कुछ एहसास जुदा से

>> 19 September 2009

वो करीब चौदह साल का रहा होगा...पढना उसे अच्छा लगता था...शायद हालातों ने उसे वक़्त से पहले कुछ ज्यादा ही समझदार बना दिया था...और उसे इस बात का भी एहसास था कि वक़्त से पहले समझदार होना कोई ज्यादा समझदारी का काम नहीं है...क्योंकि इंसान वक़्त से पहले समझदार तो हो जाता है लेकिन वक़्त से पहले उसके हाथ में वक़्त की बागडोर नहीं होती...उसके हाथ में ऐसा कुछ भी नहीं होता कि वो हालातों से लड़ सके...बस वो सब कुछ अपने सामने होते देख सकता है...और एक कोने में आँसू बहा के रह जाता है...शायद कोई उसका अपना उसके आंसू बहते हुए ना देख ले इसलिए वो खुद ही आँसू पौंछना सीख जाता है

जब रात को दिये की रौशनी में वह किताबों में आँखें गढाए पढ़ लिख कर कुछ बनने के ख्वाब देखता था...उसी समय रात को उसका बाप ड्यूटी से लौट कर उसकी माँ को मारता...कुछ समय रहते ही उसे पता चल चुका था कि उसका बाप उसकी माँ को क्यों मारता है...बाप के बहके क़दमों को रोकना उसके बस का नहीं था...माँ की तमाम कोशिशों का हश्र यही होता कि जब जब वो कुछ समझाने या अपने पति के बहके क़दमों को सही रास्ता दिखाने की कोशिश करती तब तब उसकी पिटाई होती...उसने बचपन में ही जान लिया था कि महिला सशक्तिकरण सिर्फ किताबों की बातें हैं अभी...टीवी में दिखने वाले कार्यक्रम सिर्फ एक दिखावा भर है...

वो बस अपने कमरे के एक कोने में सुबक सुबक कर रो लेता और फिर से अपनी किताबों में आँखें गढा लेता...जहां उसे ऐसा माहौल मिलना चाहिए था कि उसके व्यक्तित्व में निखार आता...उसके बौद्धिक विकास पर पूरा ध्यान दिया जाता...वही उसका उल्टा होता...बाप को कोई मतलब नहीं था कि उसका बच्चा क्या पढ़ रहा है और उसकी फीस कब भरनी है...किताबों की कहने पर वो अक्सर टाल जाता...एक उसकी माँ ही थी जिसने एक एक पैसा बचाकर उसकी किताबों का बंदोबस्त किया...ये भी एक अजब संयोग था कि जिसका बाप एक सरकारी नौकर हो उसे अक्सर किताबों के लिए माँ पर निर्भर रहना पड़ता...

ऐसे हालात जबकि घर में हमेशा कलह, मार पीट और बाप की मनमानी का दौर चलता...ऐसे में भी वह क्लास में प्रथम आने जैसा घोर अपराध करता था...उसके साथ ना जाने क्यों एक अजीब सी शक्ति रहती...कि चाहे जो भी हो जाए रो पीटकर, मार खाकर, बुरे से बुरे माहौल में भी उसे बस पढना है...उन दिनों जब वो दसवीं की कक्षा में था...बाप को अपने फिसले हुए पैरों के और ज्यादा फिसलने के बाद दूसरी शादी करने का शौक चर्रा गया...वो एक बहुत बुरा दौर था...एक तरफ जहां बाप घर में ठीक से तनख्वाह भी ना देता...माँ के साथ होने वाली मार पीट...किताबों की कमी को माँ के सहारे पूरा करना...और बाप का गन्दा रवैया...इन सबके साथ उसे दसवीं की बोर्ड परीक्षाएं देनी थी.

एक माँ, एक बीवी क्या नहीं करती अपने घर को बचाने के लिए...पहले घर की इज्जत बचाने के लिए घर के अन्दर मार खाती रहती है...उफ्फ तक नहीं करती...वहीँ जब उसका पति उसके बच्चों और उसके खुद के पेट का ख्याल तक छोड़ देता है तब भी वो जैसे तैसे रूखे सूखे में गुजारा करती है...

वो इतना सब होने के बाद भगवान का सहारा लेती है...रात-दिन, सुबह-शाम कुछ नहीं छोड़ती जब वो भगवान को याद ना करती हो, पूजा पाठ नहीं करती हो, दुआ नहीं करती हो...तब ना वो हिन्दू रहती, न मुस्लिम, ना सिख और ना ईसाई...बस वो चाहती है कि उसका पति सही रास्ते पर आ जाये...उसकी आँखों से पर्दा उठ जाए...पूजा पाठ, ताबीज, लाल धागा और ना जाने क्या क्या...क्या नहीं करती वो इन सबके लिए...लेकिन पति पर तो शरीर की भूख सवार होती है...वो ना कुछ सोचता और ना समझता

इन सब हालातों में वो चौदह साल का लड़का जो वक़्त से पहले समझदार हो चला था...अकेला रोता है...अकेला रहना पसंद करने लगता है...कोई एक कोना ढूढता है...खुद रोता है और खुद ही आँसू पौंछ लेता है...कभी खुद से सवाल पूंछता है तो खुद ही जवाब देता है...किताबों की दुनिया में रहने लगता है और वो अकेला खुद का ही दोस्त होता है

इन सब में उस 14 साल के बच्चे का बचपन कहीं खो जाता है...क्योंकि वो वक़्त से पहले समझदार जो हो गया था...उसने खुद को ही अपना दोस्त जो बना लिया था...ना उसने कभी अपने बाप से चोकलेट के लिए कहा, ना फीस के लिए, ना किताबों के लिए...ना ही वो उम्मीद करता था कि उसका बाप कभी उसके स्कूल के फंक्शन में आएगा...वो कब अपने बाप को नापसंद करने लगा उसे याद ही नहीं...शायद जब उसका बचपन खो गया हो तब...या जब माँ की रात को सिसकियाँ सुनता हो तब...या हर पल माँ को डरा हुआ, सहमा हुआ पाता हो तब

उस दिन वो बहुत खुश था...क्योंकि माँ बहुत खुश थी...जब उसे पडोसी के अख़बार से पता चला कि उसका बेटा दसवीं में प्रथम आया है...माँ के होठों की मुस्कराहट देखकर उसे पहली बार एक सुखद एहसास हुआ...और इस बात का एहसास भी कि एक वही है जो हमेशा के लिए उसके होठों पर हंसी ला सकता है...

पता नहीं क्यों जब तब आज भी वो 14 साल का लड़का मेरे ख्वाबों में खडा हुआ दिखाई देता है...कुछ मुस्कुराता सा...एक रास्ते पर आगे चलता सा...एक जुदा एहसास लिए हुए उस लड़के को देखना मेरे लिए आज भी जुदा एहसास दे जाता है

कुछ एहसास हमेशा साथ क्यों रहते हैं...बिल्कुल दिल के करीब...उस 14 साल के लड़के जैसे

22 comments:

हेमन्त कुमार 19 September 2009 at 19:41  

किशोरावस्था को ऐसे अनेक कठिनाईयों का सामना करना होता है ।

vandana gupta 19 September 2009 at 19:42  

bahut hi hridaysparshi kahani aur hakeekat se labrej.

संगीता पुरी 19 September 2009 at 19:52  

दिल की गहराइयों से निकलती है आपकी रचना .. बहुत बढिया लिखा आपने .. नवरात्र की बधाई !!

निर्मला कपिला 19 September 2009 at 19:59  

दिल को छूने वाली मार्मिक रचना है। आपकी रचनायें समाज के आईने से छन कर आती हैं और ये एहसास ऐसे ही हैं जो कभी दिल दिमाग से जाते नहीं नारी की त्रास्दी और उसके साथ बच्चों की भी समाज मे आम देखी जा सकती है ।शुभकामनायें

Mithilesh dubey 19 September 2009 at 20:14  

वाह अनिल जी क्या बात है। लाजवाब लिखा है आपने, दिल को छु गयी आपकी ये रचना। बहुत-बहुत बधाई हो इस मार्मिक रचना के लिए।

Udan Tashtari 19 September 2009 at 21:18  

बेहतरीन लेखन...हमेशा की तरह हृदय को छूता.

Anonymous,  19 September 2009 at 22:43  

bahut hi acha likte hai aap.....aapki writing skill bahut acchi hai

डिम्पल मल्होत्रा 19 September 2009 at 22:59  

sahi kaha aapne ahsaas kabhi jate nahi..umar bhar sath nibhate hai....hmesha ki tarah achhi post...

Anil Pusadkar 20 September 2009 at 00:02  

सीधे दिल पर चोट करती पोस्ट,कहानी जो सच भी है,वैसे आंसू रोकना बहुत कठीन होता है ?

Sugandha Gupta 20 September 2009 at 06:45  

really touching post :)
nice nice :)

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी 20 September 2009 at 08:55  

व्यक्ति की पहचान विपरीत परिस्थितियों में ही होती है और ऐसे लड़के ही अपने जीवन की कठिनाइयों से पार पाते हुए सफलता प्राप्त करते हैं। उस अधम पिता ने अपने पुत्र के साथ ऐसा क्यों किया होगा इसपर भी एक कहानी हो जाय।

आप बहुत डूब कर लिखते हैं, जो मुझे बहुत पसन्द है।

Unknown 20 September 2009 at 09:10  

anil ji
kahani ki bhasha aur vishay ka male bahut hi sunder hai ...aap apni bhasha ke madhyam se humare waqt se uthaker hume ek alag waqt mein le jane mein safal hai ...kahani ka ant bhi kafi acha hai...per aapki pratibha ka jo udbhav aapki shally v vishay chunav v kahani kehne ka udeshya aapse abhi aur patroon ke anterdwand ke chitran ki apeksha kerta hai ...acha laga aapko padh ker

अनिल कान्त 20 September 2009 at 10:03  

राकेश जी ये कोई कहानी नहीं किसी की सच्ची जिंदगी है...कहानी को पात्रों की आवश्यकता होती है, असल जिंदगी को नहीं

अपूर्व 20 September 2009 at 13:14  

किसी मार्मिक कविता सी गीली-गीली रवानी है आपकी रचना मे..ऐसी कई हाड़-मांस की कहानियाँ देखी हैं अपने ही आस-पास

शरद कोकास 20 September 2009 at 22:53  

इस उम्र की मनोदशा अच्छी तरह अभिव्यक्त हुई है

प्रिया 21 September 2009 at 20:28  

bahut dino baad aana hua blog par......kya khoob hai ..... kya kahe ab ...keep writing

ओम आर्य 22 September 2009 at 16:36  

Apoorv ji ka kahana bahut hi had tak sahi hai .......aisi kahaniya aadami asal jindgi me bhi dekhi hoti hai .......aapane shamaa baandh diya.....badhaayi

Naveen Tyagi 23 September 2009 at 09:51  

hraday ko chhu liya hai aapki is rachna ne.

neera 23 September 2009 at 21:00  

"महिला सशक्तिकरण सिर्फ किताबों की बातें हैं "
कितनी दो टूक और सच बात कही है अनिल जी...

कहानी के तथ्य जितने कम कहे जाएँ वो उतने ही ज्यादा असरदार होंगे..

आपकी पाक कहानी ने मुझे एक माँ के दुखों और ख़ुशी में शामिल कर दिया...

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) 23 September 2009 at 22:35  

dil ko chhoo lene wala.......... behtareen ............

अनिल कान्त 27 September 2009 at 10:53  

आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया

Savita Rana 5 November 2009 at 14:44  

Aaj pahali bar aapke blog per aane ka sobhagya mila, khud ko aap ki rachna me dekh ker aankhe bher aai, bhul gyi thi apne bachpan ke din ek bar phir se samne laker khade ker diye aapne,

Bahut accha likte hai anil ji aap, likhte rahiye keep it up!!!!!!!!

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