Diary 27.08.2011

>> 29 August 2011

-> सड़क के किनारे लगे खोखेनुमा दूकान पर चाय सुदक रहा हूँ. कमीज़ की जेब में शाम 06:20 के शो की टिकट रखी हैं. आज ना जाने क्यों इतनी बेतकल्लुफी छाई है. घर को ना जाकर यूँ सड़क पर धुल उड़ाने को आमादा हैं. निश्चय ही घर पर कोई इंतज़ार में बैठा होता तो कदम यूँ बेफिक्री ना दिखाते. सोचता हूँ एक और चाय गले से उतार लूँ उसमें किसी का क्या जाता है.

-> आज दोपहर भर सड़क की खाक़ छानता रहा. होने को ऐसा कुछ होना तय नहीं था किन्तु उस बीच इतना भर हो पाया कि शऊर आ जाने के लायक किताब खरीद लाये. और जब भूख मुँह को आ गयी तो ठेले पर निवाले पेट में डाले. सोचता हूँ शऊर आते-आते आ ही जायेगा. इस सबके बीच तुम्हारी बहुत याद आयी. वे सडकें तुम्हारे साथ चलने की आदी हो गयी हैं.

-> दूर कहीं से झींगुरों के स्वर मिश्रित होकर गूँजते हैं. कभी पास तो कभी दूर. यहाँ के घर अँधेरे में दुबके जान पड़ते हैं. लोग अपने-अपने घरों की सरहदों के पार निकल आये हैं. और मैं छत पर चारपाई बिछाए औंधे पड़ा हूँ. फिर आकाश देखता हूँ तो कभी उसमें फैले टिमटिमाते तारों की दुनिया. रह रह कर तुम्हारी शक्लें उभर आती हैं. अपनी आँखें मूँद लेता हूँ तो तुम और भी पास चली आती हो.

-> प्रेम होने भर के लिये नहीं होता. ना ही वो होता इतिहास रचने के लिये. वह होता है दिलों की सच्चाइयों को जिंदा रखने के लिये. वे जो चाहते हैं सच्चाइयों को झुठलाना. उन्हें प्रेम कभी पसंद नहीं आता. किन्तु सच्चाइयाँ कभी नहीं मरती. प्रेम बचा रहेगा हमेशा किसी जीते हुए सच की तरह.

3 comments:

Dr (Miss) Sharad Singh 29 August 2011 at 13:37  

शऊर आ जाने के लायक किताब खरीद लाये. और जब भूख मुँह को आ गयी तो ठेले पर निवाले पेट में डाले. सोचता हूँ शऊर आते-आते आ ही जायेगा.

बहुत यथार्थवादी सोच...बधाई.

प्रवीण पाण्डेय 29 August 2011 at 13:50  

तीन माह से डायरी लिखना छूट गया है, पढ़कर लगता है कि पुनः प्रारम्भ कर दूँ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) 29 August 2011 at 14:59  

वे जो चाहते हैं सच्चाइयों को झुठलाना. उन्हें प्रेम कभी पसंद नहीं आता. किन्तु सच्चाइयाँ कभी नहीं मरती. प्रेम बचा रहेगा हमेशा किसी जीते हुए सच की तरह.

यथार्थ सोच ..डायरी का पन्ना अच्छा लगा .

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