उन क़दमों के निशाँ !
>> 03 February 2010
वो ठीक पहाड़ की चोटी पर था । जहाँ से वो उस दिशा में जाना चाहता था, जहाँ पहुँचने पर उसे मंजिल मिल जाने का एहसास हो । नही यह ठीक नहीं । उसे सम्पूर्णता का एहसास हो । जिन क़दमों के साथ वह इस चोटी पर पहुँचा था । उन पीछे रह गये क़दमों के निशाँ तो मिट गये होंगे लेकिन उनके साथ रह गये तमाम ऐसे निशाँ जो आज भी कहीं गहरे हैं ।
तब वो था ही क्या ? वो दोपहर में पेड़ों से सूखी लकडियाँ तोड़कर लाया करता और उसकी माँ उनसे चूल्हा जलाती । बरसात के दिन उसे अच्छे नही लगते थे । हाँ तब जामुन से पेड़ लद जाते थे । उसे जामुन तब बिलकुल पसंद नहीं थे । दोपहर भर वो जामुन खाता और शाम के पहर खाना । शाम कहाँ, रात ।
किसी ने बताया था कि रेल की पटरियों पर सिक्का रख देने पर और रेल के चले जाने के बाद वो चुम्बक बन जाता है । कई रेलगाड़ी गुजर जाने के बाद भी वो चुम्बक होना नहीं देख पाया था । रेलगाड़ी उसे दूर से बहुत अच्छी लगती थी । पास आने पर और फिर दूर चले जाने पर उसे बुरा लगता था ।
गाँव से दूर मेला लगता था । उसे मेला जाना चाहना अच्छा लगता था । उसे कभी ना खरीद सकने वाला बाजा बहुत पसंद था । माँ कहती थी कि बच्चे खो जाते हैं इसीलिए मेला नहीं जाना चाहिए । वो खो जाना चाहता था । शायद खो जाने और फिर खुद के पा जाने की ख़ुशी जानना चाहता था ।
सर्दियों की सुबह कपकपाती थी और रात आगोश में ले जाना चाहती थी । खेतों में दूर तक फैली ओस पर पाँव रख कर वह दूर तक जाता और उन्हीं क़दमों से वापस आता । यह रोज़ का नियम था । इसे प्रकृति कहते थे ।
बड़े-बूढों के मुँह की बात पर उसे बड़ा-बूढा हो जाना अच्छा लगता था । वह दूध की नदी देखना चाहता था । वो तैरना सीखने से ज्यादा डूबना चाहता था । उसका यह चाहना सिर्फ चाहना ही रहा ।
बकरियां चराते हुए गुल्ली-डंडा खेला करता तो बाद में बकरियों को तलाशना होता था । गुल्ली के गुम होने से बकरियों का दूर तक चरते हुए निकल जाना तय था । तयशुदा जिंदगी को जीना ना चाहने के बावजूद उसका जीना तय था ।
ऐसे कई क़दमों को पीछे छोड़ते हुए उसने रास्ते बनाये । रास्तों की तलाश से बेहतर उसे नया रास्ता बना लेना भाता था ।
क्या पीछे रह गये वो निशाँ मिटे होंगे ......
12 comments:
शानदार संवेदनशील लेखन!
रात का मौसम सा हो गया ब्लॉग पर..तो अब तो चांदनी भी खिलेगी ना..!!
रेल के नीचे सिक्का रख कर चुम्बक बनाने की कोशिश अपन की भी रही..मगर मिला नही कभी..मिलेगा कैसे..पहिये मे चिपका चला जायेगा ना सिक्का भी!!
behtareen post
तयशुदा जिंदगी को जीना ना चाहने के बावजूद उसका जीना तय था ।hmesha ki tarh khoobsurat kahani...
aapki rachna ke kainwas par apni apni zindagi nazar aati hai
बहुत खूब अनिल जी ...... शायद उन पीछे छूटे रास्तों पर कोई और चल रहा होगा ...... ये तो नियती है .......
main stabdh hoon aapki lekhni par
सुन्दर पोस्ट के लिए
आभार ..............
हमेशा की तरह सुन्दर पोस्ट कई बार आपकी पोस्ट के लिये शब्द नही मिलते निशब्द शुभकामनायें
main to khamosh hokar padhti rahi ,man ko chhoo gayi kai baate ,bahut hi achchha likha hai ,shukriya aane ka .
dil ko chu gayi kahin...
Bahut khuab anil bahi....kuch kuch gourav ki style me likha lekh ...atayna sundar
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