रचनात्मकता का विकास

>> 05 September 2010

आकर्षण से प्रारंभ हो उसके गूढ़ रहस्यों के इर्द-गिर्द घूमती हुई रचनात्मकता प्रतीत होती है किन्तु वह केवल आभासी है । आकर्षण के आभासी स्तर, जो कि आगे चलकर प्रेम जैसे शब्दों का निर्माता बन स्वंय को दोहराता है । यहाँ शब्दजाल द्वारा आकर्षण को उकेरता, श्रृंगार रस में लिप्त नायक उर्फ़ कवि वर्षों तक बाहर नहीं आ पाता । कई-कई वर्षों तक वह रचता रहता है उस आकर्षण को, उस दुनिया से अलग स्वंय के बनाये गये रिश्ते को । इसे प्रेम गीत, प्रेम रचनाएँ या प्रेम कवितायें कहना गलत ना होगा । यह एक ऐसा मोह है जिसे वह कई नाम देता है । प्रेम, भावनाएं, समर्पण, इच्छा, सुख-दुःख, बेचैनी, विरह, आदि । एक दिन इन सभी ज्ञानवर्धक शब्दों से होता हुआ वह स्वंय को त्याज्य महसूस करता है । यहाँ से प्रारम्भ होता है कई वर्षों से घेरे हुए प्रेम का वाष्पित होना । उस सुखद बेला में रचनात्मकता जो कि आभासी ही सही अपने अगले मुकाम को हासिल करती है । यहाँ नायक/नायिका जो कि पहले स्त्रीत्व/पुरुषत्व के गूढ़ रहस्यों में डूबा हुआ था/थी और प्रेम जिसका ज्ञान था, विज्ञान था, अब स्वंय को परिभाषित करने में जुट जाता है । इस स्तर पर वह कई रचनाएँ रचता है । कई-कई वर्षों तक तमाम नायक-नायिका स्वंय को इन दोनों समूहों से अलग नहीं कर पाते । दोनों ही स्तर पर विपरीतलिंगी मोह से पनपी रचनाओं का उत्थान-पतन होता है ।

असल में रचनात्मकता का जन्म इस पायदान से बाहर निकलकर होता है । जहाँ एकांत और रीतेपन को जी रहे तमाम नायक उर्फ़ (कवि/लेखक) में रचनात्मकता जन्म लेती है । युवावस्था के इस पायदान पर पहुंचा नायक स्वंय की खोज में लग जाता है । उसे पहले के सभी अपने रचे आकर्षण में लिप्त दस्तावेज व्यर्थ प्रतीत होने लगते हैं । उसे लगता है दुनिया में कितना कुछ है । भावनाओं का एक ऐसा स्तर भी है जो आकर्षण के बाहर जाकर विस्तार लेता है । जब रचनात्मकता ऐसे किसी स्तर से बाहर निकलना प्रारंभ करती है तब एक कवि, लेखक, कहानीकार का जन्म होता है । विकासशील और विकसित में जितना अंतर है । उतना ही अंतर जन्म लेने और स्थापित होने में है ।

रचनात्मकता अपने जन्म के साथ ही विकासशील पथ पर अग्रसर होती है । हर नई रचना, हर नये दिन, हर नई विषय वस्तु के साथ इसका विकास होता है । आत्म चिंतन, आत्म विवेचन से उपजती हुई वह आगे बढती है । यहाँ हर नये कदम के साथ रचनाकार स्वंय को रचना रचने के गूढ़ रहस्यों में पाता है । रहस्य जो कि कई बार कहे जाने, लिखे जाने के बावजूद नया रूप धारण कर लेता है । यहाँ रचनाकार छटपटाता है और स्वंय के लिये एक पथ की तलाश करता है । जिससे कि वह नई रचना दे सके । नई रचना के साथ वह आभासी से निकल वास्तविक स्तर को स्पर्श करता है ।

रचनात्मकता तमाम सुख, दुःख, पीड़ा, भय अपने जन्म के साथ लेकर आती है । जो रीतेपन से प्रारंभ हो भरने, छलकने और वाष्पित होने तक भी पहुँच सकती है । कई बार रचनाकार इन स्तरों से स्वंय को गुजरता हुआ पाता है । रचना के जन्म लेने से विकसित होने तक रचनाकार ना केवल उसे जीता है बल्कि मरता भी है । यही एक रचनाकार का अध्यात्मिक विकास है । दूसरे शब्दों में कहें तो रचनात्मकता का विकास है ।

रचनाकार का विकास न कभी समाप्त होता और ना पूर्ण । यहाँ उदय तो हुआ जा सकता है किन्तु अस्त नहीं । रचनात्मकता के दो ही चरण है एक उसका जन्म और दूसरा उसका विकास ।


* चित्र गूगल से

21 comments:

प्रिया 5 September 2010 at 19:42  

शुक्रिया अनिल! एक त्रिशंकु सी मनःस्थिति चल रही थी आजकल....शायद खुद से दूर भागने की कोशिश या फिर उभरते हुए अस्तित्व को पीछे धकेलने का प्रयास...पढ़ कर मान शांत हुआ. कौन कहता है हिन्दी ब्लॉगिंग में विचारों की गुडवत्ता नही है
अच्छा लगा

Unknown 5 September 2010 at 19:53  

बहुत सुन्दर...........

अच्छा लगा बाँच कर

वीना श्रीवास्तव 5 September 2010 at 20:19  

अच्छा लिखा है..

आपका भी स्वागत है

http://veenakesur.blogspot.com/

समयचक्र 5 September 2010 at 20:47  

रचनात्मकता अपने जन्म के साथ ही विकासशील पथ पर अग्रसर होती है । हर नई रचना, हर नये दिन, हर नई विषय वस्तु के साथ इसका विकास होता है । आत्म चिंतन, आत्म विवेचन से उपजती हुई वह आगे बढती है ...

बहुत ही सटीक सारगार्वित पोस्ट....बधाई अनिल जी

प्रवीण पाण्डेय 5 September 2010 at 22:07  

रचनात्मकता सदा ही विकसित होती रहती है।

kshama 5 September 2010 at 22:13  

Har safal rachanakar kayi paydanon se hoke guzarta rahta hai..apne dayre badhata rahta hai..'swa'ke kendr binduse leke wishw kee paridhi tak ka uska safar hota hai,tabhi ek dil se doosare dilkee raah banti hai...tabhi ek samvaad sthapit ho sakta hai...

सागर 6 September 2010 at 11:55  

यकीन नहीं हो रहा यह वही अनिल है !!!!!

Ashish (Ashu) 6 September 2010 at 13:40  

bhai ..kuch badle se lag rahe ho....:)

richa 6 September 2010 at 15:42  

तो कहा जाये एक रचनाकार विकास की ओर अग्रसित हो चुका है ?? :-)
क्या खूब समझाया है रचनात्मकता और रचनाकार के विकास को...
आभासी से निकल वास्तविक स्तर को स्पर्श करती एक परिपक्व अभिव्यक्ति...

नीरज गोस्वामी 6 September 2010 at 15:50  

बहुत सार्थक और सार गर्भित लेख...आपकी लेखन शैली विलक्षण है...वाह...
नीरज

सुशील छौक्कर 6 September 2010 at 16:56  

एक अच्छा बेहतरीन लेख। क्या बात है आजकल गहरी गहरी बातें करने लगे हो भाई :)

दिगम्बर नासवा 6 September 2010 at 18:11  

अनिल जी ...सटीक विश्लेषण किया है ... सच है रकनाकार जन्म लेता है और उसका विकास होता रहता है ... आजन्म विकास ...

VIJAY KUMAR VERMA 6 September 2010 at 21:00  

anil gee bahut hee sundar lekh ke liye badhai...

Sulabh Jaiswal "सुलभ" 7 September 2010 at 09:51  

रचनात्मकता का यह विश्लेषण साकारत्मक है. अपने उद्देश्य की तलाश में शनै: शनै: परिपक्व होता रचनाकार.

आज बड़े दिनों बाद आना हुआ. अच्छा लगा.

Parul kanani 8 September 2010 at 16:26  

chaliye anil ji aapne creativity ko bade hi creative way mein describe kiya hai.. :) iski aapko badhai !

Anonymous,  11 September 2010 at 00:27  

बढ़िया आलेख...
कई चीज़ों पर बेहतरी से सोचता हुआ...

निर्मला कपिला 11 September 2010 at 12:31  

अज बहुत दिनो बाद आयी तो देखा ब्लाग का रंग रूप बदल गया है अच्छा लग रहा है। बहुत सही कहा। ईद और गणेश चतुर्थी की बहुत बहुत बधाई।

डॉ. मोनिका शर्मा 14 September 2010 at 10:38  

रचनाकार का विकास न कभी समाप्त होता और ना पूर्ण
.....................
सब कुछ समेत लिया इन शब्दों में....

अविनाश वाचस्पति 17 September 2010 at 08:17  

आज दिनांक 17 सितम्‍बर 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में आपकी यह पोस्‍ट रचनात्‍मकता का विकास शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्‍कैनबिम्‍ब देखने के लिए जनसत्‍ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।

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