वो करीब चौदह साल का रहा होगा...पढना उसे अच्छा लगता था...शायद हालातों ने उसे वक़्त से पहले कुछ ज्यादा ही समझदार बना दिया था...और उसे इस बात का भी एहसास था कि वक़्त से पहले समझदार होना कोई ज्यादा समझदारी का काम नहीं है...क्योंकि इंसान वक़्त से पहले समझदार तो हो जाता है लेकिन वक़्त से पहले उसके हाथ में वक़्त की बागडोर नहीं होती...उसके हाथ में ऐसा कुछ भी नहीं होता कि वो हालातों से लड़ सके...बस वो सब कुछ अपने सामने होते देख सकता है...और एक कोने में आँसू बहा के रह जाता है...शायद कोई उसका अपना उसके आंसू बहते हुए ना देख ले इसलिए वो खुद ही आँसू पौंछना सीख जाता है
जब रात को दिये की रौशनी में वह किताबों में आँखें गढाए पढ़ लिख कर कुछ बनने के ख्वाब देखता था...उसी समय रात को उसका बाप ड्यूटी से लौट कर उसकी माँ को मारता...कुछ समय रहते ही उसे पता चल चुका था कि उसका बाप उसकी माँ को क्यों मारता है...बाप के बहके क़दमों को रोकना उसके बस का नहीं था...माँ की तमाम कोशिशों का हश्र यही होता कि जब जब वो कुछ समझाने या अपने पति के बहके क़दमों को सही रास्ता दिखाने की कोशिश करती तब तब उसकी पिटाई होती...उसने बचपन में ही जान लिया था कि महिला सशक्तिकरण सिर्फ किताबों की बातें हैं अभी...टीवी में दिखने वाले कार्यक्रम सिर्फ एक दिखावा भर है...
वो बस अपने कमरे के एक कोने में सुबक सुबक कर रो लेता और फिर से अपनी किताबों में आँखें गढा लेता...जहां उसे ऐसा माहौल मिलना चाहिए था कि उसके व्यक्तित्व में निखार आता...उसके बौद्धिक विकास पर पूरा ध्यान दिया जाता...वही उसका उल्टा होता...बाप को कोई मतलब नहीं था कि उसका बच्चा क्या पढ़ रहा है और उसकी फीस कब भरनी है...किताबों की कहने पर वो अक्सर टाल जाता...एक उसकी माँ ही थी जिसने एक एक पैसा बचाकर उसकी किताबों का बंदोबस्त किया...ये भी एक अजब संयोग था कि जिसका बाप एक सरकारी नौकर हो उसे अक्सर किताबों के लिए माँ पर निर्भर रहना पड़ता...
ऐसे हालात जबकि घर में हमेशा कलह, मार पीट और बाप की मनमानी का दौर चलता...ऐसे में भी वह क्लास में प्रथम आने जैसा घोर अपराध करता था...उसके साथ ना जाने क्यों एक अजीब सी शक्ति रहती...कि चाहे जो भी हो जाए रो पीटकर, मार खाकर, बुरे से बुरे माहौल में भी उसे बस पढना है...उन दिनों जब वो दसवीं की कक्षा में था...बाप को अपने फिसले हुए पैरों के और ज्यादा फिसलने के बाद दूसरी शादी करने का शौक चर्रा गया...वो एक बहुत बुरा दौर था...एक तरफ जहां बाप घर में ठीक से तनख्वाह भी ना देता...माँ के साथ होने वाली मार पीट...किताबों की कमी को माँ के सहारे पूरा करना...और बाप का गन्दा रवैया...इन सबके साथ उसे दसवीं की बोर्ड परीक्षाएं देनी थी.
एक माँ, एक बीवी क्या नहीं करती अपने घर को बचाने के लिए...पहले घर की इज्जत बचाने के लिए घर के अन्दर मार खाती रहती है...उफ्फ तक नहीं करती...वहीँ जब उसका पति उसके बच्चों और उसके खुद के पेट का ख्याल तक छोड़ देता है तब भी वो जैसे तैसे रूखे सूखे में गुजारा करती है...
वो इतना सब होने के बाद भगवान का सहारा लेती है...रात-दिन, सुबह-शाम कुछ नहीं छोड़ती जब वो भगवान को याद ना करती हो, पूजा पाठ नहीं करती हो, दुआ नहीं करती हो...तब ना वो हिन्दू रहती, न मुस्लिम, ना सिख और ना ईसाई...बस वो चाहती है कि उसका पति सही रास्ते पर आ जाये...उसकी आँखों से पर्दा उठ जाए...पूजा पाठ, ताबीज, लाल धागा और ना जाने क्या क्या...क्या नहीं करती वो इन सबके लिए...लेकिन पति पर तो शरीर की भूख सवार होती है...वो ना कुछ सोचता और ना समझता
इन सब हालातों में वो चौदह साल का लड़का जो वक़्त से पहले समझदार हो चला था...अकेला रोता है...अकेला रहना पसंद करने लगता है...कोई एक कोना ढूढता है...खुद रोता है और खुद ही आँसू पौंछ लेता है...कभी खुद से सवाल पूंछता है तो खुद ही जवाब देता है...किताबों की दुनिया में रहने लगता है और वो अकेला खुद का ही दोस्त होता है
इन सब में उस 14 साल के बच्चे का बचपन कहीं खो जाता है...क्योंकि वो वक़्त से पहले समझदार जो हो गया था...उसने खुद को ही अपना दोस्त जो बना लिया था...ना उसने कभी अपने बाप से चोकलेट के लिए कहा, ना फीस के लिए, ना किताबों के लिए...ना ही वो उम्मीद करता था कि उसका बाप कभी उसके स्कूल के फंक्शन में आएगा...वो कब अपने बाप को नापसंद करने लगा उसे याद ही नहीं...शायद जब उसका बचपन खो गया हो तब...या जब माँ की रात को सिसकियाँ सुनता हो तब...या हर पल माँ को डरा हुआ, सहमा हुआ पाता हो तब
उस दिन वो बहुत खुश था...क्योंकि माँ बहुत खुश थी...जब उसे पडोसी के अख़बार से पता चला कि उसका बेटा दसवीं में प्रथम आया है...माँ के होठों की मुस्कराहट देखकर उसे पहली बार एक सुखद एहसास हुआ...और इस बात का एहसास भी कि एक वही है जो हमेशा के लिए उसके होठों पर हंसी ला सकता है...
पता नहीं क्यों जब तब आज भी वो 14 साल का लड़का मेरे ख्वाबों में खडा हुआ दिखाई देता है...कुछ मुस्कुराता सा...एक रास्ते पर आगे चलता सा...एक जुदा एहसास लिए हुए उस लड़के को देखना मेरे लिए आज भी जुदा एहसास दे जाता है
कुछ एहसास हमेशा साथ क्यों रहते हैं...बिल्कुल दिल के करीब...उस 14 साल के लड़के जैसे
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