बसंत के वे दिन
>> 17 September 2010
वे बसंत से पूर्व के दिन थे । उन्हीं में से एक निखरा, उजला, गुनगुनी धूप का दिन याद हो आया । कई वृक्षों के मध्य खड़ा नीम लजा रहा था जैसे बड़ों के मध्य वस्त्रहीन बच्चे को कह दिया गया हो 'छी नंगे बच्चे'। एक गिलहरी अशोक की पत्तियों में लुका-छुपी में मग्न थी । आसमान में पतंगे लहराती, बलखाती नृत्य कर रही थीं । दूर छतों पर से डोर नाज़ुक हाथों में दिखाई पड़ जाती थी । बच्चे बारी-बारी से पतंग को मन-माफिक सैर करा रहे थे । उन छतों के परे अन्य छतों पर औरतें अभी भी स्वेटर के फंदों में उलझी हुई हँसी-ठिठोली कर रही थीं ।
मैं छत पर लेटा हूँ, नीले आकाश को ताकते हुए बार-बार मेरी आँखें मुंद जाती हैं । निद्रा जैसा कुछ महसूस नहीं होता, सुस्ता लेने के बाद उठ बैठता हूँ । किताब औंधे पड़ी है, उठा लेता हूँ । मन में ख्याल हो आया 'चलो अगला अध्याय पढ़ा जाये' । कुछ पढ़ा और फिर कोई अनचाहा ख्याल आ पहुँचा । दाँतों को कुरेदने लगता हूँ । मन नहीं भरा, नाखून चबा रहा हूँ । गिलहरी मुंडेर पर आकर कुछ चुंग रही है । मुझ से नज़र मिलने पर दौड़ गयी । पुनः अशोक की पत्तियों में लुप्त हो गयी ।
सहसा एक पत्ता झर कर किताब पर आ गिरा । निगाहें वृक्षों की ओर जा पहुँचीं । वापस किताब पर लौटते हुए निगाहें दस फलाँग दूर की छत पर उलझ जाती हैं । वो दाँतों को कुरेद रही है, फिर नाखून चबाने लगी । मैं प्रतिउत्तर में अपने नाखूनों को दाँतों के मध्य से स्वतंत्र करता हूँ । वो यह देख खिलखिला कर हँस देती है । मैं झेंप जाता हूँ । निगाहों को किताबों में छुपा लेता हूँ । मन चंचल हो उठता है । पुनः छत को निहारता हूँ । वो पुनः खिलखिला दी । बच्चों सी उज्जवल, मासूम हँसी । प्रथम और अंतिम निर्णय में यही निष्कर्ष निकलता है ।
मैं किताब उठाकर टहलने लगता हूँ । वो भी टहलने लगती है । उसे देखता हूँ, ओह हो अजीब आफत है । जो चाहे करे, मेरी बला से । फिर से उसे देखता हूँ, वो मुस्कुरा देती है । हवा चल दी है और उसमें उसके लम्बे बाल लहराने लगते हैं । उसने उन्हें खुला छोड़ रखा है । स्वतंत्र, बेफिक्र हो वे इधर से उधर उड़ सकते हैं । उसके गालों को छू सकते हैं । वो उन्हें हटा कर कानों के पीछे धकेल देती है । अबकी मैं मुस्कुरा देता हूँ । प्रतिउत्तर में वह लजा जाती है ।
आज आसमान में रंग ज्यादा खिल रहे हैं । हरे, लाल, पीले, नीले, गुलाबी रंगों की पतंगे ज्यादा हो गयी हैं । उत्साहित बच्चे दूर-दूर तक पेंच लड़ाने के लिये जाते हैं । जीत जाने पर, खिलखिला कर कह उठते हैं 'वो काटा' । नीम पर भी हरा रंग चढ़ने लगा है । किताबों में जी कम लग रहा है । निगाहें उसे खोज रही हैं । वो दिख गयी है । इशारे से उसे स्वंय का नाराज़ होना जताता हूँ । वो मुस्कुरा कर माफ़ी नामा भेज रही है । मैं निगाहें हटा कर किताब पर जमा लेता हूँ । केवल दो मिनट ही हुए हैं, दिल करता है उसे निहारूं, किन्तु ऐसा नहीं करता ।
छत पर कुछ गिरने की आवाज़ आयी है । निगाहें इधर-उधर कुछ तलाश करने लगती हैं । कोरे कागज़ के मध्य कुछ है । पत्थर निकाल कर बाहर करता हूँ । उसने लिख भेजा है 'अच्छा अब माफ़ भी कर दो ना' । साथ में एक स्माइल भी । मैं उसको देखता हूँ । वो मुस्कुरा रही है । मैं भी मुस्कुरा उठता हूँ ।
ये उसका पहला प्रेम पत्र था.....
18 comments:
बढ़िया लेख .... पर अभी तो सर्दिय आने वाली है ... बसंत तो अभी बहुत दूर है ......
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(आप क्या चाहते है - गोल्ड मेडल या ज्ञान ? )
http://oshotheone.blogspot.com/2010/09/blog-post_16.html
भाई वाह ! खुबसूरत अहसासों का समागम है इस अभिव्यक्ति में ...
यहाँ भी पधारें ...
विरक्ति पथ
Bahut hi pyara sansmaran!
क्या शुरुआत है !
बह चले, अनिल!!
बहुत खूबसूरत प्रेम पत्र था।
ओह ! बड़ी मासूम सी पोस्ट है. किशोरावस्था का प्रेम, दुनिया से बेफिक्र.
love in the air....ha.....
गज़ब का रूमानी प्रेम पत्र...
आपकी भाषा बहुत अच्छी है , यह और मँजती रहे यह दुआ ।
हर शब्द दिल धड़काने की क्षमता रखता है।
बहुत सुन्दर कई दिन बाद आपका पुराना अंदाज़ देखा
बहुत अच्छा लगा बधाई।
बड़े दिनों बाद आपकी कलम पुराने अंदाज़ में चली और जाने क्या-क्या साथ ले आयी... पोस्ट पढ़ते पढ़ते कभी वो गिलहरी स्क्रीन पे दौड़ती दिखी तो कभी लाल पीली पतंगें उड़ती दिखाई दीं... सितम्बर के महीने में बसंती हवा का सा एहसास हुआ :)
achchi yaden achchi hi lagti hain. all the best
दृश्य खैंच दिया आपने .... चलचित्र की तरह आपकी पोस्ट नज़रों के सामने से गुज़र गयी .....
क्या कमाल लिखते हो यार ....
sir meine apki lagbhag abhi kahaniya padi.....aur paya RAIL ka apki kahaniyo me bada rooll rehta h.......aur characters bahut travel karrte h.....but aapki har kahani ant tak baandhe rakhti h......specially luv stories.
Thanks for pointing this out...I'd have missed it.:-)
अब ऐसे प्रेम पत्रों का ज़माना कहाँ? बहुत दिनों के बाद एक बार फिर आपके ब्लॉग पर आकर खुशी हुई. आपके अभिव्यक्ति की शैली या ढंग जो कहिये बस बहुत ही अच्छा लगता है. लिखते रहिये.... एक बात और.... आप बातें भी इसी शैली में करते होगे तो कैसा लगता होगा सामनेवाले को.....!!!!!!!!!!!!!!!
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