ये कैसी ख्वाहिशें हैं जो पूरी नहीं होतीं
>> 01 September 2009
चन्द रोज़ पहले ही एक साथ का दोस्त यू.एस. की फ्लाईट पकड़ कर उड़ गया...एक दूजे वतन को जहाँ उसके सपनों का संसार उसे बुला रहा है या शायद अपनी चादर लम्बी करने गया हो...वो कहते हैं ना कि उतने ही पैर फैलाओ जितनी लम्बी चादर हो...शायद वो अपने पैरों से ज्यादा अपनी चादर लम्बी करना चाहता है...वरना रोटी की तो उसके लिए अपने वतन में भी कमी नहीं
सोचता हूँ कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बंदूकों के साये में अपनी छोटी सी चादर छोड़ कर सर्दी में-गर्मी में सीना तान कर खड़े हैं...कमाल है...फर्क सिर्फ पैरों का है...एक हैं जो अपने वतन की खातिर खड़े हैं...और एक अपने पैरों को यहाँ से उखाड़ दूजे वतन में खड़े होना चाहते हैं
शायद चमकती हुई सड़कें...साफ़ सुथरे चेहरे...भागती हुई गाडियाँ...और डॉलर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करते हों...तब वो एक पल के लिए भी नहीं सोचते कि मेरा मुल्क, मेरा देश, मेरा ये वतन...शांति का उन्नति का प्यार का चमन...हाँ टीवी में दिखाए जा रहे अपने वतन के बम विस्फोट पर इतना तो जरूर कहते होंगे...इंडिया इज नोट सेफ...वहाँ का तो आये दिन का यही लफड़ा है...वही मार पीट...वही नेतागीरी...वही टूटी रोड...वही बिजली की किल्लत...वही भीख मांगते लोग...पता नहीं इस देश का क्या होगा
अभी कुछ रोज़ पहले सुना था अमेरिका अपने खुद के देशवासियों को नौकरी देना चाहता है...उन्हें लगता है बाहर के लोग उनकी रोज़ी रोटी छीन रहे हैं...सुना है वीजा ख़तम होने पर वहाँ बसे भारतीयों को अब अपने वतन की याद आ रही है...वही देश जो उनकी नज़र में टूटा फूटा है...जहाँ गन्दी पॉलिटिक्स है...जहाँ टूटी सड़कें हैं...और ना जाने क्या क्या...जो कभी वो बोला करते थे...सभी कुछ तो उनकी नज़र में वही है...फिर भला अचानक से याद कैसे आ गयी
अभी कुछ महीने पहले ही तो पड़ोस में रहने वाले नेगी साहब के छोटे भाई...यू.एस. से बीवी बच्चों समेत वापस आ गए...सुना है कि उन्हें वहाँ रहते हुए पूरे 10 साल गुजर चुके थे...और उनके अनुसार वो वहाँ बैंक लोन पर घर और गाडी भी खरीद चुके थे...कमाल है...बड़ों से सुना था कि मुसीबत में अपने घर के ही काम आते हैं...चाहे भूखे ही सही...रोटी फिर भी देते हैं
चन्द रोज़ पहले ही तो टीवी पर ऑस्ट्रेलिया में हुए अच्छे नजारे देखने को मिले...वही चमचमाते लोग...वही चमचमाती सड़कें और भागती दौड़ती जिंदगी...पर भागते दौड़ते तो अपने ही नज़र आये...कमाल है दौड़ने के लिए यहाँ जमीन तो अपनी है...किसी से लड़कर भागते हुए अपने घर में तो घुस सकते हैं
अभी जुलाई में ही सुना कि मेरी ही दोस्त ने ऑस्ट्रेलिया जाने का अपना प्लान बदल दिया...वो कहते हैं ना कि हालात ठीक नहीं हैं...वरना डेट,वीजा और पासपोर्ट सभी तो तैयार थे...
ये कौन सी चमक है जो सब कुछ बदल देती है...जिंदगी...सभी रिश्ते-नाते, माँ-बाप सभी तो यहाँ छूट जाते हैं...फिर ऐसा क्या है जो वहाँ सुकून देता है...जो मुझे महसूस नहीं होता...और मेरे कई साथियों, कई देशवासियों को वो सुकून अपनी ओर खींचता है
बड़ी बड़ी इमारतें, लम्बी चौड़ी चमचमाती सड़कें...फास्ट लाइफ...डॉलर...नाईट लाइफ...हो सकता है यही सब हो जो वहाँ से इन्हें खींचता हो...वरना और ऐसा क्या है जो आकर्षित करता है...ऐसा कौन सा सुकून है जो माँ बाप से अलग रह कर मिलता है...जो अपने भाई-बहन और दोस्तों से जुदा रहने पर मिलता है...वरना मार पीट तो वहाँ भी है...जिसका सबूत हमें टीवी वाले दिखा ही चुके हैं...पता नहीं टीवी के पीछे और कितना सच है
पता नहीं पर मुझे ये सब सुकून नहीं देते...अरे जब मैं अपने माँ-बाप के पास ही न रह पाया...अपने भाई-बहन को उछलते-कूदते...लड़ते-झगड़ते ही ना देख पाया...अरे जिन डॉलर को मैं कमाने वहाँ गया...उन डॉलर से खरीदी माँ को शौल, बहन का सूट और भाई को बाइक चलाते ही ना देख पाया...बाप को सीना चौडा करके चलते ही ना देख पाया तो फिर उन डॉलर को कमाने का फायदा क्या...क्या फायदा जो इतनी दूरी पर अकेला रह...अपने किसी जिगरी दोस्त के पास रात गुजार पुरानी यादें ताजा करने का मन होने पर भी वैसा ना कर सकूँ...ये ना कह सकूँ यार तेरी बहुत याद आती है...आज तो दो जाम हो जाएँ बहुत दिन हो गए...
क्या फायदा जब माँ को याद आये तो उनका हाथ तरस जाए मुझे छूने को, मेरे माथे को चूमने को...जब बहन राखी पर दूसरी बहनों को राखी बांधती देखे और उदास मन से भेजे उन डॉलर के गिफ्ट को देख रो पड़े...क्या फायदा जब भाई को उदासी में मेरे सीने से लग रोने का मन करे तब वो सीना उसके पास ना हो...क्या फायदा फक्र से बाप का चौडा होता सीना मेरे ना होने पर दिन ब दिन टूटता हौसला बनता जाए...क्या फायदा जब मैं दुखी और परेशान हो जाऊँ तो अपनी माँ के गले लग रो न सकूँ...उनके हाथ का निवाला ना खा सकूँ....
28 comments:
सच है ख्वाहिसे कभी पूरी नहीं होती है . बढ़िया आलेख .
अपने तो अपने होते हैं...
आपने बहुत भावुक कर दिया भाई.......
वाह !
अत्यन्त अभिनव आलेख.....
पराये देश में अपनापन ढूंढना पड़ता है
अपने देश में
अपने भी पराये लगते हैं
__ये बहुत बड़ी विडम्बना है .......
sach hai khwaahishe khatam nahi hoti .......ek sundar abhiwyakti ......badhaai
वाह अनिल जी वाह, और क्या कहें आपको गजब की कला है आपके पास शब्दो को पिरोने का।
एकदम कड़ुआ सच सामने रख दिया आपने।भई मुझसे पूछा जाये तो भले ही ख्वाहिशें पूरी हो ना हो मै अपना वतन तो दूर शहर छोड़कर भी नही जाऊंगा।बहुत शानदार तरीके से आपने वन-वे ट्रेफ़िक की बात रखी है,जो धीरे-धीरे टू-वे मे बदल रहा है।सारे जंहा से अच्छा हिंदोस्तां हमारा।
ख्वाइस पूरा हो ही नही सकती इसका एक कारण यह भी है की हमारा मन इस दुनिया के तमाम रंगिनियों मे खुद ब खुद डूब जाना चाहता है फिर भला ख्वाइस क्यों ना बढ़े..
बहुत सुंदर और विचारणीय बात कही आपने..
अच्छी रचना...बधाई..
beshaq paise se sab kuchh pa sakte hai par apno ka sath nahi....
सच लिखा है आपने आज का ....सही लगा ,बढ़िया लेख
baap bada na bhaiya sabse bada rupaiyaa..........ye aise hi logon ki soch hai .
SAMAY KA KADUA SACH HAI YE ..... PAR AAJ BHI HAR HINDUSTNI JO VIDESH JATA HAI ... APNI MITTI KO NAHI BHOOL PAATA ....... YE PYAAR HAMAARE DILON MEIN HAI .....
अनिल जी आप की रचना में बहुत कुछ पड़ना को मिला ........आप ने जो कहा है आज एक सच्चा भारतवासी यही कहना चाहता होगा ........बहुत ही अच्छी लगी ......आप बहुत अच्छा लिखते है
आपकी भावना अच्छी है पर ऐसी ही भावना के कारण भारत के लोग पिछले 2000 सालों से भारत के बाहर नहीं गये और पिछड़ गये। बाहर निकल कर ही अंग्रेज, फ्रांसीसी, डच इत्यादि ने दुनिया पर राज कायम किया था। आज चीनी सबसे ज्यादा चीन के बाहर हैं और बाप चीन में निवेश कर चीन की तरक्की कर रहे हैं।
भले ही बबुआ अपने पैसे से घर के लोगों को मजे करता न देख पाये पर अगली पीढ़ी को तो आर्थिक परेशानी से निकाल गया।
मनीषा
www.hindibaat.com
विचारणीय लेख
मनीषा जी मैं भी आपकी भावना की क़द्र करता हूँ
बहुत् सही कहा है विदेश मे भी सिवाय साफ सफाई के कुछ नहीं है भावनायें प्रेम प्यार तो बिलकुल भी नहीं फिर भी पता नहीं विदेश का आकर्षण बच्चों मे क्यों इतना रहता है जब कि यहाँ भी वो अच्छा कमाते हैं। विचारणीय पोस्ट है बधाई
सच मे अनिल जी काफ़ी कुछ सोचने पर मजबूर कर रहा है आप्का लेख. बढिया चिन्तन.
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पंकज
एक सच्ची बात कह दी।
बड़ी मर्मस्पर्शी और सटीक बात कही है..हमारा हाल कस्तूरी मृग जैसा होता है कि सारे जमाने मे भटकते हुए खुशी की तलाश करते हैं जो बाद मे पता लगता है कि अपने आंगन मे ही छुपी थी..मगर देर हो जाती है तब तक..कमाल है आपकी कलम मे!
मैं अपने माँ-बाप के पास ही न रह पाया...तो फिर उन डॉलर को कमाने का फायदा क्या...क्या फायदा जो इतनी दूरी पर अकेला रह...
सच कहा भाई..दिल को छू गई कम से कम अब तो हमारे देश के युवा समझे ।
आपका लेख बहुत ही काबिले तारीफ है..और क्या कहूं...बहुत इमोश्नल है...
ख्वाहिशें है ख्वाहिशों का क्या कभी पूरी होती है कभी नहीं। मेरा भी एक दोस्त...भाई ही कहो ऑस्ट्रेलिया गया है ना अब बात होती है ना ही कोई मेल-सेल पर याद बहुत आती है। ....but end of the day purse matters...
बिल्कुल सही कहा है आपने की ख्वाइशें कभी ख़त्म नहीं होती! बहुत सुंदर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लिखी हुई आपकी ये लेख बहुत पसंद आया! आपकी लेखनी को सलाम! मेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है!
भावनाओं की अच्छी छेड़ छाड़ और जुगलबंदी ! यहाँ तो "मेरे पास माँ भी नहीं "है ?हाउ बैड रियली !
आप तो लगता है रुला के ही मानेंगे भाई...
सारगर्भित लेख......बहुत बहुत बधाई....
सही कहा अनिल जी... हम भी आपकी सोच से सहमत हैं... मरीचिका से कभी प्यास नहीं बुझती... पैसे के पीछे भागते ये लोग ऐशो आराम तो ख़रीद सकते हैं सुकून नहीं... या शायद उनके लिये सुकून की परिभाषा ही बदल जाती है...
मैं पर्ल एस बक के "द टाउन्समैन" की तरह देश में ही रहा। पर आरक्षण और मुस्लिम तुष्टीकरण के मामलों में कई बार लगा कि इस देश में टिक कर कहीं गलती तो नहीं कर दी।
भेद भाव तो अमरीका में भी है...रहा है...कभी काले गोरे का तो कभी किसी और का....और मुस्लिम के बारे में अमरीका की विचारधारा क्या है...आप जानते ही हैं...रही बात आरक्षण की तो मुझे लगता है कि आरक्षण से अधिक बड़ी समस्या जाति प्रथा की रही है इस देश में सदियों से....लेकिन क्या हमें नहीं लगता कि हमारी कितनी भागीदारी रही है इसके पक्ष में और विपक्ष में...या फिर चुप्पी साधने में
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