देहरी से आगे का मकान

>> 27 January 2011

सर्द हवाएँ जब-तब अपना सिर उठातीं और कुछ ही क्षणों बाद दुबक कर सुस्ताने लगतीं . इस बात का बिल्कुल एहसास न होता कि अभी-अभी जो बीते हैं वे वही दिन थे, जब शहर दुबका पड़ा था, गलियारे सूने पड़े थे और बच्चे अक्समात घोषित छुट्टियों को, अनायास मिले सुख के तरह भोग रहे थे .

वे फरवरी के दिन थे .

वह धूप सेंकते आँगन से अपनी साइकिल निकालती और बाहर गली में दूर तक हैंडल थामे पैदल चलती रहती, जब तक कि मेरे घर की देहरी पीछे न छूट जाती . और तब वह पैडल घुमाती हुई दूर निकल जाती . हाँ इस बीच वह पलट कर देखती, उसकी आँखें देहरी के उस पार जातीं और कुछ ही क्षणों में देहरी लाँघ कर वापस अपने तक सीमित हो जातीं .

मैं उसे दूर तक टकटकी बाँधे खिड़की से जाते हुए देखता . इस तरह कि वह मेरा देखना न देख सके . उसके चले जाने पर, उसके पीछे रह गयी उसकी इच्छा को देखता, जो अभी तक देहरी के इर्द-गिर्द मंडराती रहती . अपनी उदास आँखों से मुझे तलाशती कि मैं वहाँ हूँ या नहीं . देहरी के भीतर हूँ या उसी की तरह देहरी के बाहर . जब वह तलाशते-तलाशते थक जाती तो कुछ देर सुस्ताने बैठ जाती . वहीँ उसी गली के अंतिम छोर पर . और मैं होकर भी अपना न होना जताता रहता .

वे हमारे शीतयुद्ध के दिन थे .

कभी-कभी ऐसा होता कि वह मनु से मिलने का बहाना कर मुझसे मिलने आती . कुछ क्षण देहरी पर ठिठकी रहती, जैसे वह कोई लक्ष्मण रेखा हो, जिसको लांघने से हमारे बीच के वनवास के दिन और बढ़ जायेंगे . और उस एक क्षण मैं उसके ठिठके कदमों पर नज़र गाढ़ देता तो वह एक ही झटके में भीतर प्रवेश कर जाती . जैसे कि अभी बीते क्षण वह यहाँ थी ही नहीं - केवल मेरा भ्रम था . किन्तु वह होती, अपने में पूर्ण, मुकम्मल .

और मैं वहाँ से उठकर अपने भीतर के कमरे में चला जाता . किन्तु वह केवल दिखावा होता - बाहरी आडम्बर . अपना रूठा हुआ जताने की खातिर, किया हुआ प्रयत्न . उस एक बच्चे की तरह, जिसे जब तक न मनाओ, वह रूठा ही रहता है . यदि आप अपना ध्यान उससे हटा लेते हैं तो वह ऐसी हरकतें करने लगता है कि आपका ध्यान उस पर जाए .

वह कई-कई घंटे मनु से चिपकी रहती . उससे न बात करते हुए भी बात करती रहती . प्यास न लगने पर भी घूँट-घूँट पानी पीती . और बरामदे में रखे घड़े से मनु तक का सफ़र इतनी आहिस्ता से तय करती कि वह हिमालय की चढ़ाई चढ़ रही हो . फिर मनु से कोई ऐसी चीज़ माँगती जो केवल मेरे कमरे में हो . और तब मनु मेरे कमरे में आती, एक नज़र मुझे देखती और मैं अपनी निगाहें किताबों में गढ़ा लेता . ऐसे दिखाता कि मैंने जाना ही ना हो कि वह अभी यहाँ खड़ी है . ठीक देहरी के भीतर, मेरे कमरे में, जहाँ मैं न होना दिखाते हुए भी हूँ -किताबों से झूठ-मूठ का चिपका हुआ . जाते हुए वह कहती "कुछ चाहिए" . मैं गर्दन ऊपर उठता, उसके चेहरे को देखता और तब वह चली जाती - फिर से आने के लिए .

जब शीत युद्ध के दिन लम्बे हो जाते . तब मैं ऊबने लगता . उससे मिलने के लिए, बात करने के लिए तड़पने लगता . भीतर ही भीतर अपने पर फट पड़ता . दिल रोने को करता और अपने किए को कोसता . वह ना जाने कैसे जान जाती . जैसे उसके पास कोई यन्त्र हो, जिसे उसने मेरी परिधि के चारों और लगा रखा हो . जो मेरी पीड़ा, मेरी तड़प को भाँप लेता हो - अब कम है, अब ज्यादा . और जब वह सीमा रेखा को लाँघ जाती, तब वह आती किसी बुझती शाम को रोशन करने .

माँ कहीं बाहर होती और मनु रसोई में . वह बिना कोई आहट किए, मेरी देहरी को लाँघकर, कब मेरे सिरहाने आ खड़ी होती, पता ही न चलता . उस एक क्षण यह भ्रम होता कि वह केवल कोई बासी याद है . जब वह गुलाबी सूट पहने है और कनखियों से मुझे निहार रही है . किन्तु वह वहाँ होती - सचमुच . एक नए दिन में बीती यादों के साथ . मैं करवट बदल लेता और तब उसकी सिसकियाँ कमरे में बहने लगतीं . एक कोने से दूसरे कोने तक .

तब अगले ही क्षण हम एक दूसरे के गले से लिपटे हुए होते . लगता ही नहीं कि अभी बीते क्षण, एक हफ्ते की दूरियों को ओढ़े हुए हमने अपनी-अपनी दुनिया बना रखी थी . बीते हफ्ते का जुदा स्वाद उसके ओठों पर आ जमा होता और मैं उसे अपने ओठों से वर्तमान में ले आता . तब वे धुले-धुले से नज़र आते . गीले, चमकते हुए . अपनी नई पहचान के साथ पुनः मेरे ओठों से आ मिलते .

वे पहली मोहब्बत के दिन थे .

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मन का पोस्टमार्टम !!

>> 14 January 2011

कभी-कभी एकांत स्वंय में मुझे समाहित कर लेना चाहता हैजैसे मैं स्वंय एकांत हो चला होऊँजैसे तालाब का शांत पानी अपने एकांत में मौन खड़ा रहता हैक्या यह ऊब और इच्छा के मध्य कुछ है ? या केवल एकांत में मौन का दुरूह आभासया केवल मन की छलना !

देर शाम...

राष्ट्रीय राजमार्ग पर खड़ा मैं और मेरा अपना स्वंयट्रकों की लम्बी कतार शोर मचाती बारी-बारी से जा रही हैतेज़ नुकीली हवा की कुछ कतरने त्वचा को भेदती सी, स्नायुओं में दौड़ती झुरझुरी, सिगरेट का जलना और धुएँ का हवा में पसर जानारिक्त राजमार्ग - दौड़ती, बलखाती, चमचमाती रोशनियाँ और मार्ग को रौंदती गाड़ियाँजैसे मन की रिक्त सतह पर कोई विचार चीरता सा गुजर गया हो और दिल के कम्पनों में इज़ाफा कर गया हो

कभी कभी बहुत उलझनें होती हैं, अपने स्वंय से ! इतनी व्याकुलता आकस्मिक तो नहीं


देर रात...

मन के अँधेरे में विचार जुगनू की तरह जगमगायालिखने और ना लिखा पाने के मध्य मूड का द्वन्दकलम-कॉपी सिरहाने रख, बाजुओं को तकिया बना सुस्ताता रहाएकाएक एक याद बह आयीउसका चेहरा आँखों के सामने खड़ा हुआ

अंतिम बार का मिलना, यह जानकार कि इसके बाद फिर कभी मिलना ना होगाउसका ऑटो-रिक्शा में बैठनामेरा उसके गालों को थपथपानाउसकी किनोरों का भीग जानामेरा उन्हें उँगलियों से पौंछ देना और स्वंय के गालों पर आँसुओं का लुढ़क आनाफिर उससे कहना अपना ख़याल रखना । रिक्शे का आगे बढ़ जानामेरा दूर तक टकटकी लगाए देखते रहनाऔर फिर दृश्य का अदृश्य हो जाना

लेटे-लेटे उसकी बहुत याद आई और मन बहुत उदास हो गयाजीवन जो अब विश्रंखलित है, वो होती तो अवश्य ही इसका कुछ और रूप होताउस आन्तरिक आत्मीयता का अनुभव फिर ना जाने कब होगा !

...

मन को जब अपनी दास्ताने-हयात सुनाता हूँ तो ना जाने वह कितना कुछ समझ पाता होगाऔर फिर यह ज़िक्र केवल स्वंय के लिये ही तो नहीं होता, उसकी(मन) ख़ुशी और उदासी भी तो इसमें शामिल हैमन को थपथपाया कि सो जाओ बर्खुरदारकब तक जागते रहोगेदेखा तो मन फिर ना जाने किन जानी-अन्जानी राहों की ओर भटक चला


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विचार, सौन्दर्यबोधता और दुनियादारी

>> 06 January 2011

दो दिन से जाड़ा खाने को दौड़ता हैत्वचा डर कर सुन्न हुई जाती हैउस पर से तुर्रा ये कि पेट-खातिर काम को भी जाना हैअन्यथा कभी-कभी लगता है कि बंधन और अपने स्वभाव का छत्तीस का आँकड़ा हैक्या मुक्त होकर भी मुक्ति हासिल होती है ? हज़ूर तभी तरक्क़ी ना कर सके - तरक्क़ी ? तो मन के संदेह को मजबूत किया और घर पड़े रहे

रात भर नींद ग़ालिब थी और विचारों ने घेरा - जागते रहेदूर ....ते....रहो ... आवाजें आती रहींऔर स्टेशन तो जैसे सर के पास जान पड़ालगता रहा जैसे कमरे में नहीं वेटिंग रूम में सुस्ता रहे हैं और रेलें रेंगती हुई कान से निकलती रहीं

कभी-कभी सोचता हूँ - क्या मैं वही इंसान हूँ जिससे लोग इतनी आशाएँ रखते थे ! और जिन्हें अब मैं मरुस्थल में घूमता सा जान पड़ता हूँखैर कोई कब तक दूसरों के लिये जिये जाएगा - असल में तो वह मरना ही हैऔर बार-बार मरकर, अपनी तो रूह भी कराहने लगी हैसोचता हूँ थोड़े समय उसे छुट्टी दे दूँ

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कुछ रोज़ से दोस्त का फ़ोन आया करता है - उसके समय पर उसके अरमानों पर सही ना उतर पाने का मलाल रहता है - और शर्म भी महसूस होने लगती हैक्या किया जाये ? जानता तो वह भी सब कुछ हैफिर भी दुनियावी आदमी बना हैखैर वह तो बरसों से ही दुनिया को ओढ़ कर चलने लगा है - आज फिर विचार आया, पैसा बुरी बला है

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क्या इंसान सौ प्रतिशत शुद्ध रह सकता है ? लगता तो नहीं - दूसरों की अपेक्षाओं पर खरा उतर पाने की कोशिशों में अपना आप शेष ही कितना रह पाता हैशुद्धता तो दूर की कौड़ी हैएकरसता जीवन को नीरस करती जाती हैमुक्तता में सुकून अवश्य रहता होगा

मुक्त जीवन - सुकून भरे दिन और मनमाफ़िक क्रियाकलाप......आह !

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काँच का शहर और रंगीन सपने

>> 04 January 2011

अपने शहर से अभी तक अपनापन नहीं हो पाया थाना जाने हम दोनों के बीच ऐसी क्या दूरियाँ थीं जो हम एक-दूसरे से यूँ अनमने से रहते रहेइस दफा जब घर को गया तो लगा जैसे वो शहर बाहें फैलाए खड़ा हैगोया कि मेरे ही इंतज़ार में हो ! अब खासा लगाव सा होने लगा हैवैसे भी जब अपने पास की चीज़ें पुरानी पड़ती जाती हैं, हमें उससे अतिरिक्त मोह होता जाता है

देखा जाए तो फिरोज़ाबाद बुरा शहर नहीं है, यहाँ सुविधायें और चमक-दमक ना सही - रोटी सबको नसीब है

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एक्सप्रेस को चीटी की चाल से चलवाते हुए और उसके एक्सप्रेस होने पर लानत भेजते हुए किसी तरह घर को पहुँचे । अबकी दफा यार लोगों ने ऐसे दुआ-सलाम की, गोया कि बरसो बिछड़ने के बाद मिले हों । खूब यारबाजी की, सड़कों की खाक छानी और सिगरेट पिये । जीने का सलीका भूलकर बेफिक्री भी अच्छी चीज़ है । चार दिन मज़े में कटे ।

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माँ को अम्मी जान कहकर पुकारने में स्वंय को अजीब ख़ुशी हासिल होती है । इस दफा सारी शर्मो-हया ताक़ पर रखकर बेशर्म बनकर जिये । माँ से गप्प मारते रहे, उनकी बचपन की छोटी-छोटी बातें सुनते रहे । और जब वे शांत हो जाती तो याद दिलाते अरे हाँ -तब क्या हुआ था अम्मी जान जब आप वहाँ थीं या कि जब आप ब्याह कर आयी थी तो कितने लोगों के लिये चक्की पीसनी होती थी । या कि जब आप अपने बचपन की दोस्त से रूठ जाया करती थीं तो कैसे निभती थी ।

माँ का जीवन भी कितना निस्वार्थ है, जैसे स्वंय का कुछ है ही नहीं-जो कुछ है हम सब के लिये, घर के लिये । वे उसी में इतनी खुश दिखती हैं । स्थिर, शांत, डेडिकेटेड और स्वंय के त्याग के कहीं कोई चिन्ह नहीं । सच में माँ बहुत बड़ी हैं - बहुत बड़ी ।

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बीते दिनों में आये जमा मेल भी क़र्ज़ का सा एहसास कराते हैं । किसको-किसको जवाब लिखूँ और क्या ? ना जाने क्यों लोग रस्म अदायगी करते रहते हैं गोया कि हम जानते ही ना हों कि नया साल आ गया है । और न जाने किस बात पर इतना खुश हो लेते हैं ? कोई लौटरी लग गयी या दुनिया बदल गयी ? खैर, अपनी तो नहीं लगी ।

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बरसों से स्मृतियों में कैद छोटी-छोटी घटनायें, जो वक़्त के साथ-साथ और अधिक मैच्योर होती जाती हैं - को लिखने में अजीब नशा सा आता है । जैसे कि चार गिलास बीयर पीकर स्वंय को हल्का महसूस करने लगा होऊं ।
सुनसान पड़ी सडकें भी खासा आकर्षित करती हैं-खासकर रात में यूँ ही निकल पड़ना खासा सुकून देता है । तो दिली ख्वाहिश को अंजाम देने दोस्त को साथ लिये चल दिये (अकेले तो हरदम चलते हैं !) । काफी देर तक जिंदगी और समझदारी की बातें होती रहीं । समाज और दुनियाँ की समस्याएँ नहीं सुलझीं - लौट आये । मिलकर सिगरेट पिये और फिर उसको बिस्तर तक पहुँचा कर खुद जागते रहे । ये लिखने और जागते रहने का मर्ज़ हमने ही अपनी जान को लगा रखा है । नहीं तो देखो दुनिया घोड़े बेच कर, अपनी-अपनी रजाइयों में दुबकी पड़ी है ।

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