मुक़र्रर समाज

>> 15 January 2010

सूरज धीमे धीमे बुझता सा लगने लगा । शायद हौले हौले पीला पड़ने लगा था, ठीक किसी गरीब के चेहरे की तरह । विद्यालय की घंटी, नहीं शायद घंटा, हर रोज़ की तरह जाकर महँगू ने बजा दिया था । महँगू जो पाँचवी कक्षा में पढता था, उसे यह कार्यभार मास्टर जी ने शुरू से सौंप रखा था । महँगू इस कार्यभार से दो ही सूरतों में मुक्त हो सकता था, या तो वह विद्यालय छोड़ दे या फिर आठवीं पास कर के विद्यालय पास कर ले । स्वतंत्र देश के एक स्वतंत्र गाँव के एक स्वतंत्र स्कूल में पढ़ते रहने के लिये महँगू घंटा बजाने के लिये गुलाम था ।

सरकार ने विद्यालय के लिये एक बिरजू यादव नाम का चपरासी रख छोड़ा था । जिसका विद्यालय से सिर्फ वेतन पाते रहने का सम्बन्ध था । उसे घंटा बजाते रहने से ज्यादा अपने खेत पर पूरे दिन रहना ज्यादा अच्छा लगता था । बिरजू ने मास्टर जी से पूरी बात पक्की कर ली थी और शुक्ला मास्टर जी ने आँख झपकाते हुए उसकी बात इस एवज में मान ली थी कि वह हर महीने कुछ अनाज और सब्जी मास्टर जी को देता रहेगा । इस तयशुदा कार्यक्रम में दोनों खुश थे ।

शुक्ला मास्टर जी कद में 5 फुट के थे और साइकिल अपने कद से ऊँची रखते थे । साइकिल पर चढ़ने के लिये उन्हें पहले किसी ऊँचे चबूतरे जैसी ऊँची जगह पर चढ़ना होता था । विद्यालय से बाहर निकलते ही उन्होंने कुछ मिट्टी डलवाकर साइकिल पर चढ़ने के लिये चबूतरा बनवा लिया था ।

सभी बच्चों के एक एक करके विद्यालय से बाहर निकल जाने पर वे चबूतरे पर चढ़ते तब उसके बाद साइकिल पर चढ़ते और फिर महँगू पीछे से साइकिल में धक्का मारता । मास्टर जी साइकिल के पैडल मारते हुए आगे बढ़ जाते थे । महँगू तब उस कच्चे रास्ते से अपने गाँव की तरफ जाता और हर रोज़ की तरह कक्षा के कुछ लड़कों से गाली खाता । हर दूसरे-तीसरे दिन वह महँगू पर हाथ उठा देना अपना हक़ समझते थे ।

महँगू को अपने घर पहुँचने के लिये पूरा गाँव पार करके बाहरी सिरे पर जाना होता । गाँव की रुपरेखा इसी तरह की होती थी । मंदिर और कुएँ के पास ठाकुर और ब्राह्मणों के घर होते उसके बाद अन्य जातियों के फिर गाँव के बाहरी सिरे पर एक कोने में चमारों और मेहतरों के घर होते थे । मेहतर तो कम ही होते थे, चमार ज्यादा होते थे । यही बसावट ज्यादातर हर गाँव की होती थी । जिसमें चमारों और मेहतरों के घर गाँव के बाहर होना तय था ।

महँगू आँखों में आँसू लिये घर जाता और घर पहुँचते पहुँचते सुबकना बंद कर देता । गाँव के आखिरी छोर पर पहुँचते पहुँचते बहुत समय लग जाता था । उन लड़कों का कुछ हो नहीं सकता था क्योंकि वे गाँव के बीच में ही रह जाते थे । महँगू ने आँसुओं के साथ समझौता कर लिया था और आँसुओं ने महँगू के साथ ।

अगली सुबह जाकर उसे फिर से वही काम करना होता था । मास्टर जी की कुर्सी तथा मेज साफ़ करता और घंटा बजाता । कक्षा में उसके बैठने कि जगह तय थी । इन सभी तय जगहों, तय कार्यभार, तय समय पर मास्टर जी की साइकिल में पीछे से धक्का, तय समय पर गाली व पिटाई खाते हुए उसने विद्यालय पास कर लिया ।

जब उसने दसवीं के विद्यालय में प्रवेश पा लिया तो वहाँ भी उसके कुछ काम तय हो गये थे । उन तय कामों और साथ के लड़कों की गर्मजोशी को सहते हुए उसने दसवीं पास कर ली ।

गाँव की रुपरेखा में एक बात और जुडी गयी थी । अगर उसकी नौकरी से सम्बंधित कोई कागज़ आता और यदि वह गाँव के ऐसे सदस्य के हाथ पड़ता जो महँगू की नौकरी लग जाने को सह ना सके तो वह कागज़ कभी महँगू को नहीं मिलता था । गाँव के चन्द लोगों को छोड़कर कोई सहनशील नहीं था ।

गाँव के असहनशील लोगों का साथ और तयशुदा चीज़ों के साथ अंततः महँगू की नौकरी लग गयी । महँगू उस रोज़ बहुत खुश था । मन ही मन महँगू ने कई सारे ख्वाब बुन लिये थे । जिसमें गाँव से बाहर निकल शहर में क्लर्क की नौकरी और तयशुदा भावना से मुक्ति ।

जब महँगू गाँव से शहर जाने के लिये रेलगाड़ी में बैठा तो शहर पहुँचते हुए उसे वहाँ भी कुछ तयशुदा चीज़ें दिखीं । शहरों की बसावट में भी ध्यान रखा जाता था । जिसमें शहर में गरीब और भूखे का होना तय था । रेल की पटरी के सहारे रहने वाले गरीब हर शहर में होने चाहिए थे । गरीबों और भूखों का शहर में होना बहुत जरूरी था ताकि वे फ्लेटों और कोठियों वालों का काम कर सकें । फ्लेटों और कोठियों वालों के लिये गरीबों और भूखों का होना इसलिए भी जरूर था कि वह आत्मसंतुष्टि कर सकें कि वे अभी तक अमीर हैं और उनका हुक्म मानने वाला कोई है । यह भी एक तयशुदा कार्यक्रम का एक तरह का जात-पात था ।

कार्यालय में पहुँच महँगू के लिये धीरे धीरे कुछ काम कार्यालय के काम के अलावा तय हो गये थे । जिनमें साहब के घर की सब्जी लाना और उनके बच्चों को स्कूल छोड़कर आना शामिल था । हर सप्ताह के अंत में छुट्टी के दिन महँगू को साहब के घर जाकर हाजिरी देनी होती थी कि हाँ हम आपकी जी हजूरी के लिये हाजिर हैं । ताकि साहब की नज़रें उस पर टेडी न हों ।

अब इस शहर की व्यवस्था में भी तमाम बातें तय हो गयीं थीं । शहर की बसावट की तरह उसकी जिंदगी भी तय हो चली थी । जो अब रेल की पटरी के सहारे रहने वालों से ऊपर तथा अपने साथ काम करने वाले ऊपर के बाबुओं तथा साहब से नीचे थी । यह स्वतंत्र देश के एक गाँव में रहने वाले महँगू की एक स्वतंत्र शहर में एक तयशुदा व्यवस्था के अंतर्गत व्यवस्थित जिंदगी हो गयी थी ...

16 comments:

Udan Tashtari 15 January 2010 at 22:41  

समाज व्यवस्था पर करारा आलेख...बहुत खूब. आज अलग रंग दिखा आपका.

मनोज कुमार 15 January 2010 at 23:06  

बहुत बढिया आलेख.

गौतम राजऋषि 16 January 2010 at 17:42  

"स्वतंत्र देश के एक स्वतंत्र गाँव के एक स्वतंत्र स्कूल में पढ़ते रहने के लिये महँगू घंटा बजाने के लिये गुलाम था"...तुम्हारी लेखनी की धार और शिल्प का सौंदर्य दिन-ब-दिन निखरता जा रहा है अनिल...कथा का विषय पुराना होते हुये भी तुमने अपने अंदाज में इसका नयापन बरकरार रखा है। बहुत खूब..."महँगू ने आँसुओं के साथ समझौता कर लिया था और आँसुओं ने महँगू के साथ"

मेरी बात याद है ना, वो पत्रिकाओं में भेजने वाली।

vandana gupta 16 January 2010 at 18:06  

bahut hi gambhir aur chintniya aalekh.

अनिल कान्त 16 January 2010 at 18:10  

हाँ गौतम सर मुझे याद है. अबकी बार सोच रहा हूँ कुछ अच्छा सा लिखकर पत्रिकाओं में छपने के लिए भेजूँ.

अपूर्व 16 January 2010 at 23:22  

बहुत खूब..शहर की क्रूरता का क्या चित्रण किया है.. क्या कहूँ..बस यही कहूँगा कि ऐसी बेबाक रचनाओं की और जरूरत है इस आभासी ब्लग जगत पर..
आपकी लेखनी के लिये शुभकामनाएं.

Razi Shahab 17 January 2010 at 12:29  

aap jo bhi tasveer pesh karte ho dil ko moh leti hai...likhne ka andaz nirala hai aur shabdon par pakad bahut achchi ....thanx for nice post

श्रद्धा जैन 17 January 2010 at 19:20  

हर सप्ताह के अंत में छुट्टी के दिन महँगू को साहब के घर जाकर हाजिरी देनी होती थी कि हाँ हम आपकी जी हजूरी के लिये हाजिर हैं । ताकि साहब की नज़रें उस पर टेडी न हों ।

Samaaj ki tasveer hai
kaise kaise piste hain log
bahut bebaak rachna hai


maine pahle bhi reply kiya tha pata nahi kyu nahi hua

प्रिया 17 January 2010 at 19:25  

ham sir yahi kahenge......aapki lekhni rang la rahi hai .....khushal karigar ho gaye hai aap :-)

Rinzu 17 January 2010 at 19:52  

that was deep and insightful...!!! with a lot of detailing...

स्वप्न मञ्जूषा 19 January 2010 at 02:36  

अनिल जी,
आपकी कहानी पढ़कर यूँ लगा जैसे ऐसा ही तो कुछ देखते रहे हैं हम अपने आस-पास...
हकीक़त के बहुत करीब लगी आपकी कहानी...

monali 19 January 2010 at 11:09  

Anil ji...aapka ye rang bhi hai,... maloom na tha...achha laga aapka ye lekh bhi hamesha ki tereh...

निर्मला कपिला 20 January 2010 at 18:44  

समाज व्यवस्था की विदंवनाओं को उसी संवेदनशील लहज़े मे लिखा है। शायद एक भावुक इन्सान ही ये सब देख सकता है और कुर्सी पर बैठ कर कौन भावुक रहता है जो इन गरीबों के बारे मे सोचे। धन्यवाद और शुभकामनायें

Mohinder56 21 January 2010 at 12:45  

अनिल जी,
संवेदनशील लेख.. शहर में शायद यह संवेदनशीलता समाप्त सी हो गई है... हर कोई भीड का हिस्सा भर है
लिखते रहिये

मोहिन्दर कुमार
http://dilkadarpan.blogspot.com

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