तपती दोपहर का बूढा नीम
>> 20 January 2010
जून की एक दोपहर थी या दोपहर भरी एक जून .....नहीं शायद गर्मी की एक दोपहर । निमोरियों से नीम भरा हुआ उस तपती दोपहर को खड़ा खड़ा देख रहा था । पकी-अधपकी निमोरियाँ, कुछ जमीन पर और कुछ नीम पर झूल रही थीं ।
इस सुस्त छुट्टी भरी दोपहर को काटना उतना मुश्किल न था जितना कि ख्यालों के बिखरे समूंचे गुच्छे को एकत्रित करके उन्हें जमा करना । उस पर बेतकल्लुफी इतनी कि कप के गर्म ओठों को इन ओठों से लगाने का बरसों से रिवाज सा हो चला । दोनों के ओंठ एक दूजे को हर रोज़ छूने के आदी हो गये ।
भरी दोपहर में गर्म भापनुमा कप कुर्सी के सामने रखा हुआ मेरे ओठों की तलब में है । मैं ठीक उसके सामने कुर्सी पर लेटने की मुद्रा में ख्यालों को चुन रहा हूँ । शायद सबको जमा कर सकूँ । सीने पर किताब औंधी पड़ी हुई है । न जाने कितनी किताबों ने इन पिछले उनसठ बरसों में सीने की धड़कन को सुना होगा । न जाने आपस में इन धडकनों और किताबों ने आपस में क्या बातें की हों । हो सकता है बहुतों ने उसको संगीत समझने की भूल भी की हो या फलां किसी किताब को मेरे सीने की धडकनों से कोई खासा लगाव हो गया हो या कुछ खास नापसन्दी जो वो कभी कह न सकीं हों ।
मन हुआ कि औंधी पड़ी किताब को सीने से अलग कर कप के गर्म ओठों की प्यास बुझा दूँ । फिर एक ख़याल जो न जाने कैसे माथे पर पसीने की बूँद बन जमा हो चला है कि अबकी बसंत से पहले सेवा से मुक्त हो जाउँगा और फिर बसंत तो नयापन लाता ही है । सामने लदे पड़े पत्ते एक एक कर झड जायेंगे और उनकी जगह नई पत्तियाँ अस्तित्व में आ जायेंगीं । शायद अब मैं भी शाख का एक पुराना पत्ता ही हूँ । उफ्फ यह ख़याल ...
बरामदे की खिड़कियाँ भरी दोपहर की लू से लड़ती हुई हिल रही हैं । मन करता है भागता हुआ नीम पर चढ़ जाऊँ, ठीक बचपन की तरह, जब माँ छड़ी लेकर पीछे दौड़ती थी और यह घनी पत्तियाँ मुझे अपने आगोश में ले लेती थीं । सोचता हूँ पकी हुई निमोरी खाकर देखूँ ठीक बचपन की तरह ही अब भी स्वाद होगा शायद...नहीं बीवी क्या सोचेगी ! बुढापे में सठिया गये हैं । हाँ शायद सठिया ही तो गया हूँ, साठ पूरा होने को है । बचपन में माँ डाँटा करती थी और अब ये बीवी पीछा नहीं छोडती ।
अब ये दूसरा ख़याल भी न जाने कहाँ से आ जमा हुआ । ये खुद को जिंदा बनाए रखने का ख़याल भी क्या अजीब ख़याल है । वो क्यों कहती रहती है कि भगवान उसे मुझसे पहले उठा ले । अगर मैं पहले चला जाऊँ तो पेंशन तो मिलती ही रहेगी । लेकिन शायद उन दोनों की बीवियां कहाँ इसे चैन से रहने देंगीं । तभी शायद कहती रहती है मुझसे पहले जाने की । उफ़ ये ख़याल...
इन ख्यालों के बिखरे पड़े गुच्छे को सँभालने को वक़्त कहाँ है ! लेकिन इस बसंत से पहले ही ढेर सारा वक़्त आ धमकेगा और जमा हो जाएगा जिंदगी भर के लिये । ये ख़याल भी कमबख्त चुपके से आकर जमा हो जाते हैं...
15 comments:
बुजुर्ग मन में कितनी ही बातें करवट लेती रहती हैं ...... बौट मार्मिल और संवेदनशील पोस्ट .......
आपने बहुत अच्छा कह दिया है अनिल कान्त जी ....
Good to see such contradictions... January ki thand me June ki dupahari aur 27 ki umar me budhape ki baatein... hamesha ki tereh sundar rachna...
behtareen
bahut kuch keh gaye aap ...sanvedansheel rachna.
आदतन ... अपनी तरफ से एक बेबाक कमेन्ट दे रहा हूँ... छोटा भाई समझकर माफ़ कर देना अनिल भाई..
आपने शुरुआअत बहुत अच्छी की थी.. अनिल भाई... लेकिन जहाँ से आपने यह लिखा की मन करता है बचपन वाली बात... रचना लड़खड़ा गयी... आप दिन-ब-दिन सुधर रहे हैं... लिखने की शैली भी काफी उम्दा हो रही है.. लेकिन इस बचपन से बहार आ जाइये... जब तक कुछ दमदार न हो इसमें... या कुछ नया...
मेरी गुस्ताखी के लिए क्षमा...
आपकी बेबाक टिपण्णी से मन प्रसन्न हुआ. कमियाँ बताना एक पाठक का ब्लॉगजगत में फ़र्ज़ बनता है, जो आपने किया और उसके लिये आप प्रशंसा के पात्र हैं. मैं आगे से ध्यान रखूँगा कि कलम की दिशा क्या हो.
ये ख़याल भी कमबख्त चुपके से आकर जमा हो जाते हैं...
आपके गद्य की नवीनता भाती है...
bhut dinon baad apke blog per aai.
wahi shaili, wahi raftar,
acha laga padhker.
badhiya rachana .
आपकी कृति को गद्य कहा जाय या कविता या गद्यकविता. कुछ भी हो, लाजवाब है.
जून की एक दोपहर थी या दोपहर भरी एक जून..
पिछली बार आया था ब्लॉग पे..और बस पहली लाइन पढ़ कर ही उलटे पैर वापस हो गया..कि ऐसे काम नही चलेगा..टाइम ले कर आना होगा..और एक बड़ा उमस भरा मौसम पाया पोस्ट पर..संध्या का उदास कुछ उलझन से भरा और दिन भर की थकान और रात होने से पहले के तमाम कामों की चिंताओं का पतझड़ सा मौसम..और साक्षी है उसी संध्या के मुहाने पर चुपचाप खड़ा भौंचक नीम.और सिरहाने रखे भापदार कप के तलबगार होंठ...और नीम इतना रोता क्यों है..निमोरियों से आँसू..!!
ऐसे ही जमाए रहो भाई.बड़ा अच्छा लगा कि सागर की बात को सकारात्मक नज़रिये से सोचा.यहीं से एक लेखक बड़ा बनता है.
again nice attempt....ek bujurg ke man ka sahi chitran ....keep it up..
बरामदे की खिड़कियाँ भरी दोपहर की लू से लड़ती हुई हिल रही हैं । मन करता है भागता हुआ नीम पर चढ़ जाऊँ, ठीक बचपन की तरह, जब माँ छड़ी लेकर पीछे दौड़ती थी और यह घनी पत्तियाँ मुझे अपने आगोश में ले लेती थीं । सोचता हूँ पकी हुई निमोरी खाकर देखूँ ठीक बचपन की तरह ही अब भी स्वाद होगा शायद...नहीं बीवी क्या सोचेगी ! बुढापे में सठिया गये हैं । हाँ शायद सठिया ही तो गया हूँ, साठ पूरा होने को है । बचपन में माँ डाँटा करती थी और अब ये बीवी पीछा नहीं छोडती
वाह....क्या अंदाज़ है .....और उफ़ ये ख़याल.....ऐसे ख्याल नसीब वालों को ही milte हैं ......!!
ैसे ख्याल तो रोज़ रोज़ आयें इसी बहाने एक अच्छी पोस्ट शुभकामनायें
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