tag:blogger.com,1999:blog-86811889575762978052024-03-08T18:13:53.599+05:30मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्तिअनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.comBlogger237125tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-52151962236501426342015-09-20T01:00:00.000+05:302015-09-20T01:00:13.182+05:30वक़्त इरेज़र है तो परमानेंट मार्कर भी ।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
लाख कोशिशों के बावजूद भी आगरा की वो सरकारी पुलिस कॉलोनी मेरे ज़ेहन से नहीं जाती । और उस कॉलोनी का क्वार्टर नंबर सी-75 मेरे बचपन रुपी डायरी के हर पन्ने पर दर्ज़ है ।<br />
<br />
फलांग भर की दूरी पर हुआ करती सरकारी अस्पताल कॉलोनी । उनके क़्वार्टरों की छतों से हमारे आँगन दिखा करते और हमारी छतों से उनके । और जो बीच की एक डिवाइडर दीवार खड़ी रहती वह तो दृश्य से सदैव ही अदृश्य सी बनी रहती । कभी लगता ही नहीं कि बीच में कहीं कोई एक दीवार भी है बरसों से ।<br />
<br />
दीवार के एक हिस्से से आने जाने का रास्ता बना हुआ था । हम यहां से वहाँ और वे वहाँ से यहां बेरोकटोक आया जाया करते । दोस्तियां, यारियाँ खूब पनपतीं और चलती ही रहतीं । बाद के दिनों में बड़े हो जाने और शायद थोडी बहुत समझ के विस्तार से यह ज्ञान भी प्राप्त हुआ कि मोहब्बतें, इश्क़, प्यार का भी भरपूर आदान प्रदान हुआ ।<br />
<br />
तब छतें सर्दियों की धुप सेंकने के काम में आया करतीं और आँगन का भी जब तब इस्तेमाल हो जाया करता । उन छतों पर से ही मोहब्बतें पैदा होतीं । उनमें दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की हुआ करती और फिर उनकी खुशबू हवाओं को महकाया करती ।<br />
<br />
उन्हीं दिनों में एक ही कॉलोनी का लव मैरिज किया हुआ जोड़ा बड़ों के लिए चर्चा और किशोरों के लिए रश्क़ का विषय हुआ करता । तीसरी मंज़िल पर मायका और पहली मंज़िल ससुराल । बड़ा ही दिलचस्प लगा करता ।<br />
<br />
कुछ क्रिकेट के किस्सों में उलझे रहते तो कुछ इश्क़ की पेचीदगियों में । तब ना तो एमटीवी हुआ करता और नाही इश्क़ लव मोहब्बत के होने और न होने के लिए टीवी, रेडियो के चैनल बदलता यूथ । सुबहें शुरू होतीं । जो दोपहरों से गुजरती हुई शामों से जा मिलतीं । इन सबके मध्य में पसरा होता बच्चों, किशोरों का साम्राज्य । दिन क्रिकेट, महाभारत, जंगल जंगल बात चली है पता चला है चड्डी पहन के फूल खिला है या श्रीकृष्णा या शक्तिमान, चित्रहार, रंगोली या शनिवार रविवार की फिल्मों में मजे मजे में काट जाता ।<br />
<br />
स्मृतियाँ रचती हैं एक अपना ही संसार । हम यात्रा करते हैं, जीते हैं उन स्मृतियों को । और बचपन लगने लगता है अपने जिए हुए समय का सबसे बेहतरीन हिस्सा ।<br />
<br />
पहली मोहब्बत, बचपन, उनमें पकडे गए हाथ हम चाहकर भी नहीं छुड़ा पाते । वे हाथ हर बार ही हमें ले जाते हैं उन्हीं गलियों में । खेतों में, खलिहानों में । गाँवों में क़स्बों में और उनमें बसी हुई उन कॉलोनियों में जहां अब भी बसा हुआ है हमारा बचपन । क्रिकेट का बैट पकडे या कोई गेंद फैंकता सा बचपन । छत पर खड़ा पतंग उड़ाता बचपन । कंचों को हाथों में थामें निशाना बाँधती वो आँख । छतों से आँगन में निहारती वो महबूब की मोहब्बत भरी नज़र । सर्दियों की गुनगुनी धूप में अपनी गुलाबी रंगत को बढ़ाती पहली मोहब्बत । वो महबूबा । वो यार जो साइकिल से लगाया करता था रेस ।<br />
<br />
वक़्त इरेज़र है तो एक परमानेंट मार्कर भी ।</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-50947326022006233882015-09-18T23:39:00.001+05:302015-09-18T23:39:47.434+05:30मोहब्बत तुम यूँ ही खिलते रहना । महकते रहना ।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तब तपती दोपहरें हुआ करतीं । दिन लंबे हो जाया करते । धूप हर वक़्त चिढ़ी चिढ़ी सी रहती । शायद एकाएक बढ़ गए तापमान से तालमेल ना बिठा पाने के कारण उसके साथ एक चिड़चिड़ापन आ जुड़ता. मैं तब रेलवे के उस क्वार्टर में किताबों में जी बहलाने के हज़ारों-लाखों प्रयत्न किया करता । कुछ पृष्ठ पढ़ लेने के बाद निगाहें बार बार सिरहाने पड़े फ़ोन पर चली जाया करतीं । मन में प्रतीक्षा की सुइयों का टिकटिकाना तेज़ होता चला जाता । हर बार फ़ोन को खोल देखता कि कहीं कोई मैसेज या मिस्ड कॉल तो नहीं । किन्तु वो ना हुआ करती और हर दफ़ा ही ऐसा हुआ करता ।<br />
<br />
दोपहरें लंबी और उबाऊ हो जाया करतीं । फिर किसी बेहद मोहब्बत भरे क्षण में उसका कोई मैसेज आ जाया करता । तब लगता ही नहीं कि मैं यहाँ इस किराये के क्वार्टर में जून की किसी ऊबती दोपहर को खर्च कर रहा हूँ । तब लगता कि मैं उसके साथ हूँ । वो मेरे साथ है । ये मोहब्बत से भरे दिन हैं । जिनमें मैं जी रहा हूँ ।<br />
<br />
कभी कभी वो अपने परिवार के लोगों से छुपते छुपाते कोई कॉल कर दिया करती । वो 2-4 मिनट की बात भी लगता कि जीने के लिए नई वजहें दे गयी है । उन मुश्किल भरे दिनों में कभी कभी हमारी मिलने की अंतहीन कोशिशों में कोई कोशिश कामयाब दिखती तो लगता कि जीवन खुशियों का समंदर है ।<br />
<br />
इधर उधर उगी बबूल की झाड़ियों के बीच से निकलने वाले उस कच्चे रास्ते से जुडी हैं तमाम यादें. साथ चलते हुए खिलती थीं तुम्हारी मुस्कराहट की कलियाँ. और फिर वे फूल बन हर रोज़ ही मुझे मिलते उस राह पर.<br />
<br />
नेशनल हाईवे नंबर दो पर खड़ा मैं तुम्हारे आने की प्रतीक्षा में तका करता हर उस ऑटो को जो आया करता तुम्हारी ओर से. प्रत्येक क्षण में मैं जीता स्मृतियों के संसार को. भावनाओं का समंदर मुझे बार बार ही आ भिगोता. और जब तक तुम आ न जाया करतीं मैं देखता रहता उस नेशनल हाईवे पर आने जाने वाले हर उस ऑटो को जिसमें तुम मुझे ना दिखा करतीं.<br />
<br />
तुम्हारा आना, ऑटो का रुकना और तुम्हारी मुस्कराहट के संसार में मेरा शामिल हो जाना. वे क्षण स्मृतियों के धरातल पर हर दिन ही एक नया पौधा अंकुरित कर देते हैं । हर दिन ही खिलते हैं उनमें मोहब्बत के रंग बिरंगे फूल ।<br />
<br />
मोहब्बत तुम यूँ ही खिलते रहना । महकते रहना ।</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-92053975305189915282015-09-05T11:42:00.001+05:302015-09-05T11:42:57.719+05:30शिक्षक दिवस <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
शिक्षक दिवस के आने पर बधाईयों का ढेर लग जायेगा.बधाइयां देने और लेने
का यह खेल खूब चलेगा. कुछ लोग अपने शिक्षकों की याद में पोस्ट लिखेंगे. कुछ
तस्वीरें लगाएंगे. कोई बुराई करेगा. कोई प्रशंसा करेगा. यह क्रम चलता ही
रहेगा.<br />
<br />
असल में हम सबने शिक्षकों के साथ ढ़ेर सारे सपने और ढ़ेर सारी
आशाएँ जोड़ रखी हैं. और हम उनमें कोई कमी नहीं होने देना चाहते बल्कि उनमें
दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि ही होती जाती है. हमने शिक्षा पद्धिति बदली, मार्किंग सिस्टम से ग्रेडिंग सिस्टम पर आ गए. विद्यालयों का मॉडर<span class="text_exposed_show">्नाइजेशन
हो गया. ड्रेस का, किताबों का, लंच बॉक्स का, पेन-पेन्सिल का सभी का
मॉडर्नाइजेशन होता ही जा रहा है या किया जा रहा है. फीस वृद्धि और उससे
जुड़े अन्य मसलों के मॉडर्नाइजेशन की तो आप बात छोड़ ही दें. उसमें तो हम
सबके बाप बनते जा रहे हैं.</span><br />
<br />
<div class="text_exposed_show">
असल में होना क्या चाहिए? क्या हमने शिक्षक से जुडी जरुरी बातों पर ध्यान
दिया. शिक्षक के विकास, उसके अपने शैक्षिक स्तर में विकास के बारे में हम
कभी कोई बात ही नहीं करते. उसके क्रमिक विकास से जुड़ी ट्रेनिंग्स, पढ़ाने के
अलग अलग और नए तरीकों की ट्रेनिंग, उससे जुडी जानकारियों से सम्बंधित कहीं
कोई बात ही नहीं होती. यदि कहीं कुछ ट्रेनिंग्स हैं भी तो वे
खानापूर्ति ही सिद्ध होती हैं. अच्छे शिक्षाविदों का बहुत बड़ा आभाव है
हमारे देश में और वह बीतते दिनों में बड़ा ही है. सकारात्मक वृद्धि की बात
तो छोड़ ही दें.<br />
<br />
असल में एक अच्छी शिक्षा पद्धिति और उसके
क्रियान्वयन के लिए अच्छे शिक्षकों का होना बहुत आवश्यक है. हमें इसीलिए
अन्य मॉडर्नाइजेशन की बातों से पहले शिक्षकों के विकास, उनकी अपनी
ट्रेनिंग्स और बेहतर भविष्य के बारे में बात करनी होगी और उसके बारे में
ज़मीनी तौर पर कुछ करना होगा. अन्यथा इन तमाम मॉडर्नाइजेशन के बावजूद हम
अपने देश की शिक्षा व्यवस्था में समन्वय बनाने में पिछड़ते चले जायेंगे.<br />
<br />
फिर एक शिक्षक दिवस बीतेगा और हम आने वाले शिक्षक दिवस को हर्षोल्लास से
मनाने की योजनाओं पर मीटिंग्स कर, शामियाने का हिसाब चुकता करके, स्पीकर्स
और कुर्सियों को वापस पहुँचाने के काम में स्वंय को व्यस्त कर लेंगे.</div>
</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-30980984371196767462015-08-30T00:08:00.004+05:302015-08-30T12:51:40.080+05:30स्मृतियों में बचा रहेगा शहर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अपना क्या है?<br />
वो शहर या गाँव जहाँ पैदा हुआ और फिर जिसे पीछे छोड़ शहर में जा बसा मेरा भरा पूरा परिवार. या वो शहर जहाँ पिता साथ ले आये थे माँ, भाई और बहन के साथ. जहाँ पला बढ़ा, अपनी स्कूल ख़त्म की. या वो बाद का शहर जहाँ मैं अपने परिवार के साथ फिर से जा बसा और अपनी किशोरावस्था से युवावस्था की ओर चलते चले जाने वाले रस्ते पर भटकते हुए संभला. या वो शहर जहाँ अपना प्रोफेशनल कोर्स करने जा बसा और अपने तीन बरस बिताये. फिर बाद के बरसों में जहाँ ज़िन्दगी को जीने लायक बनाने के लिए संघर्ष करने के लिए जा पहुँचा वो बड़ा शहर. जहाँ भाग दौड़ मची रहती है. और जिस शहर से वापस में फिर से एक छोटे शहर जा पहुँचा ये सोच कि कम स कम वहां दो वक़्त की रोटी का इंतेज़ाम तो है. या ये शहर जहाँ आज में बिस्तर पर लेटा हुआ अपने बीत गए दिनों को सोच रहा हूँ.<br />
<br />
आखिर अपना है क्या? वो बीत गया वक़्त जो अलग अलग शहरों में बंटा हैं. जिसके साथ बहुत से दुःख और कुछ सुख जुड़े हुए हैं. या वे चेहरे जो मिले और पीछे छूटते चले गए, उनके अपने अपने शहरों में. वो दोस्ती के किस्से, वो आरामतलबियां, वो ठहाके, वो उनका बुरे वक़्त में साथ न देना या कुछ भले चेहरों का आगे बढ़ गले लगा लेना.<br />
<br />
वो हर शहर के साथ चिपकी माँ की याद, भाई बहन के साथ बिताये वक़्त की थपकियाँ या अपने इश्क़ की मीठी बातें-मुलाकातें.<br />
<br />
बहुत कुछ है समेटने के लिए, कहने के लिए और ये किस्सा यूँ ही चलता ही रहता है. एक तितली मन के आँगन के फूलों पर बार बार आती है और मैं हर बार ही विस्मय बोध से भर जाता हूँ. मेरे भीतर का रिक्त पड़ा संसार किसी पुराने दृश्य से बार बार भर उठता है. कोई पुराना बचपन का राग स्मृतियों में बज उठता है.<br />
<br />
और बीत गए शहर हर दफा ही मेरे सामने आ खड़े होते हैं. कोई चौराहा, कोई किसी शहर की दुकान, किसी बस या ऑटो की सीट पर बैठा मैं, किसी शहर की दीवार पर लगे फिल्मों के पोस्टर, किसी शहर के ठेले पर खड़ा बिरयानी खाता मैं, या किसी दुसरे शहर के किसी ठेले पर खड़ा छोले कुल्चे खा दिन का कोटा पूरा कर महीने को हाथों में समेटता मैं, किसी शहर के ढाबे में बैठा रूखे तंदूरी आलू परांठे खाता मैं.<br />
<br />
किसी शहर में अपनी सरकारी नौकरी की खबर पाकर शाम के समय में झूमता मैं या अपने प्रोफेशनल दोस्तों द्वारा उनके किराये के कमरों से निकाल दिया गया रात के अँधेरे में खड़ा मायूसी में डूबा मैं.<br />
<br />
असल में सब कुछ ही तो अपना है. कुछ कुछ हिस्सा हर शहर ने, हर ख़ुशी ने, हर गम ने स्मृतियों में ले रखा है. स्मृतियों का एक अपना संसार है. हम उसमें कुछ भी घटा बढ़ा नहीं सकते. मैं उसमें बसने वाले दुखों से पीछा नहीं छुड़ा सकता. मैं जब तब सामने आ खड़े होने वाले सुखों की लहरों से खुद को भिगोने से नहीं रोक सकता.<br />
<br />
शहर दर शहर, हम असल में फ़िल्टर होते चले जाते हैं. हर शहर हम में से कुछ निचोड़ लेता है. शायद इंसान होते रहना ही बचा रह जाता है. यदि हम में बची रह गयी है चेतना तो हम खुद को थोडा बचा कर रख पाते हैं. और इन्हीं सब में कहीं बचा रह जाता है शहर थोडा थोडा. बचपन के पैदा हुए शहर से लेकर हमारे आज के शहर तक.</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-21840031654317578762015-08-23T08:43:00.001+05:302015-08-26T12:27:38.835+05:30क्रूरता (कहानी)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
पिछले सालों से खेती में उसे कुछ भी नहीं दिख रहा था और कर्ज़ पर क़र्ज़ का बोझ चढ़ता ही चला जा<br />
रहा था. और जो मुट्ठी भर अरमान थे वे सब पानी की तरह बह गए थे. आप समझते हैं कि गाँव के<br />
आदमी के कितने मामूली अरमान होते हैं. और उसे मिलता क्या था कभी रोटी है तो सब्जी नहीं और<br />
सब्जी है तो रोटी नहीं. तो उसने इस बरस सोच लिया था कि अब शहर जाना है. जहाँ कोई काम ढूँढ कर वो अपने परिवार का गुजारा कर लेगा. और वह अपनी पत्नी के साथ शहर चला आया था.<br />
<br />
देश में जहाँ देखो वहां विकास की बातें हो रही थीं. समाचार चैनल, पत्र-पत्रिकाएं, टीवी की बहसें सभी<br />
जगह विकास होता ही चला जा रहा था. मुट्ठी भर लोग बाकी के बचे लोगों की खातिर किसी भी क़ीमत पर विकास लाना चाहते थे. और काफी हद तक वे इसमें कामयाब होते जा रहे थे. देश के विकास के लिए बाहर कम्पनियाँ खोलने की अनुमति ली जा रही थीं, बैंकों को आदेश थे कि विकास की खातिर उन<br />
चन्द मुट्ठी भर लोगों को कम से कम ब्याज़ पर ऋण दिया जाय और यदि पुराना बकाया कोई है तो<br />
उसे माफ़ कर दिया जाय. हर संभव कोशिशें की जा रही थीं कि देश को उसके पिछड़ेपन से आज़ादी मिल सके.<br />
<br />
आप जानते हैं कि दोपहरें जब शाम बनकर बीत जाती हैं, तब रात के अँधेरे में बनाये जाते हैं उस<br />
विकास के रोड मैप और वे उँगलियों पर गिने जा सकने वाले लोग हमारे देश में नियमों को तोड़ते हैं,<br />
मरोड़ते हैं और सुबह के उजाले में की जाती हैं उन पर बहसें और वे तब तक चलती हैं, जब तक झूठ को सच और सच को झूठ होता हुआ महसूस न करा दिया जाए. टीवी आपको दिन भर परोसता रहता है<br />
पहले से तय की गयी योजनाएं. अख़बार के मुख्य पृष्ठ भर दिए जाते हैं उन विकास के रोड मैपों से.<br />
बाकी के बचे हुए लोग देखते हैं, सुनते हैं और फिर किसी एक दिन वही सच लगने लगता है जो बीते<br />
दिनों से आपको परोसा जाता रहा था.<br />
<br />
वह पत्नी के साथ शहर चला तो आया था लेकिन उसे खुद नहीं पता था कि आखिर उसे करना क्या है जिससे कि वह अपना, अपनी बीवी का और गाँव में रह रहे परिवार का पेट भर सके. शहर के ही एक<br />
बहुत ही पुराने, मैले और सस्ते हिस्से में उसने अपने रहने का अस्थायी बंदोबस्त किया था. और अगर उसे यहाँ टिके रहना था तो उसके लिए उसे जल्द से जल्द कोई काम पकड़ना था. नहीं तो उसे देश में<br />
जल्द से जल्द हो जाने वाला विकास टिके नहीं रहने देगा.<br />
<br />
उसने हर नए दिन में कोशिशें कीं और हर बार ही वह थका हारा लौटता. शहर में सब कुछ था. ऊँची ऊँची इमारतें थीं, उनमें ऊँची ऊँची ईएमआई भर कर रहने वाले लोग थे. उन तक पहुँचने के लिए ईएमआई<br />
पर ही ली हुई कारें थीं. जिनमें बैठा हुआ जीवन सड़क पर चलने वाले को विकसित और सुखद लगता था. रेस्त्रां थे, बार थे, उनमें नाचने-गाने वालियां थीं. कुछ मर्ज़ी से तो कुछ बिना मर्ज़ी के उस शहर की दौड़ में बने रहने के लिए उनमें आते-जाते थे. पक्के विकास के प्लान पर बनी कच्ची पक्की सड़कें थीं.<br />
उन पर चलने वाली कुछ सरकारी और बहुत सी गैर सरकारी बसें थीं, गाड़ियाँ थीं. चौराहे पर चमकती लाल पीली हरी बत्तियां थीं. जो लोगों को रोक कर उन्हें सुरक्षित रखना चाहती थीं लेकिन लोग न जाने किस दौड़ में दौड़े जाने के लिए आतुर थे. सड़कों के इधर उधर लगे बड़े-बड़े बैनर थे. नयी-नयी वेल प्लांड कॉलोनियां, जिनमें विला, 2 बैडरूम, 3 बैडरूम फ्लैट के बेतहाशा विज्ञापन थे. उसके नीचे ठेले पर सोता नंगे बदन आदमी था. बगल से बहती कच्ची पक्की नाली थी. आगे चल कर शराब के नशे में सड़क के किनारे पड़ा आदमी था. जगमगाती रौशनी के साथ खुली हुयी अंग्रेजी शराब के ठेके की दुकान थी.<br />
सड़क पर बने हुए जगह-जगह लोकल बस स्टॉप थे. उनमें से ही किसी बस स्टॉप की स्टील की बैंच पर सोता कोई भिखारी था. जो दिन भर भीख माँग कर थका मांदा वहां पड़ा हुआ था और जिसे सुबह उठकर फिर से वही प्रक्रिया दोहरानी होगी. कल सुबह उसे फिर से दयनीय से दयनीय होने की एक्टिंग करनी होगी. कहीं कहीं आयुर्वेदिक जड़ी बूटी का बोर्ड बाहर लगा, तम्बू गाड़े उसमें सोता आठ दस लोगों का<br />
परिवार था.<br />
<br />
फिर एक दिन उसकी आशाओं में पंख लगाने वाली उसकी पत्नी ने एक काम खोज निकाला था. उसने घरों में झाड़ू पौंछा का काम खोज लिया था. जो उसे पास में ही रहने वाली सुनीता ने दिलवाया था. वो<br />
खुद भी बीते कई सालों से ये काम कर रही थी. जिन घरों में वो काम करती थी उन्हीं घरों में रहने वाली मालकिनो ने उससे किसी नयी काम वाली के लिए पूँछा था कि उनकी सहेलियों के घरों में काम करने वाली औरत ने काम छोड़ दिया है. और उन्हें नई काम वाली की जरुरत है. तब सुनीता ने उसे उन घरों में लगवा दिया था.<br />
<br />
जब 2-3 महीने इसी तरह जैसे तैसे गुजर बसर करके बीत चुके थे तब उसे एक मॉल के बाहर चौकीदारी करने का काम मिल गया. ड्यूटी शाम के 8 बजे से सुबह के 8 बजे तक की थी और तनख़्वाह 4 हज़ार.<br />
उसने उसके लिए बिना सोचे समझे एक पल बिना गवाए हामी भर दी थी. वैसे भी वह पिछले बीते<br />
महीनों से बिलकुल बेरोज़गार था. ऐसा बेरोज़गार जिस पर पहले से भी कभी कोई काम नहीं रहा था.<br />
और उसे शहर में टिके रहना था. आप समझते हैं कि विकसित होते शहर में टिके रहने के लिए आप पर स्वंय को विकासशील बनाये रखने का बोझ बढ़ता ही चला जाता है. आप ऐसी जगह खड़े होते हैं जहाँ से आप पीछे वापस नहीं लौट सकते. आप अपना अतीत छोड़ कर ही वर्तमान की जगह पर खड़े हुए थे और आपको वहां से आगे बढ़ना ही होता है. नहीं तो आप जहाँ खड़े हैं वहां तक पहुँचने के लिए आपको कोई धक्का देकर स्वंय को वहां खड़ा कर लेता है.<br />
<br />
जिस मॉल में उसने चौकीदारी की नौकरी पकड़ी थी, उसी से कुछ दूर हटकर एक चाय, बीड़ी, गुटखा,<br />
सिगरेट, पान, कोल्ड ड्रिंक, आलू के परांठे बेचने वाले की ढाबे की शक्ल की दुकान थी. जिसे ना तो आप पूरी तरह ढाबा कह सकते और नाहीं एक पूरी दुकान. उसी ढाबेनुमा दुकान पर मॉल के भीतर काम करने वाले लड़के और कभी-कभी लड़कियां चाय, सिगरेट पीने या परांठा खाने या ज्यादा हुआ तो पानी के<br />
पाउच खरीदने चले आते थे. वही पानी जो मॉल के अंदर बने रेस्टोरेंट के अंदर 25 रुपये का मिलता था, उसी प्यास को वे बाहर आकर एक रुपये में बुझा लेते थे. वहां एक छोटा सा टीवी भी दीवार पर टँगा हुआ था. जिस पर कभी गाने, कभी क्रिकेट, कभी समाचार, कभी आधी अधूरी फिल्में चला करती थीं. और<br />
वहां बैठे लोग अपना जी बहला लिया करते.<br />
<br />
उसने भी वहां बैठ अपनी ड्यूटी से पहले का समय काटना शुरू कर दिया था. मॉल के साथ ही कारों,<br />
मोटर साइकिलों की पार्किंग थी और उसे बताना होता था कि गाडी वहां पार्क कर दीजिए. या कभी कभी मॉल के अंदर से या बाहर से मॉल के अंदर माल पहुँचाने वाली गाड़ियाँ आ खड़ी होती थीं. रात के 12 - 01 बजे तक का समय शहर की जगमगाती रौशनी में कट जाता था. मुश्किल होता था तो उसके बाद का समय. हालांकि वह बीच बीच में सुस्ता लेता था लेकिन फिर भी आप जानते हैं कि रात का एक अपना नशा होता है. गरीब के लिए भी उतना और अमीर के लिए भी उतना. विकसित और अविकसित सभी के लिए रात वही नशा लेकर आती है.<br />
<br />
हालांकि उसे रात को जागने के अपने पुराने अनुभव थे जब वो रात को अपने खेतों में पानी लगाया<br />
करता था. उसके गाँव में देर रात से बिजली आया करती थी और तब अलग अलग रातों में अलग अलग खेतों के मालिक अपने खेतों में खड़ी फसलों में पानी लगाया करते थे.<br />
<br />
<br />
खेतों में लगाया जाने वाला पानी भी क़र्ज़ पर लगाया जाता था और उसको चुकाने के लिए फसल के<br />
बिकने तक की मियाद दी जाती थी. फिर वह क़र्ज़ हर बरस दिन दूना, रात चौगुना बढ़ता चला जाता था और फसलें कभी सूखे में, कभी बाढ़ में, कभी ओले में, कभी बिन मौसम बरसात में बर्बाद हो जाती थीं. फिर उन पर सरकार के दिए जाने वाले सहायता कोष होते थे जो किसानों के नाम पर चन्द मुट्ठी भर लोग खाली कर देते थे. ये वे लोग थे जो चाहते थे कि फसलें बर्बाद हों और तब सहायता कोष बनाये<br />
जाएँ. जिन पर इनका उनसे ज्यादा अधिकार था. किसान या तो मर जाते या क़र्ज़ में दबते चले जाते.<br />
<br />
ऐसे ही किसी बीते दिनों की ड्यूटी से पहले के समय में टीवी पर उसने एक नेता के बयान सुने थे जिसमें नेता तमाम टीवी चैनलों को बता रहा था कि सभी किसान खेती के नुकसान से नहीं मरते. ज्यादातर तो अपने इश्क़ के चक्करों, मोहब्बत में नाकाम होने या अपनी पारिवारिक कलह के कारण मरते हैं.<br />
वे अपने बयान ऐसे दे रहे थे जैसे उन्होंने कोई रिसर्च पेपर पढ़ कर सुनाया हो. उनके इस बयान पर<br />
विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने तीखे तेवर अपनाये थे. और अपने रिसर्च पेपर के बारे में बताते हुए कहा था कि उनकी सरकार के समय में किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़े इतने बुरे नहीं थे. जिस पर<br />
किसी अन्य विपक्षी पार्टी ने कहा था कि ये चोर चोर मौसेरे भाई हैं. इन्होंने सूखे से मरते किसानों को<br />
पानी नहीं दिया था लेकिन क्रिकेट के मैदान को सींचने के लिए शहर भर के टैंकर ला खड़े किये थे. जिस खेल पर बाद में बदनामी के दाग लग गए. औरवे जो उस सरकार के समय में भी सुरक्षित थे और इस<br />
सरकार के समय में भी सुरक्षित हैं जिन्होंने अवैध रूप से पैसा कमाया.<br />
<br />
आज उसे पूरे 26 दिन हो गए थे और वो अपनी ड्यूटी से पहले उसी ढाबेनुमा दुकान में बैठा था. टीवी<br />
चल रही थी. गानों के चैनलों से होती हुई. एम टीवी के आधुनिक शो जिसका प्रायोजक भी उन्हीं चन्द<br />
मुट्ठी भर लोगों में से कोई था. और जिसमें आधुनिक होना सिखाये जाने की हर संभव कोशिश की जा रही थी, से होती हुई. समाचार के चैनल पर आ अटकी थी जिसमें देश के एक नेता अपने श्रीमुख से<br />
किसी मंच पर खड़े हो सामने खड़ी और बैठी भीड़ को बता रहे थे कि गैंग रेप तो ही ही नहीं सकता. यह<br />
प्रैक्टिकली संभव नहीं. और लड़कियां अपने आप किसी एक से सम्बन्ध बनाकर बाकी लड़कों को<br />
बदनाम करती हैं. और कभी ऐसा इक्का दुक्का केस हो भी तो लड़के हैं, गलती हो ही जाती है. उसके<br />
लिए किसी को फाँसी पर थोड़े चढ़ा दोगे. लड़के हैं, गलती हो ही जाती है. लड़कियां ऐसे कपडे पहनती हैं. जीन्स-टॉप पहन कर घूमती हैं, अपनी मर्यादा में नहीं रहतीं. तो ऐसे में लड़के क्या करें.<br />
<br />
उसका मन खबर देखकर बेहद उखड गया था. आखिर हम विकसित होकर किस राह पर जा रहे हैं.<br />
हमारी सोच, हमारी समझ कहाँ खड़ी-खड़ी अपना बदन खुजा रही है. वह उठ खड़ा हुआ और अपनी<br />
ड्यूटी के लिए मॉल की ओर बढ़ गया.<br />
<br />
रोज़ की तरह ही गाड़ियाँ इकठ्ठा हुई और जब रात गहराने लगी तो एक एक कर वे जाने लगीं. बस<br />
इक्का दुक्का गाड़ी ही खड़ी दिख रही थीं. रात गहराने लगी थी. एक बजे को पार कर रात सुबह की<br />
तलाश में ऊँघने लगी थी. वह भी थोडा सा सुस्ताने लगा था. उसने कुर्सी की टेक लेकर अपने कंधे,<br />
अपना सिर ढीला छोड़ दिया था. तभी कहीं से रोने और चीखने की आवाज़ आयी. उसने यहां वहाँ देखा. उसे कोई नहीं दिखा. वह आवाज़ का रास्ता पकड़ उसकी और बढ़ने लगा. मॉल से ही चिपके दबे छुपे<br />
तहखाने जैसी जगह से रोने और चीखने की आवाज़ें तेज़ हो गयीं. वह दौड़ता भागता उधर की और<br />
पहुँचा. शराब के नशे में धुत्त दो लड़के किसी बच्ची की ज़िन्दगी लेने पर आमादा थे. वो भागा और उसने एक लड़के को पकड़ना चाहा. लड़के ने हाथापाई करते हुए देशी कट्टा निकाल लिया और दहाड़ता हुआ बोला "भाग जा कुत्ते नहीं तो मारा जायेगा". उसने फिर कुछ कोशिश की और इस बार उसने कट्टे से<br />
फायर कर दिया. वह वहां से भागत हुआ दूर हट गया. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था. दिमाग बिलकुल सुन्न, शरीर पसीने और डर से भर गया. वह दौड़ता हुआ वहां से मॉल के बाहर आया. वहाँ से आधा<br />
किलोमीटर की दूरी पर बनी पुलिस चौकी की ओर बेतहाशा भागा. और हाँफता हुआ पुलिस चौकी के<br />
कांस्टेबल की कुर्सी पर गिरा. वो हाँफता जा रहा था और बोलने की कोशिश में लगा हुआ था.<br />
<br />
-वो...वो लड़की को मार देंगे<br />
-"कौन, क्या हुआ, क्या बके जा रहा है, ठीक से बोल क्या बात है" कुर्सी पर ऊँघता कांस्टेबल बोला<br />
-मॉल....मॉल के पास वो लड़के उस बच्ची को कहीं से उठा लाये हैं...उसे बचा लो<br />
-"अरे सांस ले ठीक से और फिर बता, क्या बात है" ऊँघता और खिसियता कांस्टेबल बोला<br />
-साहब मैंने मॉल के पास में उन दो लड़कों को उस बच्ची का बलात्कार...साहब मैंने उन्हें रोकने की<br />
कोशिश की लेकिन उनके पास हथियार है<br />
-तुम कौन हो?<br />
-साहब में वहां मॉल का चौकीदार, उसे बचा लो<br />
<br />
<br />
<br />
अच्छा, अच्छा रुको, चलते हैं, उसने ऊँघते दरोगा को जगाया और अपनी गाड़ी उठाकर उसके साथ<br />
मॉल की और चल दिए. गाडी रुकी और वे पुलिस वाले उसके बताये स्थान पर पहुँचे, वहाँ कोई नहीं था, हाँ कुछ खून के कतरे यहाँ वहां पड़े थे. पुलिस वाले थोडा सतर्क हुए और आपस में कहने लगे “ढूँढो सालों-कुत्तों को”. आस-पास ढूँढा लेकिन कोई नहीं मिला. उन्होंने गाडी घुमायी और आस पास की सड़कों को तलाशने लगे. थोडी दूरी पर ही सड़क के किनारे के अँधेरे में लहूलुहान अपनी ज़िन्दगी से जूझती वो<br />
बच्ची पड़ी थी. पुलिस वालों ने उसे तुरंत उठाया. चौकीदार को मॉल पर छोड़ वे उस लड़की को ले<br />
अस्पताल को भागे.<br />
<br />
वो मॉल के उस गेट पर खड़ा मन ही मन उस बच्ची के बचने की प्रार्थनाएँ करता, उन लड़कों में से एक लड़के के चेहरे को याद करने लगा. जो गाडी वहाँ अब नहीं था उसका नंबर उसके दिमाग में आने लगा. फिर से पुलिस की गाड़ी मॉल के गेट पर आकर रूकती है. पुलिस वाले उसी गाडी में बैठाकर चौकी ले<br />
जाते हैं. उससे पूँछताछ करके थानों में सूचना पहुंचा देते हैं. जो पुलिस की गाड़ियाँ गश्त पर थीं उनकी<br />
रफ़्तार और तेज़ हो जाती है.<br />
<br />
पुलिस को कुछ सूत्र पकड़ में आ जाते हैं. और वो रफ़्तार फिर कुछ धीमे पड़ जाती है. सुबह पुलिस मॉल के मालिकों और वहां की अंदर सजी संवरी दुकानों के किरायेदारों से पूछताछ करती है. उसे फिर सुबह<br />
बुलाया जाता है. उसके नाम, पते, गाँव, खेत खलिहान के बारे में पूरी मालुमात की जाती है.<br />
<br />
वे असल में आदमी की गहराई पकड़ना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि यह आदमी कमज़ोर निकले. कमज़ोर को फिर जिधर चाहे उधर मोड़ा जा सकता है. डराया, धमकाया, समझाया जा सकता है. उसके भले के बारे में उसे एक लंबा लेक्चर पिलाया जा सकता है और जो फिर भी ना माने तो उसे बताया जा सकता है कि अभी उसका विकास नहीं हो पाया है. वो इस विकसित होते जा रहे देश में खामखां रूकावट बन रहा है. क्राइम रेट बढ़ा रहा है. जिसको पुलिस दिन ब दिन रजिस्टर में दर्ज़ ना कर कम करती जा रही है उसमें वह बाधा उत्पन्न कर रहा है. और उसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ सकता है.<br />
<br />
मॉल वाले उसकी इस बेवकूफी से सकते में आ गए हैं. वे समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या किया जाय.<br />
उन्होंने अगले दिन के अख़बार में बहुत मामूली हिस्से में उस रात की खबर को पढ़ा है. वे उससे बहुत खिन्न हैं. मामूली ही सही लेकिन उनके मॉल का नाम तो ख़राब हुआ और हो रहा है. लोग क्या सोचेंगे. क्या कहेंगे. जिस काम के लिए उस चौकीदार को रखा वो अपना काम ठीक से नहीं कर रहा.<br />
पिछले तीन चार रोज़ से पुलिस दिन रात उससे पूछताछ कर रही है. बच्ची की तबियत में ज्यादा सुधार नहीं है. अस्पताल सरकारी है और वहां किसी को कोई जल्दी नहीं होती. बच्ची के माँ बाप जो कि बहुत गरीब हैं और जो मॉल के आस पास ही सड़क से ज़रा सा दूर बसने वाली उस झोपड़ पट्टी वाली गली के रहने वाले हैं. जहाँ से या तो वे लड़के उसे उठा लाये थे या वो बच्ची रास्ता भूल कर मॉल की ओर आ<br />
गयी थी.<br />
<br />
आज 30 वां दिन है और उससे रहा नहीं गया. कुछ है जो उसके अंदर टूटता ही चला जा रहा है. उस टूटन से जो पीड़ा भीतर ही भीतर ज़हर की तरह फैलती चली जा रही है, उससे बच पाना उसे नामुनकिन लग रहा है. वह अस्पताल की ओर चल पड़ता है. वह अस्पताल के बाहर खड़ा हुआ अंदर ही अंदर काँप रहा है. स्वंय को धक्के देते हुए वह जनरल वार्ड के दरवाज़े पर ठिठक गया. वहाँ रोने की, सिसकियों की,<br />
चीखने की, छाती पीटने की आवाज़ें चारों और फैली हुई हैं. पीछे से उसे धकियाते हुए टीवी चैनल के<br />
पत्रकार अंदर घुसे चले जा रहे हैं. कैमरामैन को हिदायत दी जा रही हैं कि बच्ची के माँ बाप का पूरा<br />
क्लोज अप आना चाहिए. उनके रोने, चीखने, चिल्लाने की आवाज़ें ठीक से रिकॉर्ड होनी चाहिए.<br />
<br />
वह धड़ाम से गिरता पड़ता दरवाज़े के पास खुद को संभाल पाने में नाकाम साबित होता है. उसके भीतर के आंसुओं का सैलाब उसके भीतर ही जम गया है. उसका सांस लेना दूभर होता जा रहा है. वार्ड में एकाएक भीड़ बढ़ती चली जा रही है. और वह भीड़ से छिटकता हुआ अस्पताल के बाहर कब पहुँच गया उसे पता ही नहीं चला. वो पैदल चलता ही चला जा रहा है. वो दौड़ रहा है. दौड़ते दौड़ते उसकी साँसे फूल गयी हैं. वो पसीने से लथपथ सड़क के किनारे कभी भिखारी से टकराता है, कभी खोमचे वाले से टकराते-<br />
टकराते बचता है. उसका दौड़ना रुक नहीं रहा. सड़क के किनारों पर नए होर्डिंग खड़े कर दिए गए हैं.<br />
सरकार ने विकास की गति बढाई, महंगाई कम हुई, भ्रष्टाचार कम हुआ, क्राइम पर पूरा कण्ट्रोल है,<br />
महिलाओं की सुरक्षा सरकार की पहली प्राथमिकता है. दूसरी ओर टंगे होर्डिंग पर एक लड़की गोरे होने की नयी क्रीम का विज्ञापन करती हुई मुस्कुरा रही है. किसी दूसरे होर्डिंग पर सप्ताहंत में मिलने वाली छूट का विज्ञापन है.<br />
<br />
वो दौड़ते दौड़ते मॉल पहुँच गया है. वो बेतहाशा हांफ रहा है. लग रहा है जैसे अभी ही उसका दम निकल जायेगा. वो वहीँ गेट की कुर्सी पर बैठ जाता है. तभी जिस ठेकेदार ने उसे काम पर लगवाया था वो गेट<br />
पर आ जाता है. वो हांफते हाँफते कहता है<br />
- मुझे मेरी तनख्वाह दिलवा दो. मैं अपने गाँव वापस जाना चाहता हूँ.<br />
-किस बात की तनख्वाह, काम तो तुमसे ठीक से होता नहीं और आ गए तुम यहाँ पैसे माँगने<br />
-मैं हाथ जोड़ता हूँ मुझे मेरे पैसे दिलवा दो<br />
-जाता है यहाँ से या बुलाऊँ अभी पुलिस को, मॉल का नाम मिट्टीमें मिलवा दिया और यहाँ आ गया<br />
पैसे माँगने. तुझे पता है तेरी वजह से मुझे क्या क्या सुनना पड़ा मालिकों से<br />
<br />
वो हाथ जोड़ कर घिंघियाने की मुद्रा अपने पैसे देने की गुहार लगाता है. ठेकेदार के साथ के 2-4 लड़के आ जाते हैं और उसे धक्के देकर मॉल के गेट से बाहर फैंक देते हैं.<br />
<br />
वो सड़क पर गिरा पड़ा है.<br />
<br />
मॉल की जगमगाती रौशनियों में विज्ञापन की तस्वीरें चमक रही हैं. वीकेंड सेल धमाका "60% डिस्काउंट पर एक्स्ट्रा 20% डिस्काउंट"<br />
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“<i>I’m blogging for <a href="http://www.blogadda.com/">#YouMakeMeWIN</a> to honour a blogger who has influenced me and deserves to be <a href="http://www.blogadda.com/blog-awards/nominate">nominated at WIN15</a>. </i>” </div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-30920779392293031212015-08-13T00:37:00.003+05:302015-08-13T00:38:02.305+05:30लड़की और शहर (भाग-2)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
प्रारम्भ के दिनों में जब लड़की इस शहर आई थी तब उसका छोटा शहर उसके साथ चिपका रहता था.वहां की पहचान और आदतें उसके चेहरे पर जमी हुईं थीं. उनसे पीछा छुड़ाना आसान नहीं होता. एक शहर आपके साथ चिपका हुआ चले और वो आपके चेहरे को भी न छोड़े. वक़्त उसे खुरच खुरच के आपसे अलग करता है. फिर भी उसकी थोड़ी बहुत कतरने यहाँ वहां चिपकी रह जाती हैं.<br />
<br />
जब वो अपनी शिफ्ट में जाने के लिए कैब में बैठी होती तो भी ये पहचानें उसके साथ चलतीं. छोटे शहर का अनजान डर उसे हरदम घेरे रहता. फिर वो धीरे धीरे अभ्यस्त हो गयी थी. कैब ड्राईवर बदले, रास्ते बदले और इस तरह करते करते उसका बदलना भी होता चला गया.<br />
<br />
शोभित से उसकी पहचान कैब में साथ आते जाते ही हुई थी. जब वो और शोभित एक ही शिफ्ट में जाते थे. प्रारम्भ के दिनों में वह खुद से ही खुद को बाँधे रहती थी. बाद के दिनों में उसने अपनी गाँठे धीरे धीरे ढीली कर दी थीं. और फिर शोभित की बातों और मुलाकातों ने उन गांठों को पूरी तरह खोल दिया था.<br />
<br />
शोभित इंजीनियरिंग किया हुआ था और कॉल सेंटर की जॉब शहर में टिकने के लिए पकडे हुए था. जब वो कॉलेज से निकला निकला था तो उसने अपने मतलब की नौकरी की बहुतेरी खोजबीन की लेकिन उनका कोई सिरा उसके हाथ में नहीं आया था. तब थक हार कर उसने कॉल सेंटर की नौकरी पकड़ ली थी ताकि वो शहर में टिका रहे और कॉल सेंटर की नौकरी के साथ साथ अपने मतलब की नौकरी खोजता रहे. वो मिली नहीं थी और उसको पाने के लिए उसने छोटे मोटे अलग से कोर्स करने भी प्रारम्भ कर दिए थे.<br />
<br />
एक साल उनकी पहचान को एक दूसरे के किराये के कमरों तक पहुँचा चुका था. वे उतने ही नज़दीक आ चुके थे जितना आया जा सकता था. किराये के कमरों को उनकी पहचान हो चुकी थी. दीवार की खूँटी से लटका कैलेंडर, खिड़कियों पर टंगे परदे और कमरे के बीचों बीच लटका पंखा वैसे ही झूलते रहते जैसे कोई वहाँ हो ही न. उनकी पहचान किचन के बर्तनों, बालकनी के गमलों, टेबल पर रखी घडी, मोबाइल, और यहाँ वहां बिखरे पड़े रहने वाले कपड़ों सभी को हो गई थी.<br />
<br />
ऐसी ही किसी बीती शाम को शोभित उसको पहली बार अपने कमरे पे लाया था. वे उतरती सर्दियों के बचे खुचे दिन थे. फरवरी में पेड़ों की पत्तियां तब झड़कर सड़कों पर उतर रातों को शोर मचाया करतीं. दोपहरें धुप के टुकड़ों में खुद को सेंक लेने के बाद सुस्ताती हुईं शाम से जा मिलतीं और रातें तब थोड़ी सर्द हो जाया करतीं लेकिन फिर भी कहीं कहीं थोड़ी गर्माहट बची रह जाती.<br />
<br />
जैसे कि उसकी माँ सोचा करती थी कि लड़कियां सालों में तब्दील होने लगती हैं. वो सचमुच दिन, महीनों से गुजरती हुई साल बनने लगी थी. उस की इच्छाओं पर साल दर साल चढ़ते ही चले गए थे. और फिर एक समय ऐसा आता है कि इच्छाएं अपना सर उठाने लगतीं हैं और उनके सर कुचलना बेहद मुश्किल होता चला जाता है. इंसान फिर धीरे धीरे कमजोर होता है और फिर इच्छाएं अपने रास्ते खुद बना लेती हैं. हम उनको सही गलत के तराज़ू में ज्यादा दिनों तक तोल नहीं पाते. फिर अच्छी और बुरी हर तरह की इच्छाएं एक सी दिखने लगतीं हैं.<br />
<br />
ऐसी ही उसकी और शोभित की इच्छाओं ने एक दूसरे को पहली दफा छुआ था, चूमा था और वे एक होकर नदी होकर बहने लगी थीं. उस कमरे में फिर वो नदी खूब खूब बहती. और वे उस नदी में डूबते उतराते. कभी उसमें अपनी चाहतों की नाव बना उसे चलता हुआ छोड़ देते तो कभी किनारे पे बैठ उसको नदी की धारा की दिशा में बहता हुआ देखते.<br />
<br />
~आगे की कहानी बाद में~</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-43749679030872317702015-08-12T17:23:00.003+05:302015-08-12T17:23:47.594+05:30देर रात की डायरी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अपनी बढ़ती उम्र के कच्चे अनुभवों में लिखी अपनी तमाम कहानियां अब मुझे मुँह चिढ़ाती सी महसूस होती हैं. उनका कच्चापन और अधूरापन मुझे बार बार सबक देता है, अब में देखता हूँ तो पाता हूँ कि उनमें से ज्यादातर तो प्रेमकहानियों को लिखने की मेरी असफल कोशिशें थीं. सच कहूँ तो बड़ी कोफ़्त होती है.<br />
<br />
फिर यह सोचकर दिल को तसल्ली दे समझाता हूँ कि शायद वे मेरे रचनात्मक विकास की ही कड़ी थीं. कि कोई भी कहानीकार अपने पहले ही प्रयास में एक पकी हुई कहानी कहाँ लिख पाता होगा.<br />
<br />
बाद के दिनों में जाना कि पढ़ना तो आवश्यक है ही साथ ही साथ किस को पढ़ना है और किसको नहीं यह चुनाव भी बेहद महत्वपूर्ण है. यह हमारे विकास में नई समझ, नई रचना प्रक्रिया को जन्म देता है.<br />
<br />
फिर हमारी उम्र पर चढ़े अनुभव हमें हर रोज़ ही एक नया संसार, नए पात्र, संवाद, कथा शिल्प, कथा कौशल देते हैं. तब कहीं जाकर हमारी रचनात्मकता में मजबूती आती है.<br />
<br />
और शायद अब बाद की लिखी जाने वाली कहानियाँ कच्ची नहीं होंगीं और यदि उनमें से कुछ प्रेम कहानियां होती भी हैं तो वे सच्चाई के धरातल और जीवन से कदम ताल मिलाती दिखेंगीं.</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-49297597434941528612015-08-11T23:43:00.000+05:302015-08-11T23:45:28.403+05:30लड़की और शहर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
गहरा काला नीम अँधेरा सड़कों पर उतरने लगा था. लैम्पपोस्ट की रौशनी सड़कों को धुंधलाती हुई रौशन कर रही थी. अभी घंटे दो घंटे पहले पडी बूँदा बांदी से सड़कों पर चहबच्चे जगह जगह उभर आये थे. कहीं कहीं राह में कुत्ते भौंकते दिख जाते. रात की शिफ्ट का जीवन अपनी सुबह देखने लगा था और गाड़ियाँ शोर मचाती हुईं रह रहकर सड़क से गुजर जाती थीं.<br />
<br />
सड़क के एक हिस्से से जो गली निकलती थी और दूर जाती हुई ख़त्म हो जाती थी . वो उसी पर चलती हुई मुड़ी और अपने किराये के घर में घुस गयी. उसकी शिफ्ट ख़त्म हुई थी और अब उसे एक नए दिन के लिए तैयार रहना था. जब वो सुबह जल्दी उठेगी, अपने सभी काम ख़त्म कर, अपना नाश्ता बना खाकर, अपनी जरुरत का सामान अपने साथ ले अपनी शिफ्ट पर चली जायेगी.<br />
<br />
वो जिस शिफ्ट में काम करती थी उसमें उसकी ही तरह की तमाम लड़कियां जिनके नाम आप कुछ भी रख सकते हैं या पुकार सकते हैं, उसके साथ काम करती थीं. असल में उनका नाम इतना महत्वपूर्ण नहीं था. नाम तो कोई भी रखा जा सकता है और पुकारा जा सकता है. किन्तु जिस कंपनी में वे काम करती थीं वह महत्वपूर्ण थी. कुछ संख्या लड़कों की भी थी लेकिन लड़कियों की अपेक्षा में यह संख्या बहुत कम थी.<br />
<br />
यह एक कॉल सेंटर कंपनी थी. उसका काम किसी विदेशी कंपनी के देशी ग्राहकों को उसके प्रोडक्ट से सम्बंधित सूचना मुहैया कराना था. या कोई तकनीकी जानकारी प्राप्त करने के लिए यदि कोई ग्राहक कॉल करे तो जवाब देना होता था.<br />
<br />
लड़कियों की संख्या ज्यादा होने के कई कारणों में से एक कारण यह था कि कॉल करने वाले ग्राहक ज्यादातर पुरुष हुआ करते थे. और वे लड़कियों से बात करना पसंद करते हैं. कभी कभी ऐसा होता कि कोई ग्राहक यदि ऊब रहा है तो अपना समय व्यतीत करने के लिए वहां कॉल कर देता और बेसिरपैर के अनगिनत सवाल पूँछा करता और समय को खींचने की कोशिश में रहता. या कोई ग्राहक अपनी खिसियाहट निकालने के लिए कॉल कर देता और भली बुरी सुनाता. कभी कभी कई पुरुष एक साथ मिलकर कॉल करते और भद्दी भद्दी बातें करने की कोशिशें किया करते. और जब थक जाते या अपने अंदर के पशु को थोडा बहुत चारा मिल जाने पर वे जैसे तैसे कॉल रख देते.<br />
<br />
यह घटनाएं किसी भी लड़की के लिए अब नयी नहीं रह गयी थीं. वे अब अभ्यस्त हो चुकी थीं. वे जानती थीं कि उन्हें इसी लिए रखा गया है कि इस सभ्य समाज की सभ्यता बची रहे.<br />
और महीने के अंत में उन्हें इसकी एवज में तनख्वाह मिलती थी. जिससे उनकी अपनी सभ्यता और उनके होने और बने रहने का सुनिश्चित होना तय हो पाता था.<br />
<br />
उसे याद है जब वह अपने छोटे शहर से इस शहर में आयी थी तब उसकी माँ ने उसे रोकना चाहा था कि वह इतने बड़े शहर में कैसे रहेगी. और कॉल सेंटर के बारे में उन्होंने थोड़ी बहुत जो बातें सुन रखी थीं कि लड़कियां फिर लड़कियां नहीं रहतीं. वे धीरे धीरे सालों में तब्दील होती चली जाती हैं. शुरू के दिनों में वे उत्साह के साथ काम करती है और फिर उनका उत्साह धीरे धीरे मरने लगता है. बोरियत उन्हें आकर घेर लेती है. आवाज़ में झूठापन और बनावटीपन आ जाता है. आँखों के नीचे काले घेरों को छिपाने के लिए कंपनी से मिले पैसे खर्च होने लगते हैं. यह एकदम नहीं होता. बहुत बारीकी से , बहुत धीरे धीरे होता चला जाता है.<br />
<br />
वह फिर भी चली आई थी. दो और छोटी बहनें थीं और उनकी पढाई भी अभी बची हुई थी. उसे माँ का हाथ बाँटना था. वो कब तलक उस छोटे शहर में बनी रहती वहां ज्यादा से ज्यादा 2 हज़ार 3 हज़ार पर पढ़ाना होता था या इसी तरह का कोई और काम. यह बहुत कम था और उसे आगे बढ़ना था.<br />
<br />
शोभित उसे यहीं मिला था. इसी कंपनी में. शुरू शुरू में अजनबीपन के बादल छाये रहे थे लेकिन वह भी कब तक रहते. धीरे धीरे वह छटते चले गए. और वे एक ही आकाश के नीचे एक साथ आ खड़े हुए.<br />
<br />
लेकिन यह कहानी इतनी आसान दिखती है उतनी है नहीं. इसमें तमाम गुत्थियां हैं. जो आपस में उलझी हुई हैं. और फिर लड़की की उम्र जब बढ़ती है तो एकदम से बढ़ती ही चली जाती है. और ये उलझन फिर सुलझती नहीं बल्कि और अधिक उलझती चली जाती है.<br />
<br />
~आगे की कहानी बाद में~</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-27654076827081688892015-08-11T00:51:00.003+05:302015-08-11T00:51:56.928+05:30रचना प्रक्रिया<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
रात के तीसरे पहर आपके मन के भीतर एक राग छिड़ता है. दुनिया जहाँ ख़ामोश नींद की गहराइयों में कहीं अटकी पड़ी है. मैं अपने भीतर के सच और झूठ से लड़ता. अपनी स्मृतियों का बहीखाता खोले बैठा. रात को रात न समझ दिन की तरह जिए जा रहा हूँ. और रात की ख़ामोशी का एक अपना ही संगीत बजता हुआ. बरसाती रातों का संगीत.<br />
<br />
मौन का संगीत. गहरा और स्मृतियों में पसरता हुआ. कभी उनमें उजाला भरता है तो कभी दुखों को दूर छिटक सुख को अपने पास खींचता हुआ.<br />
<br />
उम्र के साथ साथ अनुभवों का हर एक दिन जो नया संसार रचता चला जाता है. उसी संसार से मिलती है रचनात्मकता की लौ. जो हर नए दिन में और भी अधिक प्रकाश बिखेरती है. और मैं हर रोज़ ही इस रचनात्मक उजाले को अपने में भरता चला जाता हूँ.<br />
<br />
मेरे भीतर चमकते हैं हज़ारों नए प्रकाश पुंज. और रूह को तराशती चली जाती है ये रचना प्रक्रिया. मन के भीतर आ आ ठहरती हैं स्मृतियाँ और आज के वर्तमान की रातों में प्रकाश फैलाता सूरज.<br />
<br />
मैं हर इक नए दिन में बदलता ही चला जाता हूँ थोड़ा थोड़ा. वक़्त की लकीरें खिंचती चली जाती हैं. चेहरे में भर जातें हैं कई कई रंग. सुख, दुःख, प्रताड़ना, अकुलाहट, आवेग, एक धीमा धीमा बहता दरिया. कितना कुछ तो समां जाता है इन रंगों में.<br />
<br />
जीवन के विभिन्न अर्थों को तलाशती यह रचना प्रक्रिया प्रतिदिन ही मुझे एक नई राह दिखा जाती है. और मैं इसके अर्थों, रंगों, आवाज़ों, रागों में डूब डूब जाता हूँ.</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-19072154703215421262015-07-18T00:42:00.000+05:302015-07-18T00:42:40.286+05:30सुख क्वालिफिकेशन देख कर नहीं आता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दुःख न तो कोई क्वालिफिकेशन देख कर आता और नाहीं किसी एक को डिसक्वालिफाई करता. जैसे मेरे स्कूल के प्रिंसिपल के लड़के का दुःख हुआ करता कि वो अपने स्कूल के प्रिंसिपल का लड़का है.<br />
<br />
असल में टीचर और प्रिंसिपल के लड़कों की दो प्रजातियाँ होती हैं. एक वो जो बार बार गुस्ताखियाँ कर स्कूल के बाकी लड़कों को पीछे छोड़ टीचरों और अपने बाप यानि कि प्रिंसिपल की नाक में दम कर टॉप रैंक हासिल कर लेते हैं. दूसरी वो जो अपने अरमानों को दबाते, कुचलते अपने बाप के प्रिंसिपल होने का बोझ अपने कन्धों पर लादे घूमते रहते हैं. फींकी हँसी, बनावटी बिहेवियर लिए स्कूल ख़त्म कर लेते हैं जैसे तैसे ये सोच कर कि कॉलेज जैसी चीज़ बची रह गयी है इस दुनिया में.<br />
<br />
लेकिन एक पट्ठा इन्हीं दोनों संधि और विच्छेदों को जोड़ बना था. शरारतें ऐसी कि आप करने से पहले सोचो कि इसने ये इजाद कब की और भोलापन मासूमियत की डेफिनिशन को बोल दे कि बहना अपने आप को रीडिफाइन कर लो जाकर.<br />
<br />
तो असल बात पर आते हैं. वो ये कि इन्हें प्यार हो जाता है. जब भी कॉन्वेंट की लडकियाँ ग्रुप में निकला करतीं तो ये महाशय किसी के गालों के गड्ढों में डूबते उतराते. वे पूरी तरह क्लीन बोल्ड हो पवेलियन के बाहर से ही हसीं सपनों में खोये पड़े रहते. बाकी के लौंडे भँवरे बन कभी इस फूल तो कभी उस फूल के सपने बुना करते. और डिसाइड ना कर पाते कि कौनसी किसकी भाभी है.<br />
<br />
ऐसे ही तमाम रोज़ों के बाद एक अंतिम निर्णय लिया गया कि इजहारे मोहब्बत होना ही चाहिए. कब तलक दर्दे दिल की तकलीफ़ सहेंगे. कब तलक होठों को सिले रखेंगे.<br />
<br />
उन्हीं बाद के किसी दिन की खिलती धूप में किसी मोहल्ले के पास के बगीचे के खिले गुलाब को हाथ में लिए शाहजहाँये मोहब्बत सब कुछ लुटा देने को तैयार मैदान में कूद पड़े.<br />
<br />
जिन वाक्यों के अंत में ता है, ती हैं, ते हैं आते हैं वे प्रेजेंट इन्डेफीनिट टेन्स के वाक्य होते हैं पढ़ाने वाले मास्साब से सीखी अंग्रेजी के बूते वे साइकिल के सामने आ तो गए लेकिन उसकी रगों में दौड़ती अंग्रेजी के सामने टिक ना सके और अपना क़त्ल खुद क़ातिल अपने हाथों से कर रन आउट हो गए.<br />
<br />
बाद में दिल बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है की तर्ज़ पर दोस्तों ने उनको उनके दुखयारे संसार से ये कह बाहर निकाला कि जोड़ी जमी नहीं, कहाँ तो ये और कहाँ वो, यार ये कॉन्वेंट वालियाँ, वगैरह वगैरह करते करते पायथागोरस प्रमेय के अंत जैसा इति सिद्धम लिख दिया.<br />
<br />
दोस्ती कुछ हासिल कराये न कराये खुश रहने और रखने के हज़ार बहाने ढूँढ लेती है और बना लेती है.</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-50372332586682603662015-07-18T00:39:00.000+05:302015-07-18T00:40:06.774+05:30ज़िन्दगी बड़ी कलरफुल होती है बर्खुरदार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
हम ऐसे स्कूल में थे जहाँ लड़कियों का नामो निशां नहीं था. और जब स्कूल के गेट पर हम अपने ठेले और खोमचे वालों के पास खड़े रह समय को धकेल रहे होते कि भाई अब बहुत हुआ ज़रा आगे बढ़ो. वह बीतता रहता और हम बेमतलब, बिना कुछ खाए दूर से ही ठेलों पर की चीज़ों को ऐसे महसूसते जैसे ये तो खायी हुई चीज़ है. हमें उनसे कोई आसक्ति न होती. असल में बात दूसरी ही होती जोकि हमारे घरों से शुरू हो हम तक ही ख़त्म हो जाती. उन दिनों सभी घरों में 3-3, 4-4 भाई बहन हुआ करते और तब न तो जेब खर्च जैसा चलन था और नाहीं उसके प्रारंभ होने की कोई सम्भावना दिखती. तब जेबें पहले से ही छोटी सिलाई जाया करतीं. और कई दफा तो गुप्त जेबें भी हुआ करतीं जिनमें हथेली भर पैसे किसी गुप्त ज्ञान से बसा करते. कभी कोई भूला भटका रिश्तेदार जाते वक़्त कोई चवन्नी या अठन्नी दे जाया करता तो लगता कि सपनों का एक पूरा संसार दे गया हो. और जब वो एक रूपया होता तो लगता इससे दुनिया का हर सुख हासिल किया जा सकता है. हम उस एक रुपये से मन ही मन ना जाने क्या क्या खरीद लिया करते.<br />
<br />
उसी गेट के सामने से जब हमारे स्कूल की आखिरी घंटी टनटनाने को हुआ करती तब किसी कान्वेंट स्कूल की लड़कियों का ग्रुप निकला करता. वे अपनी अपनी साइकिलों पर हुआ करतीं और उन दिनों जबकि हम लड़की और उनके हर किस्म के स्वभाव से अनभिज्ञ थे, उन्हें स्कर्ट पहने साइकिल चलाते हुए जाते देखा करते. और तब लगता कि यह एक सुख है जो उन्हीं लड़कों को हासिल है जो उनके साथ पढ़ा करते हैं. वे अपने अपने ब्लेज़रों और टाईयों में सीलबंद से रिक्शों पर या अपनी अपनी साइकिलों पर आते जाते दिखा करते. उनसे बड़ी जलन हुआ करती. और जब तक वो आगे बढ़ पीक पर पहुँचने को हुआ करती तो हमारे स्कूल के मास्टर अपने हाथों में डंडा लिए हमें गुस्से से पुकारा करते. एक मिनट लेट होना हमें दो तीन चोटें तो खिला ही दिया करता. परन्तु यह हर रोज़ का सा एक बना बनाया खेल सा हो गया.<br />
<br />
हममें से कुछ एक्स्ट्रा स्मार्ट एक बिलकुल देशी स्कूल के होने वाले प्रोडक्ट, उन लड़कियों को ताड़ते हुए हदें पार कर सीटियाँ मारते या कोई मोहब्बत भरी बात कह दिल जीतने की कोशिशें किया करता. मोहब्बत से तो हर कोई देखा करता लेकिन सबकी मोहब्बतों में फर्क हुआ करता.<br />
<br />
फ्यूचर तब दूर से हम वैदिक विद्यावती इंटर कॉलेज के लड़कों को देख मुस्कुराता हुआ हमारे बचपने पे कभी लाड़ तो कभी तंज कसता होगा. और कहता जरुर होगा मन ही मन खुद से कि अमाँ छोडो यार कर लेने दो दिल्लगी. ज़िन्दगी खुद ही दे देगी तज़ुर्बे. तुम क्यों कॉलर ताने खड़े हो मियां. तुम्हारा क्या छीन रहे हैं.<br />
<br />
और क्या पता कल को पाला बदल जाये और कोई शोख हसीना मोहब्बत कर बैठे और बन जाये कोई फ़साना.<br />
<br />
जिंदगी बड़ी कलरफुल होती है बर्खुरदार.</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-24998608545401312852015-07-13T10:16:00.000+05:302015-07-13T12:19:30.246+05:30उनींदी रातें <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तुम नहीं हो फिर भी हो. दिन भर महकता है ये घर. इसमें बसी है खुशब
तुम्हारीू. मैं नहीं खोलता खिड़कियाँ सारीं और आहिस्ता से खोलता हूँ दरवाज़े
इसके. कि तुम अब भी हो, यहाँ हर कोने में. <br />
सुबहें दोपहरों तक खींच ले जाती हैं खुद को जैसे तैसे. शामें बहुत याद दिलाती हैं तुम्हारीं. <br />
तुम जब थीं तो बरसता था गुस्सा , कि वक़्त ही नहीं है तुम्हारी जेबों में
खर्च करने के लिए. अब जेबें फटी फटी सी हैं मेरी. कि वक़्त पुराने लम्हों
में जीता है.<br />
<div class="text_exposed_show">
तकिये के नीचे रख छोड़ी थीं जो तुमने अनगिनत कहानी, वे पूरेपन में मेरी रातों में शामिल हो उठती हैं.<br />
तुम दिन में, सुबह में, शामों में और उनींदी रातों में, हर लम्हे में बेइंतहा याद आती हो.</div>
</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-61937611911471243862015-07-13T10:15:00.001+05:302015-07-13T10:15:29.771+05:30ज़िंदगी के साइड इफेक्ट्स <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कहीं
किसी रोज़ में मिलूँगा तुमसे किसी अजनबी की तरह. हम जानते हुए भी नहीं
बोलेंगे एक लफ्ज़ भी. तुम मुझे भुला दिए हुए किसी ख्वाब सा सोचोगी फिर भी.
मैं जानकार भी अनजान बना रहूँगा तुम्हारी उपस्थिति से. क्या इतने पर भी
भुला दी जाएँगी चाँदनी रात में तेरी गोद में सर रखकर जागी रातें. क्या भुला
दोगी तब तक, तेरे गालों की हँसी पे लुटाया था हर दिन थोडा थोडा, क्या मेरे
सीने में तब भी धड़केगा दिल वैसे ही.<br />
क्या चाहकर भी नहीं जानोगी उस कही कविता के हश्र के बारे में. जिसे किसी एक रोज़ सिरहाने पर <span class="text_exposed_show">रखी
किताब में पढ़ना चाहा था तुमने. क्या याद होगा तुम्हें वो नाम अब तक जो
पुकारा करती थीं मोहब्बत भरे दिनों में. क्या साँसे वैसी ही चलती होंगी या
सीख लिया होगा तुमने कोई नया कैलकुलेशन.</span><br />
<div class="text_exposed_show">
जब हम मिलेंगे फिर से कभी कहीं. क्या तुम उधार दे सकोगी अपनी मुस्कराहट उस
पल के लिए. या सिमट जाओगी खुद में ही और कहोगी कि तुम बेहतर हो. और पूँछ
कर तुम मिटा देना चाहोगी कि तुम कैसे हो, पुरानी सभी संभावनाओं को.<br />
मैं फिर भी उस दिन को भर लूँगा अपनी आँखों में और सोचूँगा कि तुम अब भी नहीं उबरी हो जिंदगी के साइड इफेक्ट्स से.</div>
</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-47862880788822126352015-07-13T10:14:00.003+05:302015-07-13T12:19:37.893+05:30मन का पोस्टमार्टम-1<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
हम सब एक दिन चले जाने के लिए ही आये हैं लेकिन क्या हम वो कुछ कभी कर
पाए जो करने के लिए हमारा दिल आ आकर गवाहियाँ देता है. मन काउंसलर बना हमें
बार बार समझाता है कि तुम ये नहीं, ये करने के लिए बड़े भले लगते हो.<br />
कितनी दफा सुनते हैं हम अपने काउंसलर मन की आवाजों को. क्या अन्य तमाम तरह
की आवाजों की तरह ये आवाजें भी गम हो जाने के लिए लगायी जाती हैं.<br />
असल में हम हर रोज़ ही अपने आप से कितना दूर होते चले जाते हैं. अपनी पीतल
पर सोने का झूठा रंग चढ़ाये जाते हैं और भूल जाते हैं कि ये कच्चे रंग<span class="text_exposed_show"> एक दिन उतर जाने हैं.</span><br />
<div class="text_exposed_show">
जब हमारा मन पहली बारिश में नाचने का करता है तो क्या हम नाच पाते हैं.
क्या हम दिल में अटकी किसी बात को होठों तक ला पाते हैं. क्या हम खुले
रास्तों पर गाने का दिल होने पर गा पाते हैं.<br />
फिर वे कौन से क्षण
होंगे जब हम जी सकेंगे जिसे हम दुनियादारी में भुला आये हैं. क्या पानी का
वो सोता हम दुनिया के सामने खोल सकेंगे.</div>
</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-67355340198427809932015-07-13T10:13:00.002+05:302015-07-13T10:15:29.774+05:30कस्बाई मोहब्बत <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अभी दौड़ती भागती ज़िन्दगी ने वहां दस्तक नहीं दी थी. किसी को भी कहीं
पहुँचने की बेताबी नहीं थी. इक छोटा सा क़स्बा था. अभी भी अपने होने की
पहचान लिए खड़ा था.<br />
ना तो उसे रफ़्तार का शऊर आया था और नाहीं उसे
अपने सुस्ताने का कोई ग़म. चन्द दुकाने थीं कहने को, जिससे जीवन अपनी
इच्छाएं पूरी करने में समर्थ था. नई इच्छाएं उग आने का फिलहाल कोई ख़ाद पानी
डाला नहीं गया था.तो बंद मुट्ठी से जीवन में भी ख़ुशी कम नहीं आंकी जाती
थी.<br />
इन्हीं क़स्बाई दिनों में उसकी धड़कने संगीत सी बजने लगती थीं. जब जब वो बस क<span class="text_exposed_show">ी
उस खाली सीट पर आ बैठती. जिसे कितने ही जतन से वो एक लम्बी दूरी से बचाए
हुए आता. उस एक रूट की एक ही बस तो थी वो. जिसे वापसी में भी सवारियां भर
उन्हें उनके गांवों और कस्बों में छोड़ना होता.</span><br />
<div class="text_exposed_show">
बाद के दिनों में धीरे धीरे बाकी की सवारियों ने उसके पास की सीट पर बैठना
ही छोड़ दिया था. और जब उसके क़स्बे के जबरन बनाये गए बस स्टैंड नुमा जगह पर
बस रूकती तो वह आती और उस सीट पर बैठ जाती.<br />
कितना कुछ अनकहा था जो उमड़ता रहता मन के भीतर और हर रोज़ ही मोहब्बत का पौधा कुछ और बढ़ जाता. <br />
अभी तक स्मार्ट फ़ोनों ने ठीक से दस्तक नहीं दी थी. कुछ शौक़ीन जबरन ले भलें
आते थे लेकिन बिना इन्टरनेट उस पर खेले गेम ही जाते थे या जब मन ऊब जाये
तो तसवीरें खीच लो और गाने सुन लो.<br />
लड़के के पास एक पुराना मोबाइल तो
था लेकिन वो उसके इश्क़ में कोई मददगार नहीं हो सकता था. लड़की कस्बों में
मोबाइल नहीं रखा करती थीं. और नंबर की अदला बदली की नहीं जा सकती थी.<br />
तब ऐसे ही किसी रोज़ बस के शहर में रुकते और लड़की के उतरते हुए. लड़का दौड़ा
था फिर पास आकर लड़के ने लड़की का छूट गया बैग थमाया था. घबराहट और शर्माने
की मिली जुली प्रतिक्रिया में लड़की धन्यवाद कहना भी भूल गयी थी. हाँ कुछ
दूरी तक चलते हुए एक बार उसने मुड़कर देखा था. तब लड़का उसे वहीँ खड़ा हुआ
दिखा था. उसे जाते हुए देखते हुए.<br />
तब असल में उनकी उस प्रेम कहानी
का पहला दिन था. शायद पहला क्षण. उस एक रोज़ के उस वाक्ये ने बीच की खायी को
पाट दिया था. जिस पर चल वे दोनों मिल सकते थे. एक दूसरे की भावनाओं को
महसूस सकते थे.<br />
उसी इक दिन में कितना कुछ बदल गया था. अब लड़के की एक
पहचान थी. उसका कोई एक नाम था जो जाना जा सकता था. और शायद मोहब्बत में पड़
वो नाम अपनी स्मृतियों में लिखा जा सकता था.</div>
</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-65430211484261241592015-07-10T08:41:00.004+05:302015-07-13T12:19:42.719+05:30आरजुओं के फूल मन के आँगन में खिलते हैं <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आरजुओं के फूल हर रोज़ ही मन के आँगन में खिल उठते. और मन बावरा हो झूमता.<br />
<br />
उन दिनों भावनाओं का समुद्र जो उमड़ता तो फिर ठहरने का उसमें सब्र ही न
होता.दिल कहता कि ये जो मन की कोमल सतह पर हर रोज़ ही उग आती हैं और दिन ब
दिन बढती है चली जाती हैं. इन्हें किस तरह से थामूं या कि उगने दूं और फिर
किसी एक रोज़ उससे कह दूं कि "तुम जो पास होती हो तो फिर कुछ भी और पा लेने
की इच्छा बची नहीं रह जाती".<br />
<br />
मैं हर आने वाले नए दिन में अपने दिल को टोकता लेकिन वह तो जैसे पतंग बन हवाओं में उड़ता ही रहता. उन <span class="text_exposed_show">क्षणों
में फिर उस अनुभूति को महसूसने के सिवा और कुछ नहीं होता. हरदम ही उसकी
मुस्कराहट, उसका चलना, उसका बोलना सामने आ आ खड़ा होता. और फिर दिल चारों
खाने चित्त हो जाता.</span><br />
<br />
<div class="text_exposed_show">
दिल पतंग सा, रखकर काँधे पे आरजुएं, उसके दुपट्टे सा फिजाओं में उड़ता फिरता. उड़ता ही फिरता.</div>
</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-6631361420599447132015-07-10T08:40:00.000+05:302015-07-13T12:19:51.061+05:30मैं लिखता हूँ क्यों <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
न लिखना जब गुनाह सा लगने लगे, तब तब लिखता हूँ. मैं लिखता हूँ काले
अँधेरे उजियारों में, मैं लिखता हूँ अधूरे दिनों की पूरी रातों में.<br />
<br />
जब भरम पिघल जाये और कानों को गलाने लगे, तब तब लिखता हूँ. मैं लिखता हूँ
उगे हुए सूरज में जी सकने के लिए, मैं लिखता हूँ आत्मा से नज़र भर मिलाने के
लिए.<br />
<br />
जब रोना सुकूँ लगने लगे और हँसना एक बहुत बड़ा गम, तब तब लिखता
हूँ. मैं लिखता हूँ कि लिखा जा सके प्रेम में डूबे महबूब का गम, कि टूटे
पंख लिए परिंदा कोई जब भरता है अपने दिल में उड़ने की अभिलाषाएं. मैं लि<span class="text_exposed_show">खता हूँ कि लिखना रचता है मेरी अभिलाषाओं का संसार.</span><br />
<br />
<div class="text_exposed_show">
जब तलब उठती हो और बुझायी न जा सके उसकी जलती लौ. मैं लिखता हूँ.</div>
</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-22918314023949557822015-07-10T08:38:00.003+05:302015-07-10T08:38:49.691+05:30बारिशों का शहर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ये शहर बारिशों का सा शहर जान पड़ता है. जागती रातों में जब बाहर खिड़की
के मुहाने पर खड़े केले के पत्तों पर बारिशों का संगीत बजता है तो लगता है
तुम्हें यहीं होना चाहिए था. जो तुम होतीं तो मैं बाँट सकता अपने भीतर भर
आये सुख के कुँए को पूरा पूरा.<br />
<br />
जब सबका सवेरा सो जाता है तब उगने लगता है मेरे भीतर रचे संसार का सूरज. जो तुम होतीं तो मैं बाँटता अपने धूप का आँगन.<br />
<br />
बारिशें थमतीं नहीं अक्सर. यहाँ पेड़ों की शाखों पर बजती है कोई धुन रह रहकर. कि जो तुम होतीं तो गीत कोई गुनगुनाता मैं.<br />
<br />
<div class="text_exposed_show">
मैं हूँ शामिल इन सब में लेकिन फिर भी मुस्कुराती नहीं आँखें, कि तुम बिन सब कितना अधूरा है.<br />
यहाँ हर रोज़ ही बरसता है बादल, कि ये शहर बारिशों का सा शहर जान पड़ता है.</div>
</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-53816835218694120292015-07-09T11:43:00.003+05:302015-07-09T11:44:15.020+05:30इच्छाओं का भंवर <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
इच्छा कहाँ से उपजती होगी. अधूरेपन से या पूरेपन से. पूरापन कभी किसी को
कहाँ हासिल हुआ है और जब कभी जो हासिल ही नहीं हो सका उसे फिर पूरापन किन
अर्थों में कहा जाये.<br />
<br />
असल में अधूरापन इच्छाओं का दमन करके पूरा किया नहीं जा सकता तो फिर हम कहाँ से कहाँ को भाग रहे होते हैं.<br />
<br />
ज़िन्दगी के एक छोर से उस दूसरे छोर तक जहाँ इन सबके न जाने क्या अर्थ बचे रह जाते होंगे.<br />
<div class="text_exposed_show">
या दोनों छोरों के मध्य पसरी दूरी को नापने की ज़िद. उस ज़िद को कोई दौड़कर करता है तो कोई सुस्ताता हुआ.<br />
<br />
क्रिएटिविटी जिन किन्हीं खानों में रखी जाती हो. होती बड़ी भली भली है. वो
इन छोरों को नापने का हौसला भरती है. नई ऊर्जा का संचार करती है और जो
राहतों का समन्दर दिखता है कहीं मध्य में वो शायद इसी भली चीज़ की भलमनसाहत
है.</div>
</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-88612552555027283352015-07-09T11:41:00.001+05:302015-07-09T11:44:21.718+05:30वक़्त और इंसान <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक वक़्त में इंसान कुछ हो जाना चाहता है. वो उस होने के लिए जूझता है, संघर्ष करता है. दूसरों से सुलझता है और खुद में उलझता है.<br />
<br />
वो हो जाना असल में उस वक़्त में होता नहीं जिसमें उसके लिए तत्परता होती है.<br />
और फिर जब वही सब एक-एक कर सामने होती हुई दिखती हैं. तब तक उनके लिए सोचा और महसूसने के लिए रखा सुख उड़नछू हो चुका होता है.<br />
<br />
<div class="text_exposed_show">
जिन पहले की सोची गयी बातों को आप गुजरे वक़्त से वर्तमान में ला स्वंय से
भी बोलते हैं तो उनसे जुड़ा सुख बहुत पहले ही वाष्पित हो चुका होता है. और
आप फिर फिर नया कुछ हो जाने के लिए स्वंय को उन्हीं संघर्षों में घसीट लाते
हैं.<br />
<br />
मन का होना मनमाफिक समय से तालमेल बिठाने में पिसड्डी खरगोश होता चला जाता है.</div>
</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-25779197981569823042015-07-09T10:01:00.001+05:302015-07-09T11:25:11.007+05:30इकरारे मोहब्बत <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
ठीक ठीक तो नहीं बता सकता कि कब उसे देख मेरे दिल की हार्ट बीट अपने
नार्मल बेहवियर की शक्लो सूरत बदलना सीखी थी लेकिन इतना तय था कि वो फरवरी
की धूप सी लगने लगी थी. <br />
मैं जिस इंस्टिट्यूट में चन्द रोज़ पहले
पढ़ाने के लिए दाखिल हुआ था. वो बाद के दिनों में उन्हीं क़तारों में शामिल
हो गयी जिनका में हिस्सा था. बच्चों की वे कतारें हमें हमारा स्पेस देतीं.
और तब उन्हीं क्षणों में एक छोर को छोड़ दूजे को पकड़ने के मध्य में हीं उसकी
आँखें मेरी चोर निगाहों को पकड़ लेतीं. मैं जान कर ये जतलाता कि अभी<span class="text_exposed_show"> के बीत गए क्षणों में जो भी और जितना भी भर हुआ था उसमें मेरा कोई कसूर नहीं है.</span><br />
<div class="text_exposed_show">
जब वो कॉरिडोर से गुजरती तो दिल अपनी नार्मल स्पीड छोड़ देता. वो सीधे सपाट
हाईवे को छोड़ प्यार की पगडण्डियों पर चलने लगता. जिसके दोनों और दूर तक
फैले बसंती सरसों के फूल खिल उठे हैं. और वो पगडंडियों से होता उनमें उसकी
शक़्लें तलाशने लगता.<br />
ये इतना भर होता तो भी दिल अपने आप को संभाल
लेता लेकिन जब वो अपनी मुस्कुराहटों के फूल बिखेर देती तो लगता जीवन बस यही
है. कितना सुखद और कितना मासूम.<br />
जब घड़ी आखिरी के क्षणों के लिए
टनटनाने लगती तो दिल उदासियों से भर उठता. फिर उसके बाद की दोपहरें कहीं
किसी किताब के किसी पन्ने पर अटक जातीं और शामें बेवजह के ख्यालों से
गुजरती हुई उसकी यादों को समेट लातीं. रातें बेचैनियों में शामिल ख़ुशी में
करवटें बदलतीं. और जब सुबहें सिरहाने आ मेरे दिल को टटोलतीं तब वो उस
कॉरिडोर में टहलने को चला जाता जहाँ किसी बीते दिन में वो मुझे देख कर भी न
देखना जता रही थी.<br />
दिन तब धीमे धीमे महीनों में तब्दील होते चल दिए
थे और मेरा कॉन्ट्रैक्ट ख़त्म होने की कगार पर था. वो वहां स्थायी थी और
मैं अस्थायी. तब मेरे दिल ने मुझसे सवालात करने प्रारम्भ कर दिए थे. जिनके
उत्तर मुझे उलझा दिया करते. और जब उलझने बहुत बहुत बढ़ गयीं तब मैंने स्वंय
से ही जवाब जानना चाहा था. क्या इक़रार करना इतना दुरूह है.<br />
और
इन्हीं सवालों और जवाबों की कशमकश से जूझता में उसके सामने था. वे बिल्कुल
आखिरी के दिन थे और तब उन्हीं क्षणों में मैंने दिल की राह पर चलते चलते
उससे कहा था "तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो".<br />
वो मुस्कुरायी थी और उन फ्रीज़ हो जाने वाले क्षणों में उसने कहा था "मैं जानती हूँ".<br />
अबकी दफा मुस्कुराने की बारी मेरी थी.<br />
वे क्षण स्मृतियों के धरातल पर बीज़ बनकर गिरे और बाद के दिनों में उनमें
हर रोज़ ही नई नई किस्मों के तमाम फूल खिलते ही गए. खिलते ही गए.</div>
</div>
अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-28113278624388334152015-07-09T09:57:00.002+05:302015-07-09T11:44:29.766+05:30प्रेम में होना <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
सबसे मुश्किल है प्रेम में होकर प्रेम गीत लिखना या लिखना कोई एक प्रेम
कहानी. प्रेम में होना बना देता है साधारण सी प्रतीत होने वाली भावनाओं को
दुरूह. प्रेम फिर केवल प्रेम भर नहीं रह जाता. <br />
वो हो जाता है
हिमालय की चोटी पर पहुंचे उस नई नई उम्मीदों से भरे पर्वतारोही सा. वो
दिखता है, सुनाई पड़ता है लेकिन फिर भी अंत में आकर महसूसना भर रह जाता है.<br />
बावजूद इसके कि करते हैं आप लाख प्रयत्न प्रेम नहीं सिमट कर आता किसी प्रेम कविता में.<br />
<div class="text_exposed_show">
प्रेम जतलाया जाना भी हो जाता है धीरे धीरे स्वंय जैसा. और आप रीते खड़े असहाय से बोल देते हैं पहले से बोलते आ रहे शब्दों को.<br />
प्रेम बेजुबान एक स्वाद है. प्रेम बिना आवाज़ों का कोई संगीत जो बजता है भीतर ही भीतर और आप महसूसते हो उसे हर इक नए क्षण.<br />
प्रेम केवल होना ही भर नहीं है.</div>
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अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-28207966007556795892015-07-09T09:56:00.000+05:302015-07-09T09:56:35.219+05:30प्रतीक्षा मन के धरातल पर रेंगती रहती <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
लड़का बेरोज़गारी से जूझते दिनों में घंटों उसकी प्रतीक्षा करता. घंटे
पहले सेकंड से प्रारम्भ होते और फिर ऐसे कई कई सेकंड प्रतीक्षाओं के जुड़
मिनटों में तब्दील हो जाते और ये पहाड़ी रास्तों से दुर्गम मिनट ऐसे आगे
बढ़ते जैसे घंटों की खोज़ की जानी हो. और ये काम इन्हीं को सौंपा गया हो.<br />
सुबहें पहले दोपहरों में तब्दील होने में आनाकानी करतीं और फिर शाम तक
पहुँचने में उन पर सुस्ती छा जाती. लड़का हर आने जाने वाली विभिन्न किस्मों
की गाड़ियों को देखता और ये जानते हुए भी की शाम होने में अभी इतना सम<span class="text_exposed_show">य
है जितने में वो उस सामने के पार्क में उतनी ही बार बेवजह एक जगह से उठ
चहलकदमी करता हुआ दूसरी जगहों पर बैठ सकता है जितनी दफा वो पहले ये सब कर
चुका है. उन गाड़ियों में रह रहकर उसके होने का आभास होता.</span><br />
<div class="text_exposed_show">
वो दीवारों पर लगे फिल्मों के पोस्टर देखता और उनसे जोड़ मन ही मन नई नई
कहानियां बुनता, उन्हें उधेड़ता और फिर से बुनने में लग जाता. हालाँकि उसने
उनमें से कोई भी फ़िल्म नहीं देखी थी फिर भी सोचता कि कभी किसी रोज़ अगर लड़की
ने कहा कि चलो ये फ़िल्म देखते हैं तो फिर वो क्या करेगा. उसे किस तरह मना
करेगा की वह यह फ़िल्म नहीं देख सकता क्योंकि वह अपने मन में इसे कई कई दफा
पहले देख चुका है. यह एक तरह की पीड़ा है कि आप जैसा सोचते रहे हों वो वैसा न
निकले. और वो इस नई पीड़ा से नहीं जुड़ना चाहता था.<br />
कभी कभी लड़की
जल्दी आ जाती तो लड़का वहीँ अपनी उसी बनायीं हुई दुनियां में अटक रहता. जब
लड़की उसे बाहर हाथ पकड़ वापस अपनी दुनिया से ला जोड़ती तब उसे एहसास होते कि
पीछे वो प्रतीक्षाओं की अंतहीन लड़ियाँ तोड़ कर बाहर लाया गया है.<br />
वो होता इस संसार में किन्तु पीछे रह गए रचाये हुए संसार की स्मृतियाँ उसका पीछा करती ही रहतीं.<br />
कहते हैं प्रतीक्षा मन के धरातल पर रेंगती हुई दूरियां नापती है.</div>
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अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-64360421849101439682015-07-07T13:05:00.001+05:302015-07-09T11:44:37.151+05:30उलझा उलझा बचपन <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मन पर बने घावों के निशाँ कभी नहीं मिटते. बचपन की स्मृतियों में उलझा
वो बच्चा रह रहकर याद हो आता है जिसे कभी ये समझ नहीं आता था कि वो कौनसी
बातें रहती होंगीं जिनको लेकर उसकी माँ आये दिन पिटा करती है. वो बच्चा भरे
हुए स्कूल में बेहद अकेला डरा डरा घूमा करता. न जाने कौनसी उधेड़बुन में
लगा रहता. उसे घर जाने से डर लगा करता. वो असल में स्कूल की चाहरदीवारी में
खुद को कैद कर लेना चाहता. <br />
जहाँ बच्चे स्कूल की टनटन से ख़ुशी में झूम झूम उठते वो सहम जाया करता. वो पतंगों को देख पतंग बन कहीं द<span class="text_exposed_show">ूर उड़ जाना चाहा करता. लेकिन ये उसकी चाहना भर ही रह जाया करती जो कभी पूरी न हुआ करती. </span><br />
<div class="text_exposed_show">
वो सोचा करता कि तीसरी मंज़िल से अपने हाथ फैलाये चिड़ियों की तरह कूदे और
यहाँ से कहीं दूर निकल जाये और जब वापस आये तो माँ के पास कोई दुःख न हो और
नाहीं घावों के निशाँ.<br />
वो मन भर रो लेना चाहा करता किन्तु उसका मन
कभी न भरता. हर जगह थी तो केवल रिक्तता. और मन पर बने उसके घावों के निशाँ
दिन ब दिन गहरे होते ही चले जाते. होते ही चले जाते.<br />
बचपन कभी धुन्धलाता नहीं वो केवल बड़प्पन में पीछे से रह रह झाँकता रहता है.</div>
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अनिल कान्तhttp://www.blogger.com/profile/12193317881098358725noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8681188957576297805.post-69013643164156005842015-07-07T13:04:00.000+05:302015-07-07T13:04:03.596+05:30दिल आज भी तुम्हारी मोहब्बत की बारिश में भीगा हुआ है मेरी जाना.<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वो यही कोई रूमानियत से लबालब बारिशों भरी दोपहर थी. यहाँ वहाँ अपने
अपने बस्तों को अपने नाज़ुक कन्धों पर लादे बच्चे यहाँ वहां भर आये पानी पर
छपा छप खेलने में उत्साहित से दिख जाते. पेड़ धुले धुले गर्मी से राहत की
साँस भरते मुस्कुराते हुए किनारों पर खड़े हर आने जाने वालों पर चिढातेे से
पानी की बौछारें फैंक दिया करते.<br />
कहीं कोई जल्दी नज़र नहीं आती थी. यूँ लगता कि अभी अभी जो सुबह बीती है वो भी कह रही हो कि मुझे भी अपनी इस ठंडक में शामिल कर लो.<br />
सवारियां ऑटो में लदी हुईं न जाने कहाँ से कह<span class="text_exposed_show">ाँ
को जाने में बेचैनी दिखा रहीं थीं. उसी किसी खूबसूरत क्षणों में वो भीगता
रिक्शा न जाने कहाँ से कहीं को न जाने के लिए चलते चला जा रहा था. तब मैंने
ही हाथ दिया था शायद उसको. हाँ मैंने ही दिया होगा. तब तुमने ही कहा था कि
थोडा रुकते हैं. लेकिन तुम्हें बारिशें कितनी तो भाती हैं ये खबर थी
मुझको.</span><br />
<div class="text_exposed_show">
बारिशों ने तब उस
मौसम की पहली आमद दी थी. बिना छतरी वाला रिक्शा था और हम भीग जाना चाहते
थे. तब तुमने कहा था कि कोई क्या कहेगा कि देखो तो भीग जाने के लिए रिक्शे
पर बैठे हैं. और मैं मुस्कुराया भर था. <br />
बारिश की नन्हीं नन्हीं
बूँदें हमारे चेहरों को आ हमें शायद ये बता रही थीं कि अभी हम जीना भूले
नहीं हैं. उन्हीं किन्हीं क्षणों में तुम्हारे गाल को चूमा था मैंने. और
तुम शरमा कर रह गयीं थीं. तब तुमने कहा था कि किसी की भी फ़िक्र नहीं करते.
और मैंने कहा था की सामने फिक्र करने वाला मुझे कोई आता दिखाई नहीं पड़ता.
तब तुम मुस्कुराई थीं और हँसते हुए कहा था कि और पीछे. मैं पीछे आती स्कूल
के बच्चों की साइकिल की कतार को देख कितना हँसा था.<br />
उस भीगते दिन
में मैंने कहा था कि मैं इस शहर में यूँ ही बेपरवाह अपनी सारी ज़िन्दगी
तुम्हारे साथ इसी तरह रिक्शे पर बैठ घूमना चाहता हूँ. उस रोज़ उस बारिश ने
भी उस खुदा से हमारे लिए दुआ माँगी होगी. और शायद उन रिक्शे वाली भैया ने
कहा हो आमीन.<br />
दिल आज भी तुम्हारी मोहब्बत की बारिश में भीगा हुआ है मेरी जाना.</div>
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