वक़्त इरेज़र है तो परमानेंट मार्कर भी ।

>> 20 September 2015

लाख कोशिशों के बावजूद भी आगरा की वो सरकारी पुलिस कॉलोनी मेरे ज़ेहन से नहीं जाती । और उस कॉलोनी का क्वार्टर नंबर सी-75 मेरे बचपन रुपी डायरी के हर पन्ने पर दर्ज़ है ।

फलांग भर की दूरी पर हुआ करती सरकारी अस्पताल कॉलोनी । उनके क़्वार्टरों की छतों से हमारे आँगन दिखा करते और हमारी छतों से उनके । और जो बीच की एक डिवाइडर दीवार खड़ी रहती वह तो दृश्य से सदैव ही अदृश्य सी बनी रहती । कभी लगता ही नहीं कि बीच में कहीं कोई एक दीवार भी है बरसों से ।

दीवार के एक हिस्से से आने जाने का रास्ता बना हुआ था । हम यहां से वहाँ और वे वहाँ से यहां बेरोकटोक आया जाया करते । दोस्तियां, यारियाँ खूब पनपतीं और चलती ही रहतीं । बाद के दिनों में बड़े हो जाने और शायद थोडी बहुत समझ के विस्तार से यह ज्ञान भी प्राप्त हुआ कि मोहब्बतें, इश्क़, प्यार का भी भरपूर आदान प्रदान हुआ ।

तब छतें सर्दियों की धुप सेंकने के काम में आया करतीं और आँगन का भी जब तब इस्तेमाल हो जाया करता । उन छतों पर से ही मोहब्बतें पैदा होतीं । उनमें दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की हुआ करती और फिर उनकी खुशबू हवाओं को महकाया करती ।

उन्हीं दिनों में एक ही कॉलोनी का लव मैरिज किया हुआ जोड़ा बड़ों के लिए चर्चा और किशोरों के लिए रश्क़ का विषय हुआ करता । तीसरी मंज़िल पर मायका और पहली मंज़िल ससुराल । बड़ा ही दिलचस्प लगा करता ।

कुछ क्रिकेट के किस्सों में उलझे रहते तो कुछ इश्क़ की पेचीदगियों में । तब ना तो एमटीवी हुआ करता और नाही इश्क़ लव मोहब्बत के होने और न होने के लिए टीवी, रेडियो के चैनल बदलता यूथ । सुबहें शुरू होतीं । जो दोपहरों से गुजरती हुई शामों से जा मिलतीं । इन सबके मध्य में पसरा होता बच्चों, किशोरों का साम्राज्य । दिन क्रिकेट, महाभारत, जंगल जंगल बात चली है पता चला है चड्डी पहन के फूल खिला है या श्रीकृष्णा या शक्तिमान, चित्रहार, रंगोली या शनिवार रविवार की फिल्मों में मजे मजे में काट जाता ।

स्मृतियाँ रचती हैं एक अपना ही संसार । हम यात्रा करते हैं, जीते हैं उन स्मृतियों को । और बचपन लगने लगता है अपने जिए हुए समय का सबसे बेहतरीन हिस्सा ।

पहली मोहब्बत, बचपन, उनमें पकडे गए हाथ हम चाहकर भी नहीं छुड़ा पाते । वे हाथ हर बार ही हमें ले जाते हैं उन्हीं गलियों में । खेतों में, खलिहानों में । गाँवों में क़स्बों में और उनमें बसी हुई उन कॉलोनियों में जहां अब भी बसा हुआ है हमारा बचपन । क्रिकेट का बैट पकडे या कोई गेंद फैंकता सा बचपन । छत पर खड़ा पतंग उड़ाता बचपन । कंचों को हाथों में थामें निशाना बाँधती वो आँख । छतों से आँगन में निहारती वो महबूब की मोहब्बत भरी नज़र । सर्दियों की गुनगुनी धूप में अपनी गुलाबी रंगत को बढ़ाती पहली मोहब्बत । वो महबूबा । वो यार जो साइकिल से लगाया करता था रेस ।

वक़्त इरेज़र है तो एक परमानेंट मार्कर भी ।

Read more...

मोहब्बत तुम यूँ ही खिलते रहना । महकते रहना ।

>> 18 September 2015

तब तपती दोपहरें हुआ करतीं । दिन लंबे हो जाया करते । धूप हर वक़्त चिढ़ी चिढ़ी सी रहती । शायद एकाएक बढ़ गए तापमान से तालमेल ना बिठा पाने के कारण उसके साथ एक चिड़चिड़ापन आ जुड़ता. मैं तब रेलवे के उस क्वार्टर में किताबों में जी बहलाने के हज़ारों-लाखों प्रयत्न किया करता । कुछ पृष्ठ पढ़ लेने के बाद निगाहें बार बार सिरहाने पड़े फ़ोन पर चली जाया करतीं । मन में प्रतीक्षा की सुइयों का टिकटिकाना तेज़ होता चला जाता । हर बार फ़ोन को खोल देखता कि कहीं कोई मैसेज या मिस्ड कॉल तो नहीं । किन्तु वो ना हुआ करती और हर दफ़ा ही ऐसा हुआ करता ।

दोपहरें लंबी और उबाऊ हो जाया करतीं । फिर किसी बेहद मोहब्बत भरे क्षण में उसका कोई मैसेज आ जाया करता । तब लगता ही नहीं कि मैं यहाँ इस किराये के क्वार्टर में जून की किसी ऊबती दोपहर को खर्च कर रहा हूँ । तब लगता कि मैं उसके साथ हूँ । वो मेरे साथ है । ये मोहब्बत से भरे दिन हैं । जिनमें मैं जी रहा हूँ ।

कभी कभी वो अपने परिवार के लोगों से छुपते छुपाते कोई कॉल कर दिया करती । वो 2-4 मिनट की बात भी लगता कि जीने के लिए नई वजहें दे गयी है । उन मुश्किल भरे दिनों में कभी कभी हमारी मिलने की अंतहीन कोशिशों में कोई कोशिश कामयाब दिखती तो लगता कि जीवन खुशियों का समंदर है ।

इधर उधर उगी बबूल की झाड़ियों के बीच से निकलने वाले उस कच्चे रास्ते से जुडी हैं तमाम यादें. साथ चलते हुए खिलती थीं तुम्हारी मुस्कराहट की कलियाँ. और फिर वे फूल बन हर रोज़ ही मुझे मिलते उस राह पर.

नेशनल हाईवे नंबर दो पर खड़ा मैं तुम्हारे आने की प्रतीक्षा में तका करता हर उस ऑटो को जो आया करता तुम्हारी ओर से. प्रत्येक क्षण में मैं जीता स्मृतियों के संसार को. भावनाओं का समंदर मुझे बार बार ही आ भिगोता. और जब तक तुम आ न जाया करतीं मैं देखता रहता उस नेशनल हाईवे पर आने जाने वाले हर उस ऑटो को जिसमें तुम मुझे ना दिखा करतीं.

तुम्हारा आना, ऑटो का रुकना और तुम्हारी मुस्कराहट के संसार में मेरा शामिल हो जाना. वे क्षण स्मृतियों के धरातल पर हर दिन ही एक नया पौधा अंकुरित कर देते हैं । हर दिन ही खिलते हैं उनमें मोहब्बत के रंग बिरंगे फूल ।

मोहब्बत तुम यूँ ही खिलते रहना । महकते रहना ।

Read more...

शिक्षक दिवस

>> 05 September 2015

शिक्षक दिवस के आने पर बधाईयों का ढेर लग जायेगा.बधाइयां देने और लेने का यह खेल खूब चलेगा. कुछ लोग अपने शिक्षकों की याद में पोस्ट लिखेंगे. कुछ तस्वीरें लगाएंगे. कोई बुराई करेगा. कोई प्रशंसा करेगा. यह क्रम चलता ही रहेगा.

असल में हम सबने शिक्षकों के साथ ढ़ेर सारे सपने और ढ़ेर सारी आशाएँ जोड़ रखी हैं. और हम उनमें कोई कमी नहीं होने देना चाहते बल्कि उनमें दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि ही होती जाती है. हमने शिक्षा पद्धिति बदली, मार्किंग सिस्टम से ग्रेडिंग सिस्टम पर आ गए. विद्यालयों का मॉडर्नाइजेशन हो गया. ड्रेस का, किताबों का, लंच बॉक्स का, पेन-पेन्सिल का सभी का मॉडर्नाइजेशन होता ही जा रहा है या किया जा रहा है. फीस वृद्धि और उससे जुड़े अन्य मसलों के मॉडर्नाइजेशन की तो आप बात छोड़ ही दें. उसमें तो हम सबके बाप बनते जा रहे हैं.

असल में होना क्या चाहिए? क्या हमने शिक्षक से जुडी जरुरी बातों पर ध्यान दिया. शिक्षक के विकास, उसके अपने शैक्षिक स्तर में विकास के बारे में हम कभी कोई बात ही नहीं करते. उसके क्रमिक विकास से जुड़ी ट्रेनिंग्स, पढ़ाने के अलग अलग और नए तरीकों की ट्रेनिंग, उससे जुडी जानकारियों से सम्बंधित कहीं कोई बात ही नहीं होती. यदि कहीं कुछ ट्रेनिंग्स हैं भी तो वे खानापूर्ति ही सिद्ध होती हैं. अच्छे शिक्षाविदों का बहुत बड़ा आभाव है हमारे देश में और वह बीतते दिनों में बड़ा ही है. सकारात्मक वृद्धि की बात तो छोड़ ही दें.

असल में एक अच्छी शिक्षा पद्धिति और उसके क्रियान्वयन के लिए अच्छे शिक्षकों का होना बहुत आवश्यक है. हमें इसीलिए अन्य मॉडर्नाइजेशन की बातों से पहले शिक्षकों के विकास, उनकी अपनी ट्रेनिंग्स और बेहतर भविष्य के बारे में बात करनी होगी और उसके बारे में ज़मीनी तौर पर कुछ करना होगा. अन्यथा इन तमाम मॉडर्नाइजेशन के बावजूद हम अपने देश की शिक्षा व्यवस्था में समन्वय बनाने में पिछड़ते चले जायेंगे.

फिर एक शिक्षक दिवस बीतेगा और हम आने वाले शिक्षक दिवस को हर्षोल्लास से मनाने की योजनाओं पर मीटिंग्स कर, शामियाने का हिसाब चुकता करके, स्पीकर्स और कुर्सियों को वापस पहुँचाने के काम में स्वंय को व्यस्त कर लेंगे.

Read more...
Related Posts with Thumbnails
www.blogvarta.com

  © Blogger template Simple n' Sweet by Ourblogtemplates.com 2009

Back to TOP