दूसरों के घरों में आग लगाकर हाँथ सकने वाले । किस-किस का मुँह पकड़ोगी । कई अपनी बेबाक राय देते और कई अफ़सोस जाहिर करते । कोई स्वंय ही इस मामले को प्रारंभ कर दया दिखाता, तो कोई आश्वासन देता ।

इसी तरह दिन, महीने और बरस बीतते गए । उन्हीं दिनों में तरुणा के लिए विवाह का प्रस्ताव आया । तरुणा और वो लड़का एक दूसरे से प्रेम करते थे । लड़का नौकरी करता था और अच्छे घर से था । अभिमन्यु ने तरुणा के विवाह के लिए हामी भर दी । विदाई के समय तरुणा अपने अन्दर का पूरा रोई । जाते हुए उसने माँ को बहुत कहा कि वे भैया के साथ चली जाएँ । तरुणा के विदा हो जाने पर, क्षण-भर के लिए भी उस उजाड़ अकेले घर में रहना दूभर लगता । तरुणा विदा हो गयी और अभिमन्यु नौकरी पर चला गया किन्तु माँ ने वह घर नहीं छोड़ा ।

उसके बाद के दिनों में भी तरुणा और उसके पति ने उन्हें अपने साथ चलने के लिए कहा किन्तु वे न गयीं । अभिमन्यु और तरुणा के सभी प्रयास विफल रहे । वे दोनों जान चुके थे कि माँ घर नहीं छोड़ेगी, किन्तु फिर भी माँ को वहाँ से ले जाना चाहते । अभिमन्यु सोच कर भी काँप जाता कि कोई कैसे इस उजाड़ घर में अपने अकेलेपन को काट सकता है ।

नौकरी के सिलसिले में अभिमन्यु ने कई शहर बदले । दिन बदले, ऋतुएँ बदली, कलैंडर बदले ।

फिर एक दिन तरुणा की शादी के कोई दो-तीन बरस बाद अभिमन्यु को एक फ़ोन आया । फ़ोन दूर के चाचा जी का था और उनका उतावलापन जता रहा था कि अवश्य कुछ घटित हुआ है । जब उन्होंने पूँछा, कैसे हो ? तो न जाने क्यों अभिमन्यु को विश्वास हो गया कि अवश्य कोई सूचना देने के लिए उसे फ़ोन किया है । कई भयावह विचार उसके मस्तिष्क में धीरे-धीर रेंगने लगे । अभिमन्यु जानता था कि हाल-चाल लेना उनकी फितरत में शामिल न था ।

अभिमन्यु का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा और उससे रहा न गया । उसने पूँछ ही लिया क्यों ? क्या बात है ? उन्होंने जब यह कहा कि "तुम्हारे पिताजी अब नहीं रहे ।" अभिमन्यु का दिल न जाने क्यों शांत सा हो गया । उस क्षण उसे लगा ही नहीं कि उसके कोई पिताजी भी थे, जो अब नहीं रहे । उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह उस क्षण क्या सोचे । जब उसने स्मृतियों को खंगाला तो उसमें पिताजी कहीं भी न थे । वह स्थान माँ के सूने एकांत की तरह रिक्त था । एक अजीब सी लाचारी ने आकर उसे घेर लिया । उसे पिताजी याद करने पर भी याद नहीं आये । वह चाहकर भी दुखी न हो पाया ।

चाचा जी फ़ोन पर तब तक पिताजी का अतीत सुना चुके थे । जिसमें उनके फरार होने से लेकर अगले दो बरस बाद उस औरत का उन्हें छोड़ कहीं और चले जाना शामिल था । उसके बाद के दिनों में शराब, बेकारी और लाचारी ने उनकी जान ले ली । वे चाहकर भी कभी न लौट सके । वे जानते थे कि लौट सकने के लिए उन्होंने पीछे कुछ नहीं छोड़ा था । आज उनकी अनिच्छा के बावजूद उनका शरीर पुनः उसी घर में पहुँच गया था जिसे उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा ।

अभिमन्यु जब घर पहुँचा तो राह की हर आँख उसे ही देखती । किसी में कोई प्रश्न नहीं और न ही किसी में बीता हुआ कल । बीते हुए समय के साथ सब जाता रहा था । सगे सम्बन्धियों और पड़ोसियों से घर भरा हुआ था । तमाम अंजान चेहरे उदास और दुखी थे । औरते चीख-चीख कर रो रही थीं । न जाने उन्होंने क्या खोया था ? जिसका उन्हें इतना दुख था ।

सबसे पहले उसकी नज़र तरुणा पर गयी, वो सिसकियाँ ले रही थी । शायद उसके भीतर अभी भी आँसू बचे हुए थे जो उसने आज के लिए सुरक्षित रखे थे । उसकी आँखें लाल थीं और मालूम होता था कि वह अपने हिस्से का रो चुकी है । अभिमन्यु ने आज भी अपना हिस्सा तरुणा के साथ शामिल नहीं किया ।

अभिमन्यु की आँखें माँ को तलाश कर रही थीं । माँ चुप सी कहीं खोयी हुई बैठी थी । उनके पास बैठी हुई औरते शोर करती हुईं आँसू बहा रही थीं । वे माँ को बार-बार हिला रही थीं किन्तु माँ खामोश थी । उसे लगा माँ न जाने किस दुनिया में चली गयी है या शायद अपनी बसाई हुई दुनिया की देहरी के उस पार खड़ी है । उसका मन किया कि वो उस देहरी पर खड़ा हो चिल्लाये "देख माँ पिताजी लौट आये" और माँ भीतर से दौड़ती हुई आये । उस देहरी को पार कर पिताजी के गले लग जाए ।

अभिमन्यु जब माँ के पास बैठ गया और कुछ देर में अर्थी ले जाने की तैयारी होने लगी । तब माँ चीखी और उनके अन्दर का जमा अकेलापन फूट-फूट कर बाहर आने लगा । वे अभिमन्यु के गले से लिपट बीता हुआ पूरा रोयीं । उस क्षण अभिमन्यु ने माँ के साथ अपना हिस्सा शामिल कर लिया था ।

माँ का शोक उस दिन पूरा हुआ, जिसे वे बीते कई बरसों से खुद में शामिल किये हुई थीं । उस दिन माँ ने फिर से दुःख और प्रेम को महसूस किया था । उस दिन इतने बरसों बाद वे पिताजी से अलग हुईं थीं । पिताजी की अर्थी को लोग ले जा रहे थे । अभिमन्यु साथ-साथ चला जा रहा था ।

वो शोक का अंतिम दिन था...

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