अंत का प्रारंभ !
>> 24 January 2010
दिन बड़े मासूमियत से गुजरा करते थे । अपने होने का भरपूर एहसास कराकर ही शाम को ढलते थे और फिर चाँद को सौंप कर चल देते थे । दिल और दबी जुबाँ जिस बात को दिन में खुद से न कह पाते वो बड़ी फुर्सत से चाँद से कहा करते ।
उन कस्बाई दिलों की मोहब्बत किताबें बदलते हुए जवान होती और कई दिल ऐसे होते जो दिल की बात दिल ही में रखे रह जाते । उन दिनों कई ऐसे रिवाज़ हुआ करते जिन्हें लोग तोड़ने में झिझकते थे । ऐसा नहीं था कि उनमें साहस न था बल्कि रिवाजों और उनके दरमियाँ एक गहरा रिश्ता बन जाया करता । लड़की अगर किसी को दिली मोहब्बत करती भी है तो कभी उसका इज़हार न करती । उन कस्बाई लड़कियों के दिलों के एहसास दिल में ही जमा रहते और एक दिन आता जब कोई और उनको डोली में बिठा के ले जाता ।
उन्हीं दिनों शालिनी भी इन्हीं रिवाजों के बंधनों में बंधी हुई थी । अगर उसका बस चलता तो सुधांशु से कह देती कि "सुधांशु तुम कुछ कहते क्यों नहीं ? माना मैं तो लड़की हूँ और मेरी सीमाएँ तय हैं, लेकिन तुम तो कह सकते हो कि तुम्हें मुझसे मोहब्बत है ।" लेकिन न तो कभी सुधांशु ने चुप्पी तोड़ी और न शालिनी उस रिवाज़ को ख़त्म कर सकी ।
सुधांशु लड़कियों में झेंपू के नाम से मशहूर था । शरीफ इतना कि पूँछो मत और आँखें ऐसी कि रूह तक उतर जाएँ । अक्सर जब कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में कविता या गीत सुनाता तो ख़ामोशी छा जाती और सब डूब कर सुनते । सभी जानते थे कि सुधांशु शालिनी को चाहता है । जब कभी सुधांशु लड़कियों के झुण्ड से होकर गुजरता तो लडकियां उसे शालिनी के नाम पर छेड़ती हुई खिलखिला देतीं । पर सुधांशु ने कभी चुप्पी न तोड़ी । कॉलेज ख़त्म हो गया और शालिनी दिल की बात दिल में ही जमा किये हुए चली गयी । उसके पिताजी का तबादला नये शहर हो गया था ।
फिर एक रोज़ पूरे आठ बरस बाद शालिनी और सुधांशु जिंदगी के एक मोड़ पर टकरा गये । हुआ यूँ कि एक सम्मलेन के सिलसिले में जिस शहर में शालिनी का आना हुआ । उसी सम्मलेन के सिलसिले में सुधांशु भी आया था ।
अचानक से इतने बरस बाद सुधांशु और शालिनी एक दूजे के आमने सामने थे और कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या कहा जाए । दोनों की ख़ुशी का कोई ठिकाना न था । तब शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा -
-बिलकुल नहीं बदले
-अच्छा, क्या नहीं बदला ?
- यही कि आज भी शर्माते हो । पता है कॉलेज के जमाने में लडकियां तुम्हें किस नाम से बुलाती थीं ?
- "किस नाम से ?" मुस्कुराते हुए सुधांशु ने कहा
-झेंपू
- "जानता हूँ ।" कहते हुए सुधांशु ने अपना सर झुका लिया और फिर मुस्कुराते हुए शालिनी की ओर देखा
-"सचमुच बिलकुल वैसे ही हो ।" कहती हुई शालिनी मुस्कुरा दी ।
उस दिन सम्मलेन ख़त्म होने के बाद जाते हुए पता चला कि दोनों के ठहरने का बंदोबस्त एक ही होटल में है । तब शाम की चाय होटल में साथ पीने का वादा हुआ । जब चाय पर दोनों मिले तो सुधांशु बोला -
-क्या अजीब इत्तेफाक है ! मैं यही सोच रहा था कि तुम इसी रंग की साडी पहन कर आओगी और देखो वही हुआ ।
-अच्छा ।
-हाँ, सच में ।
-"तुम भी तो नहीं बदले । तुम्हें आज भी कुर्ता-पायजामा पहनना अच्छा लगता है ।" शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा
बातों ही बातों में पता चला कि दोनों जिंदगी में इतने दूर निकल आने पर भी शादी से जुड़ नहीं पाये । अब तक शादी न करके वह इस दुनिया के दस्तूर को पीछे धकेले हुए थे ।
तब उन दो रोज़ की बातों और साथ-साथ चहलकदमी कर लेने के बाद एक शाम दोनों एक ही कमरे में थे । तब शालिनी ने सुधांशु से कहा -
-कितना अच्छा हो कि हम इस दुनियाँ के बनाये हुए दस्तूरों और रिवाजों के बंधनों से मुक्त होकर जिंदगी बसर कर सकें । न उसके आगे कोई सोच हो और न पीछे ।
-"मतलब !" शालिनी की इस बात पर सुधांशु ने बोला ।
- मतलब, जैसे कि तुम मुझे कॉलेज के जमाने में चाहते थे और ये मैं ही नहीं हर कोई जानता था । तुम खुद कभी कह न सके और मैं रिवाजों में कैद रही ।
सुधांशु ने शालिनी की आँखों में झांकते हुए देखा और पाया कि दिल की बात कह देने की ख़ुशी शालिनी की आँखों में आँसू बनकर उतर आयी है । तब सुधांशु ने उसके आँसुओं के कतरों को ओठों से चूम लिया ।
शालिनी के लिये यह एक अंत का प्रारंभ था जिसके लिये वह इतने बरस पहले सोचा करती थी । एक बार फिर उसका मन वहीँ उसी कस्बाई दौर में पहुँच गया । जहाँ वह तमाम जतन कर लेने के बाद भी कुछ भी तो न कह सकी थी । आज उसने अपने दिल की जमा बातों को आसुओं में बहा दिया और वो आँसू के कतरे सुधांशु के लिये एक-एक मोती की तरह थे जिन्हें वह इत्मीनान से चुन रहा था ।
* चित्र गूगल से
12 comments:
choti magar prabhavshali.
कहते हैं अंत भला तो सब भला... अंत से एक ख़ूबसूरत प्रारंभ !
कई बार सामाजिक बंधन बहुत कुछ कहने से रोक देते हैं.... जिसका परिणाम... देरी के रूप में मिलता है....
बहुत अच्छी लगी यह कहानी....
behtareen story...kya baat hai
लगता है जैसे हवाओं में खुश्बू सी घुल गयी हो .......... बहती हुई से है आपकी कहानी ...... मज़ा आ गया अनिल जी ........
बहुत अच्छी और प्रभावशाली कहानी
jab bhi kuch kahte ho, jabardast hi hota hai
Kuch bhi purana sa nahi hai ismein....aaj bhi aisa hi hai...waqt equally to nahi badalta duniya ka...dono kirdar aaj bhi milte hai
काफी संतुष्टि प्रदान कर गई यह कहानी।
भावपूर्ण और प्रभाव छोडती हुई अच्छी कहानी ....
अनिल जी,
हमेशा आप की रचना पढने का इंतज़ार लगा रहता है. भाव दिल को छू से जाते है लगता है जैसे सभ देखा और महसूस किया हुआ है..छोटी मगर सुन्दर व भाव से भरपूर और सरोवर की हुई इस अभिव्यक्ति के लिए बहुत बहुत बधाई सवीकार करे
आशु
कई दिन से आपके ब्लाग पर नहीं आ पाई थी अज सभी पिछली पोस्ट पढ रही हूँ बार बार ये कहूँगी कि अति सुन्दर धनुअवाद्
Post a Comment