ज़िक्र (एक प्रेम कहानी)-भाग 2
>> 22 December 2009
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सर्दियों की गुनगुनी धूप थी, आसमान पंक्षियों के होने से और भी ज्यादा खूबसूरत लग रहा था । पेड़ों ने अपना पुराना लिबास उतारकर नया धारण कर लिया था और उसमें वो कुछ ज्यादा ही खूबसूरत लग रहे थे । कहीं दूर से भीगी हुई धरती की भीनी-भीनी महक आ रही थी, जैसे हवाओं में घुल सी गयी हो ।
सिद्धांत एक कुर्सी पर अधलेटा सा पैरों को पसारे हुए, सीने पर किताब को उलट कर रखे हुए किसी सोच में उन पंक्षियों को निहार रहा था । छत पर क़दमों ने दस्तक दी । "सिद्धांत, बेटा क्या सोच रहा है ?" छत पर मिर्चों को पसारते हुए सिद्धांत की माँ बोलीं। सिद्धांत का ध्यान टूटता है और कहता है "ह्म्म्म, कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं ।"
"बेटा मुझे कुछ तुझ से बात करनी थी । कल रात ही कहना चाहती थी लेकिन तू जल्दी सो गया तो मैंने सोचा कि कल ही कहूँगी । " सिद्धांत की माँ उठकर उसके पास सामने की कुर्सी पर बैठ गयीं । सिद्धांत बोला "क्या बात करनी थी ? बोलिए ।" सिद्धांत की माँ ने सिद्धांत को एक नज़र प्यार से देखा और कहा "देख बेटा हम जानते हैं कि तुम फिलहाल शादी नहीं करना चाहते । लेकिन मेरे और अपने बाबू जी के बारे में भी तो सोच । माना वो तुझसे कुछ कहते नहीं लेकिन हर बाप का मन करता है कि उसके लड़के की शादी हो, बारात चढ़े, शहनाई बजे । एक माँ भी यही सब चाहती है । देख बेटा उनके किसी दोस्त के दोस्त की एक लड़की है । वो चाहते हैं कि हम सब वहाँ जाकर एक दूसरे को देख ले, समझ लें और सच तो यही है कि मैं भी चाहती हूँ । अच्छे लोग हैं तो बात चलाने में हर्ज़ ही क्या है ? बेटा अब हमारी खातिर ही लड़की देख लो और पसंद आने पर शादी कर लो ।" सिद्धांत अपनी माँ की ओर देखता है और मुस्कुराकर कहता है "बस इतनी सी बात । ठीक है कब चलना है, उनके यहाँ ?" सिद्धांत की माँ खुश होकर कहती है "कल चलना है । कल सोमवार है । कल दिन भी शुभ है ।"
कुछ एहसास जो बहुत कहीं पीछे छूट गये हों, वो अचानक से सामने आकर अगर दामन थामने लगे तो उस पल समझ नहीं आता कि आखिर वो रब चाहता क्या है ? आखिर उसकी मंशा क्या है ? उसने मुझे ही क्यों चुना इन सबके लिये ।
ऐसा ही तो महसूस कर रहा था सिद्धांत जब लड़की वालों के यहाँ पहुँचकर जो लड़की उसके सामने आयी वो कोई और नहीं विद्या थी । एक पल को सिद्धांत पिछली जिंदगी में चला गया । वो हॉस्टल, वो डायरी, वो क्लास, वो विद्या की मुस्कराहट, वो ढेर सारी रातें और वो ढेर सारे अल्फाज़, उसके चेहरे के सामने आकर खड़े हो गये । उसे लगा कि ये विद्या नहीं हो सकती । उसने फिर से कोशिश की, सामने आयी हुई लड़की को ठीक से देखने की । हाँ ये विद्या ही तो थी, जो उसके सामने खड़ी थी । ठीक उस रोज़ के बाद जब वो पुस्तकालय में मिली थी । जिंदगी भी क्या क्या अजीब मोड़ पर आकर रूकती है और ये ऊपर वाला भी ना जाने किन बीते हुए दिनों का ज़िक्र यूँ कर देता है, एक पल को तो विश्वास ही नहीं होता ।
उधर विद्या, सिद्धांत को देखकर कुछ असहज सी महसूस करने लगी थी । वही सिद्धांत जो कॉलेज के दिनों में हर लड़की को पसंद था । सभ्य, समझदार, शांत और बिलकुल नेकदिल । हाँ सभी तो जानते थे सिद्धांत के बारे में । लेकिन उसे तो कुछ और ही चाह थी । इन्हीं बातों में खोयी हुई विद्या लौटकर अपने घर बैठे उन लोगों के बीच खुद को पाती है ।
विद्या की माँ सिद्धांत से कहती है "बेटा कुछ लो, तुम तो तब से यूँ ही बैठे हुए हो । चाय ठंडी हो रही है, ये मिठाई भी खाओ बेटा " सिद्धांत चाय उठा लेता है । सिद्धांत के माता-पिता विद्या से बातें करते हैं । विद्या के पिताजी और माँ सिद्धांत से बातें करते हैं । कुछ समय यूँ ही गुज़र जाता है । सभी जानते थे कि विद्या खूबसूरत है और उसे नापसंद करने का कोई कारण नहीं हो सकता । तभी सिद्धांत के पिताजी के दोस्त, विद्या के पिताजी की ओर देखते हुए कहते हैं कि "लड़का-लड़की चाहे तो आपस में बात कर सकते हैं, क्यों गलत तो नहीं कहा ना मैंने किशोर जी"
"हाँ-हाँ क्यों नहीं, हमें कोई एतराज नहीं, आखिर जिंदगी भर का मामला है । आपस में लड़का-लड़की को बात तो करनी ही चाहिए ।" विद्या के पिताजी कहते हैं और फिर सब वहाँ से उठकर बाहर के बागीचे में चले जाते हैं ।
अब उस मेहमानों के कमरे में सिर्फ विद्या और सिद्धांत थे । दोनों को यूँ लग रहा था कि ये जिंदगी का सबसे कठिन दौर है जो अचानक से उनके सामने आ गया है । दोनों ही सोच रहे थे कि मैं क्या कहूँ ? क्या बात करूँ ? दो इंसान जो एक दूसरे को अच्छी तरह जानते थे, उनके पास आज शब्द नहीं थे इस ख़ामोशी को तोड़ने के लिये ।
तब सिद्धांत कमरे की पेंटिंग की ओर इशारा करते हुए कहता है "ये पेंटिंग बहुत खूबसूरत है, नहीं ?" विद्या पेंटिंग की ओर झिझकते हुए देखती हुई कहती है "हाँ" फिर मन ही मन सोचती है कि आखिर ये उसे क्या हो गया है ? ये पेंटिंग तो कभी उसने ही बनायीं थी और आज कोई उसकी प्रशंसा कर रहा है तो उसके पास शब्द नहीं है प्रतिउत्तर में कहने के लिये ।
फिर विद्या बोलती है "आप चाहो तो मैं ही मना कर दूँगी ताकि आपके घरवालो को बुरा न लगे कि आपने शादी के लिये मना कर दिया" सिद्धांत, विद्या की ओर देखकर कहता है "क्यों तुम शादी नहीं करना चाहती या मुझसे ही शादी नहीं करना चाहती ?" विद्या कुछ शांत सा हो जाती है फिर कहती है कि "नही, ऐसी तो कोई बात नही" सिद्धांत कहता है "कैसी ? कि शादी करना चाहती हो मगर मुझ से नही" विद्या कहती है "शादी तो करनी ही है । क्योंकि मैं नही चाहती कि मेरे माता-पिता मेरी वजह से परेशान रहे ।" सिद्धांत मुस्कुराते हुए कहता है "ठीक मेरी तरह" विद्या एकपल को सिद्धांत की ओर देखती है ।
सिद्धांत कहता है "देखो विद्या मुझे नही पता कि तुम्हारा अतीत क्या रहा । लेकिन एक बात जानता हूँ कि तुम अगर चाहो तो साफ़ साफ़ मना कर सकती हो और मुझे बुरा नही लगेगा । मेरा क्या है, मुझे तो शादी करनी ही है । वो तो किसी भी सुन्दर, पढ़ी लिखी और अच्छे परिवार की लड़की को देखकर मेरे घरवाले करना चाहते हैं । तुम मना कर दोगी तो कहीं और हो जायेगी ।" विद्या, सिद्धांत की एक एक बात सुन रही थी और उसकी नज़र कहीं शून्य में गुम थी । वो वहीँ मौजूद होते हुए भी खुद को ना जाने कहाँ पा रही थी । तब तक उन दोनों के माँ-बाप वहाँ आ जाते हैं । सिद्धांत के पिता के दोस्त बोलते हैं "तो क्या बात हुई ? क्या निष्कर्ष निकला बात करके ?"
सिद्धांत थोडा सा मुस्कुराता है और विद्या उठकर खड़ी हो जाती है । सिद्धांत की माँ कहती है "बैठो ना विद्या ।" विद्या बैठ जाती है । सिद्धांत के पिता के दोस्त सिद्धांत से कहते हैं कि "तो महाशय क्या जवाब है आपका ?" सिद्धांत विद्या की और देखने लगता है । विद्या उठकर जाने लगती है । सिद्धांत की माँ कहती है "देखो जी हमें तो लड़की बहुत पसंद है । सिद्धांत के पिताजी की ओर देखते हुए कहती हैं "क्या कहते हो जी ?" सिद्धांत के पिताजी कहते हैं "हाँ जी बिलकुल । हमें तो लड़की पसंद है । हमें कोई ऐतराज़ नही । बाकी लड़का और लड़की जाने ।"
सिद्धांत की माँ कहती है "सिद्धांत, बेटा बताओ कुछ । तुम्हारा मन क्या कहता है ?" सिद्धांत सामने लगी पेंटिंग की ओर देखता है फिर अपनी माँ की ओर देखकर कहता है "माँ अगर विद्या को सब पसंद है, वो अगर शादी करना चाहती है तो मुझे कोई ऐतराज़ नही । आप विद्या से पूँछ कर जवाब दीजिएगा ।"
सिद्धांत के पिता सागर जी, विद्या के माता-पिता से कहते हैं "अच्छा तो फिर हमें चलने की इजाज़त दीजिये । आप विद्या से पूँछना कि वो क्या चाहती है । आप हमें फिर जवाब दे दीजिएगा ।" उसके बाद सिद्धांत और उसके माता-पिता वहाँ से चले आते हैं ।
सिद्धांत और सिद्धांत के माता-पिता के चले जाने के बाद विद्या के माता-पिता विद्या से कहते है "हमें तो लड़का बहुत पसंद है । सभ्य है, सुन्दर है, सुधील है, कामयाब है । कॉलेज में प्रोफ़ेसर है । उसके माता-पिता भी बहुत अच्छे हैं । ऐसा ही रिश्ता तो हमें चाहिए था । क्या कहती हो विद्या ? तुम्हें सिद्धांत कैसा लगा ?" विद्या जो अपने माता-पिता की बात सुन रही थी और कुछ सोच रही थी, कहती है " सिद्धांत ने क्या कहा ? क्या वो शादी के लिये तैयार है ?"
विद्या की माँ कहती हैं "बहुत खुशनसीब होती हैं वो लडकियां जिन्हें ऐसा पति मिलता है जो अपने से पहले अपनी पत्नी की इच्छा का ख़याल रखता है । उसने यही कहा कि अगर विद्या को कोई ऐतराज़ नही तो मुझे भी कोई ऐतराज़ नही ।" विद्या अपनी माँ की बात सुनकर कुछ खामोश सी हो जाती है और कहती है "मुझे कुछ वक़्त दीजिये सोचने के लिये । मैं एक-दो दिन में जवाब देती हूँ ।"
अगली शाम विद्या अपनी माँ से कहती है "माँ क्या में सिद्धांत से एक बार और बात कर सकती हूँ ?" विद्या की माँ कहती है "क्यों अब क्या बात करना चाहती है ? उस दिन क्या बात नही कि थी ? या उस दिन कुछ अधूरा रह गया था ।" विद्या अपनी माँ के हाथों को पकड़ कहती है "माँ, आखिर जिंदगी भर की बात है । इतना हक़ तो बनता है । कुछ निर्णय बहुत मुश्किल होते हैं । उन्हें लेना तो और भी ज्यादा मुश्किल होता है । मैं एक बार और सिद्धांत से बात करना चाहती हूँ ।" विद्या की माँ कहती है "ठीक है, अगर तेरी यही मर्ज़ी है तो मैं सिद्धांत की माँ से बात करती हूँ ।"
विद्या की माँ सिद्धांत की माँ से सारी बात कर लेती हैं और उसके बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि विद्या और सिद्धांत अगले रोज़ बाहर किसी रेस्टोरेंट में मिल लेंगे और जो बात करना चाहते हैं वो कर लेंगे।
सिद्धांत आज रेस्टोरेंट में बैठा हुआ विद्या का इंतज़ार कर रहा था तभी उसकी आँखों के सामने वो शाम आकर खड़ी हो गयी जब उसने विद्या से अपने दिल का हाल कहना चाहा था । जिस शाम के बाद की सारी रात उसने इंतज़ार करते करते वहीँ उस रेस्टोरेंट के सामने गुजार दी थी । अजीब इत्तेफाक है उस शाम का ज़िक्र भी ये आँखें अचानक आज यूँ इस तरह क्यों कर रही हैं । जो बहुत पहले कहीं पीछे छूट गया वो आज यूँ इस तरह सामने क्यों आ रहा है ? इसी सोच में डूबा सिद्धांत बैठा था कि तभी वहाँ विद्या पहुँच गयी । सिद्धांत की नज़र आती हुई विद्या पर पड़ती है ।
वही विद्या जिसके सामने पड जाने पर उसके दिल कि धड़कन तेज हो जाती थी, कलम अल्फाज़ लिखने को बेताब रहती थी । जिसको देख भर लेने से सिद्धांत को अपार ख़ुशी मिलती थी ।
विद्या सिद्धांत के पास पहुँच जाती है, सिद्धांत खड़ा होकर उसका स्वागत करता है और उसे बैठने के लिये कुर्सी देता है । अचानक से उनके बीच एक ख़ामोशी आ जाती है । तब न तो विद्या के पास कोई लफ्ज़ होते और ना ही सिद्धांत के पास पूँछने के लिये कुछ । तभी वेटर आकर उनकी ख़ामोशी तोड़ता है और कहता है "क्या लाना है सर ?" सिद्धांत उसकी ओर देखता है फिर विद्या की ओर और कहता है "मैं तो एक कॉफी लूँगा और तुम विद्या क्या लोगी ?"
विद्या ख़ामोशी तोड़ते हुए कहती है "ह्म्म्म, मैं भी कॉफी लूँगी ।"
वेटर के चले जाने पर सिद्धांत कहता है "माँ कह रही थी कि तुम मुझसे मिल कर और बात करना चाहती हो । पूँछो क्या पूँछना चाहती हो ? " विद्या सिद्धांत को एक नज़र देखती है और फिर कुछ सोचती है और कुछ कहना चाहती है तभी वेटर वहाँ आकर कॉफी रख जाता है । सिद्धांत कॉफी को विद्या की ओर बढाता है और अपनी कॉफी को होठों तक ले जाता है ।
विद्या, सिद्धांत को कॉफी पीते हुए देखती है फिर कहती है "सिद्धांत आप मुझसे शादी क्यों करना चाहते हैं ? मैं तो सोच रही थी कि आप मना कर देंगे ।" सिद्धांत कॉफी के कप को नीचे रखते हुए कहता है " क्योंकि मेरे पास मना करने का कोई कारण नही । मैं अगर किसी भी लड़की से शादी करूँगा तो क्या देखूँगा । कि वो सुन्दर है, पढ़ी लिखी है , उसके माता-पिता कैसे हैं ? अगर यह सब मुझे किसी भी लड़की में दिखता है तो मैं उससे शादी कर लूँगा अगर वो भी मुझसे शादी करना चाहती है तो ।"
विद्या बहुत ध्यान से सिद्धांत को सुन रही थी और फिर कहती है "आप मेरे बारे में जानते हुए भी शादी करना चाहते हो ?" सिद्धांत कहता है "क्या ? यही जानते हुए कि तुम्हारे पहले से प्रेम सम्बन्ध रहे हैं ।" विद्या, सिद्धांत को देखती है और हाँ में सिर हिलाती है फिर कॉफी की तरफ देखने लगती है ।" सिद्धांत कहता है "हाँ मुझे किसी की बीती हुई जिंदगी से कोई फर्क नही पड़ता । अब मान के चलो कि मैं तुमसे शादी न करके किसी और लड़की को देखकर शादी कर लेता हूँ और वो मुझे अपने अतीत के बारे में कुछ नही बताती, तो उससे ना ही तो मुझे फर्क पड़ता और ना ही उसमें मैं कुछ कर पाउँगा । इसी लिये मैं आज में जीते हुए निर्णय करता हूँ । अगर तुम मुझसे शादी करना चाहोगी तो मैं किसी भी अन्य लड़की की तरह तुमसे शादी करना चाहूँगा । वैसे भी तुम मेरे माता-पिता को कुछ ज्यादा ही पसंद हो ।"
विद्या कहती है "मगर मैं चाहती हूँ कि मैं पहले से ही सबकुछ बता कर रखूँ ताकि बाद में कोई समस्या ना आये ।"
सिद्धांत कहता है "मैंने कहा ना कि अगर अतीत बीत चुका है और तुम्हारा उस अतीत से अब अगर कोई सम्बन्ध नही तो मुझे कोई फर्क नही पड़ता ।" विद्या, सिद्धांत की आँखों में एक पल के लिये देखती है और फिर किसी सोच में चली जाती है । सिद्धांत चुटकी बजा कर कहता है "विद्या कॉफी ठन्डी हो गयी ।" विद्या पुनः अपने आप को उस रेस्टोरेंट में पाती है ।
विद्या कहती है "अब मैं चलूँ । वैसे भी अब काफी समय हो गया है ।" सिद्धांत मुस्कुराते हुए खड़ा हो जाता है । विद्या फिर वहाँ से चली जाती है । सिद्धांत अपनी आँखों से ओझल हो जाने तक उसे देखता ही रहता है ।
अगले रोज़ सिद्धांत की माँ को फ़ोन करके विद्या की माँ कहती हैं कि "समधिन जी, तो बताइए कब करनी है शादी ?"
सिद्धांत की माँ खुश होकर कहती हैं "तो क्या विद्या ने जवाब दे दिया ?" विद्या की माँ कहती हैं "हाँ, उसी की इच्छा जानने के बाद मैंने आपको फ़ोन किया है ।"
सिद्धांत की माँ कहती हैं "ठीक है, मैं आज ही पंडित जी से शादी की तारीख निकलवाती हूँ और आप भी पंडित जी को दिखा लीजियेगा" विद्या की माँ कहती है "ठीक है बहन जी, जो भी जल्द से जल्द तारीख निकले उसमें चट मंगनी और पट ब्याह कर दते हैं, नही तो ना जाने कब इन बच्चों का दिमाग बदल जाए" और फिर दोनों हँसने लगती हैं ।
शाम को सिद्धांत के घर आने पर, सिद्धांत की माँ उसे बताती हैं कि वहाँ से जवाब आ गया है । सिद्धांत पूँछता है "क्या ?" वो बोलती हैं "और क्या आएगा, मुझे तो पहले से ही पता था । अब तो जल्द से जल्द तारीख निकलवानी पड़ेगी और एक लड्डू लाकर सिद्धांत के मुँह में रख देती हैं ।" ये बात सुनकर सिद्धांत की आँखों के सामने पुनः पुराने दिन आकर खड़े हो जाते हैं । पुरानी चाहत, पुराने दिन । सब कुछ आकर उसके दामन को थामने की कोशिश करने लगते हैं । सिद्धांत एक गहरी साँस लेता है । ढलते हुए सूरज को देखता है और अपने कमरे में चला जाता है ।
अपने कमरे मैं बैठा किसी सोच में डूबा था कि तभी कुछ सफ़हे नाचते से दिखते हैं । ये हवा का असर था या इतने बरस बाद उन अल्फाजों के दर्द को मिली राहत का असर । जो भी था लेकिन एक सुखद एहसास था । सिद्धांत उन सफहों को छूकर देखता है, अचानक से वो तस्वीर सामने आ जाती है जिसे हॉस्टल के दिनों में देखकर सिद्धांत खुश हो जाया करता था । आज फिर से सब कुछ सामने था । सिद्धांत तस्वीर को उठाकर देखता है, मुस्कुराता है और पुनः उसे डायरी में रखकर, डायरी को बंद कर देता है ।
कल का सूरज अपनी रौशनी के साथ कुछ गुनगुनी धूप लाने जा रहा था और बीच की ये रात तमाम खूबसूरत ख्वाब बुनने के लिये बाहें पसारे खड़ी थी... अंतिम भाग पढने के लिये यहाँ ज़िक्र(एक प्रेम कहानी)-अंतिम भाग पर क्लिक करें
4 comments:
ओह!! क्या प्रवाह है...वाह!...डूबते उतरते यहाँ तक आ गये.कि..
कल का सूरज अपनी रौशनी के साथ कुछ गुनगुनी धूप लाने जा रहा था और बीच की ये रात तमाम खूबसूरत ख्वाब बुनने के लिये बाहें पसारे खड़ी थी...
-अब अगली कड़ी के इन्तजार में बैठे हैं.
अनिल भाई.... एक बार में ही ख़त्म कर दिया करो.... अब अगली कड़ी पढने तक इंतज़ार जो नहीं होगा... :)
Waah! Maan gae...aage kaa intezaar hai!
बहुत बांध लेने वाला लेखन!
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