ट्रेन वाली लड़की (कहानी नये रूप में )

>> 25 December 2010

बाहर शहर भर का उजाला था और भीतर नाईट बल्ब के अँधेरे में सुलगते दो इंसान । पारा अपने सामान्य स्वभाव से लुढ़क गया था । ब्लैंडर स्प्राइड के दो पटियालवी पैग गले का रास्ता नाप चुके थे और तीसरे को अभी कोई जल्दी नहीं थी । सिगरेट के धुएँ के मध्य कोई अनकही बात दबी थी । जिसे अभी बाहर आना था । और उसने अपने आने की दस्तक तीसरे पैग के सँवरने के दौरान दे दी थी ।

-"क्यों कर रहा है, ये सब ?" संजय गिलास आगे बढाते हुए बोला ।
-क्या ?
-"तू जानता है । मैं क्या और किस बारे में कह रहा हूँ ?" संजय ने खीजते हुए कहा ।

आदित्य ने गिलास थामा और कुछ नहीं बोला । संजय ने अगली सिगरेट सुलगा ली और लम्बा कश लेते हुए एक घूँट भरा । फिर हड़बड़ाहट में उठा और कमरे की एक दीवार से दूसरी दीवार तक जाकर, वापस लौट कर बैठते हुए बोला "तुझे हो क्या गया हा ? जहाँ सारी दुनिया अवसर पाते ही यू.एस. और यू.के. भागती है और तू किस्मत को धोखा देना चाहता है । इस अच्छी भली एम.एन.सी. की नौकरी को छोड़ कर, तू उस सरकारी नौकरी में जाने का फैसला कैसे कर सकता है ? और वो भी उस छोटे से पहाड़ी शहर में, जहाँ से दुनिया ठीक से दिखाई भी नहीं देती । और तुझे क्या लगता है कि तेरे ऐसा करने से दुनिया पीछे छूट जायेगी या तू खुद को उससे अलग कर लेगा ।"

-"मैं एकांत चाहता हूँ । इन सबसे दूर । इस भीड़ से, इस शोर से, इस भागती दौड़ती जिंदगी से ।" आदित्य ने लम्बी चुप्पी को तोड़ते हुए कहा ।
-और तू सोचता है कि तुझे एकांत प्राप्त होगा । तू किसको भ्रमित कर रहा है । किस्मत को, मुझे या अपने आपको । किन्तु माफ़ करना मेरे दोस्त । तू तब तक स्वतंत्र नहीं हो सकता, जब तक कि उस अतीत को पीछे नहीं धकेलता । जिसके साथ तू प्रत्येक क्षण जीता है ।
-ऐसी कोई बात नहीं है, संजय ।
-"उस बात को तीन बरस होने को आये और तू है कि" संजय अपना गिलास खाली करते हुए बोला । फिर अगला पैग बनाने लगा । भूल जा उसे और नए सिरे से जिंदगी शुरू कर । वो भी कहीं अपने पति और बच्चों के साथ ख़ुशी-ख़ुशी जी रही होगी ।

आदित्य ने सिगरेट के कशों के मध्य स्वंय को खामोश कर लिया । उसने यही आदत बना ली थी । संजय उसे हर दफा समझाता था और वह चुप्पी साध लेता था । ख़ामोशी, कुछ भी कहने से बचने का सबसे अच्छा औज़ार होती है । एक छोर से दूजे छोर तक पसरी हुई । अपने पूर्ण विस्तार के साथ स्वंय के होने का एहसास कराती सी । अदृश्य किन्तु स्पर्श की हुई ।

अंततः छह पैग ख़त्म कर लेने के बाद संजय पुनः उसी विषय पर लौट आया । असल में संजय का यही स्वाभाव था । जब तक वह अपनी बात पूरी नहीं कह लेता था, पीता रहता था । और आज तो एक तरह से अंतिम दिन ही था । कल आदित्य को चले जाना था । वह अपनी ओर से, किसी भी तरीके से, उसे रोक लेना चाहता था । वह जानता था कि उसका यूँ एकाएक दूर चले जाना, सही नहीं है । कोई इंसान स्वंय से कब तक भाग सकता है ।

-"तू कहे तो तेरा रेजिगनेशन कैंसिल करवा दूँ । वो एच.आर. मेरी परिचित है और अभी भी उसने वह रेजिगनेशन लैटर आगे नहीं बढाया है ।" संजय ने लगभग होश में आते हुए कहा ।
-"नहीं, उसकी आवश्यकता नहीं है । मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं अब यहाँ नहीं रहूँगा ।" आदित्य ने प्रत्युतर में कहा ।
-क्या निश्चय कर लिया है ? अपने को धीमे-धीमे समाप्त कर लेने का ।
-"गुड नाईट" कहता हुआ आदित्य उठ खड़ा हुआ और अपने कमरे में जाने लगा ।
-"ठीक है करो, जो करना है ।" संजय खीजते हुए बोला ।

घड़ी दो के टनटनाने की आवाज़ कर रही थी और संजय नींद के आगोश में जा चुका था । किन्तु आदित्य करवटें बदलते हुए उठ खड़ा हुआ । और सिगरेट जलाकर बरामदे में आराम कुर्सी पर बैठ गया । एकाएक धुएँ के उस ओर चेहरा झलकता है । फिर शोर करती ट्रेन प्लेट फॉर्म से छूटती प्रतीत होती है । और एक ही पल में वह अपने अतीत में चला जाता है ।

वो अक्टूबर की कोई रात थी । आदित्य को हैदराबाद से दिल्ली की दस तीस की ट्रेन पकडनी थी । घडी की सुइयाँ अपनी आदत से तेज़ दौड़ती प्रतीत हो रही थीं । बीते दिनों में कंपनी ने जिस प्रोजेक्ट के सिलसिले में उसे हैदराबाद भेजा था, वह पूर्ण हो चुका था । और आज वह वापस दिल्ली को जा रहा था । वह जल्दबाजी में ऑटो रिक्शे से निकल स्टेशन की और दौड़ा । ट्रेन ने अलविदा की सीटी दे दी थी । आदित्य ने एक नंबर प्लेटफॉर्म से छूटती उस ट्रेन को दौड़ते हुए पकड़ा ।

उसने अपने उस इकलौते बैग को जंजीर में जकड़ते हुए सीट के नीचे खिसका दिया । और ऊपरी जेब से टिकट निकाल कर, अपनी होने वाली सीट का मुआयना करने लगा । तभी उसकी नज़र सामने की सीट पर, अपने सामान को दुरुस्त करती लड़की पर गयी । एक तेईस-चौबीस बरस की खूबसूरत लड़की का उसके सामने की सीट पर होना संयोग की बात थी । जबकि बाकी की चार सीटें रिक्त हों ।

अगला एक घंटा अपनी-अपनी सीट को अपनाने और बोगी के शांत होने में व्यतीत हो गया । धीमे-धीमे सभी यात्री अपने-अपने हिस्से की लाईट बुझाने लगे । यात्रियों को ट्रेन, नींद आने का सबसे सुखद स्थान प्रतीत हो रही थी । मानो वे सब इसमें यात्रा के लिए नहीं बल्कि सोने आये हों ।

तभी उस खूबसूरत सहयात्री ने कहा "यदि आपको कष्ट ना हो तो मैं ये लाईट बुझा दूँ, सोने का समय हो चला है ।" आदित्य ने ऊपरी सीट से झाँकते हुए देखा और एकटक देखता ही रहा । उसकी खूबसूरत बड़ी-बड़ी आँखें थीं, जो उसके चेहरे को दुनिया के बाकी खूबसूरत चेहरों से अलग करती थीं । उसने चादर ओढ़ते हुए फिर से अपनी बात दोहराई । आदित्य का ध्यान भंग हुआ और तब उसने कहा "जी बिल्कुल, मुझे कोई आपत्ति नहीं है" । लाईट बुझ गयी । जिसका अर्थ था कि सो लेने के सिवा कोई बेहतर विकल्प हाथ में नहीं है । और अंततः कुछ क्षण सोचते हुए आदित्य भी नींद की गोद में चला गया ।

सुबह के आठ बज गए थे, जब आदित्य की आँख खुली । उजाले में ट्रेन शोर मचाती हुई चली जा रही थी । याद हो आया कि वह ट्रेन में है और दिल्ली को वापस जा रहा है । उसने नीचे को झाँक कर देखा । वो अपनी सीट पर बैठी किताब पढने में मग्न थी । खिड़की के रास्ते से आती मुलायम धूप, रह-रह कर लुका-छुपी का खेल, खेल रही थी । मालूम होता था, सुबह का सूरज उसके चेहरे की आभा से लजा रहा हो ।

आदित्य सीट पर से उतरकर, चप्पलों को संभालते हुए, नित्य कर्म करने की ओर चल दिया । वापसी में चेहरे को धुलकर, स्वंय के जागने की निशानी ओढ़ आया । और आकर नीचे की ही रिक्त सीट पर बैठ गया । उसने बाहर की ओर झाँका । खिड़की के उस ओर से पेड़, खेत और उनमें काम करते लोग पीछे की ओर दौड़ते से जान पड़ रहे थे ।


बीते क्षणों में वह कभी बाहर की दुनिया को देखता तो कभी सामने बैठी उस खूबसूरत सहयात्री को । जो अब भी उतनी ही दिलचस्पी के साथ किताब पढ़ रही थी । जिस के बाहरी आवरण पर अनूठी चित्रकला का प्रदर्शन करते हुए, कुछ आकृतियाँ नज़र आ रही थीं । प्रथम दृष्टि में वह हिंदी की किताब जान पड़ती थी । तभी चाय वाले की आवाज़ सुनाई दी "चाय, चाय, चाय" । उसके पास में आते ही, आदित्य ने कहा "दोस्त एक चाय देना" । कप को हाथ में थामते हुए आदित्य ने पर्स निकाला तो याद हो आया कि सभी छुट्टे तो खर्च हो चुके थे और अब उसके पास केवल पाँच सौ के नोट हैं । वह मुस्कुराते हुए नोट को चाय वाले को थमाता है ।
-"क्या साहब सुबह-सुबह मैं ही मजाक के लिए मिला हूँ" चाय वाला प्रतिक्रिया देता है ।
-दोस्त छुट्टे तो नहीं हैं मेरे पास ।
-देख लो साहब होंगे या किसी से करा लीजिए ।
-"अब इस वक़्त कहाँ से करा लूँ ? मैडम आपके पास होंगे पाँच सौ के छुट्टे ?" सामने बैठी लड़की से पूँछते हुए आदित्य ने कहा ।
-"नहीं मेरे पास तो नहीं हैं" उसने किताब से नज़रें उठाते हुए कहा ।
-"ठीक है दोस्त तो फिर तुम अपनी यह चाय वापस रखो" आदित्य ने कप आगे बढाते हुए कहा ।
-"अरे आप चाय पी लीजिए । मैं पैसे दिए देती हूँ । आप बाद में मुझे दे देना ।" लड़की ने आदित्य को देखते हुए कहा ।
-"जी शुक्रिया" कहते हुए आदित्य ने कप को अपने पास रख लिया ।

लड़की पुनः अपनी किताब में व्यस्त हो चली । घडी नागपुर के आने का वक़्त बता रही थी । हालाँकि लगता नहीं था कि नागपुर अभी कुछ ही मिनटों में आ पहुँचेगा । और आते ही संतरे की सुगंध फैला देगा । जहाँ दौड़ते हुए लोग खाने-पीने की वस्तुएँ खरीदेंगे । और ट्रेन कुछ देर सुस्ता लेगी ।

-"शुक्रिया, आपके कारण चाय पी रहा हूँ " आदित्य ने चाय की चुस्की भरते हुए कहा ।
-लड़की प्रत्युतर में हौले से मुस्कुरा दी और पुनः पढने लगी ।
-"आप हिंदी की किताबों को पढने का शौक रखती हैं" आदित्य ने प्रश्न पूँछने के लहजे में कहा ।
-"जी, क्यों ? हिंदी में कोई बुराई नज़र आती है आपको" लड़की ने प्रत्युतर में कहा ।
-नहीं, बुराई तो नहीं किन्तु आज के समय में जब सभी अंग्रेजी की ओर भाग रहे हैं । और उसे पढना और बोलना अपनी समृद्धि समझते हैं । आप अरसे बाद मिली हैं जो हिंदी का कोई उपन्यास पढ़ते हुए दिखी हैं ।
-"जी, कम से कम मैं तो ऐसा नहीं सोचती । मुझे हिंदी से अथाह प्रेम है । हिंदी में कहानियाँ, कवितायें पढना मुझे अच्छा लगता है । हाँ लेकिन इसका अर्थ ये भी नहीं है कि मैं अंग्रेजी में कुछ नहीं पढ़ती । उसमें भी मुझे दिलचस्पी है ।" लड़की ने अपना पक्ष रखते हुए कहा ।
-"क्या कहा ? अथाह प्रेम । अरे वाह आप तो शुद्ध हिंदी का प्रयोग करती हैं ।" आदित्य ने उसकी इस बात पर कहा ।
-"बस पढ़कर ही सीखा है" लड़की मुस्कुराते हुए बोली ।
-"वाह, आप तो बहुत बड़ी हिंदी प्रेमी निकलीं" आदित्य मुस्कुराते हुए बोला ।
- आप सिर्फ बातें बनाना जानते हैं या कुछ और भी करते हैं ?
-आदित्य उसकी इस बात पर पुनः मुस्कुरा दिया और बोला "बस यही समझ लीजिए"
-क्यों आप कोई नेता हैं जो केवल बातें बनाना जानते हैं ।
-आदित्य उसकी इस बात पर खिलखिला कर हँस दिया और कप को खिड़की के रास्ते बाहर फैंकते हुए बोला "वैसे जिसे आप पढ़ रही हैं । वह काम मैं भी कर सकता हूँ ।"
-क्या, पढ़ सकते हैं ?
-नहीं, लिख सकता हूँ ।
-अच्छा, तो आप लेखक हैं ?
-नहीं, लेखक तो नहीं किन्तु कभी-कभी लिख लेता हूँ ।
-अच्छा, सच में ? फिर तो बड़े काम के आदमी निकले आप । क्या लिखते हैं आप ?
-कुछ खास नहीं, बस शब्दों को आपस में प्रेम करना सिखाता हूँ ।
-मतलब ?
-"मतलब कि कभी-कभी कवितायें लिख लेता हूँ " आदित्य ने उत्तर दिया ।
-"अरे वाह, कैसी कवितायें लिखते हैं आप ? " लड़की गहरी दिलचस्पी लेते हुए बोली ।
-कोई ख़ास विषय नहीं, बस यूँ, जब मन में जो आया बस वही लिख देता हूँ ।
-"अच्छा, तो फिर सुनाइये न, अपना लिखा कुछ" लड़की खुश होते हुए बोली ।
-अच्छा ठीक हैं सुनाता हूँ किन्तु आपको एक वादा करना होगा कि आप बदले में मुझे चाय पिलायेंगी । अभी तक मेरे पास छुट्टे नहीं आये हैं ।
-इस बात पर वह मुस्कुरा गयी और बोली "जी बिल्कुल, पक्का"

आदित्य उसे अपनी एक कविता सुनाता है । वह प्रशंसा करते हुए पुनः एक और कविता सुनाने का आग्रह करती है । आदित्य अपनी दो-तीन कवितायें और सुनाता है ।

-सचमुच आप बहुत अच्छी कवितायें लिखते हैं । मन प्रसन्न हो गया सुनकर ।
-अच्छा, सच में । तो अब केवल प्रशंसा से काम नहीं चलेगा । अपना वादा पूरा कीजिए और मुझे चाय पिलाइए ।
-जी, बिल्कुल ।

अगले कुछ क्षणों में चाय वाला टहलता हुआ वहाँ आ पहुँचा और दोनों ने चाय पी । इस बीच में किताब औंधे पड़े हुए सुस्ता रही थी । यूँ कि उसे अच्छा अवसर मिल गया हो अपनी थकान दूर करने का । ट्रेन की गति धीमी हो चली थी, जो एहसास करा रही थी कि नागपुर बस आ पहुँचा । कुछ यात्री अपने शहर पहुँचने की ख़ुशी मना रहे थे और सामान को बटोर कर, अपने कन्धों पर लाद, दरवाजे को घेरे खड़े थे । आदित्य भी स्टेशन पर उतर, छुट्टे कराने के उद्देश्य से उनके पीछे खड़ा हो गया । ट्रेन प्लेटफोर्म के सहारे रेंगने लगी और अंततः दम तोडती सी, बेजान हो गयी ।

उतरकर वह कई शक्लों से होता हुआ पहले एक दुकान पर पहुँचा, फिर दूसरी, तीसरी और इस तरह से उसने कुछ फल, नमकीन, पानी की बोतल और बिस्कुट के पैकेट खरीद लिए । वापसी में ठेले पर से ताज़ी गर्म पूडियां और सब्जी को थामे हुए वह ट्रेन में चढ़ गया ।

-"लीजए अपना उधार ।" बैठते हुए आदित्य बोला ।
-"जी नहीं । अब आपकी बारी है, चाय पिलाने की ।" लड़की मुस्कुराते हुए बोली .
-ये भी ठीक है । फिलहाल ये गरमा गर्म पूड़ियाँ खाइए ।
-"ये आपने बहुत अच्छा किया । सुबह-सुबह नाश्ता हो जायेगा ।"अपना हिस्सा सँभालते हुए लड़की ने कहा ।

खाने के बीच में ट्रेन चल दी थी । और चाय वाले के आ जाने पर, आदित्य ने अपना आधा उधार चुकता कर दिया था । बाकी के सहयात्री पेट भर जाने पर चहकने की मुद्रा में आ गए थे । मानों अब ट्रेन के सफ़र का आनंद दोगुना हो चला हो । कुछ बच्चे एक दरवाजे से, दूसरे दरवाजे की ओर दौड़ लगा रहे थे । लम्बी यात्रा करने वालों को ट्रेन ने अपना लिया था ।


-"तो आप करते क्या हैं ?" लड़की ने आदित्य से पूँछा ।
-"जी कुछ खास नहीं । एक सॉफ्टवेयर कंपनी में इंजीनियर हूँ ।" आदित्य ने खिड़की के बाहर से ध्यान भीतर लाते हुए कहा ।
-तो आप सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं ?
-जी
-कहाँ ?
-दिल्ली में काम करता हूँ और प्रोजेक्ट के सिलसिले में हैदराबाद गया था ।
-"एक बात, जो मैं आपसे कम से कम अवश्य पूँछना चाहूँगा" आदित्य पूरी तरह वहाँ आते हुए बोला ।
-क्या ?
-यही कि आपका नाम क्या है ?
-वो इस बात पर मुस्कुरा गयी और बोली "निशा चौहान और मैं पंजाब नेशनल बैंक में असिस्टेंट मैनेजर हूँ । काम के सिलसिले में हैदराबाद गयी थी और अभी भोपाल में ही कार्यरत हूँ ।"
-अरे वाह । इसका मतलब में एक बैंक मैनेजर के सामने बैठा हूँ ।
-वो हँस दी और बोली "बातें बनाना तो कोई आप से सीखे । अरे हाँ आपका नाम क्या है ? मैं तो पूँछना ही भूल गयी ।"
-आदित्य
-एक पल के लिए लगा उसने नाम दोहराया हो....आदित्य

बाद के भोपाल तक के सफ़र में दोनों के मध्य ढेर सारी बातें हुईं । जिनमें एक दूसरे की पसंद, फिल्मों, कहानियों, लेखकों और परिवार के सदस्यों से जान-पहचान जैसे विषय शामिल थे । और उसी दौरान आदित्य ने निशा के लिए कविता लिखी थी । जिसने उसे इतना प्रभावित किया कि उसने आदित्य से उसकी डायरी में कैद चन्द कविताओं की माँग कर ली । जिसे आदित्य ने ख़ुशी-ख़ुशी दूसरे पन्नों पर उतार कर दे दिया ।

-"और हाँ, आपका ऑटोग्राफ और पता भी" कविताओं को लेते हुए निशा ने कहा ।
-वो भला क्यों ?
-अरे, इतना हक़ तो बनता है आपकी प्रशंसिका का ।
-प्रत्युतर में मुस्कुराते हुए, आदित्य ने कविताओं के अंत में पुनः अपनी कलम चला दी । जिसकी स्याही में आदित्य का पता भी शामिल था ।

सुखद समय जल्दी ही व्यतीत हो चला था और कुछ ही समय दूर, भोपाल स्टेशन प्रतीक्षा में था । ट्रेन सुस्त हो चली थी । मालूम होता था कि भोपाल आ पहुँचा । निशा ने अपना सूटकेस बाहर की ओर निकाला और हाथ आगे बढाते हुए बोली....अच्छा चलती हूँ....आदित्य उठ खड़ा हुआ...रुकिए मैं आपको बाहर तक छोड़ देता हूँ । आदित्य ने उसका सूटकेस बाहर निकाला और दरवाजे के साथ ही खड़ा हो गया । निशा के चेहरे पर मुस्कान बिखर गयी....देखो तो वक़्त का पता ही नहीं चला....प्रत्युतर में आदित्य भी मुस्कुरा दिया । फिर निशा ने हाथ आगे बढाया....अच्छा तो अब चलती हूँ । आदित्य ने हाथ मिलाते हुए कहा "अपना ख्याल रखना" ।

निशा सूटकेस को थामे सीढ़ियों पर चढ़ती हुई नज़र आ रही थी । ट्रेन ने छूटने का इशारा दे दिया था । आदित्य पुनः अपनी सीट पर आ बैठा । और कुछ ही समय में भोपाल स्टेशन बहुत पीछे छूटता नज़र आने लगा । जहाँ कहीं निशा रहती होगी ।

कुछ पल तक आभास होता रहा कि निशा अभी यहीं है । उसके पीछे छूट गयी, उसकी महक अब भी हवा में तैर रही थी । आदित्य ने उस एहसास को भुलाते हुए आँखें मूँद लीं और सोने की कोशिश में लग गया । बचा हुआ दिल्ली तक का सफ़र उसने सोकर बिताया । और सुबह होते ही अपने पुराने शहर में पहुँच गया । वैसे भी बीते हुए दिनों में दिल्ली उसे बहुत याद आ रहा था ।

ट्रेन के सफ़र को तीन महीने बीत चुके थे । और स्मृतियों में केवल निशा का नाम शेष रह गया था । बसंत अपने आने की दस्तक देने लगा था । धूप अब भी गुनगनी लगती थी । दिल्ली पुनः रंगीन हो चली थी । मालूम होता था कि अब तक कोहरे में छिपी हुई थी । आने वाले हफ्ते में पुस्तक मेला लगने जा रहा था । आदित्य के लिए यह एक ख़ुशी का सबब था कि अबकी बार सप्ताहांत किसी अच्छी जगह बिताने को मिलेगा । और वह बेसब्री से अंतिम दो दिनों की प्रतीक्षा करने लगा ।

साहित्यिक खजाने के मध्य में आकर आदित्य मंत्रमुग्ध था । उसने आधा बैग अपनी पसंदीदा किताबों से भर लिया था और उसकी इच्छा बढती ही जा रही थी । कई किताबों को टटोलता हुआ, वह अंतिम छोर पर जा पहुँचा । उस दुबके हिस्से में कई बेशकीमती किताबें मौजूद थीं । जिनमें आदित्य खो सा गया था । तभी एकाएक पीछे से आवाज़ आई "अरे आदित्य, आप" । उसने पलटकर देखा, निशा सामने खड़ी थी । एक पल को उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि वे दोनों आमने-सामने खड़े हैं ।

-"आप यहाँ कैसे ?" आदित्य ने मुस्कुराते हुए पूँछा ।
-"बस, जैसे आप, वैसे मैं" निशा प्रत्युतर में बोली ।
-मतलब ?
-अरे बाबा, किताबें खरीदने आई हूँ । मेरी बुआ जी दिल्ली में ही रहती हैं । उन्ही के यहाँ छुट्टी लेकर आई थी ।
-आपने बताया नहीं कि आपकी बुआ जी यहाँ रहती हैं ।
-आपने पूँछा भी तो नहीं ।

फिर दोनों एक-दूसरे की बातों पर खिलखिलाकर हँस दिए । अगले ही कुछ क्षणों में दोनों मैदान में बैठे कॉफी पी रहे थे । दोनों अपने-अपने हिस्से की ख़ुशी छुपा नहीं पा रहे थे । जो रह-रह कर उनकी बातों के साथ बही जा रही थी ।

-"अच्छा, हाँ, मैं तो बताना ही भूल गयी । मैं कल ही आपको यह चैक भेजने वाली थी ।" अपने पर्स की तलाशी लेते हुए निशा ने कहा ।
-किस बात का चैक ?
-"आपकी कविता को मैंने अपने बैंक में होने वाली वार्षिक प्रतियोगिता में दिया था । और आपकी कविता को प्रथम पुरस्कार मिला है । ये रहा आपका पाँच हज़ार का चैक ।" आदित्य को पकड़ाते हुए निशा ने कहा ।
-ये मेरे नाम से कैसे ?
-अरे ये मेरी चैक बुक से कटा हुआ है । बैंक की ओर से मिला चैक मेरे नाम का था ।
-"अब ये मैं नहीं रख सकता । जीती आप हैं । आप ही जानें ।" आदित्य ने चैक वापस करते हुए कहा ।
-कविता तो आपकी ही थी । तो यह आपका ही हुआ न ।
-अच्छा ठीक है । न मेरा और न आपका । इसकी रकम को किसी अनाथालय में जमा करा देते हैं ।
-हाँ ये बेहतर है । और मेरी ट्रीट ?
-"वो तो आपको वैसे भी मिल जायेगी ।" आदित्य ने मुस्कुराते हुए कहा ।

अगले रोज़ आदित्य, निशा को साथ ले अनाथालय गया । कुछ घंटे वहाँ बिताने के बाद और दान की रस्म अदायगी करते हुए, वे लौट पड़े । वापसी में दिल में सुकून की हलचल हो रही थी । मालूम होता था कि एक सुखद एहसास उनके साथ चला आया है ।

-लम्बी चुप्पी को तोड़ते हुए, आदित्य ने निशा से पूँछा "किस रेस्टोरेंट में चलना है ।"
- "रेस्टोरेंट कोई भी हो, बस खाना लज़ीज होना चाहिए ।" निशा मुस्कुराते हुए बोली ।
-जी, हुज़ूर ।

अगले ही क्षणों में, वे एक रेस्टोरेंट में थे । आदित्य जाते ही कुर्सी पर बैठ गया । निशा खड़े हुए मुस्कुराने लगी । "ओह, माफ़ करना" कहता हुआ आदित्य उठा और निशा के लिए हौले से कुर्सी को पीछे धकेल कर, बैठने के लिए आमंत्रित किया । निशा मुस्कुराते हुए बैठ गयी ।

कितनी तो अनगिनत बातें थीं । जो दोनों ने अपने पास जमा कर रखी थी । बातों के मध्य नए-नए विषय जन्म ले लेते थे । और इनके मध्य में किसी बात पर निशा का मासूमियत से हँस देना । अपने बालों को रह-रह कर कानों के पीछे धकेलते रहना । खाने के मध्य में चोरी से आदित्य को देखना । और कहना कि चुप क्यों हो । उस रोज़ तो बहुत बोल रहे थे । प्रत्युतर में आदित्य का मुस्कुरा जाना शामिल था ।

बुआ के घर जाने से पहले, निशा ने आदित्य को बताया कि वह कल भोपाल चली जायेगी । आज ही उसकी छुट्टियां ख़त्म हो रही हैं और कल के बाद से उसे ऑफिस जाना है । निशा विदा लेते हुए, आदित्य से उसका मोबाइल नंबर ले जाना नहीं भूली । जो उनकी दोस्ती के दिनों के लिए आवश्यक हो गया था ।

भोपाल पहुँचने पर निशा ने फ़ोन किया । जो फिर एक आदत में तब्दील हो गया । कभी आदित्य फ़ोन करता तो कभी निशा । मिनटों का स्थान पहले घंटों ने लिया और फिर कई दफा तो सारी रात बीत जाती । बातें थीं कि, एक ख़त्म होती तो दूजी उपज आती । अब दोनों को ही इस बात का एहसास हो चला था कि उनका रिश्ता अब केवल दोस्ती तक सीमित नहीं रहा । वे उसकी परिधि के बाहर जा चुके हैं । किन्तु यह केवल एक अनकहा सच था । जिसे किसी ने कबूल नहीं किया था । यह केवल मौन स्वीकृति थी कि वे किसी भी विषय को छू सकते थे । अपना रूठना जता सकते थे । रात-रात भर, एक दूसरे को मना सकते थे । उन दिनों में निशा आदित्य को 'आदि' कहने लगी थी और आदित्य निशा को आप से तुम ।

दो महीने बाद, निशा का दिल्ली आना हुआ । जो संयोगवश ना होकर, पूर्व नियोजित था । वे दोनों जब मिले तो उनके मध्य चुप्पी पसर गयी । कहने को कितना कुछ तो था । किन्तु वह क्या था जो रोके हुए था । आने से पहले दोनों ने क्या-क्या तो सोचा था । कि ये कहेंगे या वो कहेंगे । किन्तु मौन टूटे नहीं टूट रहा था । अंततः आदित्य बोला "तो अबके तुम्हारी बारी है, ट्रीट देने की" । निशा के गालों पर गड्ढे उभर आये, जो अक्सर ही उसके खुश होने को जताते थे ।

-"हाँ, हाँ, क्यों नहीं । कहाँ चलना है ? वहीँ, उसी रेस्टोरेंट में ?" निशा चहकते हुए बोली ।
-नहीं, वो तो जब चाहे खा सकते हैं ।
-तो फिर क्या खाना है, ज़नाब को ?
-एक अर्सा हो गया । मैगी नहीं खायी । सूजी का हलवा नहीं खाया । घर का खाना नहीं खाया ।
-अरे तो ये सब भी खिला सकते हैं आपको । हमारी बुआ के घर चलो ।
-अच्छा, सच में ।
-हाँ, बिल्कुल । यदि आप की दिली ख्वाहिश यही सब खाने की है तो ।
-क्यों ? तुम्हारी बुआ को ऐतराज़ नहीं होगा कि किसको ले आई घर पर ।
-जी नहीं, हमारे दोस्तों का हमेशा स्वागत है, उनके घर पर ।
-अच्छा, यदि ऐसा है तो चलते हैं ।

घर पर जाकर मालूम चला कि बुआ जी और फूफा जी कहीं बाहर जा रहे हैं । और ये जानने पर कि आदित्य ख़ास तौर पर आमंत्रित हुआ है । उन्होंने निशा को जाते-जाते समझा दिया कि बिना कुछ खाए, आदित्य को जाने न दिया जाए । अब केवल वे दोनों घर में थे । और आदित्य की दिली ख्वाहिश को पूरा करने के लिए निशा ने मैगी, सूजी का हलवा और कॉफी बनायीं ।

-"शादी क्यों नहीं कर लेते ? रोज़ ही घर का खाना खाया करना" मैगी और हलवा ख़त्म हो जाने और कॉफी के घूँट के मध्य निशा ने कहा ।
-बहुत देर की ख़ामोशी के बाद आदित्य ने कहा "किससे ?"
-कोई तो होगी ऐसी । जिससे शादी कर सकते होगे ।
-"मुझे तो कहीं नज़र नहीं आती" आदित्य ने गलत उत्तर देते हुए कहा ।

निशा अपनी जगह से उठकर, खाली हुए दोनों कप लेकर रसोई में जाने लगी । कप उठाते हुए ही उसकी आँख में आँसू भर आये थे । जिन्हें उसने रसोई में जाकर बहाया । पीछे से आदित्य ने जाकर उसे गले से लगा लिया । "अरे तुम तो रोने लगीं । मैं तो मजाक कर रहा था । अच्छा बाबा, आई लव यू" निशा के आँसुओं को उंगली पर लेते हुए आदित्य बोला । निशा के गालों पर गड्ढे उभर आये । और वो पुनः आदित्य के गले से लग गयी । एहसास होता है कि ना जाने कितने समय से वे यूँ ही एक दूजे से चिपके हुए हैं ।

अबके निशा जो भोपाल गयी तो पीछे छोड़ गयी, भविष्य के सपने और मीठी यादें । दोनों ने आने वाले समय में शादी करने का निर्णय लिया था । भविष्य से बेखबर, वे वर्तमान में खुश थे । इस दृढ विश्वास के साथ कि निशा अपने पिताजी को अंतर्जातीय विवाह के लिए मना लेगी । दोनों अपनी पूरी जिंदगी, एक दूजे के साथ बिताने का हिसाब कर चुके थे ।

उनके प्यार को लगभग एक साल बीतने को हो आया था । और इस बीच वे कई बार एक-दूसरे से मिल चुके थे । मौका पाते ही निशा दिल्ली चली आती या सप्ताहांत में आदित्य भोपाल चला जाता । दिन बड़े सुकून भरे थे । एहसास होता था कि अभी तो शुरू हुए हैं । अभी तो एक-दूजे का हाथ थामा है । अभी तो सपने बुनने शुरू किये हैं ।

सुखद समय का बहुत जल्द ही अंत हो गया । जब निशा ने आदित्य के बारे में, अपने पिताजी को बताया । उन्होंने साफ़ कर दिया था कि यह शादी किसी भी हालत में नहीं हो सकती । निशा भी कहाँ हार मानने वाली थी । उसने अपना स्थानांतरण दिल्ली करा लिया । और घर पर साफ़ लफ़्ज़ों में कह दिया कि चाहे जो हो जाए वह आदित्य से ही शादी करेगी । वह धीमे-धीमे अपने घर से विच्छेदित सी हो गयी थी । तभी उसकी माँ ने उसे एक बार घर आने को कहा । और वह माँ के लिए भोपाल चली गयी ।

उस रात निशा के पिताजी ने किसी लड़के का फोटो दिखा कर, जबरन शादी करने का दबाव बनाया । निशा ने इसकी कल्पना भी नहीं की थी कि उसके परिवार के सदस्य ऐसा करेंगे । उसने सुबह होते ही दिल्ली जाने के, अपने इरादे के बारे में बता दिया । उसके पिताजी ने कुछ नहीं कहा । और वह अपने पीछे रोती, बिलखती माँ को छोड़ कर चली आई ।

दो रोज़ बाद भोपाल से माँ का फ़ोन आया कि पिताजी अस्पताल में भर्ती हैं । उन्होंने आत्महत्या करने की कोशिश की है । खबर पाते ही निशा ने आदित्य को सब बताया और भोपाल को रवाना हो गयी । अस्पताल में पिताजी बेबस, लाचार प्रतीत होते थे । लगता था कि दान में उसके हिस्से की खुशियाँ माँगना चाहते हों ।

अगले दो रोज़ बाद अस्पताल से घर पहुँचने की रात को वे निशा के कमरे में आये और अपना सर उसके क़दमों पर रख दिया । एक ही क्षण में उन्होंने निशा की सारी खुशियाँ माँग लीं । अब निशा द्वन्द में फँसी थी । एक ओर वो जिसने उसे पाला, पढाया, लिखाया और काबिल बनाया । दूसरी ओर आदित्य, जिसके साथ वह जीवन भर खुश रहेगी । फिर अगले ही क्षण ख़याल हो आया कि, क्या वह जीवन भर अपने पिताजी की मौत का कारण बनकर जी सकेगी ? क्या वह खुश रह सकेगी ? और उसने पिताजी से वादा किया कि जैसा वो चाहते हैं, वैसा ही होगा ।

वह अंतिम बार के लिए दिल्ली जाना चाहती थी । और आदित्य को अपनी मजबूरी बता देना चाहती थी । उसने घर पर ऑफिस के काम का कह, कुछ दिन दिल्ली हो आने का निर्णय लिया । और भोपाल से चली आई ।

बीते दिनों में आदित्य और निशा के मध्य कई मुलाकातें हुई, लम्बी-लम्बी बातें हुईं किन्तु हासिल कुछ न हुआ । और अंततः निशा ने आदित्य को नयी जिंदगी शुरू करने के लिए कहा । यह कोई निर्णय नहीं था अपितु एक बेबसी थी । एक जान को बचा लेने की लाचारी । जिसके आगे उस क्षण, सब छोटा मालूम होता था । हारकर आदित्य ने निशा के रास्ते से हट जाना बेहतर समझा । जो आगे कहाँ जाएगा, उसका निशा को भी पता नहीं था ।

उस आखिरी के रोज़ ट्रेन प्लेटफॉर्म से छूटने को थी और आदित्य ने अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए, अंतिम अलविदा कहना चाहा । उस क्षण, उसका दिल यही दुआ कर रहा था कि यह ट्रेन छूट जाए । दिल्ली का भोपाल से हर सम्बन्ध विच्छेदित हो जाए । कोई ट्रेन, कोई वाहन वहाँ को न जाता हो । बस दिल्ली अपने आप में एक दुनिया हो । जिसमें वो और निशा ख़ुशी-ख़ुशी रह सकें । किन्तु यह एक भ्रम था और कुछ नहीं । दिल्ली दुनिया का एक बहुत छोटा हिस्सा थी और वह एक मामूली आदमी ।

ट्रेन चली गयी और वह प्लेटफॉर्म की बैंच पर बैठा था । निपट अकेला, शून्य में निहारता हुआ ।

तभी आने वाली गाडी की घोषणा सुनाई पड़ती है । उसे होश आता है । जैसे नींद में से जागा हो । और वह स्वंय को, तीन बरस के बाद, इस फ़्लैट के बरामदे में, आराम कुर्सी पर पाता है । जहाँ पास के ही कमरे में संजय अर्धमूर्छित सा लेटा है । नाईट बल्ब अभी भी उसी तरह जल रहा है । सिगरेट राख में तब्दील हो चुकी है । वह उठता है और बल्ब को बुझाने से पहले, घड़ी की ओर देखता है । वह सुबह के पाँच बजाने को थी । याद हो आता है कि सुबह सात की ट्रेन पकडनी है । वह तौलिया लेकर बाथरूम में चला जाता है । और बाहर आकर अपना बैग और सूटकेस सँभालने लगता है । एकाएक उसे संजय का ख्याल हो आता है । वह एक कागज़ पर अपना नया पता लिखकर, उसके सिरहाने की डायरी में रख देता है । और फिर सामान उठाकर बाहर चल देता है । अपने पीछे एक जाने पहचाने शहर को छोड़कर, एक अंजान कस्बे की ओर ।

नया क़स्बा:

आसमान में तारे टिमटिमा रहे हैं । चाँद पूरा खिला हुआ है । तीखी हवा को चीरती हुए, ट्रेन एक छोटे से स्टेशन पर आ रुकी है । आदित्य अपना बैग और सूटकेस बाहर निकालता है । साथ में एक परिवार और भी उतरा है । कोई उनके लिए वहाँ पहले से मौजूद है । वे गले मिलते हुए, कुछ ही क्षणों में आँखों से ओझल हो गए हैं । सफ़ेद कमीज पर काले सूट को पहने हुए साहब से वह कुछ पूँछता है । वह हाथ का इशारा करते हुए स्टेशन की कमी को गिनाता है । काले लिबाज़ को पीछे छोड़ते हुए, आदित्य आगे की ओर बढ़ जाता है । वहाँ एक-दूसरे से चिपकी हुई बैंच, सर्दी से बचने का जतन कर रही हैं । कोई शौल ओढ़े हुए बैठा है । आदित्य वहाँ पहुँच कर, उसके पीछे की बैंच पर बैठ जाता है । पैंट की तलाशी लेते हुए सिगरेट की डिब्बी निकालता है और माचिस की तीली को जलाकर, बुझा देता है । धुआँ आस-पास तैरने लगता है । जो अपनी सरहद को पार करते हुए, पीछे खेलने लगता है । पीछे से खाँसने की आवाज़ आती है । वह उठ खड़ा होता है और टहलने लगता है । तेज़ हवा का झोंका आया और शौल उसके पास जा गिरी । वह शौल उठाकर बैंच के पास पहुँचा है । और वह क्षण फ्रीज़ हो जाता है । दोनों इतने बरस बाद एक-दूसरे के सामने थे । आदित्य को उस क्षण विश्वास ही नहीं होता कि वह निशा को देख रहा है ।

-"निशा, तुम ?" आदित्य अपनी जड़ता समाप्त करते हुए बोलता है ।
-निशा प्रत्युतर में शौल ओढ़ते हुए मुस्कुराती है ।
-यहाँ कैसे ?
-यहाँ के नवोदय विद्यालय में पढ़ाती हूँ ।
-"अच्छा, तो बैंक की नौकरी कब छोड़ दी ?" आदित्य उसी बैंच पर बैठते हुए सवाल करता है .
-"अब तो बहुत दिन हो गए । पिछले एक बरस से पढ़ा रही हूँ ।" निशा बीते हुए समय से वर्तमान में आते हुए कहती है ।
-"अच्छा" आदित्य निशा के चेहरे को देखते हुए कहता है ।
-और आप ?
-मैंने भी सरकारी नौकरी पकड़ ली है । आज ही ज्वाइन करनी है ।

निशा अगले क्षण खामोश हो जाती है । बीते हुए समय का कोई प्रश्न नहीं करती । आदित्य पुनः सिगरेट जला लेता है और उठकर टहलने लगता है । और जाकर प्लेटफॉर्म की नोक पर खड़ा हो जाता है । फिर से तेज़ नुकीली हवा का झोंका आता है । आदित्य भीतर तक कपकपा जाता है "हूँ-हूँ-हूँ, बहुत ठण्ड है" । निशा अपने बैग से नया शौल निकाल कर देती है "इसे ओढ़ लीजिए, नहीं तो ठण्ड लग जायेगी" । आदित्य शौल ओढ़ कर फिर से बैंच पर बैठ जाता है । और इधर-उधर नज़रें दौडाने लगता है "चाय वाला कहीं दिखाई नहीं देता" । निशा अपने बैग से, थर्मस निकाल कर, कप में चाय उढेल कर देती है "मैंने पहले ही चाय वाले से थर्मस भरवा लिया था, जब वह दुकान बंद करके जा रहा था" । आदित्य कप को पकड़ते हुए, अपने बैग में कुछ तलाशने लगता है ।

-क्या हुआ ?
-अरे कुछ खाने के लिए देख रहा था ।
-"रुको मेरे पास कुछ नमकीन और बिस्कुट रखे हैं ।" निशा अपने बैग को खोलते हुए बोली ।
-"अरे मेरे पास भी गुजिया हैं, जो घर से लौटते समय माँ ने रखी थीं ।" आदित्य बैग से डब्बा निकालते हुए बोलता है ।
-अच्छा ।
-"हाँ लो, तुम भी खाओ" आदित्य को याद था कि निशा को माँ के हाथ की गुजिया बहुत पसंद है ।
-"माँ कैसी है ? बड़ी किस्मत वाली होगी आपकी बीवी, जो इतना प्यार लुटाने वाली माँ मिली है" निशा गुजिया लेते हुए बोली ।
-जैसी पहले थी । लेकिन किस्मत ने माँ का साथ नहीं दिया ।
-क्या मतलब ?
-"प्यार लुटाने के लिए उनकी बहू का होना भी बहुत जरुरी है ।" चाय ख़त्म करते हुए आदित्य बोला ।
-"आदि...." कहते हुए निशा के चेहरे पर ढेर सारे प्रश्न उभर आये ।
-खैर मेरा छोडो । तुम बताओ । तुम्हारे पति ने कैसे आ जाने दिया, इस छोटे सी जगह ।

प्रत्युतर में निशा भरी आँखों के साथ खामोश हो गयी । जिस अतीत से बचने की कोशिश में वह यहाँ आई थी । आज वह प्रश्न बनकर सामने आ खड़ा हुआ । आदित्य ने अगले क्षण सिगरेट का धुआँ छोड़ते हुए कहा "उत्तर नहीं दिया" । निशा ख़ामोशी से नमकीन और बिस्कुट की पैकेट बैग में रखने लगी । आदित्य को यह ख़ामोशी चुभने लगी और उससे रहा नहीं गया । और उसकी गीली आँखों में झांकते हुए बोला "क्या हुआ ? तुम मेरी बात का उत्तर क्यों नहीं देती" । आँसू आँखों से उतरकर गालों पर लुढ़क आये ।

-निशा ने बस इतना कहा "अब वो नहीं हैं" ।
-क्या हुआ ?
-एक रोड एक्सीडेंट और सब ख़त्म ।
-कब ?
-"शादी के छह महीने बाद ।" कहते हुए निशा अपनी आँखों को रुमाल से ढक लेती है ।

सिगरेट सुलगकर आदित्य का हाथ जला देती है और खुद को छुड़ा कर, फर्श पर लेट जाती है । आज बरसों बाद आदित्य की आँख भर आयी क्योंकि वो दुखी थी । आस-पास चुप्पी पसर गयी । जान पड़ता था कि बस साँसों के चलने की आवाज़ आ रही हो । ये ख़ामोशी उसे आखिरी की मुलाकात पर पहुँचा देती है । तब भी उसके पास कहने को कुछ शेष नहीं था और आज भी उसे कुछ सूझ नहीं रहा था ।

-"तो क्या पढ़ाती हो बच्चों को ?" आदित्य विषय बदलने के उद्देश्य से कहता है ।
-अंग्रेजी
-तो बच्चों को अंग्रेज बनाया जा रहा है ।
-प्रत्युतर में निशा के गालों पर गड्ढे उभर आते हैं ।

फिर कुछ क्षण के लिए सन्नाटा पसर जाता है । दोनों ही अपने हिस्से की ख़ामोशी ओढ़ लेते हैं ।

"शादी क्यों नहीं कर लेते ? कब तक यूँ ही भटकते रहोगे ? और फिर माँ को भी तो अपनी बहू चाहिए । उनसे उनका हक क्यों छीनते हो " निशा चुप्पी तोडती है । आदित्य सिगरेट जलाता हुआ उठ खड़ा होता है । एक कश लेता है, धुआँ छोड़ता है और कहता है "जानती हो निशा, बचपन में माँ ने एक पक्षी की कहानी सुनाई थी । जो बारिश की पहली बूँद की प्रतीक्षा करता है और यदि वह छूट गयी तो वह बाकी की बूँदों के बारे में सोचता भी नहीं । और वैसे भी किसी ने कहा है, हर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता ।" और इसके साथ ही अगला कश और फिर धुआँ उड़ने लगता है ।

-"वैसे चाँद मियाँ अब भी ड्यूटी पर हैं । देखो, अभी तक रौशन हैं ।" आदित्य चाँद की और देख कर कहता है ।
-"शायद आज पूरे चाँद की रात है ।" निशा स्वंय को ठीक से ढकते हुए कहती है ।
-तुम्हें चाँदनी रात बहुत पसंद थी न ।
-तब जानती नहीं थी कि अमावस्या भी आती है । और कभी-कभी बहुत लम्बी, स्याह काली ।

यह बात आदित्य के भीतर एक तीखी कसक छोड़ जाती है । वह स्वंय को संभालते हुए, प्लेटफॉर्म के किनारे पहुँच शौल हटाकर चुभती हवा को स्पर्श करता है । और कपकपाते हुए घडी देखता है । "अभी दो घंटे में सुबह हो जायेगी । कितना दूर है तुम्हारा हॉस्टल ?" पूँछता हुआ बैंच पर आ बैठता है । "यही कोई चार-पाँच किलोमीटर दूर" कहती हुई निशा पुनः खामोश हो जाती है ।

दोनों के मध्य लम्बी चुप्पी के बाद कब आँखें सो जाती हैं, एहसास ही नहीं होता । एकाएक आदित्य की आँखें खुलती हैं । वह घडी की ओर देखता है । "अरे छह बज गए । चलो उठो चलते हैं अब ।" आदित्य, निशा को जगाते हुए कहता है । दोनों स्टेशन के बाहर निकल आते हैं । सामने ही बस दिखाई देती है । निशा बस में चढ़ने को होती है, तभी आदित्य ताँगे की ओर इशारा करके कहता है "चलो उसमें चलते हैं" । दोनों ताँगे वाले के पास पहुँचते हैं । वह बताता है कि पहले स्कूल पड़ेगा, उसके बाद सरकारी दफ्तर । आदित्य सामान को रखकर, निशा की चढ़ने में मदद करता है । जब तीनों उस पर सवार हो जाते हैं तो ताँगा धीमे-धीमे आगे बढ़ने लगता है ।

वह एक छोटा किन्तु बहुत ही खूबसूरत पहाड़ी क़स्बा था । रास्ते के दोनों ओर ऊँचे वृक्ष थे और उनको बच्चा जताते हुए, सीना चौड़ा करके खड़े हुए पहाड़ । घोडा अपनी लय में दौड़ा जा रहा था । सड़क पर से उसके क़दमों के थपथपाने का संगीत सुनाई दे रहा था । तभी आगे-पीछे हिलती हुई निशा को देखकर, आदित्य ताँगे वाले से बोला "अरे भाई जान, इसमें एफ.एम है क्या ?" इस बात पर निशा के होठों पर मुस्कान खिल जाती है । "क्या साहब, आप मजाक बहुत करते हैं ।" ताँगेवाले ने घोड़े की पीठ को थपथपाते हुए कहा ।

-अच्छा तो तुम ही कोई गाना सुना दो ।
-साहब हमें तो गाना नहीं आता ।
-अच्छा, ये तो बहुत गलत बात है ।
-"कितने बच्चे हैं तुम्हारे ?" मुस्कुराती निशा की ओर देख लेने के बाद आदित्य ने पूँछा
-एक लड़की है ।
-बस एक ही, हम तो सोच रहे थे कि चार-पाँच तो होंगे ही ।
-अरे साहब ऐसी गलती तो हम कभी नहीं करेंगे । हमारे पिताजी ने हम आठ बहन-भाई को पैदा किया था । सात बहनों के बाद मुझे पैदा करने के लिए । और बाकी जिंदगी सबकी शादियाँ ही करते रहे ।

निशा ने अपने होठों पर उँगली रख ली । आदित्य मन ही मन में बुदबुदाया "बहुत मेहनती थे" । ताँगे वाले के पूँछने पर कि आपके बच्चे नज़र नहीं आते, मालूम होता है, अभी हाल-फिलहाल में ही शादी हुई है । दोनों असहज महसूस करते हुए, ख़ामोशी से वृक्षों को देखने लगे । निशा का हॉस्टल आ पहुँचा तो आदित्य ने उतरकर सामान पकड़ाया । निशा चुप सी खड़ी रही । आदित्य अपने पर्स से कार्ड निकालकर देता है "इस पर मेरा मोबाइल नंबर है" । फिर निशा सामान उठाकर चल देती है । आदित्य दूर से ताँगे में बैठा उसे भीतर जाते हुए देखता है ।

आदित्य जानता था कि निशा कभी फ़ोन नहीं करेगी । और फिर धीरे-धीरे अपने दफ्तर के काम में व्यस्त हो जाता है । पास ही रहने के लिए सरकारी आवास मिला हुआ था । कई दिन बीत गए किन्तु निशा का फ़ोन नहीं आया । आदित्य सोचता कि कहीं मेरे कारण वह परेशान न हो जाए । और उसके ख्याल को काम के तले दबा देता ।

एक रोज़ आदित्य बाज़ार में, एक रेस्टोरेंट में बैठा था । तभी वहाँ निशा का आना हुआ । आदित्य को देखकर, वह उसके पास आकर बैठ गयी ।
-"तुम यहाँ कैसे ?" आदित्य ने जानना चाहा ।
-कुछ जरूरत का सामान खरीदना था । उसी सिलसिले में आयी थी ।
-"ओह, अच्छा" निशा के पास रखे बैग को देखकर आदित्य बोला ।
-क्या लोगी ? चाय, कॉफी या ठंडा ?
-कुछ भी नहीं ।
-"अरे ऐसे कैसे, कुछ नहीं । अरे भाई जान, ज़रा दो कॉफी लाना ।" वेटर को बुलाते हुए आदित्य बोला ।
-प्रत्युतर में निशा मुस्कुराती है ।
-काफी बदल गयी हो ।
-क्यों, क्या हुआ ?
-ये साडी, ये पहनावा, जीने का तरीका ही बदल लिया तुमने ।
-निशा पुनः मुस्कुरा देती है ।

इसी बीच कॉफी आ जाती है । आदित्य बाथरूम जाने का इशारा करते हुए उठता है । निशा की नज़र उसके पीछे रह गयी उसकी डायरी पर पड़ती है । निशा को याद हो आता है कि आदित्य को डायरी लिखने की आदत है । वो एकाएक ही डायरी को उठा, कोई पन्ना खोलती है । और पढने लग जाती है....

उस रोज़ जब ट्रेन प्लेटफोर्म पर आने को थी और तुम्हारी पलकें गीली होने को, तब मैं उसके छूट जाने की दुआ कर रहा था । तुम्हारे हाथों को थामे, ठहर जाने को मन कर रहा था । मगर अब ये मुमकिन नहीं कि तुम्हें मालूम हो कि उस रोज़ मैं वहीं छूट गया था । उसी बैंच पर, तुम्हारे आँसुओं में भीगा, अंतिम स्पर्श से गर्माता । और हर बार ही उस प्लेटफोर्म पर से गुजरते हुए, मैंने उसको वहीं पाया है । यूँ कि तुम आओगी और कहोगी 'अरे तुम अभी यहीं हो' ।

कई दफा खुद को टटोलता हूँ और जिस्म के लिहाफ़ को झाड कर फिर से जीने के काबिल बना लेता हूँ । मुई रूह के बगैर कब तलक कोई जिए जाएगा । सुनो, कभी जो गुजरों उधर से तो एक दफा उसको अलविदा कह देना । जैसे रूठे बच्चे को मनाता है कोई । शायद आखिरी की ट्रेन से मुझे आकर मिले कभी ।

कई बरस बीते हैं, साथ जिए बगैर । कुछ तो मैं भी जीने का सलीका सीखूँ । चन्द ज़ाम से गुजर सकती हैं रातें, मगर बीते बरस नहीं गुजरते । हर शाम ही तो आकर खड़े होते हैं ड्योढ़ी पर । हर सुबह ही तो छोड़ जाते हैं तनहा । हर दफा पी जाता हूँ वो पीले पन्ने, जिन पर लिखी थीं तुम्हारे नाम की नज्में ।

दोस्त नहीं देते अब तुम्हारे नाम की कस्में । हर रोज़ ही भूल जाते हैं और भी ज्यादा, कि कभी तुम भी थीं उनका हिस्सा । अब नहीं करते फरमाइश, उस किसी बीते दिन की । चुप ही आकर सुना जाते हैं, जाम में उलझा कर कई किस्से । यूँ कि सुनाया करते हों किसी महफ़िल में मुझे लतीफे की तरह ।

जानता हूँ हक़ यादों की पोटली में मृत होगा कहीं । और मैं उसमें जान फूँकने की बेवजह कोशिश नहीं करूँगा । मगर फिर भी प्लेटफोर्म की उस बैंच पर से गुजरते हुए, कभी तुम सुनना उसको । जो हर दफा कहता है मुझसे 'काश उसने मेरा हाथ थामा होता ।'

और अंत तक आते-आते निशा की आँखें गीली हो जाती हैं । जिसके चिन्ह वह आदित्य के आने से पहले ही रुमाल से हटा देती है । और उसकी डायरी यथास्थान रख देती है ।

आदित्य की वापसी के कुछ क्षण बाद, निशा जाने के लिए कहती है । आदित्य उसे साथ चलने के लिए कहता है किन्तु निशा कुछ अन्य सामान को खरीदने का कह कर टाल जाती है । फिर जब-तब ऐसा ही होने लगा । वे एक-दूसरे से टकरा जाते थे । निशा स्वंय को अतीत और वर्तमान के द्वन्द में पाती । बीते तीन बरस उसके लिए आसान नहीं थे । वह अब किसी और दुःख का कारण नहीं बनना चाहती थी । किन्तु साथ ही साथ वे पुनः एक दूसरे की आदत बनते जा रहे थे । बीते दिनों का सूखा वृक्ष पुनः हरा-भरा होने लगा था ।

फिर एक रोज़ आदित्य ने निशा को पहाड़ी पर भ्रमण के लिए आमंत्रित किया । जिसे निशा ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था । यद्यपि उसे स्वंय के जाने और न जाने के मध्य संशय था । किन्तु अस्वीकार न करने के पीछे नया लगाव ही था । आदित्य से विदा लेते हुए, निशा ने आने का कह दिया ।

पहाड़ी के शिखर पर दोनों बीते कई क्षणों से खामोश बैठे हुए थे । गालों को थपथपा कर चली जाती, नर्म हवा बह रही थी । मौसम का मिजाज़ आशिक़ाना हो चला था । दोनों अपनी स्मृतियों से एक ही दिन, एक ही स्थान पर पहुँच जाते हैं । जहाँ निशा आदित्य के कंधे पर सर रख कर, उसकी बेहिसाब गुदगुदाने वाली बातें सुन रही थी । और आदित्य उसके हवा से बिखरते हुए बालों को, अपनी उँगलियों से कानों के पीछे धकेल देता था । और अपनी ही किसी बात पर झगड़ते हुए निशा उठ कर चल देती थी । तब पीछे-पीछे आदित्य उसे मनाने को दौड़ता था ।

एकाएक निशा वर्तमान में दाखिल होती है । और आदित्य को देखते हुए कहती है "आप शादी क्यों नहीं कर लेते । कब तक यूँ ही भटकते रहोगे । कब तक माँ प्रतीक्षा की घडी को देखती रहेंगीं । अतीत के सहारे जीवन नहीं कटता । मैं चाहती हूँ कि आप खुश रहो ।" आदित्य हाथों की लकीरों को देखता है और कहता है "सब किस्मत की बातें हैं । सुख खोज़ने से कहाँ मिलता है ? तुम भी तो खुश नहीं रह सकीं । इसीलिए शायद मेरी किस्मत में भी सुख नहीं ।" आदित्य को सुनते-सुनते निशा की आँखें गीली हो चली थीं । निशा की आँखों में झाँकते हुए आदित्य सिगरेट जला लेता है ।

बादल एकाएक मेहरबान हो गए थे । निशा स्वंय को बचाने के लिए उठ कर चल दी थी । आदित्य पीछे से निशा का हाथ पकड़ लेता है । और अपने पास खींच लेता है । इतने पास कि उनके मध्य कोई फासला नहीं बचा था । आदित्य उसकी आँखों में डूबते हुए कहता है "मुझसे शादी करोगी ।" निशा एकाएक स्वंय को आदित्य की गिरफ्त से मुक्त करते हुए कहती है "नहीं, मैं जानती थी कि आप यूँ ही मुझसे मिलते रहोगे और एक दिन मुझ पर यह एहसान करोगे ।" इसके बाद निशा वहाँ से चली जाती है और आदित्य उसे रोक नहीं सका ।

कई दिन बीत चुके थे और उन दिनों में आदित्य की निशा से कोई मुलाकात नहीं हुई थी । आदित्य की व्यग्रता बढ़ने लगी थी । फिर एक रोज़ जब वह बाज़ार से गुज़र रहा था तभी ताँगे वाले ने टोकते हुए बताया कि मैडम अस्पताल में भर्ती हैं । वह अभी-अभी उन्हें वहाँ छोड़ कर आ रहा है । आदित्य उसके साथ अस्पताल पहुँचता है । जहाँ निशा एक कमरे में लेटी हुई थी । पास ही साथ की एक अध्यापिका बैठी थी । आदित्य चुप से जाकर उसके पास बैठ जाता है । उसकी हालत देख कर आदित्य का रो लेने का मन करता है, किन्तु स्वंय को संभालता हुआ, उसके हाथों को अपने हाथों में लेकर बैठा रहता है ।

साथ की अध्यापिका बताती है कि पीलिया की शिकायत है । और पिछले दिनों से ठीक से सोयी भी नहीं है । जब ज्यादा तबियत ख़राब होती दिखी तो मैं यहाँ ले आयी । अगले एक-दो घंटे वे दोनों बातें करते रहे । फिर आदित्य ने उसे चले जाने के लिए कहा । हालाँकि उसने कई बार रुकने के लिए कहा किन्तु आदित्य ने उसे अगली सुबह आने का कह, वापस भेज दिया ।

कुछ घंटे बाद निशा नींद से जागती है और आदित्य को अपने सामने पाती है । बस खामोश एकटक उसे देखती रहती है । आदित्य गुस्सा जताते हुए कहता है "तुमने इस काबिल भी नहीं समझा कि मुझे अपनी बीमारी के बारे में बता सको ।" निशा कुछ कहने का प्रयत्न करती है "वो मैं...." । "हाँ बस कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है । मैं सब समझता हूँ ।" कहता हुआ आदित्य उसे चुप कर देता है ।

अगले चार रोज़ आदित्य अस्पताल में ही बना रहता है । निशा की दवा, खाना-पीना और जरुरत के हर सामान की फिक्र थी उसे । वह बीते दिनों में ठीक से सोया भी नहीं था । धीरे-धीरे निशा स्वस्थ हो चली थी । और निशा को सब दिख रहा था । पिछले दिनों से निशा इसी उधेड़बुन में थी । कितनी गलत थी वह आदित्य को लेकर । अपनी ही बात पर उसे पछतावा हो रहा था । कितना चाहता है आदित्य उसे । असल में आदित्य से ज्यादा कभी किसी ने उसे चाहा ही नहीं । वो अपनी ही कही हुई बात पर शर्मिंदा हो रही थी ।

एक रोज़ जब आदित्य निशा के साथ की अध्यापिका को अस्पताल में छोड़कर, कपडे बदलने के उद्देश्य से अपने कमरे पर गया था । उसके पीछे दफ्तर का चपरासी अस्पताल में निशा के पास, आदित्य के घर से आयी हुई चिट्ठी छोड़ जाता है । जिसमें माँ ने आदित्य का किया हुआ वादा याद दिलाया था । जिसे वह अंतिम बार माँ से करके आया था । उन्होंने एक लड़की देख ली थी और आदित्य से उसे देखने की सिफारिश की थी । निशा चिट्ठी पढ़कर रख देती है । फिर निशा के मस्तिष्क में विचारों का युद्ध छिड़ जाता है । वह क्यों आदित्य के रास्ते की रूकावट बने । उसे भी नए सिरे से जिंदगी जीने का हक़ है । क्यों वो दुनिया को कुछ कहने का अवसर दे । और उसने निर्णय लिया कि वह यहाँ से चली जायेगी ।

शाम को जब आदित्य अस्पताल पहुँचा तो वहाँ निशा नहीं मिली । पता करने पर मालूम हुआ कि उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी है । वह वहाँ से निकल कर सीधा उसके हॉस्टल पहुँचा । जहाँ निशा के साथ की अध्यापिका ने उसे केवल वह चिट्ठी पकडाई । और बताया कि निशा अभी कुछ देर पहले यहाँ से स्टेशन चली गयी है । आदित्य के पूँछने पर "स्टेशन, लेकिन क्यों ?" उसने यही उत्तर दिया कि "ज्यादा कुछ बता कर नहीं गयी । केवल इतना कह कर गयी है कि, घर जा रही हूँ ।" आदित्य चिट्ठी पढ़ लेने के बाद स्टेशन की ओर चल देता है ।

सूरज को बहुत पीछे धकेल कर, रात निकल आयी थी । जब आदित्य स्टेशन पर पहुँचा तो वहाँ कोई नज़र नहीं आया । आदित्य ने अपनी नज़रें इधर-उधर दौडायीं । दूर के दुबके कोने में निशा गुमसुम बैठी दिखाई दी । आदित्य उसके पास पहुँचता है । और चिट्ठी को उसकी ओर फैक कर बोलता है "इसके लिए जा रही थी तुम" । निशा उठ खड़ी होती है "वो आदित्य मैं...." । आदित्य निशा के गाल पर एक तमाचा मारता है "हर निर्णय को लेने का अधिकार केवल तुम्हें नहीं, समझीं" । निशा रोते हुए आदित्य के गले से लग जाती है और कहती है "मुझे माफ़ कर दो आदि, मैं न जाने क्या सोचने लग गयी थी ।"

पिछले कई क्षणों से वे यूँ ही एक दूजे से चिपके हुए थे । आने वाली ट्रेन प्लेटफॉर्म पर से शोर करती हुई चली जा रही थी । चाँद जवान हो चला था । तब उस खामोश फैली हुई चाँदनी में कुछ ओंठ तितली के पंखों की तरह खुले और बंद हुए थे । दूर बैठा चिड़ियों का जोड़ा यह देख लजा गया था । सुखद क्षणों का वह संसार, एक अध्याय बन जिंदगी से जुड़ गया...

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धूप का टुकड़ा

>> 15 December 2010

वे दिसंबर के अंतिम दिन थे । निपट अकेले, खुद में सिमटे हुए . कभी-कभी स्वंय को भरोसा दिलाना होता कि यह दिसंबर है . ठीक जनवरी से पहले का दिन, जब अगले वर्ष का प्रारम्भ हो जायेगा और लोग एक दूसरे को बधाईयाँ देते नहीं थकेंगे . बच्चे अपने हाथों से बने ग्रीटिंग्स को अपने बस्तों में, किताबों के मध्य रखकर स्कूल ले जायेंगे और अपने प्रिय मित्र को देंगे .

एक गुनगुनी सुबह धूप का एक टुकड़ा छतों पर से उतरता हुआ, आँगन में ठहर गया था . कई ठंडी सुबहों के बाद एकाएक धूप का खिलखिलाना भ्रम पैदा करता, कि जैसे यह बसंत का कोई एक दिन हो . और लोग अपने घरों से धीमे-धीमे बाहर निकल कर छतों, पार्कों और खाली पड़ी सड़कों पर सैर कर रहे हों . बच्चे गुब्बारे लेकर दौड़ लगा रहे हों और फेरी वाला आवाज़ दे रहा हो . आवाज़ सुनकर औरतें घरों से बाहर झाँक रही हों और एकाएक उसके आस-पास भीड़ एकत्रित हो जाए .

मैं भी गुनगुनी धूप के चक्रव्यूह में आ गया और देखते ही देखते हाथ में किताब थामे, सामने के पार्क की बैंच पर जा बैठा . सामने बच्चे एक लम्बे अरसे से उछल-कूद में व्यस्त दिखे . वे पेड़ों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते . दौड़ते-दौड़ते थक जाते तो उनमें से कोई और दौड़ लगा लगाकर उनके छूने की चेष्टा करता . मैं दूसरे पृष्ठ की तीसरी पंक्ति पर था कि एक रंगीन स्कार्फ हवा में तैरता हुआ मेरे कंधे पर आ गिरा . एक आवाज़ सुनाई दी "एक्सक्यूज मी", मैं निगाहें उठाता हूँ और उसको पहली दफा देखता हूँ . बीते दिन की सर्दी के चिन्ह उसकी नाक पर अब भी मौजूद थे. जैसे कह रहे हैं देखो मैं यहाँ हूँ . मुझे देखकर वह थोड़ी मुस्कुराई और अपने स्कार्फ की ओर इशारा करते हुए, मेरे कंधे को देखने लगी . मैंने उसे स्कार्फ वापस करते हुए, उसका शुक्रिया रख लिया .

वो हमारी पहली मुलाकात थी और उस मुलाकात पर केवल इतना हुआ था कि उसने चलते हुए, मुझसे कहा था "आप भी पढने का शौक रखते हैं " और उत्तर के बिना चली गयी . उसके चले जाने पर, अगले कई पलों तक उसका एहसास होता रहा . और स्मृतियों में उसका "भी" कैद हो गया . उस "भी" के मायने क्या हो सकते थे . मैं इस उधेड़-बुन में लगा रहा . और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि शायद उसको भी पढने का शौक होगा .

कई बार ऐसा होता है कि आप एकाएक किसी ऐसे शख्स से टकरा जाते हैं जो पहली नज़र में ही आपकी तबियत का लगने लगता है . जैसे कि उस ऊपर वाले ने उसे ख़ास तौर पर आपके पास भेजा हो . फिर आपके भीतर उसके प्रति आकर्षण पैदा होता है . शायद आकर्षण की पहली बूँद जो उस ऊपर वाले ने दिखाई थी, आपकी इच्छा को बढाती है . उसके बारे में सब कुछ जान लेने की इच्छा . और या तो आप इच्छा के विरुद्ध जाते हैं या इच्छा की दिशा में तेज़ दौड़ लगाते हुए उसके पास पहुँचाने का प्रयास करने लगते हैं .

मैं इच्छा के विरुद्ध दौड़ना चाहता था . क्यों ? किसलिए ? मैं स्वंय इस बात को नहीं जानता था किन्तु आकर्षण की वह बूँद मुझे भी दिखाई दी थी . तेज़ सितारों सी चमकती हुई . अपने बीच में खिले उस चाँद को पा लेने की चाहत जगाती सी . जो कि बेहद खूबसूरत होता है . मैं उसके उलटी दिशा में चल निकला था . किन्तु होता यह नहीं, होता यह है कि जब आप इच्छा के विरुद्ध चलते हैं उसकी उलटी दिशा में दौड़ना चाहते हैं, तब एक अन्य आकर्षण बल आकर आपको घेर लेता है और वह इच्छा आपको प्रबल आकर्षण बल से अपनी ओर खींचने लगती है .

अगली चार सुबहों तक मैं उसके ख़याल को परे धकेलता रहा . जैसे कि सर्दियों के बाद की उस खिलखिलाती धुप का कोई अस्तित्व न हो . फिर अगले रोज़ से ही वह स्कार्फ मुझे सपनों में भी गिरता दिखाई देने लगा . एक बार नहीं अनेकों बार वह स्कार्फ गिरा और हर बार ही वह मेरे कंधे पर आ ठहरता . और वह स्कार्फ को लेने मेरे सामने आ खड़ी होती .

और फिर उन प्रबल आकर्षण बालों वाली सुबहों के बाद एक बेहद रूमानी सुबह वह दिखाई दी . जब मैं उस बैंच के पास पहुँचा तो वह, पहले से ही वहाँ मौजूद थी . उसकी निगाहें ठीक किताब के पृष्ठ की किसी पंक्ति पर चिपकी हुई थीं . मैंने उससे कुछ भी कहे बिना . बैंच का आधा बचा भाग ले लिया . कई पलों के बाद उसने एकाएक गर्दन उठायी . "अरे आप" मुझे देखकर उसके कहे हुए पहले शब्द यही थे . उस रोज़ किताबों की इतनी बातें हुईं कि मुझे उसकी जानकारी से रश्क होने लगा था और न चाहते हुए मैंने उससे कहा था "मुझे आपके साहित्यिक तजुर्बे से रश्क हो उठा" . इस बात पर वह खिलखिला उठी थी, जैसे कि मुझे हल्का कर देने चाहती हो कि नहीं ऐसा तो कुछ भी ख़ास नहीं है . मैं भी उतना ही जानती हूँ, जितना बाकी के सब . उसने कुछ किताबों की अदला बदली के लिए अगला सुबह को चुना था . जोकि क्रिसमस ईव का दिन था .

उसके चले जाने के बाद, आने वाली सुबह के ख्याल ने मुझे आ घेरा था . जब कि आसमान रंगीन गुब्बारों से घिरा होगा . बच्चे यहाँ-वहाँ हर कहीं दिख जायेंगे . औरतें-आदमी और बच्चे अपने नए कपड़ों में सड़कों को भर देंगे और उस पल लगेगा ही नहीं कि, यह सर्द दिसंबर का कोई एक दिन है . जहाँ अब तक सब अपने-अपने घरों में दुबके हुए पड़े रहते थे . केवल बच्चे सर्दियों की छुट्टियों से पहले ठिठुरते हुए, स्कूल बसों में सवार होकर घरों से रवाना होते थे और धुंध में ही वापस आकर घरों में दुबक जाते थे .

मैं उसके चले जाने के बाद से, उसके पुनः आ जाने की प्रतीक्षा करने लगा था . यह क्या था ? किसलिए था ? इस ख़्याल ने मेरे ओठों पर मुकुराहट ला दी थी .

आगे जारी....

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ख़त जो पहुँचा नहीं

>> 27 October 2010













तुम्हें याद है वो बत्ती के गुल हो जाने और घर वालों के सो जाने पर, अपनी जुडी छतों पर चाँद उतर आया था । जब नीम की पीली पत्तियाँ झर रही थीं और सफ़ेद फूलों की महक धीमे-धीमे पसर गयी थी । और तुम्हारी गोद में सर रखकर मेरी साँसों ने तुम्हारी साँसों को छुआ था । तब तुमने कहा था "देखो चाँद मुस्कुरा रहा है" । मेरे कहने पर कि "चाँद मियाँ मुँह उधर करो" तो चाँद कैसे खिलखिला दिया था । और तुम लज़ा गयीं थीं ।

चाँद अब भी छत पर उतरता है । रातें आज भी देहरी पर ठहरती है । साँसें तेरा नाम अब भी गुनगुनाती हैं....

अच्छा वो याद है तुमको, बारिश में भीगती सड़क के ढलान पर से उतरते हुए, हम सूखे बच निकले थे और तुमने वो छाता फैंक दिया था । और खिलखिलाती हुई दौड़ पड़ी थीं । फिर चार रोज़ तक मैं छींकते हुए बिस्तर में रहा था ।

उस रोज़ के तुम्हारे गीले ओठों की महक आज तक मेरे ओठों पर चस्पां है....

और उस बार के जन्मदिन के लिए जब मैं सर्दी से ठिठुरती ट्रेन में, रात का सफ़र कर, तुम्हारे हॉस्टल के गेट पर पहुँचा था । तब कैसे बेचारों सी एक्टिंग कर के उस चौकीदार को पिघलाया था । मुझे याद है वो मेरा इक्कीसवाँ और तुम्हारा उन्नीसवाँ बरस था ।

तुम्हारा दिया उस रोज़ का गुलाब आज भी सिरहाने रखी डायरी में रोता है....

तुमने पिछली दफा पूँछा था ना कि सुकून कहाँ मिलता है ?....सेवंती के पत्तों पर बिखरी तुम्हारी खिलखिलाहट में, छज्जे पर से टपकते गाढ़े अँधेरे से चिपकी तुम्हारी बातों में, सर्दियों की गुनगुनी धूप में औंधे पड़े हुए अलसाई तुम्हारी आँखों में.... खाली पड़े कमरे में एकाएक ही छन्न से आवाज़ करती तुम्हारी स्मृति में, बेतरतीब खुली पड़ी डायरी के सफहों पर तुम्हारे नाम लिखी नज्मों में, ढलती हुई शामों और उदास जागती रातों में क़तरा-क़तरा ख़त्म होने में....

होती गैरत तो उस रोज़ ही ना मर जाता मैं....देहरी पर तेरी जब पेड़ सा खड़ा था मैं....लाश डोली में तेरी, कांधों पर लिए जाते थे ....अंजाम यही ठीक है मेरा....मौत हर रोज़ ही आती है....मगर नहीं आती

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* चित्र गूगल से

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मौत

>> 25 October 2010

मौत, मुझे तुझसे मोहब्बत हो गयी है । तू हर रोज़ ही, देहरी पर से ठिठक कर, वापस चली जाती है । मैं हर क्षण ही तुझसे, गले मिलने को तरसता हूँ । हर नया दिन यूँ ही बीत जाता है । और मेरी अपूर्णता मुझे आ घेरती है ।

क्या मेरी मोहब्बत में कुछ कमी है ?

हर सुबह एक आस जगती है, हर रात को घुट-घुट के मरती है । हर रोज़ ही नया सूरज बुझाता हूँ । और तू मुझे चाँद थमाती है । देखता हूँ कब तक बहलाएगी मुझे । कभी तो मेरी मोहब्बत रास आएगी तुझे ।

तू पहाड़ों से उतरकर, नदियों में बहती है और पगडंडियों से चलकर, मेरी देहरी पर खड़ी हो, मेरे अधूरेपन पर हँसती है । मगर एक बात स्मरण रहे । तू मुझ पर तरस खाकर नहीं, मेरी मोहब्बत में डूबकर, अपने आगोश में लेना मुझे । जैसे दो प्रेमी, सब कुछ भुलाकर, एक दूजे में डूब जाते हैं ।

कल ही ख्वाब में देखा था तुझे । तू अपनी गुलाबी बाहें फैलाए, मुझे पास बुला रही थी । मैं दौड़कर तेरे गले से लग गया था । तब तेरे लवो ने मेरे लवों को छुआ था । फिर अगले ही क्षण, मुझे अतृप्त छोड़कर, तू ओझल हो गयी ।

क्या मेरी मोहब्बत पर तुझे यकीन नहीं ?

तेरी वफ़ा पर मुझे कोई शक़ नहीं । लेकिन याद रखना में भी बेवफा नहीं । जब उस आखिरी के रोज़, हम एक दूसरे में डूब जायेंगे । तब अंतिम साँस पर मैं तुझसे कहूँगा-

"मौत, मैं तुझसे मोहब्बत करता हूँ ।"

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स्मृतियों के कैनवस पर से उड़ते रंग

>> 21 October 2010

bachpanबरस शायद उन्नीस सौ अठासी,

आँगन के एक ओर खड़े अशोक की पत्तियों में लुका छुपी करती हुई गिलहरी, आँख बचाकर माँ के हाथों धूप में फैली मक्का के दाने ले दौड़ती है और पुनः अशोक की हरियाली में विलीन हो जाती है । मैं किताब छोड़ उसके पीछे दौड़ता हूँ और उसे डराने का प्रयत्न करता हूँ । माँ स्वेटर के फन्दों से एक नज़र हटाकर मुस्कुरा देती है । मैं वापस लौट किताब थाम लेता हूँ ।

एक बूढा नीम अपनी आधी ममता हम पर उडेलता है और बाकी की उसके आँगन में । पिछले दफा होली के मौके पर उसकी एक सूखी टहनी को काटने से रोकने के लिए, उसके चचा जान ने कितना हंगामा काटा था । जिसकी भरपाई बाद के दिनों में उन्होंने अपने बरामदे की दीवार पर बेल को चढ़ा कर की थी । अब मालूम चलता है कि चचा जान अपनी भतीजी को लेकर कितने पजेसिव थे ।

वो क्वार्टर नंबर सी-पचहत्तर ग्यारह बरस पीछे छूट गया ।
और वो आधे बूढ़े नीम की दीवानी, न मालूम कहाँ....

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वो दूसरी में मेरे साथ था, फिर तीसरी में दोस्त बना और चौथी में जिगरी यार । इंटरवल में कहानी सुनाता था और उसके लंच बॉक्स के खट्टे आम के अचार का जायका बरसों ज़बान से नहीं उतरा । वो मेरी माँ के हाथों बनी खीर के चाहने वालों में से एक था ।

पाँचवी में ड्राइंग में अव्वल आता था और उन्हीं दिनों में मैडम ने भविष्यवाणी की थी "सुनील तुम एक रोज़ बहुत आगे जाओगे" ।

छटवीं के बाद वो दोस्त हाथों में टॉर्च लिए सिनेमा हॉल के अँधेरे में खो गया ।

वो बरस उनीस सौ तिरानवे था....

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वो पाँच में से तीन विषय में डिस्टिंक्शन लाया था और बाकी दो में चन्द कदम पीछे रह गया था । आईआईटी जिसकी चाहत थी और कुछ कर दिखाना जिसका ख्वाब । वो ख्वाब किताबों के खर्च और फीस का बंदोबस्त न हो पाने के भय तले दब कर शहीद हो गया । जब तब याद हो आता है अपना ही कोई ख्वाब था ।

वो बरस उन्नीस सौ निन्यानवे था....

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चार दीवारें थीं, दो अलमारियाँ, तीन तख़्त और हम पाँच । वो छोटा था जो लगते-लगते एकदम से बहुत बड़ा लगने लगा था । जहाँ शोर था, हँसी की गूँज थी, बेपरवाह पड़ी एक और किताबें थीं और मेरे संग की चार शक्लें ।

जिसमें सुबह की ठिठोली थी और देर रात तक की महफ़िल । वो बहुत अपना था । उसमें रहने वालीं, उस बरस की पाँच शक्लें, न जाने कहाँ-कहाँ, अलग-अलग, भागती-दौड़ती, मशीनों की तरह इस्तेमाल होतीं, बहुत कहीं आगे चली गयीं ।

वो कमरा नंबर एस-सोलह बहुत पीछे छूट गया ।

वो इक्कीसवीं सदी की छटवीं सालगिरह थी....

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वो मेरा सबसे प्यारा ख्वाब थी, जो एकाएक ही कहीं से आकर मेरी आँखों में बस गयी । उसकी बातें जैसे माँ की लोरी, उसका हँसना जैसे ठंडी हवा के झोंके का गालों को थपथपा जाना । और उसका करीब होना दुनियाभर की कामयाबी ।

वो लड़की किसी प्लेटफॉर्म पर छूट गयी ।

वो मेरे खाली हाथ रह जाने का बरस था....

सब कुछ पीछे छूट जाता है । रहती हैं तो स्मृतियाँ....जिसमें बीते वक़्त के पन्ने बहुत तेज़ फडफडाते हैं । जैसे स्वंय को मुक्त कर देना चाहते हों ।

कौन जाने, एक पवित्र स्मृति किसी रोज़ धुंधली होती हुई मिट जाए....

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एक भूली सी दास्तान

>> 20 October 2010

love-story











वे कनेरों पर आई पीली कलियों के दिन थे । कुछ दबे, उलझे अरमानों के दिन । जो सूरज के सुस्ताते ही चूल्हे से निकलने वाले धुएँ के साथ उड़ जाते और सुबह की ओस की बूँदों से चिपक कर मन को भिगो जाते । इस तरह एक और नया दिन बीत जाता । तब भविष्य था ही कहाँ ? केवल वर्तमान था, जो नदी की धारा सा बहता चला जाता था ।

उन्हीं दिनों में, जब खिली धूप में, टाट पर बैठ ओलम और गिनतियों का हिसाब-किताब रटाया जाता था । और उसके बार-बार दोहराने की ध्वनि दूर-दूर तक जाती थी । जब लकड़ी की पट्टी को काला कर, उस पर खड्डी से लिखे सफ़ेद अक्षर, धूप दिखाकर चमक उठते ।

किसी गुनगुनी दोपहर को, पगडण्डी पर से गुजरते हुए, उसने साथ के खेत में लक्ष्मी को गाय के चारे के बोझ में उलझा पाया था । तब उसके पास पहुँच, बोझ को उठा, उसके सिर पर रखते हुए कहा था "लच्छो, हम तुमसे कुछ कहना चाहते हैं" । तब लक्ष्मी ने बस इतना कहा था "हम सब जानते हैं कि क्या कहना चाहते हो" और चल दी थी । उसके बढ़ते हुए क़दमों के पीछे एक आवाज़ आई थी "अरे सुनो तो" । और उसे प्रत्युत्तर में "दद्दा आ रहे हैं" के शब्द मिले थे ।

तब उनके मध्य भूले भटके, अधिक से अधिक, चार-छह शब्दों का आदान प्रदान हो पाया करता था । वो बंदिशों का मौसम था और क़दमों की एक तय सीमा रेखा हुआ करती थी । जब-तब कहीं आँख उलझ गयी या कोई परछाई दिख गयी । या पीछे रह गए पगडंडियों पर क़दमों के निशान, जिन पर अपने कदम रख सुख की धारा तृप्त कर देती । जैसे कि एक के ओठों ने दूसरे के ओठों का स्पर्श कर लिया हो ।

तब उस भूली सी दास्तान में आखिरी के रोज़ केवल यह हुआ था कि, गीली आँखों के साथ अपने नए घर को विदा होने से पहले लक्ष्मी ने छुटकी के पास उसके लिए एक पत्र छोड़ा था । जिसमें उसने अपने स्कूल के दिनों में सीखे, टूटे-फूटे हर्फों में लिखा था "हँसते हुए अच्छे लगते हो । तुम्हें हमारी कसम, यूँ ही जिंदगी भर मुस्कुराते रहना ।"

न मालूम वो कसम कब तक जीवित रह पायी होगी....

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* चित्र गूगल से

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गुमनाम शख़्स

>> 14 October 2010

Hindi Storiesदिन डूबते ही लैम्पपोस्ट जाग जाता था । और अपने उजाले में, मुख्य सड़क पर से मुड़कर, उतरती हुई गली को रौशन कर देता था । वहीँ गली के ख़त्म होते ही, एक छोर पर वो रहा करता था । उदास चेहरों पर, अपनी बातों से, मुस्कान छेड़ देने वाला । बच्चों के झुण्ड में टॉफियाँ बाँट कर, बाद के दिनों में, उनका सांता क्लॉज बन जाने वाला । दूसरों की चिट्ठियों को पढ़ते हुए, उनकी उदासी में उदास और ख़ुशी में खिलखिला देने वाला । एक गुमनान शख़्स....

हर शाम ही खान बाबा, वहाँ कोई ग़ज़ल गुनगुनाया करते थे और वो अपनी हथेलियों से कोई धुन छेड़ा करता था । महफ़िल के ढलने के बाद, वो सारी वाहवाही खान बाबा के खाते में डाल दिया करता था । हर रोज़, टोकते हुए, गफूर मियाँ से बीड़ी शेयर करता था । और मुरली काका की खैनी, बड़े शौक से खाता था ।

लम्बी साहित्यिक बहसों में, एकाएक ही, उसके किसी रूमानी तर्क पर, त्रिपाठी जी और अख्तर मियाँ, वाह-वाह की तान छेड़ देते थे । और जब चाँद सुस्ताने लगता तो, जबरन उन्हें घर तक विदा करके आता था । उनके घर की औरतों को उससे, सौत सा, रश्क हुआ करता था । और उनके मर्द अगले रोज़ फिर, कृष्ण की बाँसुरी से मोह में, खिंचे चले आते थे ।

ना जाने किसने नाम दिया था उसे 'शिकोहाबादी' । पूँछने पर, अक्सर ही, हँस कर टाल जाया करता था । उसमें छिपे धर्म और मजहब के सवालात । कोई कहता मियाँ 'शिकोहाबादी', तो कोई ज़नाब कह कर पुकारता उसे । कभी कोई यार 'शिकोहाबादी', तो कभी कोई 'भाई जान', कहकर काम चला लेता था । कुछ भी हो, हर एक के दर्द की दवा था ।

फिर एक रोज़ दंगे छिड़ गए और शहर की हर गली, हर मोड़ का उसके तले दम घुटने लगा । उन दिनों उस गली में वो कई दफा सुलह की ठंडी हवा बना । कई चिंगारियाँ उसके तले दबकर शांत हुईं । फिर मौसम के मिजाज़ बिगड़े और बिगड़ते चले गए । लोग अपने ही घरों में बीमार हुए बैठे थे । उस तपिश में कई झुलसे और कई धुएँ में परिवर्तित हो गए ।

वो पहले भी गुमनाम था । वो आज भी गुमनाम है । ना तो चिता की लकड़ी मिली, ना ही कब्र नसीब हुई उसे । वो जला और राख भी हुआ । बेनाम था शायद, बेमौत मारा गया । नहीं तो गिना जाता, किसी हिस्से में । जिसे चिंगारी बनाते वो । और फिर से लगती आग कहीं । फिर कहीं कोई और भी मरता....

न जाने, फैसले के बाद, कौन सा हिस्सा मिला होगा उसे....

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* चित्र गूगल से

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जिंदा रहने का सबब

>> 07 October 2010

कॉलेज के दिनों की मेरे पास कोई भी स्मृति शेष नहीं । जिसे किसी तनहा रात के लिये मैंने सहेज कर रखा हो । वो तीन बरस मैंने सिनेमा की दुनिया में बिता दिये । यदि होते भी तो क्या होता ? किसी हसीना के, अल्हड़पन के दिनों में लिखे ख़त या बिछुड़े हुए चन्द दोस्तों की जमा यादें । मगर अफ़सोस ये कि इसका कोई मलाल नहीं ।

अपने दोनों कॉलेज के दिन मुझे बेमतलब नज़र आते हैं । उस दौरान ना तो मोहब्बत की, ना किसी जहीन इंसान को दोस्त पाया । कम-स-कम किसी सुलगती रात में उलझे हुए, मोहब्बत के पुराने किस्सों को याद कर, उस जहीन से गुफ्तगू कर लेता । यूँ कि ऐसा हुआ नहीं, सो उन दिनों की स्मृतियों पर धूल चढ़ती चली जा रही है । और एक रोज़, बस सर्टीफिकेट पर गुदे रह जायेंगे वो दिन ।

कॉलेज के उस पार से लेकर इस पार तक, कई बरस लम्बा फासला है । मगर इतना लम्बा नहीं कि एक जाम जितना भी नशा दे पाए । बीते उन दिनों को उलटने-पलटने पर बामुश्किल चन्द शक्लें बाहर निकलेगीं। जो एक दूजे के अश्लील मज़ाक पर खिलखिला उठेंगी । और किसी जरुरी बात के आने पर लुप्त भाषा में तब्दील हो जायेंगी । वो लुप्तता एक क़सक छोड़ जाती है । बिल्कुल बारीक, बहुत तेज़ चुभती, धँसती हुई ।

मेरी एक दोस्त अक्सर मुझसे पूँछा करती थी....कि तुम्हें तनहा, उनीदीं रातें इतनी पसंद क्यों हैं ? मैंने कभी उसे जवाब नहीं दिया । यदि देता तो जरुर कहता....क्योंकि वे मुझे जिंदा रखती हैं । जानता हूँ, इसे सुनकर वो सहज नहीं रह पाती । शायद इसीलिए हमारी मुलाकातों के आखिरी दिनों में उसने मुझे जिंदादिल कहा था । ना जाने इन भविष्य के दिनों में कहाँ होगी ? सोचता हूँ, क्या अब तलक भी उसे वो सवाल याद होगा ? फिर से किसी उलझी रात में, खुद की जिंदादिली को उतार फैंकूँगा ।

सिगरेट का स्वाद चखते मेरे कुँवारे होंठ, ऐसी रातों में कसैले हो उठते हैं । गोया कि हिदायत दी हो....मियाँ अब बस भी करो । मेरी और उनकी, कभी ऐसी रातों में बनी नहीं । जिस रात को भी पसंद किया, बस डेरा डाल लिया । और फिर ऐसी रातों में खूब-खूब जीता हूँ । ये मेरे जिंदा रहने का सबब हैं....

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ड्योढ़ी पर खड़ी शाम

>> 06 October 2010

railway-stationउस रोज़ जब ट्रेन प्लेटफोर्म पर आने को थी और तुम्हारी पलकें गीली होने को, तब मैं उसके छूट जाने की दुआ कर रहा था । तुम्हारे हाथों को थामे, ठहर जाने को मन कर रहा था । मगर अब ये मुमकिन नहीं कि तुम्हें मालूम हो कि उस रोज़ मैं वहीं छूट गया था । उसी बैंच पर, तुम्हारे आँसुओं में भीगा, अंतिम स्पर्श से गर्माता । और हर बार ही उस प्लेटफोर्म पर से गुजरते हुए, मैंने उसको वहीं पाया है । यूँ कि तुम आओगी और कहोगी 'अरे तुम अभी यहीं हो' ।

कई दफा खुद को टटोलता हूँ और जिस्म के लिहाफ़ को झाड कर फिर से जीने के काबिल बना लेता हूँ । मुई रूह के बगैर कब तलक कोई जिए जाएगा । सुनो, कभी जो गुजरों उधर से तो एक दफा उसको अलविदा कह देना । जैसे रूठे बच्चे को मनाता है कोई । शायद आखिरी की ट्रेन से मुझे आकर मिले कभी ।

कई बरस बीते हैं, साथ जिए बगैर । कुछ तो मैं भी जीने का सलीका सीखूँ । चन्द ज़ाम से गुजर सकती हैं रातें, मगर बीते बरस नहीं गुजरते । हर शाम ही तो आकर खड़े होते हैं ड्योढ़ी पर । हर सुबह ही तो छोड़ जाते हैं तनहा । हर दफा पी जाता हूँ वो पीले पन्ने, जिन पर लिखी थीं तुम्हारे नाम की नज्में ।

दोस्त नहीं देते अब तुम्हारे नाम की कस्में । हर रोज़ ही भूल जाते हैं और भी ज्यादा, कि कभी तुम भी थीं उनका हिस्सा । अब नहीं करते फरमाइश, उस किसी बीते दिन की । चुप ही आकर सुना जाते हैं, जाम में उलझा कर कई किस्से । यूँ कि सुनाया करते हों किसी महफ़िल में मुझे लतीफे की तरह ।

जानता हूँ हक़ यादों की पोटली में मृत होगा कहीं । और मैं उसमें जान फूँकने की बेवजह कोशिश नहीं करूँगा । मगर फिर भी प्लेटफोर्म की उस बैंच पर से गुजरते हुए, कभी तुम सुनना उसको । जो हर दफा कहता है मुझसे 'काश उसने मेरा हाथ थामा होता....'

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दिल का सुकून

>> 01 October 2010

बीते हुए दिनों के अँधेरे जंगल से निकल, उजले वर्तमान का सुख सुकून नहीं देता । वो बंद पुराने बक्से में पड़ी जर्ज़र डायरी के सफहों में सुरक्षित अवश्य होगा । उसे छुआ जा सकता है किन्तु पाया नहीं जा सकता । वक़्त-बेवक्त सूखी स्याही को आँसुओं से गीला करना दिल को तसल्ली देना भर है । इससे ज्यादा और कुछ नहीं ।

तुम भी दो सौ गज की छत पर कपड़ों को सुखाकर, कौन सा सुकून हासिल कर लेती होगी । रात के अँधेरे में, बिस्तर की सलवटों के मध्य, थकी साँसों के अंत में क्षणिक सुख मिल सकता है । सुकून फिर भी कहीं नहीं दिखता । और फिर ये जान लेना कि मन को लम्बे समय तक बहलाया नहीं जा सकता । बीते वक़्त के सुखद लम्हों में तड़प की मात्रा ही बढ़ाता है । जानता हूँ उस पछताने से हासिल कुछ भी नहीं ।

वैज्ञानिक दावों को मानते हुए कि इंसान के जिंदा रहने के लिये साँसों को थकाना अति आवश्यक है की तर्ज़ पर भविष्य के साथी को भोगने से भी संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता । और फिर उसकी उम्मीदों पर खरा उतरते उतरते स्वंय के होने को बचाए रखना भी कम कलाकारी नहीं होगी । ये बात अलग है कि उस कला के लिये पुरस्कार वितरित नहीं होते । अन्यथा उस खेल के एक से एक बड़े खिलाड़ी संसार में मौजूद हैं । मैं तो कहीं ठहरता भी नहीं ।

एटीएम और क्रेडिट कार्ड पर खड़े समाज में ठहाकों के मध्य कभी तो तुम्हारा दिल रोने को करता होगा । दिखावे के उस संसार में क्या तुम्हारा दम नहीं घुटता होगा । चमकती सड़कों, रंगीन शामों और कीमती कपड़ों के मध्य कभी तो तुम्हें अपना गाँव याद आता होगा । कभी तो दिल करता होगा कच्चे आम के बाग़ में, एक अलसाई दोपहर बिताने के लिए । कभी तो स्मृतियों में एक चेहरा आकर बैचेन करता होगा ।

फिर भी अगर तुम्हें कहीं सुकून बहता दिखे, तो एक कतरा मेरे लिए भी सुरक्षित रखना । शायद कभी किसी मोड़ पर हमारी मुलाकात हो जाए । वैसे भी, अभी भी कुछ उधार बनता है तुम पर ।


* (मेरे इस लेख का सही स्थान यही है । ऐसा किसी ने कहा है । अतः यहाँ पुनः प्रकाशित किया गया)

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उसका अपराध आत्महत्या थी ।

>> 25 September 2010

प्रथम बीयर के अंतिम घूँट के साथ ही उसकी आँखें बहकने लग गयीं । अभी चार की गिनती शेष थी । हम सन् 2002 की बीती सर्दियों की शाम को याद करके पीने में ख़ुशी महसूस कर रहे थे । उसके पास उन सर्दियों को याद करके ख़ुशी मनाने का अच्छा बहाना रहता था । और फिर बिना ख़ुशी, बिना गम के पीने में अपराधबोध होने लगता था । उसका यूँ एकाएक उन्हें याद करना मुझे भी अच्छा लगने लगा था । हालाँकि उन बरसात के बाद के दिनों को याद करना दुःख की बात थी किन्तु धीमे-धीमे वह सुख देने लगीं थीं ।

हर एक बीयर और सिगरेट के कशों के साथ उसका उन प्रेमपत्रों को पढने का रिवाज़ था जो कि बीते हुए समय के प्रथम और अंतिम तौहफे थे । हर बार की तरह मुझे याद हो आता कि पिछली दफा किस प्रेम पत्र को पढ़ते हुए उसने कौन सी कहानी सुनाई थी या किस बात पर वो हँस दिया था और किस बात को याद करते हुए उसकी आँखें छलक आयीं थीं । उसकी इन सभी आदतों को प्रारम्भ के दिनों में मैंने बदलने की यथासंभव कोशिश की थीं । जो बाद के दिनों में धीमे-धीमे ख़त्म हो गयी थीं ।

उसे उस लड़की से प्रेम था और शायद उस लड़की को भी । इस बात का मैं यकीनी तौर पर गवाह नहीं बन सकता किन्तु हाँ उनका प्रेम उन बीते दिनों की रातों में एक दूजे को थपकियाँ देकर अवश्य सुलाता था । ऐसा उसने पिछली से पिछली सर्दियों में तीसरी बीयर के पाँचवें घूँट पर कहा था । मुझे उनके इस तरह से सोने की आदत पर हँसी आयी थी । जिसे मैंने बीयर के घूँट तले दबा लिया था ।

मुफ्त की बीयर पीने का मैं शौक नहीं रखता, ऐसा मैंने शुरू के दिनों में उससे कहा था । हमारी दोस्ती तब कच्ची थी, जिसे उसने अपने प्रेम पत्रों के पढ़ते रहने के बीच पक्का कर दिया था । मेरा काम केवल उसकी यादों का साक्षी भर होना नहीं था बल्कि उसमें अपनी राय को शामिल करना भी था । ऐसे कि जैसे मेरे उन गलत-सही विश्लेषणों से उसके प्रेम के वे मधुर-मिलन के दिन फिर से नई कोपिलें फोड़ देंगे । यह ठीक रिक्त स्थान को अपनी उपस्थित से भरने जैसा था ।

यह तीसरी बीयर थी जब उसने मुझे बताया कि इस बार की सर्दियों के अंतिम दिनों में वह ऑस्ट्रेलिया जा रहा है । उसके ऑस्ट्रेलिया जाने के कहने के बाद से ही मुझे उसके वे मरे हुए दिन याद हो आये जिनमें वो किसी और से शादी करके वहाँ बस गयी थी । अब ऑस्ट्रेलिया शब्द का अर्थ मुझे उसके वे मृत दिन लग रहे थे । जो वहाँ खुशहाली से चारों ओर पसरे होंगे । इसका वहाँ जाना जैसे बारिश कर देना था ।

हम अब पूर्णतः बीयर की गिरफ्त में थे । उसका ये कहना कि वो वहाँ जाकर उसे तलाश कर उसके तौहफे दे देगा । उसका मुझे आसमान से जमीन पर बेरहमी से पटक देना था । वो एक कस्बा नहीं था, ना ही कोई अजमेर जैसा शहर, जोकि हर गुजरता आदमी बता दे कि मन्नत कहाँ जाकर माँगनी है । वो एक देश था, अपने में सम्पूर्ण और अंजान । उसका वहाँ जाना, उसका खो जाना था । उसके बीयर के दिनों को भूल जाना था, जो कि बहुत भयानक था । उसने बीते दिनों में जीना सीख लिया था किन्तु अब वह खुद के लिये पुरानी वजह तलाशेगा । यह ख़ुशी से आत्महत्या करने जैसा था ।

कहते हैं आत्महत्या करना कानूनन अपराध है ......


* चित्र गूगल से

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होने और ना हो पाने के मध्य में

चौदह बरस की उम्र में यदि आप एकांत प्रिय हैं और दुनिया के गलत को सोचते रहते, कुछ का होना और ना होना खोजते रहते हैं । अर्थ ना निकालने पर भी यही निकलता है कि आप अपनी उम्र से पहले समझदार हो जाने का खतरा मोल ले चुके हैं । समझदार होना और बड़ा होना दो अलग बातें हैं । मुझे बातें बनाना पसंद नहीं । सोचना और उनसे उलझना पसंद है ।

आपके होने के माने तभी हैं जब आप दुनिया क्या और कैसे सोचती है की धुन पर नाचना सीख जाएँ । नाचना नहीं आता तो बजाना और नहीं तो राग अलापना अति आवश्यक है । बहस का मुद्दा शुरू से अंत तक वही रहता है । सीधी तो कुत्ते की पूँछ ही होती है ।

लड़कियों के चाहने, पाने, खोने और अंततः पच्चीस की उमर में दिलचस्पी ना रहने के कई खतरनाक पहलू हैं । आप पुनः चौदह की उम्र में पहुँच कर एकांत को नहीं पा सकते । सत्ताईस का अवसाद ही खुशनुमा बन सकता है । फिर इसे क्या कहेंगे जबकि आप पहली और अंतिम नज़र के दिलचस्प आदमी हैं । ढेरों दिलचस्प निगाहें आपकी चाह रखती हैं किन्तु आप हैं कि ऊब को पास नहीं आने देना चाहते ।

क्या होता होगा ऐसे इंसान का जो ना तो बड़ी खुशियों की चाह रखता और ना भद्र पुरुष होकर नई पीढ़ी उत्पन्न कर, उन्हें पुचकारने की ख़ुशी के लिये लालायित है । बावजूद इसके कि उसकी भी शारीरिक कमजोरियाँ हैं । शरीर से लड़ा जा सकता है किन्तु मन को हराना कैसे संभव होता होगा ? मन शरीर का हिस्सा नहीं होता शायद ? यदि होता तो शरीर और मन की चाहतें एक ना होती ? जो वासना के अँधेरे जंगल में मिलकर डुबकी लगाती रहती ।

कौन होते होंगे जो सालों साल अवसाद और रिक्त स्पेस के साथ जीते रहे होंगे । सत्तर की उम्र पर आकर चहचहाते हुए स्वंय के मर जाने की आत्मकथा लिख दें । होने और ना हो पाने के मध्य में, ना जी पाने की आत्मकथा लिखना कितना तो मुश्किल रहता होगा । सोचना है कि उस पहुँचने वाले समय में आत्मकथा शब्द अपने वजूद में ही रहेगा क्या ? रहा तो आत्मकथा लिखकर में अमर होना पसंद करूँगा ....

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एक फोटो हमारा भी 'कि ये इंडिया है'

>> 23 September 2010

देखो जी खेतों से बीन-बीन कर इन लौंडों-लप्पाडों को एकत्रित करना और उन्हें शिक्षा देना, नेक काम भले हो लेकिन आप क्या समझते हैं बहुत आसान है ? हाँ अब आप तो कहेंगे कि कैसे तो सरकार हमारी, अपना पेट चीर कर पैसा देती है, उस पर से नवाबी ठाट तो देखो । खाना मुहैया कराओ, नहीं तो कोनों धंधा पकड़ लेंगे, अजी हम कहते हैं निरी मूर्खता है, कोरी भावुकता, बहस के लिये कुछ तो हो । और हमसे कहते हैं कि दाना-पानी चुराया है, अजी हमको क्या ? हम कोई रईशजादे हैं ? अरे हमको अपना पेट नहीं भरना क्या ? अरे उनका क्या है ? मुँह खोला और थूक दी योजना । अरे हम तो कहते हैं, कोई योजना कैसे कामयाब होगी ? कभी सोचा है ? किसको सोचना है ? काहे सोचना है ?

अरे भले मानुष जिनको पीछे खाट पर छोड़ कर आते हैं, उनका पेट कौन भरेगा ? फिर कहते हैं बाल मजदूरी अभिशाप है । हो शाप-अभिशाप । क्या हमको नहीं पता ? अजी क्या तुमको नहीं पता ? सबको पता है । और जो नहीं पता तो आओ सामने । आँकड़े बाज़ी से क्या होता है ? नौ-नौ कोस पैदल चलकर, पाँव में छाले पड़कर, ये गिनो कि कितने भले आदमी रहते हैं इस जंगल में । क्या होगा गिनकर ? अरे जब उनको दुनिया देख नहीं रही, भाल नहीं रही । खामखाँ भावनाओं का जाल क्यों ? और फिर किसी को दिखाना है तो झोपड़ी में सोकर, रुखा खाकर, ठंडा पानी पीकर, योग्यता दिखानी क्या ? वहाँ तन उघारे रह, दो रुपिया किलो चावल खा, माढ पी, खुश रहकर दिखाओ ।

और हम से कहना कि चोरी करते हो, बच्चों का पेट मारते हो । गोढ़ दुखाकर, सर उघारे, चुन-चुन कर इकठ्ठा कर उनका पेट भर देने के बाद जो बचे तो ना खावें तो कहाँ ले जावें । सडा दें ये कहकर कि भले सड़ जाए मुफ्त खोरों के लिये नहीं है । इण्डिया तरक्की पर है । यह सब शोभा नहीं देता । अरे करो तो बड़ा काम करो । नाम हो देश का । दुनिया जाने कि खेल कैसा रचा जाता है ? तब न कहेंगे ....एक फोटो हमारा भी 'कि ये इंडिया है'

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बसंत के वे दिन

>> 17 September 2010

वे बसंत से पूर्व के दिन थे । उन्हीं में से एक निखरा, उजला, गुनगुनी धूप का दिन याद हो आया । कई वृक्षों के मध्य खड़ा नीम लजा रहा था जैसे बड़ों के मध्य वस्त्रहीन बच्चे को कह दिया गया हो 'छी नंगे बच्चे'। एक गिलहरी अशोक की पत्तियों में लुका-छुपी में मग्न थी । आसमान में पतंगे लहराती, बलखाती नृत्य कर रही थीं । दूर छतों पर से डोर नाज़ुक हाथों में दिखाई पड़ जाती थी । बच्चे बारी-बारी से पतंग को मन-माफिक सैर करा रहे थे । उन छतों के परे अन्य छतों पर औरतें अभी भी स्वेटर के फंदों में उलझी हुई हँसी-ठिठोली कर रही थीं ।

मैं छत पर लेटा हूँ, नीले आकाश को ताकते हुए बार-बार मेरी आँखें मुंद जाती हैं । निद्रा जैसा कुछ महसूस नहीं होता, सुस्ता लेने के बाद उठ बैठता हूँ । किताब औंधे पड़ी है, उठा लेता हूँ । मन में ख्याल हो आया 'चलो अगला अध्याय पढ़ा जाये' । कुछ पढ़ा और फिर कोई अनचाहा ख्याल आ पहुँचा । दाँतों को कुरेदने लगता हूँ । मन नहीं भरा, नाखून चबा रहा हूँ । गिलहरी मुंडेर पर आकर कुछ चुंग रही है । मुझ से नज़र मिलने पर दौड़ गयी । पुनः अशोक की पत्तियों में लुप्त हो गयी ।

सहसा एक पत्ता झर कर किताब पर आ गिरा । निगाहें वृक्षों की ओर जा पहुँचीं । वापस किताब पर लौटते हुए निगाहें दस फलाँग दूर की छत पर उलझ जाती हैं । वो दाँतों को कुरेद रही है, फिर नाखून चबाने लगी । मैं प्रतिउत्तर में अपने नाखूनों को दाँतों के मध्य से स्वतंत्र करता हूँ । वो यह देख खिलखिला कर हँस देती है । मैं झेंप जाता हूँ । निगाहों को किताबों में छुपा लेता हूँ । मन चंचल हो उठता है । पुनः छत को निहारता हूँ । वो पुनः खिलखिला दी । बच्चों सी उज्जवल, मासूम हँसी । प्रथम और अंतिम निर्णय में यही निष्कर्ष निकलता है ।

मैं किताब उठाकर टहलने लगता हूँ । वो भी टहलने लगती है । उसे देखता हूँ, ओह हो अजीब आफत है । जो चाहे करे, मेरी बला से । फिर से उसे देखता हूँ, वो मुस्कुरा देती है । हवा चल दी है और उसमें उसके लम्बे बाल लहराने लगते हैं । उसने उन्हें खुला छोड़ रखा है । स्वतंत्र, बेफिक्र हो वे इधर से उधर उड़ सकते हैं । उसके गालों को छू सकते हैं । वो उन्हें हटा कर कानों के पीछे धकेल देती है । अबकी मैं मुस्कुरा देता हूँ । प्रतिउत्तर में वह लजा जाती है ।

आज आसमान में रंग ज्यादा खिल रहे हैं । हरे, लाल, पीले, नीले, गुलाबी रंगों की पतंगे ज्यादा हो गयी हैं । उत्साहित बच्चे दूर-दूर तक पेंच लड़ाने के लिये जाते हैं । जीत जाने पर, खिलखिला कर कह उठते हैं 'वो काटा' । नीम पर भी हरा रंग चढ़ने लगा है । किताबों में जी कम लग रहा है । निगाहें उसे खोज रही हैं । वो दिख गयी है । इशारे से उसे स्वंय का नाराज़ होना जताता हूँ । वो मुस्कुरा कर माफ़ी नामा भेज रही है । मैं निगाहें हटा कर किताब पर जमा लेता हूँ । केवल दो मिनट ही हुए हैं, दिल करता है उसे निहारूं, किन्तु ऐसा नहीं करता ।

छत पर कुछ गिरने की आवाज़ आयी है । निगाहें इधर-उधर कुछ तलाश करने लगती हैं । कोरे कागज़ के मध्य कुछ है । पत्थर निकाल कर बाहर करता हूँ । उसने लिख भेजा है 'अच्छा अब माफ़ भी कर दो ना' । साथ में एक स्माइल भी । मैं उसको देखता हूँ । वो मुस्कुरा रही है । मैं भी मुस्कुरा उठता हूँ ।

ये उसका पहला प्रेम पत्र था.....

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रचनात्मकता का विकास

>> 05 September 2010

आकर्षण से प्रारंभ हो उसके गूढ़ रहस्यों के इर्द-गिर्द घूमती हुई रचनात्मकता प्रतीत होती है किन्तु वह केवल आभासी है । आकर्षण के आभासी स्तर, जो कि आगे चलकर प्रेम जैसे शब्दों का निर्माता बन स्वंय को दोहराता है । यहाँ शब्दजाल द्वारा आकर्षण को उकेरता, श्रृंगार रस में लिप्त नायक उर्फ़ कवि वर्षों तक बाहर नहीं आ पाता । कई-कई वर्षों तक वह रचता रहता है उस आकर्षण को, उस दुनिया से अलग स्वंय के बनाये गये रिश्ते को । इसे प्रेम गीत, प्रेम रचनाएँ या प्रेम कवितायें कहना गलत ना होगा । यह एक ऐसा मोह है जिसे वह कई नाम देता है । प्रेम, भावनाएं, समर्पण, इच्छा, सुख-दुःख, बेचैनी, विरह, आदि । एक दिन इन सभी ज्ञानवर्धक शब्दों से होता हुआ वह स्वंय को त्याज्य महसूस करता है । यहाँ से प्रारम्भ होता है कई वर्षों से घेरे हुए प्रेम का वाष्पित होना । उस सुखद बेला में रचनात्मकता जो कि आभासी ही सही अपने अगले मुकाम को हासिल करती है । यहाँ नायक/नायिका जो कि पहले स्त्रीत्व/पुरुषत्व के गूढ़ रहस्यों में डूबा हुआ था/थी और प्रेम जिसका ज्ञान था, विज्ञान था, अब स्वंय को परिभाषित करने में जुट जाता है । इस स्तर पर वह कई रचनाएँ रचता है । कई-कई वर्षों तक तमाम नायक-नायिका स्वंय को इन दोनों समूहों से अलग नहीं कर पाते । दोनों ही स्तर पर विपरीतलिंगी मोह से पनपी रचनाओं का उत्थान-पतन होता है ।

असल में रचनात्मकता का जन्म इस पायदान से बाहर निकलकर होता है । जहाँ एकांत और रीतेपन को जी रहे तमाम नायक उर्फ़ (कवि/लेखक) में रचनात्मकता जन्म लेती है । युवावस्था के इस पायदान पर पहुंचा नायक स्वंय की खोज में लग जाता है । उसे पहले के सभी अपने रचे आकर्षण में लिप्त दस्तावेज व्यर्थ प्रतीत होने लगते हैं । उसे लगता है दुनिया में कितना कुछ है । भावनाओं का एक ऐसा स्तर भी है जो आकर्षण के बाहर जाकर विस्तार लेता है । जब रचनात्मकता ऐसे किसी स्तर से बाहर निकलना प्रारंभ करती है तब एक कवि, लेखक, कहानीकार का जन्म होता है । विकासशील और विकसित में जितना अंतर है । उतना ही अंतर जन्म लेने और स्थापित होने में है ।

रचनात्मकता अपने जन्म के साथ ही विकासशील पथ पर अग्रसर होती है । हर नई रचना, हर नये दिन, हर नई विषय वस्तु के साथ इसका विकास होता है । आत्म चिंतन, आत्म विवेचन से उपजती हुई वह आगे बढती है । यहाँ हर नये कदम के साथ रचनाकार स्वंय को रचना रचने के गूढ़ रहस्यों में पाता है । रहस्य जो कि कई बार कहे जाने, लिखे जाने के बावजूद नया रूप धारण कर लेता है । यहाँ रचनाकार छटपटाता है और स्वंय के लिये एक पथ की तलाश करता है । जिससे कि वह नई रचना दे सके । नई रचना के साथ वह आभासी से निकल वास्तविक स्तर को स्पर्श करता है ।

रचनात्मकता तमाम सुख, दुःख, पीड़ा, भय अपने जन्म के साथ लेकर आती है । जो रीतेपन से प्रारंभ हो भरने, छलकने और वाष्पित होने तक भी पहुँच सकती है । कई बार रचनाकार इन स्तरों से स्वंय को गुजरता हुआ पाता है । रचना के जन्म लेने से विकसित होने तक रचनाकार ना केवल उसे जीता है बल्कि मरता भी है । यही एक रचनाकार का अध्यात्मिक विकास है । दूसरे शब्दों में कहें तो रचनात्मकता का विकास है ।

रचनाकार का विकास न कभी समाप्त होता और ना पूर्ण । यहाँ उदय तो हुआ जा सकता है किन्तु अस्त नहीं । रचनात्मकता के दो ही चरण है एक उसका जन्म और दूसरा उसका विकास ।


* चित्र गूगल से

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दूसरी औरत

>> 31 August 2010

बाहर बीती रातों का अधूरा चाँद गोल हो आया था । भीतर सूना एकांत फैलता जा रहा था । जो हर नये दिन बढ़ता ही जाता था । रेंगते अकेलेपन को छिटकते हुए छुटके बोला
-"नींद आने से पहले भी कितना सोचना होता है न !"
-"हाँ शायद" पास ही लेटी मनु ने कहा ।
-"लेकिन इंसान इतना सोचता क्यों है ?" छुटके ने पूँछना चाहा ।
-"शायद उसका सोचना ही उसे बड़ा बनाता है । एक समय में उम्र और समझ में बहुत बड़ा फासला आ जाता है ।" मनु खुद में ही खोयी हुई बोली ।
-मतलब !
"सो जाओ छोटे रात बहुत हो चुकी है ।" मनु ने करवट बदलते हुए कहा ।

कभी-कभी छोटे सोचता कि मनु की अपनी एक दुनिया है । विशाल और अदृश्य । वो बस उसकी देहरी तक जा सकता है लेकिन भीतर नहीं । वह उतना ही देख सकता है जितना कि मनु चाहे ।

अगली शाम का अनालोकित होता आलोक ऐसा लग रहा है जैसे बीता हुआ दिन हथेलियों से फिसलकर बहने लगा है । हर रोज़ की तरह वे तीनों समुद्र के किनारे बैठे हैं । छुटके और मनु पास-पास, उनसे दूर कहीं माँ । छुटके मनु की दुनिया की देहरी पर खड़ा हो कहता है
-तुमने देखा है, माँ के भीतर एक रीतापन जन्म ले रहा है ।
-हाँ शायद, बहुत पहले से ।
-"कब से ?" छोटे फिर से बड़ा होने की कोशिश करता है ।

तुम उम्र में बहुत छोटे थे, तब । अब तो छह बरस होने को आये । उस आदमी के चले जाने के २-३ बरस बाद । जिसे माँ अपना पति कहा करती थी । उन दिनों मैंने पहली बार उनके अकेलेपन को देखा था । जब उनके अन्दर सबकुछ ख़त्म हो गया था । क्रोध, मोह, भय और प्रेम । यह बहुत भयावह था । अकेलापन जो भीतर पनपता है और जिसे बाहर कोई नहीं देख सकता । इंसान के होने और ना होने के मध्य पसरा हुआ । मृत्यु के बाद के अकेलेपन से भी भयावह होता है यह । क्योंकि मृत्यु के बाद स्मृतियों से प्रेम और मोह जुड़ा रहता है ।

छोटे तुम्हें याद नहीं लेकिन उस दिन तुम बहुत रो रहे थे । मैं चलती ट्रेन के पीछे-पीछे बहुत दूर तक दौड़ी थी । मेरी आवाजें रेल की पटरियों तले दब गयी थीं । वो चले गये थे । माँ ने उन्हें नहीं रोका था । उसके बाद से माँ ने समय को कभी दिन, महीने और बरस में नहीं बाँटा । उनके लिये तो वह बस समय था । सूना एकांत में पसरा हुआ ।

एक दिन आया जब वो रीती हो गयीं । शाम के बुझते आलोक में फैले हुए एकांत के रीतेपन की तरह रीती । सर्दियों के चले जाने के बाद पहाड़ों की तरह रीती । तबसे वे हर नये दिन इसमें कैद होती जा रही हैं ।

"तुम्हें याद है, वो कहाँ चले गये ?" छुटके ने जैसे कोई भेद जानना चाहा हो । पता नहीं लेकिन उन दिनों घर पर आने वाले लोग कहते थे कि "उन्होंने दूसरी औरत कर ली है ।" तब उन दो शब्दों ने छोटे को एक पल में ही बड़ा कर दिया था । छोटे मन ही मन दोहराता है "दूसरी औरत" ।


* चित्र गूगल से

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अपरिभाषित ?

>> 03 August 2010

सूरज चाँद को लील जाना चाहता है और चाँद उसे अपने आगोश में ले जाना चाहता है । इस रस्साकशी में एक अभागा दिन, हाँ अभागा दिन । फिर से मैं जोर से मन में बुदबुदाता हूँ एक अभागा दिन । छत को ताकता हुआ फिर मैं सोचता हूँ, कि मैं ये क्या सोच रहा हूँ ? दिन, अभागा, सूरज और चाँद । उफ़ बहुत हुआ । साथ में लेटे दोस्त को करवट लेते महसूस करता हूँ । नहीं, यह सिर्फ महसूस भर होना नहीं है, उसका करवट लेना ही है । जैसे सूरज का डूबना और चाँद का निकलना रस्साकशी नहीं बल्कि उनका डूबना और निकलना ही है ।

चीज़ें जैसी हैं, मैं उन्हें वैसे ही क्यों नहीं देखता । मैं उनके नये अर्थ क्यों तलाशता हूँ । ऐसा उसने इन्हीं गर्मियों की किसी एक रात को कहा था । शायद कहकर पूँछना चाहा हो । लेकिन वह भी कहकर पूँछना भर नहीं था । असल में वह एक सवाल था । जिसका जवाब देना और ना देना अब मेरे हाथ में था । ठीक उसके पूँछने की तरह ।

मैं सोचता हूँ क्या मैं उसे यहाँ ठीक कहानियों की तरह प्रवेश दूँ । लेकिन यह सिर्फ मेरा बताना भर होगा और आपका जानना भर । असल में उसकी छवि तो आपके मस्तिष्क में स्वंय बनेगी । मैं सोचता हूँ कि कहानियों को सीमाओं में बाँधकर नहीं रखा जा सकता । ना ही उसके अपने कोई पैमाने हैं ।

उसी रात जैसी किसी एक रात को मैंने उससे कहा था "जानते हो इंसान हारता क्यों है ? क्योंकि जब उसे यह कहकर दौड़ाया जाता है कि उसे जीतना ही है और जब उसके साथ ये डर जुड़ जाता है कि अगर वह जीत ना सका तो क्या होगा ? और वह तब तक हारता रहता है जब तक वह डर उससे चिपका रहता है । वह कभी जीतने और हारने के लिये दौड़ता ही नहीं । वह दौड़ता है तो उस डर से डरकर ।"


ठीक उसी तरह जैसे मैं सोचता हूँ कि मैं सिर्फ प्रेम कवितायें या प्रेम कहानियाँ लिखने के लिये पैदा नहीं हुआ । यह डर मेरे साथ हरदम रहता है । स्याह गाढ़ा होकर मेरी नसों में खून के साथ बहने लगता है । प्रेम जैसे शब्द से अपरिभाषित रहते हुए भी मैं आने वाले कई वर्षों तक केवल और केवल प्रेम कहानियाँ या प्रेम कवितायें नहीं लिखते रहना चाहता । यह एक डर है और इस डर के साथ मैं जीत नहीं सकता । तो क्या मैं हार गया हूँ ? नहीं मैं हारा नहीं अपितु मुझे मेरे डर का ज्ञान होने पर एक रास्ता मिला है । उस डर को अपने से अलग कर देना ही जीत है ।

तब उसके बोलने में दुनियादारी आ गयी थी । बिना कहे, बिना बुलाये, उसका आ जाना एक स्वाभाविक क्षण था । ठीक रात और दिन का अपने समय पर आ जाने की तरह । उन्हीं क्षणों में उसने कहा था "इंसान हार और जीत को अपने हिसाब से परिभाषित करता है । अपनी एक राय बना लेना और दुनिया से अलग हो जाना जीत या हार का हिस्सा नहीं । हाँ जीने के अपने अलग नज़रिए हो सकते हैं ।"

ऐसी ना जाने कितनी अनगिनत गर्मियां बीती । शायद मैं उन्हें गिनता तो वे अनगिनत ना रहती । ठीक मेरी उम्र की तरह । जिसे आज भी गिना जा सकता है । जिसका मुझे अब 14 से शुरू होना याद है और फिर हर बरस एक बरस बढ़ जाना । बीती हुई गर्मियां भी तो वैसी ही रही होंगी । जिन्हें उम्र की लकीरों पर बड़ी आसानी से गिना जा सकता होगा । पिछले बरस की गर्मी और पिछले से पिछले बरस की गर्मी .....और उससे भी पिछले बरस की ।

फिर सोचता हूँ तो ख़याल आता है कि कहानियों में सही और गलत का निर्णय होना भी जरुरी तो नहीं । हम क्यों यह लिखें कि उसकी बात सही है और उसकी नहीं । यह निर्णय तो एक उम्र को करना है । वैसे भी हर उम्र के अपने अलग पैमाने होते हैं । सही और गलत के । हार और जीत के । सोचने के , समझने के । जाँचने के, परखने के । चाहने के और ना चाहने के । एक उम्र होती है जब इंसान सहूलियतों और गैर सहूलियतों के भँवर में फँस जाता है ।
इसके परे सहूलियतों को पा लेने के बाद उसकी सोच में एक बड़ा परिवर्तन आने लगता है । जिंदगी के लिये, अपने लिये । हार के लिये और जीत के लिये ।

इसीलिये जरुरी तो नहीं कि मैं सभी कुछ एक सीमा में शुरू करूँ और एक सीमा में ख़त्म । सही और गलत के साथ । शायद उसके लिये भी हार और जीत के मायने कभी बदल जाएँ और मेरे लिये भी । क्या हम इसे उम्र पर नहीं छोड़ सकते ?

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रात, चाँद, वो और मैं

>> 30 July 2010

-"एक बात पूछूँ ?" मैं उससे कहता हूँ ।
-"ह्म्म्म..." वो जवाब देती है ।
-इस शहर को कितना जानती हो ?
-"ये सवाल क्यों ?" वो मुझसे सवाल करती है ।
-मैं उससे कहता हूँ "तुम सवाल बहुत करती हो ।"
-वो मुस्कुरा कर कहती है "तुम जवाब जो नहीं देते ।"
-अच्छा बताओ । "कितना जानती हो इस शहर को ?"
-ह्म्म्म.....सच कहूँ । उतना ही जितना कि तुम्हें ।
-मतलब
-मतलब ये कि ठीक वैसे ही जैसे कि तुम्हें जानती हूँ ।
-"वो कैसे ?" मैं फिर से सवाल करता हूँ ।
-क्योंकि ....हर बार ही तो ये शहर मुझे नया सा मालूम होता है । कभी-कभी तो लगता है जैसे कि मैं इसे बिल्कुल भी नहीं जानती और कभी यूँ लगता है जैसे कि सब कुछ जान लिया हो । अब कुछ भी जानना बाकी नहीं । हर बार मुझे अपना सा मालूम होता है ।

मैं उसकी इन बातों पर मुस्कुरा जाता हूँ । वो मेरी ओर देखकर इशारे से पूंछती है "कि मैं क्यों मुस्कुराया ।"
तब मैं उससे कहता हूँ "कितना अच्छे से जानती हो तुम मुझे ।"

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-अच्छा अगर जो मैं ना होता तो क्या होता ?
-तो मैं भी ना होती ।
-वो क्यों ?
-क्योंकि जब तुम्हारा होना तय हुआ होगा तो मेरा होना भी तय हो गया होगा ।
-तुम बातें बहुत बनाती हो ।
-जानती हूँ ।
-वो कैसे ?
-क्योंकि तुम मेरे पास जो हो ।

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-"आई हेट यू " वो बोली ।
-रियली !
-हाँ....आई हेट यू ......आई रियली हेट यू ।
-क्यों भला ?
-सुना है जो लोग बहुत प्यारे होते हैं उन्हें नज़र लग जाती है ।

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-"चाँद मियाँ कल शिकायत के मूड में थे ।" मैं उससे कहता हूँ
-"क्यों, किसने खता की है ?" उसने पूँछा
-कह रहे थे कि तुम उसे सोने नहीं देती । सुबह तक जगाये रखती हो ।
-"लो भला अब हम क्यों जगाये रखते हैं । उल्टा वो ही हमें सोने नहीं देते और तुम्हारी शक्लों में बदल बदल कर हमारे सामने आ जाते हैं । तो बोलो खता किसकी हुई ?" उसने कहा
-"ह्म्म्म.....अब साहब यह तो बड़ा कठिन सवाल है । चलो चाँद मियाँ से पूंछते हैं कि आखिर बात क्या है ? क्यों चाँद मिंयाँ क्या कहते हो ?" मैंने कहा ।
-"अच्छा तो साहब अब आप भी उनकी ओर हो लिये । ये खूब रही । हम तो कहेंगे कि ना उनकी खता है ना हमारी खता है ....ये सब आपकी खता है ।" चाँद मियाँ तपाक से बोले ।
-"सही कहा आपने चाँद मियाँ ....ना आपकी खता है और ना हमारी ....ये सब तो इनका ही किया धरा है ....और दिन-ब-दिन रंगत हम अपनी खोते जा रहे हैं ।"वो चाँद की ओर देखकर बोली
-"लो ये अच्छी बात हुई । अब आप भी उनकी ओर हो लिए ।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा ।

चाँद मियाँ मुस्कुराते हुए उसकी ओर देख रहे हैं ......

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YouTube से Video को अपने ब्लॉग की पोस्ट में कैसे जोडें ?

मेरे एक पाठक ने मुझसे जानना चाहा है कि YouTube से कोई भी वीडियो लेकर हम अपने ब्लॉग में कैसे दिखा सकते हैं ?

इसलिए मैंने सोचा क्यों ना यह तरीका अन्य उन लोगों को भी पता लगे जो कि इसे नहीं जानते कि यह कैसे किया जाता है । अतः आपके सामने यह पोस्ट लेकर हाज़िर हुआ हूँ । आशा करता हूँ कि जो वीडियो को ब्लॉग में जोड़ना नहीं जानते उनके लिये यह पोस्ट मददगार साबित होगी ।

प्रथम चरण : सबसे पहले आप www.youtube.com पर जायें और अपना मनपसंद वीडियो सर्च करें ।

द्वितीय चरण : सर्च करने पर आपका मनपसंद वीडियो आपके सामने होगा । इस वीडियो को अपने ब्लॉग पर जोड़ने/लगाने के लिये आपको इसके Embed Code की आवश्यकता पड़ेगी । इसके लिये आपको उस वीडियो के नीचे दिख रहे Embed बटन पर क्लिक करना होगा जैसे ही आप उस पर क्लिक करेंगे । आपके सामने एक Code दिखाई देगा । आपको करना यह है कि उस Code को Copy(Ctrl+C) कर लें । जैसे कि आप नीचे के चित्र में Embed बटन को देख रहे हैं, जिसे मैंने लाल तीर से दर्शा रखा है ।


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तृतीय चरण : अब आप उस Copy किये हुए Embed Code को अपने ब्लॉग की New Post या Old Post के Edit HTML बटन पर क्लिक करके यह Code वहाँ Paste कर दें । जैसे नीचे चित्र में दिखाया गया है :
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चौथा चरण : अब आप अपनी Post को Publish कर दें । आपकी नई Post में वह वीडियो दिखाई देने लगेगा और हाँ आप जहाँ चाहें, जिस स्थान पर इस Embed Code को Paste कर सकते हैं । चाहे Post के आगे, Post के बीच में, Post के अंत में, कहीं भी, किसी भी स्थान पर इसको Paste कर सकते हैं ।

एक बात और आप चाहें तो इस वीडियो की लम्बाई और चौडाई कम और ज्यादा भी कर सकते हैं । बस उसके लिए आपको Code में जाकर उसकी Height और Width की Value कम और ज्यादा करनी होगी ।


मैं आशा करता हूँ कि यह Post आपकी मददगार साबित होगी :)

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ओ रे मनवा तू तो बावरा है

>> 21 July 2010

कभी-कभी मन इतना सूना हो जाता है कि खीझ, प्रसन्नता, अप्रसन्नता, अकुलाहट, क्रोध, भय, सुख और दुःख जैसी किसी भी स्थिति में कोई फर्क ही महसूस नहीं होता । मन करता है कि यहाँ से निकल जाऊँ । कहाँ ? यह कुछ भी जाने बिना । किन्तु दिमाग आड़े आ जाता है और समझाता है कि ऐ मन, बावरा हो गया है क्या ? कितनी घडी समझाया कि लिमिट में रहा कर । ज्यादा हवा में ना उड़ा कर । लेकिन ये मन उड़ने को करता है । किधर को ? कहाँ को ? नहीं जानता ......

बचपन में दिमाग यूँ हावी नहीं होता था । बचपन में यूँ तो कई बेवकूफियाँ की होंगी लेकिन उन सब में जो सबसे ज्यादा याद है वो यह कि जब भी मन में कोई सवाल आता या जो बात किसी से ना कह पाने की स्थिति में होता । तब मैं चिट्ठियाँ लिखा करता और सोचता कि ऊपर वाला कोई जवाब जरुर भेजेगा । कई बरस बीत जाने के बाद ज्ञात हुआ कि चिट्ठी पर नाम पता भी लिखा जाता है और अपनी बेवकूफी पर उस पल गुस्सा आया कि तभी मैं कहूँ कि जवाब क्यों नहीं आते । एक रोज़ डाक घर के अंकल ने पकड़ लेने पर अच्छी तरह समझाया कि भगवान का पता तो उन्हें भी नहीं पता तो फिर वो चिट्ठी कैसी पहुंचाएंगे । फिर दोबारा ऐसा ना करने की हिदायत देते हुए उन्होंने मुझे घर को रवाना कर दिया । तब धीरे धीरे उन चिट्ठियों की शक्ल मेरी डायरी के पन्नो ने ले ली । जिन्हें मैं अक्सर बारिश के आने पर नाव बनाकर पानी में बहा देता । मेरे प्रश्नों, अरमानों, शिकायतों और सपनों की नाव .....

तब जबकि दिल 14 बरस का होने का आया और उस अपनी हमउम्र के लिए आकर्षित हो गया । तब मैंने और मेरे दिल ने उसे प्यार का नाम दिया था । शायद मेरा पहला प्यार ....शायद नहीं यकीनन ही होगा । खैर अब सोचता हूँ तो लगता है कि तब मैं ये भी नहीं जानता था कि आकर्षण होता क्या है । मुझे अब भी याद है कि उन दिनों आयी 'दिल तो पागल है' फिल्म ने मेरे दिल को और अधिक पागल करने में पूरा साथ दिया । अगले दो बरस उसी एकतरफा प्यार में निकाल देने पर भी दिल ख़ुशी से झूम उठता था । अब सोचता हूँ तो सचमुच उस उम्र में हम लड़के कितने बच्चे होते हैं और वहीँ लडकियां कितनी समझदार होने लग जाती हैं .....

उन दिनों के बाद से जब कभी मन सूना सा हो जाता था तो अपने शहर की उस तमाम अन्जान गलियों में चला जाता । ना तो जहां मुझे कोई जानता और ना ही जानना चाहता । उन सबके बावजूद वे गलियों मेरे लिए अन्जान ही बनी रहीं । उन अन्जान गलियों में बेवजह घूम लेने पर मुझे अकथनीय सुख मिलता । कभी-कभी उस सुख के लिए मैं आज भी तड़प उठता हूँ । लौट आने पर जब माँ पूंछती कि कहाँ गया था तो बहाना बना देता कि फलां दोस्त के पास गया था । जबकि मेरे दोस्तों में सिर्फ गिनती के दो या तीन ही लोग शामिल थे । जो आज भी मुझे दोस्त बनाये हुए हैं । क्योंकि मेरा उन्हें दोस्त बनाये रहने से ज्यादा उनका मुझे दोस्त बनाये रहना ज्यादा सुकून देता है ...

उम्र गुजरी तो फिल्मों से कब दोस्ती हो गयी पता ही नहीं चला । ऐसी अनगिनत फिल्में जो कि उस सूने मन की साथी हैं, आज भी जहन में कायम हैं । सच तो यही है कि फिल्मों ने मेरा बहुत साथ दिया । मुझे जिंदा बनाये रखा । मुझे याद है कि उस समय में तमाम जवान दिल जो कि हसीनाओं पर मर मिटने के लिए उतावले रहते थे । उन पलों में फिल्में मेरी माशूका बन गयी थीं ....

आज इस उम्र पर जबकि सूना मन कहता है कि चल कहीं दूर चले चलें । बिना सोचे-बिना समझे किसी अन्जान गली, उस बीती उम्र के साथ खोयी हुई महबूबा के शहर, उन सिनेमा घरों की पिछली सीटों पर, किसी कोने में लगायी गयी पुरानी किताबों की दुकान पर या बिना टिकट लिये हुए रेलगाड़ी में चढ़ किसी अपरिचित से स्टेशन को पहुँच, उतर कर उसके सीटी बज जाने पर भी खामखाँ की परवाह किये बगैर वहीँ खाली प्लेटफोर्म पर बैठे रहकर चने चबाते हुए बेफिक्र पैर पसार कुर्सी पर लेट जाने को जी चाहता है ....

आज फिर से बिना नाम-पते वाली चिट्ठी डाकघर जाकर उस लाल बक्से में डाल आने को जी चाहता है ....

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वो एक लड़की !!

>> 14 July 2010

कुछ धुंधले अक्स स्मृतियों में ऐसे जमा हो जाते हैं जैसे वजूद का एक अहम् हिस्सा हो गये हों । जिनका होना और ना होना उतना मायने नहीं रखता जितना कि उनका स्मृतियों में बने रहना । तमाम कोशिशों के बावजूद वो वजूद से अलग नहीं होते ।

उन दिनों में जबकि ना ही तो मोबाइल थे और ना ही इंटरनेट का प्रचलन । चाहने वालों के लिये ऐसा कुछ भी आधुनिक नहीं था जिससे वे चल रहे वक़्त को बदला हुआ आधुनिक समय कहते । सब कुछ तो वैसा ही था उनके लिये । वही चाहत जताने के खामोश फ़साने, खामोश निगाहें और आँखों ही आँखों में पढ़ ली जाने वाली प्रेम की भाषा । अंततः कुछ भी ना जता पा सकने पर लिखे जाने वाले वे गुपचुप प्रेम सन्देश जिन्हें साधारण भाषा में ख़त और चाहने वालों की भाषा में प्रेम पत्र कहते । जो कि कभी डाकिया के हाथ में नहीं उलझता था । उसके भी अपने तरीके हुआ करते थे । जो कि भेजने वाले और पाने वाले ही जान पाते ।

वो कॉलेज में इंग्लिश पढ़ा करती थी और मैं हिंदी । एक पल को तो लगता था कि बीच में एक लम्बी खाई है जिसे हिंदी और अंग्रेजी ने मिलकर बनाया है । वो मुझे अक्सर लाइब्रेरी में पढ़ते हुए मिला करती । शुरू में लगता कि यह महज इत्तेफ़ाक है कि हम टकरा जाते हैं लेकिन फिर ना जाने ऐसा क्या हुआ कि हम अक्सर एक ही समय पर मिल जाया करते । वही समय और किताबों की लम्बी कतार के आखिरी छोर पर खड़ी वो अंग्रेजी के किसी नॉवेल में आँखें गढ़ाए मिलती । अक्सर वह मेरी सामने की कुर्सी पर ना बैठकर किसी आखिरी छोर की कुर्सी पर बैठती । कई बार मैंने उसकी आँखों की चोरी को पकड़ा । जो कि अक्सर एकांत मैं बैठे हुए मुझे निहारा करती थीं । जो उसने कभी ना कहा उसकी आँखें अक्सर कहती रहती । फिर वक़्त यूँ ही गुजरता गया । हमारे बीच सब कुछ अनकहा होते हुए भी ऐसा लगता कि जैसे कि हम एक दूसरे को कितना जानते हैं ।

उस एक रोज़ जब मैंने उससे किताबों की कतार के आखिरी छोर पर खड़े हुए उसके हाथ में लिये हुए नॉवेल के बारे में पूंछा था । तब उसने कहा था 'जी' । मैं उसके उस 'जी' पर मुस्कुरा भर रहा गया था । शायद उसने मुझे ठीक से सुना नहीं था । वो कहीं खोयी हुई थी । जैसी कि वह अक्सर खो जाया करती थी अपनी ही दुनिया में । मैं जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया था । तब उस दफा वो मेरे सामने की कुर्सी पर बैठी थी और बोली थी "आप कुछ पूँछ रहे थे ?" .....मैंने मुंह से "चक्क" की आवाज़ निकालते हुए ना में सर को हिलाया । तभी 'शश्श्श्स ....' की आवाज़ सुनाई दी थी । कोई हमें शांत रहने के लिये कह रहा था । हमारे दरमियाँ एक लम्बी चुप्पी आ गयी थी ।

कुछ रोज़ के बाद के सालाना जलसे में उसका पहली बार नाम जाना । हालांकि उसका नाम जानना बहुत आसान था लेकिन कभी मेरे मन ने सोचा ही नहीं कि उसका नाम क्या होगा । जब कविता सुनाने के लिये उसका नाम पुकारा जा रहा था । तब उसका चेहरा सामने पाकर पता चला कि 'अनुराधा' वही है जिसकी कवितायें कॉलेज की पत्रिका में छपती रहती हैं । जब अनुराग कहकर मुझे वहाँ बुलाया गया तब शायद उसको मेरा नाम पता चला हो या शायद उसे पहले से मालूम हो । क्या पता मेरे मन के विपरीत उसके मन ने ये जानना चाहा हो कि मेरा नाम क्या है । उस रोज़ के बाद से वह कब अनुराधा से अनु हो गयी पता ही नहीं चला ।

सालाना जलसे के बाद से शायद हम एक दूसरे से अच्छी तरह परिचित हो चले थे । तब कई पहलुओं पर हमारी बात हुई थी । वो बहुत कम बोलती थी । उसे सुनना ज्यादा पसंद था । अक्सर वह चुप्पी जो हम दोनों के दरमियाँ आ खड़ी होती । वह बहुत लम्बे समय तक वक़्त को पीछे धकेल कर हमें आगे ले जाती । कहाँ ? नहीं पता लेकिन जहाँ भी ले जाती थी, वहाँ वो चुप्पी नहीं होती थी । ना जाने यह कैसा लगाव था कि अनकहे तरीके से सब कुछ कहा सा लगता था । कभी कभी मालूम होता कि हम ना जाने कितने बरसों से एक दूजे को जानते हैं । एक दूजे से किसी डोर से बंधे हैं । उन दिनों ख़ामोशी की गहराई ही शायद लगाव का पैमाना थी ।

कॉलेज खत्म हो चले थे और मुझे भविष्य की चिंता और नई नौकरी के साथ नये शहर जाना था । उन गुजरते हुए दिनों में उसने कभी कुछ ना बोला । कभी कभी लगता कि सब कुछ कह देना चाहिए । लेकिन फिर यह सोच रुक जाता कि क्या कहना चाहिए ? कि "अनु मैं जा रहा हूँ एक अनिश्चित सफ़र पर और क्या तुम मेरा इंतज़ार करोगी " या फिर "क्या तुम्हारा और मेरा भविष्य एक साथ जुड़ सकता है ?" या फिर "क्या तुम मुझ से प्रेम करती हो ?" .....नहीं यह सवाल गलत था । जबकि सब जानते हुए कि वह मुझे चाहती है । या शायद उस एक पल को मुझे वे सभी प्रश्न कर लेने चाहिए थे ।

शहर छूटा बिना कुछ कहे और बिना कुछ सुने । पहले दिन बीते फिर महीने और फिर एक ख़त मिला जो कि पिछले तीन पतों के कटे होने के बाद मेरे इस चौथे बदले हुए पते पर रीडायरेक्ट होकर पहुंचा था । कुछ चन्द पंक्तियाँ थीं जो आज भी वजूद के लिबास पर उभरी हुई हैं ....

"दिल को समझाया बहुत
न ले नाम मोहब्बत का जालिम
कि
तूने बनाया था जिसको अपना खुदा
वो तो इंसान निकला"


जिनके ना तो आगे कोई नाम था और ना ही पीछे । पिछले कई कटे पतों से साफ़ जाहिर था कि ख़त आने में बहुत देर हुई है । समझने में देर न लगी कि यह खत किसी और का नहीं अनु का ही है । उस एक पल ने बीते कई पलों को सामने ला खड़ा कर दिया और जब घर पहुंचा तो मालूम हुआ कि उसकी शादी अभी दो दिन पहले ही हुई है । उसने मेरा रास्ता देखा होगा .....कि शायद मैं उसका खुदा निकलूं ।

दिन बीते फिर महीने और फिर बरस बीतते चले गये । शहर बदले, घर बदले और न जाने क्या क्या बदल गया लेकिन आज भी वे धुंधले अक्स स्मृतियों में उलझे हुए हैं । वजूद के साथ लिपटी एक अधूरी चाहत.... "काश कि मैं उसका खुदा रह पाता ......"

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अहा !! ज़िन्दगी....

>> 12 July 2010

उसने एक बार कहा था कि उसकी जिंदगी का एक ही सच है और वो यह कि "वो मुझे चाहता है ।"....और मैं उस सच को हक़ीकत बनते हुए देखना चाहती थी .....मगर दुनिया कहती है कि "जिंदगी पैसों से चलती है ।".....सच यही है ....चाहे कडवा समझो, खट्टा समझो या मीठा .....सच यही है .....तब दुनिया को ठेंगा दिखाने का मन करता था ....सब कुछ जीत लेने का मन करता था .....लेकिन कहाँ जानती थी कि इसके परे भी लोगों के बने बनाये नियम है ....उनके हिसाब में जोड़े गये नये नियम कम और ज्यादा के थे .....जिंदगी कम पैसों में नहीं ज्यादा पैसों से चलती है....असली जिंदगी पैदल का नहीं हवा में बातें करने का नाम है....चाहे वो साइकिल हो, कार हो या हवाई जहाज .....चुनना हमें है ।


इस सच के बावजूद भी कि वह कॉलेज का सबसे ज्यादा अंक पाने वाला छात्र था .....जिंदगी में वह पीछे होता गया ....और इन सबके बीच जिंदगी के नये नियम मालूम चले और लोगों ने सिखाया, समझाया कि आगे बढ़ना जिंदगी का नाम है ....किसी ने इसे जिंदगी का नया नियम बताया था .....वो वक़्त, वो पीछे के नियम और वो खुद भी बहुत पीछे रह गया था....जब मैंने पिताजी के बताये हुए लड़के से शादी कर ली थी .....जिसकी नौकरी 5 लाख रिश्वत देकर लगी थी .....दुनिया के लिये मैं अब एक इंजीनियर की पत्नी थी....एक ऐसे इंसान की पत्नी जो महीने पर हज़ारों-लाखों रुपए ऊपर से कमाता है .....पर क्या मैं खुश थी ? आखिर जिंदगी क्या है ? इस सवाल के जवाब के लिये मैं हमेशा उलझी रही ....ना तो सवाल ही समझ आया कभी और जवाब तो बहुत कहीं पीछे छोड़ आयी थी ....कई बरस बीत गये खोज में लेकिन हासिल कुछ भी ना हुआ....कई बरस बाद भी मैं रही तो वहीँ की वहीँ ....

उस एक रोज़ जब ये अपने कारनामों की वजह से सस्पैंड कर दिये गये थे । उस नये आये शहर के डी.एम. ने.... तब पता चला कि शहर के नये आये डी.एम. कोई और नहीं मेरा वही पुराना अतीत है....जिसका अपना परिवार है, बीवी है और बच्चा है.....शायद हमारे परिवार से कहीं बेहतर....हाँ बेहतर ही होगा....इन्होने फिर से किसी मंत्री को ले देकर पोस्टिंग पा ली....लेकिन कुछ था जो अब कहीं नहीं बचा था....शायद वह प्रश्न ?.....और उसका जवाब खुद ब खुद मिल गया था.....कि जिंदगी जीने का कोई नियम नहीं होता !!

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