अपरिभाषित ?
>> 03 August 2010
सूरज चाँद को लील जाना चाहता है और चाँद उसे अपने आगोश में ले जाना चाहता है । इस रस्साकशी में एक अभागा दिन, हाँ अभागा दिन । फिर से मैं जोर से मन में बुदबुदाता हूँ एक अभागा दिन । छत को ताकता हुआ फिर मैं सोचता हूँ, कि मैं ये क्या सोच रहा हूँ ? दिन, अभागा, सूरज और चाँद । उफ़ बहुत हुआ । साथ में लेटे दोस्त को करवट लेते महसूस करता हूँ । नहीं, यह सिर्फ महसूस भर होना नहीं है, उसका करवट लेना ही है । जैसे सूरज का डूबना और चाँद का निकलना रस्साकशी नहीं बल्कि उनका डूबना और निकलना ही है ।
चीज़ें जैसी हैं, मैं उन्हें वैसे ही क्यों नहीं देखता । मैं उनके नये अर्थ क्यों तलाशता हूँ । ऐसा उसने इन्हीं गर्मियों की किसी एक रात को कहा था । शायद कहकर पूँछना चाहा हो । लेकिन वह भी कहकर पूँछना भर नहीं था । असल में वह एक सवाल था । जिसका जवाब देना और ना देना अब मेरे हाथ में था । ठीक उसके पूँछने की तरह ।
मैं सोचता हूँ क्या मैं उसे यहाँ ठीक कहानियों की तरह प्रवेश दूँ । लेकिन यह सिर्फ मेरा बताना भर होगा और आपका जानना भर । असल में उसकी छवि तो आपके मस्तिष्क में स्वंय बनेगी । मैं सोचता हूँ कि कहानियों को सीमाओं में बाँधकर नहीं रखा जा सकता । ना ही उसके अपने कोई पैमाने हैं ।
उसी रात जैसी किसी एक रात को मैंने उससे कहा था "जानते हो इंसान हारता क्यों है ? क्योंकि जब उसे यह कहकर दौड़ाया जाता है कि उसे जीतना ही है और जब उसके साथ ये डर जुड़ जाता है कि अगर वह जीत ना सका तो क्या होगा ? और वह तब तक हारता रहता है जब तक वह डर उससे चिपका रहता है । वह कभी जीतने और हारने के लिये दौड़ता ही नहीं । वह दौड़ता है तो उस डर से डरकर ।"
ठीक उसी तरह जैसे मैं सोचता हूँ कि मैं सिर्फ प्रेम कवितायें या प्रेम कहानियाँ लिखने के लिये पैदा नहीं हुआ । यह डर मेरे साथ हरदम रहता है । स्याह गाढ़ा होकर मेरी नसों में खून के साथ बहने लगता है । प्रेम जैसे शब्द से अपरिभाषित रहते हुए भी मैं आने वाले कई वर्षों तक केवल और केवल प्रेम कहानियाँ या प्रेम कवितायें नहीं लिखते रहना चाहता । यह एक डर है और इस डर के साथ मैं जीत नहीं सकता । तो क्या मैं हार गया हूँ ? नहीं मैं हारा नहीं अपितु मुझे मेरे डर का ज्ञान होने पर एक रास्ता मिला है । उस डर को अपने से अलग कर देना ही जीत है ।
तब उसके बोलने में दुनियादारी आ गयी थी । बिना कहे, बिना बुलाये, उसका आ जाना एक स्वाभाविक क्षण था । ठीक रात और दिन का अपने समय पर आ जाने की तरह । उन्हीं क्षणों में उसने कहा था "इंसान हार और जीत को अपने हिसाब से परिभाषित करता है । अपनी एक राय बना लेना और दुनिया से अलग हो जाना जीत या हार का हिस्सा नहीं । हाँ जीने के अपने अलग नज़रिए हो सकते हैं ।"
ऐसी ना जाने कितनी अनगिनत गर्मियां बीती । शायद मैं उन्हें गिनता तो वे अनगिनत ना रहती । ठीक मेरी उम्र की तरह । जिसे आज भी गिना जा सकता है । जिसका मुझे अब 14 से शुरू होना याद है और फिर हर बरस एक बरस बढ़ जाना । बीती हुई गर्मियां भी तो वैसी ही रही होंगी । जिन्हें उम्र की लकीरों पर बड़ी आसानी से गिना जा सकता होगा । पिछले बरस की गर्मी और पिछले से पिछले बरस की गर्मी .....और उससे भी पिछले बरस की ।
फिर सोचता हूँ तो ख़याल आता है कि कहानियों में सही और गलत का निर्णय होना भी जरुरी तो नहीं । हम क्यों यह लिखें कि उसकी बात सही है और उसकी नहीं । यह निर्णय तो एक उम्र को करना है । वैसे भी हर उम्र के अपने अलग पैमाने होते हैं । सही और गलत के । हार और जीत के । सोचने के , समझने के । जाँचने के, परखने के । चाहने के और ना चाहने के । एक उम्र होती है जब इंसान सहूलियतों और गैर सहूलियतों के भँवर में फँस जाता है ।
इसके परे सहूलियतों को पा लेने के बाद उसकी सोच में एक बड़ा परिवर्तन आने लगता है । जिंदगी के लिये, अपने लिये । हार के लिये और जीत के लिये ।
इसीलिये जरुरी तो नहीं कि मैं सभी कुछ एक सीमा में शुरू करूँ और एक सीमा में ख़त्म । सही और गलत के साथ । शायद उसके लिये भी हार और जीत के मायने कभी बदल जाएँ और मेरे लिये भी । क्या हम इसे उम्र पर नहीं छोड़ सकते ?
18 comments:
Bahut achha laga ye aapkaa apne aap se batiyana.
bahut sundar abhivyakti ru-b-ru hone ki .
मैं पुरी तरह सहमत हूँ आपसे... चीज़ों को जब तक हम सीमाओं में नही बाँधते या अपरभाषित रखते है या ऐसा महसूस करते हैं तब तक ही उस चीज़ के असली मज़े होते हैं...
मैंने पहले यानि परिचय के दिनों में कहा था कि इस उम्र में आपकी रचनाओं के जो तत्व है और जो भाषा है वह मुझे प्रभावित करती है. आज आप बुरा मान जाएँ ऐसा काम कर जाता हूँ कि मुझे शब्दों की पुनरावृति पसंद नहीं, मैं हमेशा उनके आवश्यक हो जाने पर उनका स्थानापन्न खोजता हूँ जाने क्यों आपसे भी ऐसी ही उम्मीद करता हूँ.
बाकी मैंने इस रचना को पढ़ने में कितना सुख पाया है कह नहीं सकता, कभी अपने क़स्बे से बाहर निकलूंगा तो आपका पता जरूर पूछूँगा. बहुत संभावना भरा लेखन है बधाई.
आपकी कहानियां किसी वीणा के तार की तरह संतुलन में होती है न ज्यादा कसी हुई न ज्यादा ढीली...रोचकता बनाये रखने में आपकी पकड़ हमेशा मजबूत होती है...
नहीं उम्र पर कुछ भी नहीं छोड़ना चाहिये वरना आखरी पलों की घबराहट के सिवा कुछ भी हाथ नहीं आता।
किशोर चौधरी...क्या ख़ूब बात कह गये हैं...
anil ji...itni maturity..its smthng differ...i like it!
शब्दों के सफ़र में चलते-चलते फिर कुछ छू गया मन को ... ! अपने आकाश से आप तक आने की दिशा मिली और यहाँ तक पहुँच कर सचमुच अच्छा लगा.सच है कुछ सवालों का जवाब वक्त के ही पास होता है . उम्मीद है मिलते रहेंगे.....
bahut hi acha laga pad kar....
shukriya share karne k liye...
Meri Nayi Kavita par aapke Comments ka intzar rahega.....
A Silent Silence : Zindgi Se Mat Jhagad..
Banned Area News : People in China's big cities feel lonely
पहले तो यह
’जैसे सूरज का डूबना और चाँद का निकलना रस्साकशी नहीं बल्कि उनका डूबना और निकलना ही है ।’
कितनी सामान्य सी लगने वाली बात कितनी असाधारणता से बता दी..मुझे पोस्ट का यही मूलभाव लगा..यह उम्र सिर्फ़ सवालों की होती है..जवाब भी सवालों की शकल मे आते रहते हैं..और हरारत देते हैं..आप कुछ सही-गलत नही लिख सकते हैं..वक्त और सोच सही गलत को परिभाषित करती है..कहीं पढ़ा था प्रसाद जी के हवाले से..कि कल्पना के स्वर्ग और जीवन के नर्क के बीच संतुलन बनाने की प्रक्रिया ही साहित्य होती है..शब्दों मे ऐसी ही भावनाओं की तासीर होती है..’जीने के अपने नजरिये हो सकते हैं’...तमाम चीजें गुजरती रहती हैं आंखों के सामने से पढते हुए..
चौधरी साहब वाली बात ही दोहराऊंगा भई..बहुत संभावनाएं हैं आपमे..इन्हे और परवान चढ़ने दीजिये...
बहुत खूब अनिल जी ... सहमत हूँ आपकी बात से ... समय सब कुछ अनुभव के आधार पर तय कर देता है ... हार और जीत के मायने समय समय अनुसार बदलते रहते हैं ...
khud ki duniya me rehna or khud se baate karna bahut achha lagta hai....
बहुत ही अच्छा लगा इस बार आके आपके ब्लॉग पर. एक तो बहुत दिनों के बाद आने का मौका मिला है और दूसरा आपके लेखन में बढती विविधताएं ..... कुछ कहना कम होगा.... आपके पोस्ट पढ़ कर मन को कहीं से सुकून मिलता है. शायद आपके पास शब्दों के भण्डार इतना बड़ा है कि अपने मन की बातों को समझने के लिए कुछ न कुछ तो मिल ही जाता है आपके यहाँ. आप तो बस लिखते रहिये, हम जैसों का भला हो जायेगा......
कुछ दिनों से काफी उलझने है .. ये भी नहीं जानती की मन क्या चाहता है...लेकिन पढ़ कर ऐसा लगा की ये मेरी सोच हो ...जिसे आपने शब्द दिए हैं
कुछ जगहों पर ठहरी हूँ कई बार पढ़ा इसको ....शब्दों में ढल सबकुछ कितना आसन हो जाता है.....लेकिन जीना ही तो चुनौती है
मन को अच्छा लगा ये पढ़.....इसको कॉपी कर सेव कर लिया है......कभी दिल किया तो फिर पढ़ लेंगे :-)
कितने पशोपेश, कितनी उलझनें, उलझनों में संवरती ज़िंदगी
रक्षा बंधन पर हार्दिक शुभकामनाएँ.
अभी केवल शुभकामनाएं, आती हूं पोस्ट पढने जल्दी ही.
अपने आप से बातें करना आसन नहीं होता है ,अच्छी लगी आप की अभिव्यक्ति । बाकी ब्लोग्स भी खोले .लखनऊ याद दिला दिया .आभार ।
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