ख़्वाहिशों की शाम ढलती है !!

>> 17 December 2009

अजीब दिन थे । बाहों में बाहें डाले चहलकदमी करते रहने के दिन । उतरते हुए सूरज और ढलती हुई शामों के दिन । दूजे के हाथों प्रेम संदेशा पहुँचाने के दिन । गली के नुक्कड़ पर उसका इतंजार करते रहने के दिन । किताबों के आखिरी सफहों पर मन में पिघल रहे कुछ शब्दों को लिख देने के दिन ।

ऐसे ही उन दिनों में कस्बाई सपने, जो सुबह सूरज के साथ उगते थे और ढलती हुई शामों के साथ छतों से कपड़ों की तरह उतार लिये जाते थे । कई आँखें थी आस पास जो मिल जाने पर शरमा कर झुक जाया करती थीं। कई आँखों में दबे-छुपे से प्रणय निवेदन तो कई आँखें जो भुलायी नहीं जा सकती । शराफत के दिन, नजाकत के दिन, मोहब्बत के दिन, आरजुओं के दिन ।

वो उसे बस यूँ ही एक रोज़ अपनी छुट्टियों के होने पर वापसी में घर जाते हुए उसी स्टेशन पर मिल गयी । तब ना यूँ किसी को 'फ्लर्ट' करने के तरीके आते थे और ना ही कोई किसी को 'इम्प्रेस' करने की कोशिश किया करता था । बहुत सादगी हुआ करती थी । एक दूजे के आमने सामने बैठे हुए भी कई घंटे बिना बात किये हुए बीत जाते थे और जो नज़रें मिल जाएँ तो अन्दर ही अन्दर अजीब सी हलचल सी मच जाया करती थी ।

अपर्णा, हाँ यही तो नाम बताया था उसने जब वो सिद्धार्थ को दूसरी बार फिर यूँ ही उसी रास्ते घर को जाने के लिये स्टेशन पर मिली थी । फिर हर बार ही उनमें कुछ ऐसी अनकही बातें सी हो गयीं थीं कि छुट्टियां होने पर वो स्टेशन पर एक दूजे का इंतज़ार किया करते और जब तक दूसरा ना आ जाता तब तक पहला ना जाता । बड़े सुहाने दिन थे, तब शायद वो रेलगाड़ियाँ भी दोस्त हुआ करती थीं । जो दोनों के साथ हो जाने तक वहीँ खड़ी रहती थीं।

अपर्णा को सिद्धार्थ से दो स्टेशन पहले ही उतरना होता था । तब आज की तरह उन कस्बाई रूहों में बाय बाय या टाटा-टाटा कहने का रिवाज नहीं हुआ करता था । बस सिद्धार्थ उसका सामान उसे उसके रेलगाड़ी से नीचे उतर जाने पर पकड़ा दिया करता था और अपर्णा "अच्छा" कहती हुई चली जाया करती थी ।

जब साथ हुआ करते तो उन्हें सब पता रहता था कि अब कौन सा स्टेशन आएगा या किस स्टेशन पर कौन सी खाने की चीज़ अच्छी मिलती है । दूसरे के बोलने से पहले ही कोई बोल पड़ता कि चलो ये खायें या फिर कभी कभी दोनों एक साथ ही बोल पड़ते, ये भी एक अजीब बात थी कि दोनों की जुबान से एक से ही लफ्ज़ निकलते थे ।

साथ वापस आते और फिर साथ ही दोबारा कॉलेज जाते हुए उस दूर बसे दूसरे शहर के लिये दिल में कुछ पैदा हो गया था । शायद ऐसा कुछ कि क्या ये नहीं हो सकता कि ये जिंदगी ऐसे ही सफ़र करते हुए कट जाए । कहने को तो ना ही अपर्णा ने कुछ कहा था और ना ही सिद्धार्थ ने कभी कुछ पूंछना चाहा ।

उन्हीं दिनों में जब "आई लव यू" कहने का रिवाज़ ना था । ना ही कोई अपने प्रेम का इजहार यूँ खुले रूप में करता था । मौन स्वीकृतियां ही प्रेम कहानी बन जाया करती थी । तब तो बस वही भोले भाले से प्रेम पत्र हुआ करते थे जो कि चाहने वालों के दिलों से निकली हुई आवाजें दूजे के दिल तक पहुँचाया करते थे ।

वो चेहरे के भाव, वो आँखें, वो ख़ामोशी और फिर रह रहकर कुछ बात कर लेने की आदत । सब कुछ तो याद हो गया था सिद्धार्थ को । एक दूजे की कई आदतें पता चल चुकी थीं, उन किये हुए सफरों के दौरान । दोनों ओर से मौन रहते हुए भी, कुछ भी ऐसा नहीं था कि जो कहने को बाकी था ।

तब उस रोज़ वो अकेली नहीं थी । एक बुजुर्ग चेहरा भी उस चेहरे के साथ था । साफ़ था, कि वो जाहिरी तौर पर उसके पिताजी ही थे । उस रोज़ रेलगाड़ी भी वही थी और सफ़र करने वाले भी वही, मगर आँखों में ख़ुशी नहीं थी । सवाल तो कभी उन आँखों ने पूंछे ही न थे । तब उस रोज़ की ख़ामोशी ने सब कुछ पहले ही बयाँ कर दिया था । ऐसी गहरी ख़ामोशी तो कभी न रही थी उस चेहरे पर जो कि सीधे दिल में उतर जाए और छा जाए एक खामोश पल बनकर ।

जब रेलगाड़ी से उतरते हुए उसने वो किताब उस बुजुर्ग चेहरे के सामने ही सिद्धार्थ को वापस की थी । तो बहुत कुछ तो बिना जाने ही उस दिल को आभास हो चला था ।

किताब का आखिरी सफ़हा जो कि अब अपर्णा की जुबाँ थी और जो कह रही थी । अब अगले बरस मैं नहीं आ सकूँगी, आगे की पढाई शायद अब मैं ना कर सकूँ । पिताजी अब यही चाहते हैं ।

उस आखिरी सफ़हे का साफ़ कहना था कि अब अपर्णा कभी फिर इस सफ़र पर नहीं आएगी और आगे की पढाई ना करने का मतलब था कि उसके पिताजी ने उसका रिश्ता कहीं तय कर दिया है । उस रोज़ वो अपर्णा का आखिरी सफ़र था जिसमें कब कौन सा स्टेशन गुज़र गया, ना ही तो अपर्णा ने जानना चाहा था और ना ही सिद्धार्थ ने ।

ट्रेन से उतर जब वो उस पुल पर पहुँची थी तब उसने पलट कर एक बार देखा था और जाते हुए अपना रुमाल गिराया था । सिद्धार्थ तब चाहते हुए भी वहाँ पहुँच वो रुमाल नहीं उठा सका था । रेलगाड़ी में उसका सामान रखा हुआ था । किताबें, पेन, कपड़े और वो आखिरी किताब भी जिसके आखिरी सफ़हे पर अपर्णा के लिखे हुए आखिरी लफ्ज़ थे । रेलगाड़ी चल दी थी और तब सिद्धार्थ के पास इतना वक़्त ना था कि वो दौड़कर जाकर उस रुमाल को उठा ले । उसकी आखिरी निशानी भी तो ना ले सका था सिद्धार्थ ।

इतने बरस बीत गये । पता नहीं कहाँ होगी अपर्णा । उस आखिरी रोज़ के आखिरी सफ़र में वो निशानी भी जाती रही ।





नोट : कहानी का विचार 'कितने पाकिस्तान' उपन्यास के चंद सफहों से लिया गया है ।

31 comments:

Rajeysha 17 December 2009 at 18:45  

जवानी खूबसूरत होती है, उसकी हर कहानी खूबसूरत होती है।

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) 17 December 2009 at 18:49  

uffffff..... aapke lekhan ki main kayal ho gayi..... ek ek lamha jaise hu-ba-hu aap panno par utar diya karte hai....

vandana gupta 17 December 2009 at 18:52  

bahut hi sundar khyal ko kahani mein piroya hai.........kuch palon ke liye to usi mein doob gayi.

दिगम्बर नासवा 17 December 2009 at 19:03  

आपकी पोस्ट पढ़ कर घंटों चुप बैठने का मन करता है ..... अजीब सी कशिश है इस रचना में .........

shikha varshney 17 December 2009 at 19:08  

बहुत खूबसूरती से रची है आपने ये रचना.मासूमियत, प्यार ,एहसास,कशिश सबकुछ है इसमें..बस पढ़ते चले जाने को मन करता है..

अजय कुमार झा 17 December 2009 at 20:42  

अनिल भाई यार कितना स्टौक है आपके पास ....हर बार नई कहानी हर बार एक नया अफ़साना ...कुंवारे होते तो पगला पगला के आपही को पढते और यकीन मानिये हमारे गुलशन नंदा तो हम बना ही लेते आपको ...लिखते रहें यूं ही

PD 17 December 2009 at 22:45  

ye bhi badhiya.. Ajay bhaiya ki baat par gaur karna.. vaise ham abhi tak paglaye nahi hain.. :) shayad 3-4 saal pahle ye sab padhta to paglaya rahta.. :D

अनिल कान्त 17 December 2009 at 23:00  

हमने अजय भैया की बात पर भी गौर किया और आपकी पर भी... :)

अनिल कान्त 17 December 2009 at 23:04  

@पी.सी.गोदियाल जी , @Vandana!!! जी , @वन्दना जी , @दिगम्बर नासवा जी , @shikha varshney जी
आप लोगों का बहुत बहुत शुक्रिया

AK 18 December 2009 at 00:15  

well executed story...
twist lake chhod diya.......:(

Any way I loved it.....

आशु 18 December 2009 at 00:19  

अनिल जी,

पागल हो क्या आप. इतना अच्छा और इतने सुन्दर व् मासूम दिल को छूने वाले शब्दों से भी कभी कोई लिखता है? आप तो ऐसे लिख कर मार ही डालते हो. क्यों आप पढने वाले वाले के दिल को तो आप निर्मता से कुचल ही डालते हो ?

बहुत अच्छा !!

आशु

कुश 18 December 2009 at 09:10  

बढ़िया फ्लो बना है इस बार..

राकेश 'सोहम' 18 December 2009 at 12:42  

एकदम अपनी सी ही बात क्यों लगती है ? इस प्रेम कहानी में एक लड़का होता है , एक लड़की होती है ..कभी दोनों हँसते हैं कभी दोनों रोते हैं ...आय एम् सोरी .. दिल की अतल गहराइयों में उतरती ही जाती है यह रचना . क्या बात है.....एक बार नहीं बार-बार पढ़ा.

rashmi ravija 18 December 2009 at 14:04  

मासूमियत से भरी रचना...कितनी अजीब बात है,अब यह मासूमियत किताबों,कहानियों का हिस्सा बन कर रह गयी है...गाँव,कस्बों में भी नहीं मिलती...अच्छा प्रवाह लिए थी कहानी.

Susheel Chaudhary 18 December 2009 at 14:43  

good yaar......tum to ab kafi aage nukal chuke ho..........very good story......

Pushpendra Singh "Pushp" 18 December 2009 at 17:01  

बहुत अच्छी एवं सुन्दर रचना
बहुत -२ आभार

राहुल पाठक 18 December 2009 at 17:04  

bahut hi sahi kaha ..nmaine padi hai kitne pakistan..bilkul cut copy paste mara hai....

bahut hi acha likhe ho anil bhai...lage raho

अनिल कान्त 18 December 2009 at 17:13  

@राहुल पाठक जी
दोस्त यहाँ ज़मीन('कितने पाकिस्तान' वाली) वही है पर 95% शब्द मेरे ही हैं.
शायद आपने उन शब्दों को ठीक से नहीं पढ़ा

योगेन्द्र मौदगिल 18 December 2009 at 17:52  

wah....

note dene ki jaroorat kya thi..sabki samjh me saari bate nahi aati...

महेन्द्र मिश्र 18 December 2009 at 18:42  

ज वानी दीवानी होती है भुलाए नहीं भूलती है ..ख़ूबसूरत बिंदास अभिव्यक्ति .....

देवेन्द्र पाण्डेय 18 December 2009 at 21:55  

बहुत अच्छी लगी यह कहानी
बहुत दिनों के बाद कोई कहानी पूरी पढ़ सका

Udan Tashtari 19 December 2009 at 23:14  

देर से आये तो आराम से बहे होले होले...बहुत सुन्दर प्रवाह और ....भाव!! बंधे रहे!!

richa 20 December 2009 at 12:50  

अपर्णा और सिद्धार्थ के साथ यूँ रेलगाड़ी में यादों का सफ़र करना बहुत अच्छा लगा...

monali 20 December 2009 at 15:36  

Ye hamesha judaa kyu ho jate hin aapki kahaani k nayak nayika... kabhi inhein khushi ki zindagi jeene dijiye na...

Ashish (Ashu) 20 December 2009 at 21:25  

वाऊ, रियली तुस्सी ग्रेट हो, तुस्सी तो छा गये

वन्दना अवस्थी दुबे 21 December 2009 at 23:22  

बहुत देर से आई, और सुन्दर सी सौगात ले जा रही हूं. बढिया कथानक. सुन्दर कथा.

गौतम राजऋषि 22 December 2009 at 11:02  

कितने पाकिस्तान की अच्छी याद दिलायी तुमने अनिल....वैसे एक और कहानी तुम्हारी लिखी याद आयी जो लगभभ इसी थीम पर थी।

अनिल कान्त 22 December 2009 at 11:15  

गौतम सर वो कहानी मैने तब लिखी होगी जब मैने 'कितने पाकिस्तान' नही पढ़ी थी. हां ये कहानी मैं कितने पाकिस्तान पढ़ने के बाद लिखी है. वही ज़मीन है, बस ज़्यादातर शब्द मेरे हैं.

संजय भास्‍कर 22 December 2009 at 17:54  

बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......

Sourabh 11 April 2011 at 14:25  

siddharth aaj bhi us station (kanpur in kitne pakinstan)se gujarta hai to use pul ke upar se girta hua rumaal dikhta hai.....

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