दूसरी औरत
>> 31 August 2010
बाहर बीती रातों का अधूरा चाँद गोल हो आया था । भीतर सूना एकांत फैलता जा रहा था । जो हर नये दिन बढ़ता ही जाता था । रेंगते अकेलेपन को छिटकते हुए छुटके बोला
-"नींद आने से पहले भी कितना सोचना होता है न !"
-"हाँ शायद" पास ही लेटी मनु ने कहा ।
-"लेकिन इंसान इतना सोचता क्यों है ?" छुटके ने पूँछना चाहा ।
-"शायद उसका सोचना ही उसे बड़ा बनाता है । एक समय में उम्र और समझ में बहुत बड़ा फासला आ जाता है ।" मनु खुद में ही खोयी हुई बोली ।
-मतलब !
"सो जाओ छोटे रात बहुत हो चुकी है ।" मनु ने करवट बदलते हुए कहा ।
कभी-कभी छोटे सोचता कि मनु की अपनी एक दुनिया है । विशाल और अदृश्य । वो बस उसकी देहरी तक जा सकता है लेकिन भीतर नहीं । वह उतना ही देख सकता है जितना कि मनु चाहे ।
अगली शाम का अनालोकित होता आलोक ऐसा लग रहा है जैसे बीता हुआ दिन हथेलियों से फिसलकर बहने लगा है । हर रोज़ की तरह वे तीनों समुद्र के किनारे बैठे हैं । छुटके और मनु पास-पास, उनसे दूर कहीं माँ । छुटके मनु की दुनिया की देहरी पर खड़ा हो कहता है
-तुमने देखा है, माँ के भीतर एक रीतापन जन्म ले रहा है ।
-हाँ शायद, बहुत पहले से ।
-"कब से ?" छोटे फिर से बड़ा होने की कोशिश करता है ।
तुम उम्र में बहुत छोटे थे, तब । अब तो छह बरस होने को आये । उस आदमी के चले जाने के २-३ बरस बाद । जिसे माँ अपना पति कहा करती थी । उन दिनों मैंने पहली बार उनके अकेलेपन को देखा था । जब उनके अन्दर सबकुछ ख़त्म हो गया था । क्रोध, मोह, भय और प्रेम । यह बहुत भयावह था । अकेलापन जो भीतर पनपता है और जिसे बाहर कोई नहीं देख सकता । इंसान के होने और ना होने के मध्य पसरा हुआ । मृत्यु के बाद के अकेलेपन से भी भयावह होता है यह । क्योंकि मृत्यु के बाद स्मृतियों से प्रेम और मोह जुड़ा रहता है ।
छोटे तुम्हें याद नहीं लेकिन उस दिन तुम बहुत रो रहे थे । मैं चलती ट्रेन के पीछे-पीछे बहुत दूर तक दौड़ी थी । मेरी आवाजें रेल की पटरियों तले दब गयी थीं । वो चले गये थे । माँ ने उन्हें नहीं रोका था । उसके बाद से माँ ने समय को कभी दिन, महीने और बरस में नहीं बाँटा । उनके लिये तो वह बस समय था । सूना एकांत में पसरा हुआ ।
एक दिन आया जब वो रीती हो गयीं । शाम के बुझते आलोक में फैले हुए एकांत के रीतेपन की तरह रीती । सर्दियों के चले जाने के बाद पहाड़ों की तरह रीती । तबसे वे हर नये दिन इसमें कैद होती जा रही हैं ।
"तुम्हें याद है, वो कहाँ चले गये ?" छुटके ने जैसे कोई भेद जानना चाहा हो । पता नहीं लेकिन उन दिनों घर पर आने वाले लोग कहते थे कि "उन्होंने दूसरी औरत कर ली है ।" तब उन दो शब्दों ने छोटे को एक पल में ही बड़ा कर दिया था । छोटे मन ही मन दोहराता है "दूसरी औरत" ।
* चित्र गूगल से
17 comments:
Uf! Kisee ke reete panka ye behad vedanamayi darshan hai..
गज़ब! उम्दा लेखन
कालक्रम में सीमाओं के आर पाए जाती कहानियाँ मुझे अच्छी लगती हैं।
आभार।
यहाँ भी मनु?
प्रसाद की पंक्तियाँ याद आ रही हैं:
कौन तुम संसृति जलनिधि तीर
तरंगों से फेंकी मणि एक?
Bahaut marmsparshi gahan abhivyakti...
टूटे तारों ने तो किस्मतों को सवाँरा है
बहुत बढ़िया
अनालोकित होता आलोक...
ज़िन्दगी से बेहतर टीचर और कोई नहीं... आपको बड़ा बना ही देती है...
और एक लेखक अपनी ही कलम से गढ़े अनेकों किरदारों जो जीते जीते... हर अच्छी बुरी परिस्थिति से गुज़रते हुए... शायद सबसे ज़्यादा अनुभवी हो जाता है...
बहुत मार्मिक कहानी ...जीवन के खालीपन को और उस खालीपन के कारण को जिस तरह लिखा है ..तारीफ़ के काबिल है ..
ज़िन्दगी के रीतेपन का सजीव चित्रण कर दिया……………जिसे कहकर भी नही कहा जा सकता सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है।
बहुत बढ़िया लगी यह कहानी ...अपने आस पास की ..शुक्रिया
अकेलापन भयावह होता है। मार्मिक अभिव्यक्ति।
उफ्फ ... बहुत ही मार्मिक ... अकेलेपन को झेलना बहुत भयानक होता है ....
स्तब्ध कर गयी ये पोस्ट ...
अकेलापन जो भीतर पनपता है और जिसे बाहर कोई नहीं देख सकता । इंसान के होने और ना होने के मध्य पसरा हुआ । मृत्यु के बाद के अकेलेपन से भी भयावह होता है यह । क्योंकि मृत्यु के बाद स्मृतियों से प्रेम और मोह जुड़ा रहता है ।
zindgi ka saar kah diya aapne
बहुत बढ़िया
लाजवाब...
कहानी बड़ी हो या लघु बंद रखने की असीम क्षमता है आपमें...
Painfully beautiful...
Good good.
Post a Comment