ख़ामोश सा अफ़साना !!
>> 06 December 2009
कभी कभी लगता है कि दूर तलक चली जाती खामोश सड़क पर मैं तुम्हारे हाथों में हाथ डाल कर यूँ ही खामोश चलता चलूँ-चलता चलूँ । कभी कभी खामोश रहना भी कितना सुकून देता है, है न । तुम्हें पता है कि जब ख़ामोशी जुबां अख्तियार कर लेती है तो बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जो हमारे सीने में दफ़न होती हैं, उन्हें ख़ामोशी ख़ुद-ब-ख़ुद दूजे के दिल तक पहुँचा देती है । कितना आसान है न ख़ामोशी की जुबां को समझना, या शायद हमें समझने की जरूरत कहाँ पड़ती है, वो तो ख़ुद-ब-ख़ुद हमारे कानों में संगीत बनकर गूंजती है ।
एक अर्सा हुआ जब से कुछ खोया-खोया सा जुदा-जुदा सा लगता है । लगता है कि कुछ है, जो यूँ ही समझ नही आएगा । मन करता है एक बार फिर से वही सब करूँ, वही सब सुनूँ, वही सब महसूस करूँ जो तुम्हारे और मेरे दरमियाँ होता रहा । तुम्हें याद है न वो सब...याद ही होगा...अभी जैसे कुछ रोज़ पहले की ही सी तो बात है । जब तुम मेरे साथ साइकिल के अगले हिस्से पर बैठ कितनी खुश हुआ करती थीं । उन भेड़ों को हांकने वाले को जबरन परेशान करने के लिए तुम घंटी बजा दिया करती थीं । कैसे खिलखिला कर हँसती थीं तुम, जब वो बोला करता कि क्या दीदी आप भी ।
जब उस हलकी हलकी उग आई हरी घास पर लेटे हुए आसमान में देखा करते और हमारे बीच कई कई बीत गये हुए पलों तक बात न हुआ करती । कैसे हम एक दूजे के दिल का हाल जान लेते थे बिना कहे, जैसे तुम कहना चाहती हो कि देखो तो वो वाला बादल दूल्हा सा लग रहा है और वो देखो वो टुकड़ा दुल्हन, कितनी खूबसूरत लग रही है न। देखो दूल्हा कैसे मुस्कुरा रहा है । ऐसी कितनी ही तो बातें थी जो हमारे दरमियाँ उस ख़ामोशी में हो जाया करती थीं।
जब तुम करवट बदल मेरे सीने पर अपने सर को रख लेती तो सच मानों उस पल लगता मैं जन्नत में हूँ । नहीं जानता कि कैसी होती होगी, लेकिन इससे अच्छी तो नही होगी न । तुम हो, मैं हूँ, हमारी बातें हैं, बेफिक्री वाला दिन, खुला आसमान, हरी घास, मदमस्त उड़ते से रंग बिरंगे पंछी, वो तितलियाँ और वो तुम्हारे झूठ बोलकर घर से बनाकर लाये हुए मेरे लिए परांठे । कभी तो लगता है कि जन्नत भी क्या ख़ाक होगी इसके आगे ।
जब तुम घास के तिनके को बार बार तोडा करतीं तो पता लग जाता कि कुछ सोच रही हो, किसी उलझन में हो । हर बार ही तो मैंने तुम्हें इसी तरह उलझन में पाकर तुम्हारे हाथों को अपने हाथों में लेकर और तुम्हारी आंखों में झाँककर पूँछा, कि क्या बात है और तुम भी न कह देतीं कि कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं । लेकिन अगले ही पल कैसे तुम सभी बातें कह दिया करती । तुम्हारी वो बातें, ढेर सारी बातें, प्यारी प्यारी, अपनी सी, भोली सी, मासूम सी । जिनसे मुझे उतना ही प्यार हो चला था जितना कि तुमसे, तुम्हारी प्यारी आंखों से, तुम्हारी उस मुस्कराहट से, तुम्हारी उन बच्चों जैसी हरकतों से था । सच में वो ख़ामोशी भी बहुत खूबसूरत हुआ करती थी । अपने अपने हाले-दिल बयाँ करने के लिए सबसे खुशनुमा, सबसे संजीदा और बिल्कुल अपनी सी ।
तुम्हें पता है कि उस ख़ामोशी में हम अपने सारे गम, सारी खुशी बाँट लेते थे । वो ख़ामोशी हमारी दोस्त हो जाया करती थी । उस ख़ामोशी के बने हुए तमाम अफ़साने हैं, जो मेरे जहन में जब तब यूँ ही आ जाया करते हैं और मैं मुस्कुरा जाया करता हूँ । ठीक उसी मुस्कराहट के जैसे जो तुम्हें सबसे अज़ीज थी । क्या वो खामोश से अफ़साने तुम्हारे पास भी आते हैं गुफ़्तगू करने...
22 comments:
पता नहीं क्यूँ अनिल आज मैं बहुत इमोशनल हूँ.... तुमारी यह पोस्ट पढ़ कर बहुत कुछ फील कर रहा हूँ..... खुद को जोड़ कर देख रहा हूँ ..... तुम्हारी इस पोस्ट में खुद को ही खोज रहा हूँ कहीं न कहीं...
in khamosh si baaton ne kai ankahi baate yaad dila dee.khubasurat.
कुछ बातें ऐसी होती है जो बिना शब्द दिए ही दूसरे के पास पहुँच जाती है..बस दोनों के बीच एक भावनात्मक रिश्ता होता है..
आदमी खामोश रह कर भी कभी कभी बहुत कुछ कह जाता है..
सुंदर एकालाप.एक एक शब्द खनकता है.
purani yaadein eksar aisa hi karti hain......
खामोशी की जुबां अहसासों के राजमार्ग पर चलती है....
सुन्दर अभिव्यक्ति!!
क्या वो खामोश से अफ़साने तुम्हारे पास भी आते हैं गुफ़्तगू करने...
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी का शाम हो जाये।
उफ़... कितना खूबसूरत अतीत....कि याद में दूसरा ताजमहल बन जाए!
अद्भुत रचना है!!
padhkar kuch laga... kuch likh diya maine...
तेरे साथ की सारी यादें,
सँजोकर रख ली है मैने,
काश! तुमको भी रख पता यूँ ही...
बेहतरीन ..खुद में बहा कर ले गए आपके यह लिखे लफ्ज़ शुक्रिया
bahut hi dil ko choone wali baaten thi, kash ki iske bad samay wahi thahar jata,
अनिल जी
ख़ामोशी से बड़ा संवाद कोई नहीं . मगर यह हथियार भी कई दफे न काफी हो जाता है . और तब ख़ामोशी तोडनी पड़ती है . उसे शब्द देने पड़ते हैं . और तब ख़ामोशी सारे तट बंध तोड़कर बह निकलती है .
@ डॉ.पदमजा शर्मा
सही कहा आपने, ऐसा भी समय आता है.
महफूज़ भाई अगर मेरी पोस्ट ने कुछ असर छोड़ा तो ये मेर लिए खुशी की बात होगी
क्या वो खामोश से अफ़साने तुम्हारे पास भी आते हैं गुफ़्तगू करने...
खामोशी की अपनी ही ज़ुबान होती है ......... अनिल जी ..... आपको पढ़ कर में भी खामोश अंजानी दुनिया में पहुँच गया हूँ आज तो .......... बेहद खूबसूरत लिका है ........
खामोशी को बहुत सुन्दर शब्द दिये है आपने। वाकई आप कमाल का लिखते है।
anil ji
khamoshi ke khamosh ahsaason ki bhasha khamoshi se badhkar nhi hoti aur wo hi is bhasha ko samajh sakta hai jo is ahsaas se gujra ho.
अनिल जी, आपकी प्रतिक्रियाओं से मुझे बल मिलता रहा है . आज आपका ब्लॉग भी देखा . बहुत सुन्दर बन पड़ा है .
मेरा अपना ब्लॉग 'सोऽहं साहित्य सरोवर' कंप्यूटर के ज्ञान के आभाव में काम चलाऊ सा रह गया है .
खैर ! आपका 'खामोश सा अफसाना' पढ़कर मन गदगद हो गया और याद कर रहा हूँ आपकी ही उम्र के दिन मेरे इन शब्दों में की -
"हर दिन ऐसा होता है की मेरे प्राण तुम्हारी याद का स्पर्श करते हैं और फिर झनझनाने लगते हैं . तुम्हें हर पर याद करने की एक व्यवस्था सी बन गयी है . यह व्यवस्था कितनी गतिशील लगती है , कितनी जीवंत ! इसमें एक प्रायोगिकता का भाव अवश्य है, लेकिन प्रतियोगिता का नहीं."
सस्नेह
[] राकेश 'सोहम'
अच्छी बातों और प्रयोगों के कारण ही बल मिलता है चाहे वा लेखन हो या पाठन. आपकी लिखी पंक्तियों को पढ़ मन प्रसन्न हो गया.
khamoshi bahut kah jaati he,,,,anilji ki rachnaa ki tarah..
भाई सेंटीमेंटल के बाद मिलीमेंटल ही होता है ना? बस वही समझो ।
very nice sir !
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