दो किनारे !
>> 30 January 2010
वक़्त ने दस्तक दी । उसकी उंगली पकड़ उसे ले चल दिया और ले जाकर खड़ा कर दिया नदी के एक ओर । इससे पहले कि वो कुछ पूँछता उसने अपने ओठों पर उंगली रखी और उसे खामोश रहने के लिये इशारा किया । उसने इशारों ही इशारों में, उसे अपनी पलकें मूँद लेने के लिये कहा । उसने अपनी पलकें मूँद लीं । कुछ पल ख़ामोशी के बाद एक गहरा सन्नाटा छा गया और एक ठंडी पवन सामने से आकर गुजरी । नदी लहराई और उसके चेहरे को छूती हुई चल दी । उसे वक़्त ने आँखें खोल लेने के लिये कहा । पलकें खोलते ही उसकी आँखें उसे देख रही थीं । वो ठीक उसके सामने नदी के उस ओर थी । उसका दुपट्टा हवा से खेल रहा था । वो हाथों से पानी की लहरों के साथ खेल रही थी । उसे लगा ये कोई सुनहरा ख्वाब है । उसकी इस सोच पर वक़्त मुस्कुराया । उसने उसकी ओर देखा तो उसने हाँ में अपना सर हिलाकर रजामंदी दी, कि ये वही है ।
वक़्त मुस्कुराता हुआ वहाँ से चल दिया । शायद उन्हें एकांत देना चाहता था । वो उसे देखकर मुस्कुरायी । उसने भी उसके जवाब मैं मुस्कान दी । उस ओर से आँचल लहराती हुई वो बोली :
-नाराज हो ?
-नहीं तो (ऐसा उसने सिर हिलाकर कहा)
-"खामोश क्यों हो ?" उसने जानना चाहा
-वक़्त ने खामोश कर दिया है शायद या शायद यहाँ सब कुछ खामोश है इसी लिये मैं खामोश जान पड़ता हूँ ।
-"लेकिन ये नदी तो खामोश नहीं" उसने कहा ।
-"शायद नदी को बहते रहने की आदत है इसी लिये उसे खामोश रहना पसंद नहीं" उसने उसकी ओर देखते हुए कहा
-"वक़्त भी तो कभी खामोश नहीं होता" उसने फिर कहा
-हाँ, शायद
-शायद नहीं, सच है ये कि वक़्त कभी खामोश नहीं होता । वो अपनी उसी रफ़्तार से आगे बहता रहता है ।
-हम्म्म्म ! उसने ठंडी साँस भरी ।
तब वो कुछ खामोश सी हो गयी । लगा कि वो आज भी फिक्रमंद है । नदी की धारा को छूते हुए उसने कहा:
-जानते हो ये नदी, वक़्त ने यहाँ क्यों रख छोड़ी है ?
-क्यों ?
-क्योंकि वो जताना चाहता है कि तुम और मैं नदी के अब दो किनारे हैं । हम किनारे ख़त्म होने के बाद ही मिल सकते हैं और तुम जानते हो, ये मुमकिन नहीं ।
-"मैं जानता हूँ कि इस नदी के किनारों की परंपरा कैसे ख़त्म होगी ।" वो बोला
-कैसे ?
-या तो मैं इस नदी रुपी सारे आँसू पीकर तुम्हें भुला दूँ या मैं भी तुम्हारे अस्तित्व को धारण कर तुमसे हमेशा के लिये आ मिलूँ ।
उसने उसके अस्तित्व में आने के लिये खुद को आँसुओं रुपी नदी में डुबो दिया । यहाँ तक कि उसने खुद को भुला दिया और अपने अस्तित्व को मिटा वो उस नदी में डूबता हुआ उस पार जा लगा । इस तरह उसने प्यार करने के सलीके में से एक को चुना ।
तब वक़्त ने दस्तक दी और उन्हें एक ओर देखकर, एक पल के लिये मुस्कुराया, फिर चल दिया । अब वे दोनों वक़्त के दायरों में ना थे ।
19 comments:
बहुत उम्दा...बढ़िया बहाव में बहे!
मार्मिक!
badhiya...achchi story
आपकी कहानी के भाव में हम भी गये हमेशा की तरह अनिल जी ......... लाजवाब .......
हम किनारे ख़त्म होने के बाद ही मिल सकते हैं और तुम जानते हो, ये मुमकिन नहीं ।....अच्छी प्रस्तुति ...भाषा से अधिक भाव और भाव से ज्यादा संवेदना ..अब तक की आपकी सबसे अच्छी कविता सी ये कथा ..जिसका प्रवाह नदी के साथ बहाता ही जाता है सच जिसका ओर ना छोर दिखता है बधाई
waah ek naya drishtikon de diya aapne to.........bahut hi sundar prastuti.
aapne bhut acha lika hai
really very nice...i was lost in your post :)
बेहतर...
तब वक़्त ने दस्तक दी और उन्हें एक ओर देखकर, एक पल के लिये मुस्कुराया, फिर चल दिया । अब वे दोनों वक़्त के दायरों में ना थे...
sab kahan bah paate hain nadi ki tarah... wo to kuch khushkismat hote hain... yaad aa rha hai, "jaane wo kaise log the...."
लगता है सागर की सलाह मान ली तुमने.. इस बार तो कमाल ही किया है..
खूबसूरत अभिव्यक्ति.
-"लेकिन ये नदी तो खामोश नहीं" उसने मेरी उस बात पर कहा ।
इन पंग्तियों में 'मेरी' शब्द को लेकर थोड़ी सी चूक हुई . लगता है वक़्त के साथ बह गए . अन्यथा ना लें . भावप्रवण रचना .
प्रवाह मय रचना एक साँस मे पढ गयी । आप संवेदनाओ को सजीव कर देते हैं शब्दों से । शुभकामनायें
kya bole Anil...Umda, badiya, sardhak, achcha ye sare shabd bemaane lagte hai .....jab shabd rooh par prahar karte hai
आपकी पोस्ट यहाँ भी है……नयी-पुरानी हलचल
आपकी पोस्ट यहाँ भी है……नयी-पुरानी हलचल
http://nayi-purani-halchal.blogspot.com/
बहुत बढ़िया लिखा है सर!
सादर
बहुत बढ़िया...
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