Showing posts with label हिन्दी ब्लॉग. Show all posts
Showing posts with label हिन्दी ब्लॉग. Show all posts

वक़्त इरेज़र है तो परमानेंट मार्कर भी ।

>> 20 September 2015

लाख कोशिशों के बावजूद भी आगरा की वो सरकारी पुलिस कॉलोनी मेरे ज़ेहन से नहीं जाती । और उस कॉलोनी का क्वार्टर नंबर सी-75 मेरे बचपन रुपी डायरी के हर पन्ने पर दर्ज़ है ।

फलांग भर की दूरी पर हुआ करती सरकारी अस्पताल कॉलोनी । उनके क़्वार्टरों की छतों से हमारे आँगन दिखा करते और हमारी छतों से उनके । और जो बीच की एक डिवाइडर दीवार खड़ी रहती वह तो दृश्य से सदैव ही अदृश्य सी बनी रहती । कभी लगता ही नहीं कि बीच में कहीं कोई एक दीवार भी है बरसों से ।

दीवार के एक हिस्से से आने जाने का रास्ता बना हुआ था । हम यहां से वहाँ और वे वहाँ से यहां बेरोकटोक आया जाया करते । दोस्तियां, यारियाँ खूब पनपतीं और चलती ही रहतीं । बाद के दिनों में बड़े हो जाने और शायद थोडी बहुत समझ के विस्तार से यह ज्ञान भी प्राप्त हुआ कि मोहब्बतें, इश्क़, प्यार का भी भरपूर आदान प्रदान हुआ ।

तब छतें सर्दियों की धुप सेंकने के काम में आया करतीं और आँगन का भी जब तब इस्तेमाल हो जाया करता । उन छतों पर से ही मोहब्बतें पैदा होतीं । उनमें दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की हुआ करती और फिर उनकी खुशबू हवाओं को महकाया करती ।

उन्हीं दिनों में एक ही कॉलोनी का लव मैरिज किया हुआ जोड़ा बड़ों के लिए चर्चा और किशोरों के लिए रश्क़ का विषय हुआ करता । तीसरी मंज़िल पर मायका और पहली मंज़िल ससुराल । बड़ा ही दिलचस्प लगा करता ।

कुछ क्रिकेट के किस्सों में उलझे रहते तो कुछ इश्क़ की पेचीदगियों में । तब ना तो एमटीवी हुआ करता और नाही इश्क़ लव मोहब्बत के होने और न होने के लिए टीवी, रेडियो के चैनल बदलता यूथ । सुबहें शुरू होतीं । जो दोपहरों से गुजरती हुई शामों से जा मिलतीं । इन सबके मध्य में पसरा होता बच्चों, किशोरों का साम्राज्य । दिन क्रिकेट, महाभारत, जंगल जंगल बात चली है पता चला है चड्डी पहन के फूल खिला है या श्रीकृष्णा या शक्तिमान, चित्रहार, रंगोली या शनिवार रविवार की फिल्मों में मजे मजे में काट जाता ।

स्मृतियाँ रचती हैं एक अपना ही संसार । हम यात्रा करते हैं, जीते हैं उन स्मृतियों को । और बचपन लगने लगता है अपने जिए हुए समय का सबसे बेहतरीन हिस्सा ।

पहली मोहब्बत, बचपन, उनमें पकडे गए हाथ हम चाहकर भी नहीं छुड़ा पाते । वे हाथ हर बार ही हमें ले जाते हैं उन्हीं गलियों में । खेतों में, खलिहानों में । गाँवों में क़स्बों में और उनमें बसी हुई उन कॉलोनियों में जहां अब भी बसा हुआ है हमारा बचपन । क्रिकेट का बैट पकडे या कोई गेंद फैंकता सा बचपन । छत पर खड़ा पतंग उड़ाता बचपन । कंचों को हाथों में थामें निशाना बाँधती वो आँख । छतों से आँगन में निहारती वो महबूब की मोहब्बत भरी नज़र । सर्दियों की गुनगुनी धूप में अपनी गुलाबी रंगत को बढ़ाती पहली मोहब्बत । वो महबूबा । वो यार जो साइकिल से लगाया करता था रेस ।

वक़्त इरेज़र है तो एक परमानेंट मार्कर भी ।

Read more...

आरजुओं के फूल मन के आँगन में खिलते हैं

>> 10 July 2015

आरजुओं के फूल हर रोज़ ही मन के आँगन में खिल उठते. और मन बावरा हो झूमता.

उन दिनों भावनाओं का समुद्र जो उमड़ता तो फिर ठहरने का उसमें सब्र ही न होता.दिल कहता कि ये जो मन की कोमल सतह पर हर रोज़ ही उग आती हैं और दिन ब दिन बढती है चली जाती हैं. इन्हें किस तरह से थामूं या कि उगने दूं और फिर किसी एक रोज़ उससे कह दूं कि "तुम जो पास होती हो तो फिर कुछ भी और पा लेने की इच्छा बची नहीं रह जाती".

मैं हर आने वाले नए दिन में अपने दिल को टोकता लेकिन वह तो जैसे पतंग बन हवाओं में उड़ता ही रहता. उन क्षणों में फिर उस अनुभूति को महसूसने के सिवा और कुछ नहीं होता. हरदम ही उसकी मुस्कराहट, उसका चलना, उसका बोलना सामने आ आ खड़ा होता. और फिर दिल चारों खाने चित्त हो जाता.

दिल पतंग सा, रखकर काँधे पे आरजुएं, उसके दुपट्टे सा फिजाओं में उड़ता फिरता. उड़ता ही फिरता.

Read more...

मैं लिखता हूँ क्यों

न लिखना जब गुनाह सा लगने लगे, तब तब लिखता हूँ. मैं लिखता हूँ काले अँधेरे उजियारों में, मैं लिखता हूँ अधूरे दिनों की पूरी रातों में.

जब भरम पिघल जाये और कानों को गलाने लगे, तब तब लिखता हूँ. मैं लिखता हूँ उगे हुए सूरज में जी सकने के लिए, मैं लिखता हूँ आत्मा से नज़र भर मिलाने के लिए.

जब रोना सुकूँ लगने लगे और हँसना एक बहुत बड़ा गम, तब तब लिखता हूँ. मैं लिखता हूँ कि लिखा जा सके प्रेम में डूबे महबूब का गम, कि टूटे पंख लिए परिंदा कोई जब भरता है अपने दिल में उड़ने की अभिलाषाएं. मैं लिखता हूँ कि लिखना रचता है मेरी अभिलाषाओं का संसार.

जब तलब उठती हो और बुझायी न जा सके उसकी जलती लौ. मैं लिखता हूँ.

Read more...

बारिशों का शहर

ये शहर बारिशों का सा शहर जान पड़ता है. जागती रातों में जब बाहर खिड़की के मुहाने पर खड़े केले के पत्तों पर बारिशों का संगीत बजता है तो लगता है तुम्हें यहीं होना चाहिए था. जो तुम होतीं तो मैं बाँट सकता अपने भीतर भर आये सुख के कुँए को पूरा पूरा.

जब सबका सवेरा सो जाता है तब उगने लगता है मेरे भीतर रचे संसार का सूरज. जो तुम होतीं तो मैं बाँटता अपने धूप का आँगन.

बारिशें थमतीं नहीं अक्सर. यहाँ पेड़ों की शाखों पर बजती है कोई धुन रह रहकर. कि जो तुम होतीं तो गीत कोई गुनगुनाता मैं.

मैं हूँ शामिल इन सब में लेकिन फिर भी मुस्कुराती नहीं आँखें, कि तुम बिन सब कितना अधूरा है.
यहाँ हर रोज़ ही बरसता है बादल, कि ये शहर बारिशों का सा शहर जान पड़ता है.

Read more...

इकरारे मोहब्बत

>> 09 July 2015

ठीक ठीक तो नहीं बता सकता कि कब उसे देख मेरे दिल की हार्ट बीट अपने नार्मल बेहवियर की शक्लो सूरत बदलना सीखी थी लेकिन इतना तय था कि वो फरवरी की धूप सी लगने लगी थी.
मैं जिस इंस्टिट्यूट में चन्द रोज़ पहले पढ़ाने के लिए दाखिल हुआ था. वो बाद के दिनों में उन्हीं क़तारों में शामिल हो गयी जिनका में हिस्सा था. बच्चों की वे कतारें हमें हमारा स्पेस देतीं. और तब उन्हीं क्षणों में एक छोर को छोड़ दूजे को पकड़ने के मध्य में हीं उसकी आँखें मेरी चोर निगाहों को पकड़ लेतीं. मैं जान कर ये जतलाता कि अभी के बीत गए क्षणों में जो भी और जितना भी भर हुआ था उसमें मेरा कोई कसूर नहीं है.
जब वो कॉरिडोर से गुजरती तो दिल अपनी नार्मल स्पीड छोड़ देता. वो सीधे सपाट हाईवे को छोड़ प्यार की पगडण्डियों पर चलने लगता. जिसके दोनों और दूर तक फैले बसंती सरसों के फूल खिल उठे हैं. और वो पगडंडियों से होता उनमें उसकी शक़्लें तलाशने लगता.
ये इतना भर होता तो भी दिल अपने आप को संभाल लेता लेकिन जब वो अपनी मुस्कुराहटों के फूल बिखेर देती तो लगता जीवन बस यही है. कितना सुखद और कितना मासूम.
जब घड़ी आखिरी के क्षणों के लिए टनटनाने लगती तो दिल उदासियों से भर उठता. फिर उसके बाद की दोपहरें कहीं किसी किताब के किसी पन्ने पर अटक जातीं और शामें बेवजह के ख्यालों से गुजरती हुई उसकी यादों को समेट लातीं. रातें बेचैनियों में शामिल ख़ुशी में करवटें बदलतीं. और जब सुबहें सिरहाने आ मेरे दिल को टटोलतीं तब वो उस कॉरिडोर में टहलने को चला जाता जहाँ किसी बीते दिन में वो मुझे देख कर भी न देखना जता रही थी.
दिन तब धीमे धीमे महीनों में तब्दील होते चल दिए थे और मेरा कॉन्ट्रैक्ट ख़त्म होने की कगार पर था. वो वहां स्थायी थी और मैं अस्थायी. तब मेरे दिल ने मुझसे सवालात करने प्रारम्भ कर दिए थे. जिनके उत्तर मुझे उलझा दिया करते. और जब उलझने बहुत बहुत बढ़ गयीं तब मैंने स्वंय से ही जवाब जानना चाहा था. क्या इक़रार करना इतना दुरूह है.
और इन्हीं सवालों और जवाबों की कशमकश से जूझता में उसके सामने था. वे बिल्कुल आखिरी के दिन थे और तब उन्हीं क्षणों में मैंने दिल की राह पर चलते चलते उससे कहा था "तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो".
वो मुस्कुरायी थी और उन फ्रीज़ हो जाने वाले क्षणों में उसने कहा था "मैं जानती हूँ".
अबकी दफा मुस्कुराने की बारी मेरी थी.
वे क्षण स्मृतियों के धरातल पर बीज़ बनकर गिरे और बाद के दिनों में उनमें हर रोज़ ही नई नई किस्मों के तमाम फूल खिलते ही गए. खिलते ही गए.

Read more...

प्रेम में होना

सबसे मुश्किल है प्रेम में होकर प्रेम गीत लिखना या लिखना कोई एक प्रेम कहानी. प्रेम में होना बना देता है साधारण सी प्रतीत होने वाली भावनाओं को दुरूह. प्रेम फिर केवल प्रेम भर नहीं रह जाता.
वो हो जाता है हिमालय की चोटी पर पहुंचे उस नई नई उम्मीदों से भरे पर्वतारोही सा. वो दिखता है, सुनाई पड़ता है लेकिन फिर भी अंत में आकर महसूसना भर रह जाता है.
बावजूद इसके कि करते हैं आप लाख प्रयत्न प्रेम नहीं सिमट कर आता किसी प्रेम कविता में.
प्रेम जतलाया जाना भी हो जाता है धीरे धीरे स्वंय जैसा. और आप रीते खड़े असहाय से बोल देते हैं पहले से बोलते आ रहे शब्दों को.
प्रेम बेजुबान एक स्वाद है. प्रेम बिना आवाज़ों का कोई संगीत जो बजता है भीतर ही भीतर और आप महसूसते हो उसे हर इक नए क्षण.
प्रेम केवल होना ही भर नहीं है.

Read more...

प्रतीक्षा मन के धरातल पर रेंगती रहती

लड़का बेरोज़गारी से जूझते दिनों में घंटों उसकी प्रतीक्षा करता. घंटे पहले सेकंड से प्रारम्भ होते और फिर ऐसे कई कई सेकंड प्रतीक्षाओं के जुड़ मिनटों में तब्दील हो जाते और ये पहाड़ी रास्तों से दुर्गम मिनट ऐसे आगे बढ़ते जैसे घंटों की खोज़ की जानी हो. और ये काम इन्हीं को सौंपा गया हो.
सुबहें पहले दोपहरों में तब्दील होने में आनाकानी करतीं और फिर शाम तक पहुँचने में उन पर सुस्ती छा जाती. लड़का हर आने जाने वाली विभिन्न किस्मों की गाड़ियों को देखता और ये जानते हुए भी की शाम होने में अभी इतना समय है जितने में वो उस सामने के पार्क में उतनी ही बार बेवजह एक जगह से उठ चहलकदमी करता हुआ दूसरी जगहों पर बैठ सकता है जितनी दफा वो पहले ये सब कर चुका है. उन गाड़ियों में रह रहकर उसके होने का आभास होता.
वो दीवारों पर लगे फिल्मों के पोस्टर देखता और उनसे जोड़ मन ही मन नई नई कहानियां बुनता, उन्हें उधेड़ता और फिर से बुनने में लग जाता. हालाँकि उसने उनमें से कोई भी फ़िल्म नहीं देखी थी फिर भी सोचता कि कभी किसी रोज़ अगर लड़की ने कहा कि चलो ये फ़िल्म देखते हैं तो फिर वो क्या करेगा. उसे किस तरह मना करेगा की वह यह फ़िल्म नहीं देख सकता क्योंकि वह अपने मन में इसे कई कई दफा पहले देख चुका है. यह एक तरह की पीड़ा है कि आप जैसा सोचते रहे हों वो वैसा न निकले. और वो इस नई पीड़ा से नहीं जुड़ना चाहता था.
कभी कभी लड़की जल्दी आ जाती तो लड़का वहीँ अपनी उसी बनायीं हुई दुनियां में अटक रहता. जब लड़की उसे बाहर हाथ पकड़ वापस अपनी दुनिया से ला जोड़ती तब उसे एहसास होते कि पीछे वो प्रतीक्षाओं की अंतहीन लड़ियाँ तोड़ कर बाहर लाया गया है.
वो होता इस संसार में किन्तु पीछे रह गए रचाये हुए संसार की स्मृतियाँ उसका पीछा करती ही रहतीं.
कहते हैं प्रतीक्षा मन के धरातल पर रेंगती हुई दूरियां नापती है.

Read more...

उलझा उलझा बचपन

>> 07 July 2015

मन पर बने घावों के निशाँ कभी नहीं मिटते. बचपन की स्मृतियों में उलझा वो बच्चा रह रहकर याद हो आता है जिसे कभी ये समझ नहीं आता था कि वो कौनसी बातें रहती होंगीं जिनको लेकर उसकी माँ आये दिन पिटा करती है. वो बच्चा भरे हुए स्कूल में बेहद अकेला डरा डरा घूमा करता. न जाने कौनसी उधेड़बुन में लगा रहता. उसे घर जाने से डर लगा करता. वो असल में स्कूल की चाहरदीवारी में खुद को कैद कर लेना चाहता.
जहाँ बच्चे स्कूल की टनटन से ख़ुशी में झूम झूम उठते वो सहम जाया करता. वो पतंगों को देख पतंग बन कहीं दूर उड़ जाना चाहा करता. लेकिन ये उसकी चाहना भर ही रह जाया करती जो कभी पूरी न हुआ करती.
वो सोचा करता कि तीसरी मंज़िल से अपने हाथ फैलाये चिड़ियों की तरह कूदे और यहाँ से कहीं दूर निकल जाये और जब वापस आये तो माँ के पास कोई दुःख न हो और नाहीं घावों के निशाँ.
वो मन भर रो लेना चाहा करता किन्तु उसका मन कभी न भरता. हर जगह थी तो केवल रिक्तता. और मन पर बने उसके घावों के निशाँ दिन ब दिन गहरे होते ही चले जाते. होते ही चले जाते.
बचपन कभी धुन्धलाता नहीं वो केवल बड़प्पन में पीछे से रह रह झाँकता रहता है.

Read more...

दिल आज भी तुम्हारी मोहब्बत की बारिश में भीगा हुआ है मेरी जाना.

वो यही कोई रूमानियत से लबालब बारिशों भरी दोपहर थी. यहाँ वहाँ अपने अपने बस्तों को अपने नाज़ुक कन्धों पर लादे बच्चे यहाँ वहां भर आये पानी पर छपा छप खेलने में उत्साहित से दिख जाते. पेड़ धुले धुले गर्मी से राहत की साँस भरते मुस्कुराते हुए किनारों पर खड़े हर आने जाने वालों पर चिढातेे से पानी की बौछारें फैंक दिया करते.
कहीं कोई जल्दी नज़र नहीं आती थी. यूँ लगता कि अभी अभी जो सुबह बीती है वो भी कह रही हो कि मुझे भी अपनी इस ठंडक में शामिल कर लो.
सवारियां ऑटो में लदी हुईं न जाने कहाँ से कहाँ को जाने में बेचैनी दिखा रहीं थीं. उसी किसी खूबसूरत क्षणों में वो भीगता रिक्शा न जाने कहाँ से कहीं को न जाने के लिए चलते चला जा रहा था. तब मैंने ही हाथ दिया था शायद उसको. हाँ मैंने ही दिया होगा. तब तुमने ही कहा था कि थोडा रुकते हैं. लेकिन तुम्हें बारिशें कितनी तो भाती हैं ये खबर थी मुझको.
बारिशों ने तब उस मौसम की पहली आमद दी थी. बिना छतरी वाला रिक्शा था और हम भीग जाना चाहते थे. तब तुमने कहा था कि कोई क्या कहेगा कि देखो तो भीग जाने के लिए रिक्शे पर बैठे हैं. और मैं मुस्कुराया भर था.
बारिश की नन्हीं नन्हीं बूँदें हमारे चेहरों को आ हमें शायद ये बता रही थीं कि अभी हम जीना भूले नहीं हैं. उन्हीं किन्हीं क्षणों में तुम्हारे गाल को चूमा था मैंने. और तुम शरमा कर रह गयीं थीं. तब तुमने कहा था कि किसी की भी फ़िक्र नहीं करते. और मैंने कहा था की सामने फिक्र करने वाला मुझे कोई आता दिखाई नहीं पड़ता. तब तुम मुस्कुराई थीं और हँसते हुए कहा था कि और पीछे. मैं पीछे आती स्कूल के बच्चों की साइकिल की कतार को देख कितना हँसा था.
उस भीगते दिन में मैंने कहा था कि मैं इस शहर में यूँ ही बेपरवाह अपनी सारी ज़िन्दगी तुम्हारे साथ इसी तरह रिक्शे पर बैठ घूमना चाहता हूँ. उस रोज़ उस बारिश ने भी उस खुदा से हमारे लिए दुआ माँगी होगी. और शायद उन रिक्शे वाली भैया ने कहा हो आमीन.
दिल आज भी तुम्हारी मोहब्बत की बारिश में भीगा हुआ है मेरी जाना.

Read more...

साथियों की कोई क़ुअलिफिकेशन्स या डेफिनेशन्स नहीं हुआ करतीं.

उन ऊँघती शामों को जो धीमे धीमे अँधेरे की गिरफ़्त में चले जाने को हुआ करतीं किन्तु कहीं से भी उनकी उन क्षणों की आभा से लगता बिल्कुल नहीं था. सूरज गुलाबी हुआ करता और रात की देहरी पर टंगा हुआ सा जान पड़ता था. हाँ तमाम किस्म के पंक्षी अवश्य ही अपने घरों को लौट जाने के लिए आतुर दिखते. जैसे एक मजदूर सुबह से शाम तक की दिहाड़ी कर घर को लौट जाना चाहता हो.
वो किन्हीं दो बड़े शहरों के मध्य नाम के लिए बना दिया गया स्टेशन था. ऐसे जैसे कि सुस्ताने के लिए कहीं तपती दोपहरों में बीच राह में कोई झोंपड़ी या कोई पेड़ों का कोई छोटा बागीचा. जहाँ ठहरने वालों को कहीं से कहीं को नहीं जाना होता. हाँ राहगीर को वे सुस्ताने के लिए, ज़रा दम भरने के लिए सुकून भरी छाँव अवश्य देते हैं. उसी तरह का दूर से दिख जाने वाला वह स्टेशन मुस्कुराता सा खड़ा रहता. बड़ी गाड़ियाँ वहां जब तब सिग्नल पास होने के लिए सुस्ताती दिख जाती थीं. और छोटी गाड़ियों के लिए वहां बैठे बेफिक्र लोग बतलाते बतलाते अपने घरों की, अपने परिवारों की बातों में मशग़ूल हो कब अतीत में चले जाते मालूम ही न पड़ता.
उन्हीं दिनों में तुम मुझे बहुत बहुत याद आया करतीं. मैं उस स्टेशन के नाम के लिए कहे जाने वाले प्लेटफार्म नंबर दो पर बैठा तुम्हारे बारे में सोचा करता. सुबहें कट जाया करतीं लेकिन दोपहरें अक्सर शामों का इंतज़ार किया करतीं और मैं और मेरा भरा पूरा अकेलापन देर तलक उस प्लेटफार्म पर अटके रहते. कहीं से कहीं भी न जाने के लिए.
उदासियाँ अक्सर स्मृतियों में आ आकर झाँका करतीं. और मैं उन्हें परे धकेलने के अंतहीन प्रयत्नों में लगा रहता. यहाँ तक किन्हीं कमजोर क्षणों में मैं मरने के ख्यालों से घिर जाता.
कहीं कोई तो ऐसी डोर होगी जो हमें जोड़ती होगी. इन्हीं और ऐसी तमाम बातों और हो सकने वाली भविष्य की कामयाबियों के बारे में सोचा करता.
वो तुम्हारी मोहब्बत ही थी जिसने इतना कसकर मुझे मुझ तक पहुँचने वाली विश्वास भरी डोर से बांधेे रखा.
वो मेरी उदासियों का और कभी कभी मिल जाने वाली खुशियों का साथी प्लेटफार्म नंबर दो आज भी ज़ेहन में मुस्कुराता सा खड़ा है. जिस पर सुस्ताने के लिए या अपने ग़म साझा करने के लिए लोग और रेलें ठहर जाया करती थीं.
साथियों की कोई क़ुअलिफिकेशन्स या डेफिनेशन्स नहीं हुआ करतीं.

Read more...

लिखना जैसे अपनी आत्मा को तराशना

लिखना असल में अपनी आत्मा को तराशना है. हम जितना भी लिखते चले जाते हैं उतना ही स्वंय के पास होते चले जाते हैं. हम कितनी ही दफा अपनी आत्मा का पोस्टमार्टम करते हैं. दुनियादारी में फँसी अपनी जान को किसी एकांत में ले जाकर कई कई दफा हम स्वंय से लड़ते हैं. स्वंय से ही हारते हैं और कई कई दफा स्वंय से ही जीतने के ये जतन चलते ही रहते हैं.
मैं जब भी जी भर कर लिख रहा होता हूँ तब स्वंय के सबसे पास होता हूँ. तब असल में मैं स्वंय को देख पाता हूँ.
जब किसी उपलब्धि के लिए या किसी यश कामना के लिए नहीं बल्कि जिसको लिखने में सुकून हासिल हो. तब आत्मा सुख के झरने में नहायी, धुली-धुली महसूस होती है.
कभी कभी लगता है कि बस लिखता रहूँ. जब जब जी चाहे. दिन-रात, सुबह-शाम की बंदिशों से परे.
लिखना मेरे लिए अपनी पीड़ाओं पर मरहम लगाने सा, लिखना अपनी प्यास को मिटाने सा.

Read more...

स्मृतियों के कैनवस पर से उड़ते रंग

>> 21 October 2010

bachpanबरस शायद उन्नीस सौ अठासी,

आँगन के एक ओर खड़े अशोक की पत्तियों में लुका छुपी करती हुई गिलहरी, आँख बचाकर माँ के हाथों धूप में फैली मक्का के दाने ले दौड़ती है और पुनः अशोक की हरियाली में विलीन हो जाती है । मैं किताब छोड़ उसके पीछे दौड़ता हूँ और उसे डराने का प्रयत्न करता हूँ । माँ स्वेटर के फन्दों से एक नज़र हटाकर मुस्कुरा देती है । मैं वापस लौट किताब थाम लेता हूँ ।

एक बूढा नीम अपनी आधी ममता हम पर उडेलता है और बाकी की उसके आँगन में । पिछले दफा होली के मौके पर उसकी एक सूखी टहनी को काटने से रोकने के लिए, उसके चचा जान ने कितना हंगामा काटा था । जिसकी भरपाई बाद के दिनों में उन्होंने अपने बरामदे की दीवार पर बेल को चढ़ा कर की थी । अब मालूम चलता है कि चचा जान अपनी भतीजी को लेकर कितने पजेसिव थे ।

वो क्वार्टर नंबर सी-पचहत्तर ग्यारह बरस पीछे छूट गया ।
और वो आधे बूढ़े नीम की दीवानी, न मालूम कहाँ....

♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

वो दूसरी में मेरे साथ था, फिर तीसरी में दोस्त बना और चौथी में जिगरी यार । इंटरवल में कहानी सुनाता था और उसके लंच बॉक्स के खट्टे आम के अचार का जायका बरसों ज़बान से नहीं उतरा । वो मेरी माँ के हाथों बनी खीर के चाहने वालों में से एक था ।

पाँचवी में ड्राइंग में अव्वल आता था और उन्हीं दिनों में मैडम ने भविष्यवाणी की थी "सुनील तुम एक रोज़ बहुत आगे जाओगे" ।

छटवीं के बाद वो दोस्त हाथों में टॉर्च लिए सिनेमा हॉल के अँधेरे में खो गया ।

वो बरस उनीस सौ तिरानवे था....

♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

वो पाँच में से तीन विषय में डिस्टिंक्शन लाया था और बाकी दो में चन्द कदम पीछे रह गया था । आईआईटी जिसकी चाहत थी और कुछ कर दिखाना जिसका ख्वाब । वो ख्वाब किताबों के खर्च और फीस का बंदोबस्त न हो पाने के भय तले दब कर शहीद हो गया । जब तब याद हो आता है अपना ही कोई ख्वाब था ।

वो बरस उन्नीस सौ निन्यानवे था....

♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

चार दीवारें थीं, दो अलमारियाँ, तीन तख़्त और हम पाँच । वो छोटा था जो लगते-लगते एकदम से बहुत बड़ा लगने लगा था । जहाँ शोर था, हँसी की गूँज थी, बेपरवाह पड़ी एक और किताबें थीं और मेरे संग की चार शक्लें ।

जिसमें सुबह की ठिठोली थी और देर रात तक की महफ़िल । वो बहुत अपना था । उसमें रहने वालीं, उस बरस की पाँच शक्लें, न जाने कहाँ-कहाँ, अलग-अलग, भागती-दौड़ती, मशीनों की तरह इस्तेमाल होतीं, बहुत कहीं आगे चली गयीं ।

वो कमरा नंबर एस-सोलह बहुत पीछे छूट गया ।

वो इक्कीसवीं सदी की छटवीं सालगिरह थी....

♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

वो मेरा सबसे प्यारा ख्वाब थी, जो एकाएक ही कहीं से आकर मेरी आँखों में बस गयी । उसकी बातें जैसे माँ की लोरी, उसका हँसना जैसे ठंडी हवा के झोंके का गालों को थपथपा जाना । और उसका करीब होना दुनियाभर की कामयाबी ।

वो लड़की किसी प्लेटफॉर्म पर छूट गयी ।

वो मेरे खाली हाथ रह जाने का बरस था....

सब कुछ पीछे छूट जाता है । रहती हैं तो स्मृतियाँ....जिसमें बीते वक़्त के पन्ने बहुत तेज़ फडफडाते हैं । जैसे स्वंय को मुक्त कर देना चाहते हों ।

कौन जाने, एक पवित्र स्मृति किसी रोज़ धुंधली होती हुई मिट जाए....

Read more...

ड्योढ़ी पर खड़ी शाम

>> 06 October 2010

railway-stationउस रोज़ जब ट्रेन प्लेटफोर्म पर आने को थी और तुम्हारी पलकें गीली होने को, तब मैं उसके छूट जाने की दुआ कर रहा था । तुम्हारे हाथों को थामे, ठहर जाने को मन कर रहा था । मगर अब ये मुमकिन नहीं कि तुम्हें मालूम हो कि उस रोज़ मैं वहीं छूट गया था । उसी बैंच पर, तुम्हारे आँसुओं में भीगा, अंतिम स्पर्श से गर्माता । और हर बार ही उस प्लेटफोर्म पर से गुजरते हुए, मैंने उसको वहीं पाया है । यूँ कि तुम आओगी और कहोगी 'अरे तुम अभी यहीं हो' ।

कई दफा खुद को टटोलता हूँ और जिस्म के लिहाफ़ को झाड कर फिर से जीने के काबिल बना लेता हूँ । मुई रूह के बगैर कब तलक कोई जिए जाएगा । सुनो, कभी जो गुजरों उधर से तो एक दफा उसको अलविदा कह देना । जैसे रूठे बच्चे को मनाता है कोई । शायद आखिरी की ट्रेन से मुझे आकर मिले कभी ।

कई बरस बीते हैं, साथ जिए बगैर । कुछ तो मैं भी जीने का सलीका सीखूँ । चन्द ज़ाम से गुजर सकती हैं रातें, मगर बीते बरस नहीं गुजरते । हर शाम ही तो आकर खड़े होते हैं ड्योढ़ी पर । हर सुबह ही तो छोड़ जाते हैं तनहा । हर दफा पी जाता हूँ वो पीले पन्ने, जिन पर लिखी थीं तुम्हारे नाम की नज्में ।

दोस्त नहीं देते अब तुम्हारे नाम की कस्में । हर रोज़ ही भूल जाते हैं और भी ज्यादा, कि कभी तुम भी थीं उनका हिस्सा । अब नहीं करते फरमाइश, उस किसी बीते दिन की । चुप ही आकर सुना जाते हैं, जाम में उलझा कर कई किस्से । यूँ कि सुनाया करते हों किसी महफ़िल में मुझे लतीफे की तरह ।

जानता हूँ हक़ यादों की पोटली में मृत होगा कहीं । और मैं उसमें जान फूँकने की बेवजह कोशिश नहीं करूँगा । मगर फिर भी प्लेटफोर्म की उस बैंच पर से गुजरते हुए, कभी तुम सुनना उसको । जो हर दफा कहता है मुझसे 'काश उसने मेरा हाथ थामा होता....'

Read more...

वो इश्कबाजी और फिल्मों का दौर

>> 04 June 2009

एक ज़माना गुजर गया....हाँ लगता तो यूँ ही है ...जैसे कि जमाना गुजर गया.....पर दूजे ही पल लगने लगता है कि जैसे कल की ही तो बात हो....शायद जब हम नए नए किशोरावस्था को पार कर रहे थे ....और ठीक से जवान हुए भी थे या नहीं ...इसका कोई अंदाजा नहीं....पिक्चर देखने का शौक हमें बचपन से ही था....या अपने नाना जी के लफ्जों में कहें तो सिनेमा देखने का शौक ...और अंततः कहें तो फिल्म देखने का शौक....

हमें करीब करीब याद है कि किस तरह से बचपन में जब दूरदर्शन पर कभी बुधवार....तो कभी गुरूवार....या फिर कभी शुक्रवार....शनिवार या रविवार को फिल्म आती थी ...हाँ शायद दिन बदलते रहे लेकिन हमारा फिल्म देखने का शौक नहीं बदला....हम बड़े चाव से फिल्म देखा करते थे....और हमें ये भी याद है कि हर सप्ताह के अंत में अपने पूरे परिवार के साथ कोई न कोई फिल्म देखने सिनेमा हॉल भी जाते थे ...चूंकि पिताजी को सिनेमा हॉल का पास मिल जाता था....तो हम आनंदित हो उठते थे .....अच्छा लगता जब सभी साथ में जाते और फिल्म देखते....कलरफुल फिल्म.....बस फिर क्या है धीरे धीरे ये शौक पाल लिया हमने....

फिर जब बचपन बीता...और बीता हमारे स्कूल के दिनों का समय....हमने जब 12 वीं कक्षा प्रथम श्रेणी में पास की....तो उपहार स्वरुप जो पैसे मिले....तो हम पहली बार अपने दोस्तों के साथ अकेले फिल्म देखने गए....बस वो पहला कदम था....

पिताजी का स्थान्तरण हो जाने के कारण....हम लोग आगरा छोड़ अपने दादाजी के शहर फिरोजाबाद आ गए....और यहाँ से शुरू हुआ...एक नया दौर....नए दोस्त बने....कॉलेज जाना प्रारंभ किया....और जिन महोदय से हमारी नयी नयी दोस्ती शुरू हुई ....उन्हें पिक्चर देखने का हमसे ज्यादा शौक था....और वो ढेर सारी फिल्में देख चुके थे....

उनका पिक्चर देखने का शौक इसी बात से समझा जा सकता है कि दूरदर्शन पर आयी हुई ....पिछले 15 सालों का पूरा हिसाब किताब उन्होंने अपनी डायरी में बना रखा था....कि किस दिन कौन सी फिल्म आयी...कौन हीरो था और कौन हीरोइन....सबका नाम लिखा रहता था....खैर ये तो रही दूरदर्शन की बात....और जब से उन्होंने सिनेमा हॉल में फिल्म देखना चालू किया तब से हर साल की देखी हुई फिल्मों की पूरी लिस्ट थी ...कि कब, किस दिन, कितने रुपये में, किस सिनेमा हॉल में कौन सी फिल्म देखी ....इन सब का पूरा पूरा ब्यौरा था उनके पास...

भाग्यवश इनका दाखिला हमारे ही कॉलेज में हुआ....या यूँ कहें कि ये एक संयोग था कि इनका एक साल ख़राब हो जाने के कारण...इन्होने फिर हमारे साथ...हमारे ही कॉलेज में एडमिशन लिया....ये बात और थी कि इनका सेक्शन अलग था.....

उन दिनों हमे ढेर सारे ट्यूशन पढाने के ऑफर आये....तो 2-3 हज़ार रुपये की हमारी आमदनी हो जाती थी...जो हम कब किसपर ..कैसे उड़ा देते ....हमारे घर वाले ज्यादा हिसाब किताब ना पूँछते...उन दिनों बादशाह फिल्म आयी हुई थी....बस यूँ कह लीजिये कि वो पहला पायदान था हम दोनों का एक साथ फिल्म देखने का ...फिर चंद रोज़ बाद सरफरोश देखी ...फिर कोई और...और फिर कोई और....

आलम यह था कि हम इतने बिगड़ गए थे...या यूँ कह लें कि बौरा गए थे कि....एक हफ्ते में हमने 9 फिल्में देखीं.....मतलब साफ़ है कि किन्हीं दो दिनों में हमने एक साथ 2-2 फिल्में देख डाली.....होता भी अक्सर ऐसा था कि हम जय और वीरू की तरह सिक्का उछाल कर ये फैसला करते...कि आज फिल्म देखने जाना है या नहीं....और कौनसी क्लास बंक मारनी है .....और कमबख्त हमारा सिक्का भी हमे फिल्म देखने भेज देता...हमने खूब चेक किया हुआ था कि सिक्का दोनों तरफ से एक सा तो नहीं ....और फिर ये आलम भी हुआ कि सिक्का जाने से मना करता तो भी हम रुकते ना और फिल्म देखने जरूर जाते ...

ऐसा नहीं था कि हमारे कॉलेज में अच्छी और खूबसूरत कुडियां नहीं थीं...बहुत थी....और ऐसे हमें लड़कियों से नफरत भी नहीं थी....लड़कियों का चेहरा देखना हमें अच्छा लगता था....पर ना जाने क्यों उन दिनों फिल्म देखने का ऐसा भूत सवार हुआ कि ....किशोरावस्था को पार करते हुए हम....कोई इश्क न फरमा सके....यहाँ तक कि हमारे साथ के सभी लड़कों के इश्क चल निकले थे...और वो तोहफों में मिले कार्ड, इत्र, टी-शर्ट और ना जाने क्या क्या हमें दिखाया करते...हमारे सामने अपने मिले ख़त भी पढ़ा करते...मगर हम नामाकूल उन दिनों ऐसे फिल्मों में मशरूफ हुए कि....लड़कियों के सुन्दर चेहरे....वो प्यार के किस्से...वो रूठना और मनाना...वो चोरी छुपे एक दूसरे से किसी रेस्टोरेंट में मिलने जाना....ये सब भी हमें अपनी ओर ना खीच सके....और यहाँ तक कि हमारे लिए बीच बीच में किसी दोस्त की महबूबा की ओर से संदेशा आता कि उनकी फलां सहेली को हम अच्छे लगते हैं...लेकिन हमारे कान पर जूँ तक ना रेंगती....मतलब नोट इंट्रेस्टेड

एक साल हमने जम कर फिल्में देखीं...लेकिन खुदा की मर्ज़ी कि हमारे जो साथी थे...उनका दिल पढाई में ना लगने के कारण...उनका वो साल भी खराब हो गया....हालांकि हमने भी कोई ख़ास पढाई नहीं की थी...लेकिन हम ठीक ठाक नंबरों से पास हो गए....हमारे साथी ने वो कॉलेज छोड़ दिया ...वो दूसरे शहर को प्रस्थान कर गए....अब हम अकेले रह गए....कुछ अन्य मित्र बन गए...लेकिन उतनी फिल्में ना देख सके...फिर हम बीच बीच में अकेले फिल्म देख आते...और जब वो भाई साहब घर को वापस आते हफ्ते दो हफ्ते में तो फिर साथ साथ फिल्म देखने जाते....

वक़्त बीतता गया ...हमने खूब जम के फिल्में देखीं....हमारे साथ के दोस्तों ने जम के इश्क किया....साथ जीने मरने की कसमें खायीं....और फिर उस लड़की की शादी में दावत खाने का निमंत्रण भी पाया...अब घर वाले कहें कि जाओ जाके दावत खा आओ ...अब कैसे खा आयें ....कैसे कह दें कि वो उनकी महबूबा की शादी है...खैर ऐसे दो चार किस्से हुए.....और कोई इश्क अपनी सफलता की चोटी पर ना पहुँच सका ....हमने एक साल में 125 फिल्में देखने का रिकॉर्ड बनाया....हाँ इश्क वालों में एक इश्क सफल भी हुआ....लड़का लड़की अपने घर से भाग गए ...और उन्होंने भाग कर शादी कर ली ...आजकल उनकी बिटिया हमें ताऊ कहती है.....फिर हमारा दिल ज्यादा ख़ास उस शहर में लगा नहीं ....एम.सी.ए. में एडमिशन की परीक्षा दी और पास हो गए ...अच्छा सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज मिल गया ...और हम वहाँ चले गए

Read more...

मेरी ब्लाइंड डेट

>> 31 May 2009

इन्टरनेट आया तो अपने साथ बहुत सी अच्छाईयों के साथ कुछ बुराइयाँ भी लाया. अब भली बातें कितनी हैं और बुरी बातें कितनी हैं ...इसकी चर्चा न ही की जाये तो बेहतर है.

हाँ लेकिन इसी इन्टरनेट की दुनिया के कई किस्से हैं...ढेर सारी प्रेम कहानियां तो इसी इन्टरनेट की देन हैं और कई बच्चे भी इस इन्टरनेट की उपज ...अरे नहीं समझे ...अरे सोचो भला कि अगर उनके माता पिता इन्टरनेट का उपयोग न करते और आपस में चैट न करते तो उनकी लव स्टोरी कैसे शुरू होती....और अगर लव स्टोरी शुरू न होती तो फिर शादी कैसे होती ...हाँ ये बात अलग है कि किसी के माँ बाप ने भाग के शादी की होगी तो किसी के माँ बाप ने कोर्ट मैरिज या अरेंज .....खैर ये मसला बहुत पेंचीदा है.....उलझोगे तो उलझते ही रह जाओगे

तो भैया हम भी एक समय चैट करने में बहुत बिजी हो गए थे....तो हाँ उसी समय की बात है कि हमसे एक लड़की चैट पर टकरा गयी ...बातें हुई ....अब भाई चैट है तो अच्छी अच्छी ही ही बातें होंगी न .....कमाल है (इधर उधर कि ना सोची जाये )

तो भाई बात करते हुए बहुत समय बीत चुका था....उन्होंने हमारा दीदार भी कर लिया था ...अरे वो जी उन्होंने हमारा फोटो देख लिया था जी ...अब ये सवाल तो कतई मत पूंछना कि हमने उनका दीदार किया कि नहीं ...नहीं जी बिलकुल नहीं ...अरे वही लड़कियों की आदत...मैं नहीं दिखाउंगी ...वगैरह वगैरह.....हम सीधे मिलेंगे ...अरे भाई जब ऐसी ही बात थी तो फिर हमारा चेहरा क्यों देखा ...हाँ शायद ये देखने के लिए कि लड़का दिखता कैसा है ....अच्छा तो दिखता है न ...और दूसरा सिक्यूरिटी रीजन की वजह से भी ...चलो अब क्या कर सकते थे ...हमने कहा ठीक है ...कोई बात नहीं

तो कुछ दिनों बाद हमारा आगरा जाना हुआ ....और वो महोदया ग्वालियर की थी....जैसे ही उन्हें पता चला कि मैं आगरा आया हुआ हूँ ...उन्होंने अपनी मंशा जाहिर की कि वो हमसे मिलना चाहती हैं....हमने सोचा कि चलो २ घंटे का रास्ता है ...मिलने जाया जा सकता है....तो भाई हमने बोल दिया कि हम कल आपसे मिलने आ रहे हैं ....हमने उन्हें पहले कभी नहीं देखा था....तो जाहिर है कि हम सिर्फ और सिर्फ मोबाइल पर भरोसा करके गए थे ...कि मोबाइल ही हमे सही जगह, सही इंसान से मिला देगा :) :)

हम सही समय पर ग्वालियर रेलवे स्टेशन पर पहुँच गए...अब जैसा कि उन्होंने कहा था कि वो अपनी ऑफिस से सीधे हमसे मिलने रेलवे स्टेशन आ जायेंगी ....और वही से हम कहीं जायेंगे....भैया जी हम तो जो है फोन कर दिए उन्हें ....कि जी हम आ गए हैं ...उन्होंने कहा कि वो आधा घंटे में आ जायेंगी... आधा का एक घंटा हुआ ...चलो कोई बात नहीं ...फिर एक का डेढ़ घंटा हुआ ....चलो कुछ बात हुई ...अब डेढ़ का दो घंटा हुआ ...भाई बहुत बड़ी बात हो गयी ...थक गए इंतजार करते करते....

अब जो है उन्होंने हमसे रोमिंग मैं ढेर सारी फालतू बातें करके ...सारे पैसे उड़ा दिए हमारे ...कि मैं यहाँ पहुँच गयी ..कि मैं बस पहुँचने वाली हूँ ...कि मैं थोडी देर मैं आउंगी ...वगैरह वगैरह.... जैसे तैसे वो रेलवे स्टेशन पर पहुंची .... बोली कि तुम कहाँ हो ....हमने बताया कि रिज़र्वेशन करने वाली खिड़की के पास ...अब भाई बहुत हुआ ....उन्होंने कहा हमे तो दिखाई नहीं दे रहा ...इस वाले गेट पर या उस वाले गेट पर ...हमने एक जगह से दूसरी जगह के करीब 10 चक्कर लगाये ....पर उन्हें हम न दिखे ....वो हमेशा गलत जगह पहुँच जाए....वो ग्वालियर की थी लेकिन उन्हें खुद ठीक से नहीं पता था कि रिज़र्वेशन काउंटर कहाँ है ...खैर मोबिल के सारे पैसे खर्च हो चुके थे ...हमने वहाँ के लोकल पीसीओ से फ़ोन करके जैसे तैसे 8-10 बार में बताया कि हम फलां जगह खड़े हैं ...खुद आ जाओ ....करीब 10 मिनट बाद तीन लडकियां हमें घूर रही थी

थोडी देर घूरते रहने के बाद वो हमारे पास आयी...हम तो डर ही गए...कि भला हमसे क्या गलती हो गयी ...घूर तो वो रही थीं ....पास आकर उन्होंने पूंछा कि क्या आपका नाम अनिल है ....हाँ जी नाम तो हमारा अनिल ही है ....फिर तीनों मुस्कुरा दी ....और हमें मन ही मन गुस्सा आये ....खैर हमने अपने आप को संभाला ...मन ही मन सोच रहे थे कि पूरी की पूरी पलटन साथ लाने की क्या आवश्यकता थी ...हम कौन से तुम्हें खा जाते ....

फिर पास के ही एक रेस्टोरेंट में हमे लेकर वो गयीं ....हमने अपनी जेब की तरफ ध्यान दिया ...सोचकर आये थे एक का और आ गयी तीन ...अब क्या होगा हमारा और हमारी जेब का ...खैर हम चारों लोग उस रेस्टोरेंट में बैठ गए ....फिर हमे ठीक से पता चला कि हमारी वाली कौन सी है ...अरे मतलब जिससे हम चैट किया करते थे ....फिर उसकी दोनों सहेलियों ने हमारा साक्षात्कार लेना प्रारंभ कर दिया ....मन में आ रहा था कि कहाँ फंस गए ....

एक बोली आप तो बड़े सीधे साधे लग रहे हैं ...लो कर लो बात अब तीन तीन हो तो कोई भी आपके सामने भला मानुष इतनी हिम्मत कर सकता है कि मुंह भी खोल सके :) :) ....आप खोलने दो तब न ....हम तो बस हाँ और ना में ही जवाब दे रहे थे ....दूसरी बोली अच्छा आप हमारी सहेली से शादी कब कर रहे हो ....मेरे दिमाग में घंटी बजी ...टन टन टन ...व्हाट ...what a silly question is this ? ...मन किया दो चार खरी खोटी सुना दूं ......फिर जवाब टालने के लिए बोला ....अभी तो मैं बच्चा हूँ ...अभी शादी कहाँ...अभी तो खेलने खाने के दिन हैं हमारे :) :) ...बोली आप बड़े मजकिये हो ....

फिर उसकी एक सहेली अपने प्रेम के किस्से सुनाने लगी ...और दूसरी लड़कों के प्रति अपनी नफरत की गाथा ....और जो मोहतरमा हमसे चैट किया करती थी ....उनकी तो पूंछो ही मत.... आप तो कुछ बोल ही नहीं रहे हो ...वैसे कितनी बातें करते हो ...वगैरह वगैरह....खैर जैसे तैसे उनका बात करने का दिल भरा ....हमे तो बस वहाँ से भागने की पड़ रही थी .....खैर वहाँ के लोकल रेस्टोरेंट वाले ने भी हमे खूब लूटा ....15 रुपये के जूस के गिलास के उन्होंने हमसे 60 रुपये वसूले ....और भी कुछ था जो हमे याद नहीं उसके भी अच्छे खासे दाम लिए उन्होंने ...और कहने को वो बिलकुल घटिया रेस्टोरेंट था .....बिलकुल लोकल ...खैर अब फंसे थे ...तो क्या करते....हमने अपना पर्स निकाला ...और जानबूझकर बोला देखो पैसे तो मैं ही दूंगा ....तो वो बोली क्यों आप क्यों दोगे ....नहीं ये अच्छा नहीं लगता...अब ऐसे बात करो तो उन्हें ऐसा लगा कि शायद ये इज्जत की बात हो रही हो ...तो बोली नहीं पैसे तो हम ही देंगे ...मैंने कहा नहीं नहीं पैसे तो हम ही देंगे...अब वो जबरजस्ती पर उतर आयीं ...नहीं पैसे तो हम ही देंगे ...हमने फिर कोई जबरजस्ती नहीं की ....ठीक है आप इतनी जिद कर ही रही हैं तो .....हम तो यही चाहते थे :) :) :) ....आखिर हमने थोड़े कहा था कि पूरी पलटन लेके आओ ...इस ब्लाइंड डेट पर .....

उनकी सहेलियां पहले ही जाने लगी...कि हमे काम है वगैरह वगैरह ...हमने भी कहा हमे भी चलना है ....बहुत लेट हो गए ...गाड़ी भी आने वाली है .....बस हमे भागने की पड़ रही थी ....वो दोनों बोली अरे आप दोनों बातें करो न....हमने खामखाँ आपका सारा टाइम खा लिया ....हमने मन ही मन सोचा अब जब खा लिया तो अब डकार क्यों ले रही हैं आप

तो इस तरह लौटते लौटते हमारे बारह बज चुके थे ....जैसे तैसे आगरा पहुंचे ...और एक आंटी जी के घर रुके रात को ...फिर सुबह अपने घर फिरोजाबाद को निकल लिए ....और सोचा कि क्या ब्लाइंड डेट ऐसी भी होती है
-------------------------------------------------------------------




Read more...

पेज 3 असली नारी शक्तिकरण है क्या ?

>> 21 May 2009

सबने देखा है उस औरत को जिसके सर पर छत है ? उसके नाम पर नारी शक्तिकरण की खूब चर्चा भी की है. जो पेज 3 की पार्टियों की तस्वीरों में छपी होती है. ये जताने के लिए कि देखो संसार कहाँ पहुँच गया है. स्त्री कितनी आगे पहुँच गयी है. चाहे उन्होंने बुटीक भर खोल रखी हो ...जो शौकिया फैशन डिजाइनिंग के कोर्से करके अपने बाप के पैसों से झूठा राग अलाप रही हों.

जिन्हें नारी शक्तिकरण की A, B, C भी न आती हो. अरे वो क्या जाने जिन्होंने अपने अमीर बाप के घर में पहला कदम रखा हो. अंग्रेजी स्कूल में पढाई लिखाई की हो ...विदेश जाकर डिग्री हासिल की हो और फिर वापस भारत आकर...बाप के पैसों से खुली दुकान या कोई कंपनी उनका इंतज़ार करती हो...जिनकी रात डिस्को में कटती हो ..पेज 3 की पार्टियों से जिन्हें फुर्सत न हो ...जो चूमा चाटी करते हुए फोटो खिचवा कर खुश हो रही हों .....उन्हें क्या पता होगा नारी शक्तिकरण का ...लेकिन जब भी नारी शक्तिकरण की बात की जाती है ...तो जी वो आ जाती हैं एक साडी पहन कर....जो रटे रटाये डायलोग बोलकर वाह वाह बटोरती हैं ...मैं उनके खिलाफ नहीं ...तरक्की उन्होंने भी की है ...क्या मगर नारी शक्तिकरण की जमीनी सच्चाई वही है...(और क्या उच्च वर्गीय उस समाज में भी स्त्री की दशा वाकई अच्छी होगी ?)...या सिर्फ उन्हें शो पीस बनाकर दिखाया जाता है

क्या नारी शक्तिकरण की बात करने वालों को वो नारी नहीं दिखाई देती जो ईट की भट्टी में झुलसती है, कारखानों में काम कर कर के अपने बच्चों को पालती है ...अपने बच्चों को उनके पैरों खडा करती है ...उनकी शादी करती है ...जो अपने जमीर के लिए लड़ती है ...जो समाज में रह रहे भूखे भेडियों से लड़ते हुए आगे बढती है ...

या जो अपनी जिंदगी का बहुत बड़ा हिस्सा कपडों पर प्रेस कर कर के अपने बच्चों को पढ़ा लिखा कर काबिल बनाती है ...जो सुबह के 6 बजे से रात के 12 बजे तक काम करती रहती है ...जो बच्चों की खातिर जगती है ...उनकी फिकर करती है ....जो अपनी पूरी जिंदगी इस आस में निकाल देती है कि इन्हें पढ़ा लिखा कर आगे बढ़ाना है ...

हाँ मैं सलाम करता हूँ ऐसी नारी को जो ईट की भट्टी में तपती है...ईट उठा उठा कर आगे बढती है, कपडे प्रेस करती है, सिलाई, कडाई, बुनाई कर कर के अपने बच्चों को पालती है ...दर्द सहती है ...फिर भी उफ़ नहीं करती इस आस में कि बच्चों को पालना है आगे बढ़ाना है

ऐसी ही दो स्त्रियों को मैं सलाम करता हूँ जिन्हें मैं जानता हूँ ..एक मेरे गृहनगर फिरोजाबाद में ...जिसके पति की मौत कारखाने में काम करते हुए हो गयी ...जिसके चार बच्चे थे और उसके पास कोई विकल्प नहीं था...उसने ईट के भट्टे में खुद को झुलसाया, मेहनत की ...दिन रात एक कर दिया ...और अपने 4 बच्चों को काबिल बनाया, उनकी शादी की, पढाया-लिखाया, उन्हें इस काबिल बनाया कि वो अपने पैरों पर खड़े हो सकें ...हाँ उस अशिक्षित नारी को मैं सलाम करता हूँ ...जिसने अपनी जिंदगी में इतना संघर्ष किया

एक जहाँ में रहता अर्थात फरीदाबाद मैं अक्सर देखता हूँ कि एक महिला सुबह 8 बजे से रात को 8 बजे तक प्रेस करती है ...मेहनत करती है ..अपने बच्चों को पालती है...आस पास वाले बोलते हैं कि पिछले 10 साल से वो यूँ ही प्रेस करती आ रही है ....उस महिला का पति 15 साल पहले उसे छोड़ कर चला गया.. लेकिन वो टूटी नहीं ...उसने अपने बच्चों को पाला...खुद से लड़ी ..ज़माने से लड़ी ...मेहनत की...बच्चों को पढाया लिखाया ...और आज भी मेहनत कर रही है ...हाँ मैं इस महिला को सलाम करता हूँ ...इस महिला के जज्बे को ...अगर नारी शक्तिकरण की बात करें...अगर जमीनी शक्तिकरण की बात करें तो ये नारी शक्तिकरण है ....वो लड़ती हैं, आगे बढती हैं...वो आज जहाँ भी हैं खुद के दम पर हैं ...और इस नारी शक्तिकरण को मैं सलाम करता हूँ
---------------------------------------------------------------



Read more...

एक अधूरी प्रेम कहानी का हिस्सा

>> 19 May 2009

तुम न बिल्कुल भी रोमांटिक नहीं हो ....अच्छा तो रोमांटिक लोग कैसे होते हैं मैंने कहा....वो मुस्कुरा दी....बताओ न कैसे होते हैं रोमांटिक लोग.... जो ढेर सारा प्यार करते होंगे....और जो ढेर सारी प्यार की मीठी मीठी बातें करते होंगे.... तो करता हूँ न मैं तुमसे ढेर सारा प्यार ... अच्छा पर कभी कहते तो हो नहीं...क्या कहूँ ...अच्छा तो बताओ कि तुम मुझसे कितना प्यार करते हो

ह्म्म्म्म मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ ... मैं तुम्हें सबसे ज्यादा प्यार करूँगा...बहुत ज्यादा ...हमेशा ऐसे ही.....जब तुम मुझसे रूठ जाया करोगी तो तुम्हें मनाया करूँगा ....जब तुम थक जाया करोगी तो तुम्हारे बालों को सहलाया करूँगा....और चुपके से तुम्हारे कानों में कहा करूँगा 'आई लव यू' ...कहूँगा कि हाँ तुम ही हो सबसे प्यारी ... हाँ तुमसे ही है मेरी दुनियाँ ...

तुम जब नहीं होती हो आस पास मेरे तो लगता है जैसे बिल्कुल अकेला हूँ ....सुनसान हैं ये गलियाँ ...ये रास्ते...वीरान है ये जिंदगी...कोई भी तुम बिन अब मंजिल नहीं ... न ही कोई सोच है ...न अब कोई सवाल है ...न ही किसी जवाब का इंतजार है...क्योंकि जब तुम नहीं तो कुछ भी नहीं

जब हम हो जायंगे मियाँ और बीवी ....कहोगी जब तुम कि अजी सुनते हो ... तो मुस्कुराता हुआ तुम्हारे पास जाया करूँगा ... कहूँगा कि क्यों पुकारा ...और तुम्हारे कहने पर कि चखना ज़रा इसका स्वाद कैसा है ...कड़वे को भी मीठा बताया करूँगा ... हो जाओगी जब तुम परेशां ...तो पिकनिक पर तुम्हें ले जाया करूँगा ... शोपिंग ही सही ...तुम्हारी ख़ुशी की खातिर हँसते हँसते अपनी जेब हलाल करवाया करूँगा ....

चली जाया करोगी जो मायके...पीछे से...मायके से ले जाने आ जाया करूँगा....हाँ तुम हो मुझे जान से प्यारी ये तुमको जतलाया करूँगा...करेंगे जो परेशान बच्चे कभी तो... उनकी खबर लिया मैं करूँगा

अच्छा ख़बरदार जो मेरे बच्चों पर हाथ भी उठाया तो.... अच्छा जी अब बच्चे इतने प्यारे हो गए अभी से ....और नहीं तो क्या ...ओके बच्चों को कुछ नहीं बोलूँगा...अब खुश ...अच्छा इतना प्यार करते हो मुझसे ....हाँ बहुत-बहुत-बहुत .....सच्ची .....हाँ सच्ची मुच्ची ...पक्की पक्की ....

उफ़ ये अलार्म की घंटी को भी अभी बजना था ....हाँ पर सच ही तो है बहुत बहुत प्यार था ...तभी तुमसे की हुई बातें आज भी सपना बनकर रातों को जगाती हैं .... हाँ ये खुली आँखों के सोचते से सपने ऐसे ही होते हैं ....
तुम ना जाने कहाँ होगी ..... मेरे पास तो बस अब तुम्हारा ख़याल ही है
----------------------------------------------------------------



Read more...

मेरा बचपन और वो मेरा गरीब दोस्त

>> 04 May 2009

कुछ चीजीं हमेशा अच्छी लगती हैं ...जैसे मम्मी का प्यार, भाई बहन के साथ नोंक झोंक.... और जैसे बचपन की यादें ...जब याद आ जाती हैं तो आये हाय ....यूँ लगता है मानो...बचपन सामने खडा हो गया हो आकर...जैसे बारिश हो रही हो और वो सामने से बुला रहा हो ...कि आओ चलो भीगें चलकर ...कागज़ की एक नाव तुम बनाना और एक मैं बनाऊंगा ...देखें किसकी ज्यादा देर तैरती है .... हाँ सचमुच कभी कभी ऐसा ही तो होता है ....

कभी कभी तो लगता है कि जैसे बचपन को खोकर बहुत बड़ी गलती की ...क्यूँ भला हम इतनी जल्दी बड़े हो गए ...और जब छोटे थे तो सोचा करते थे बड़ी कब हम बड़े होंगे ...उफ़ कैसे खयाली पुलाव बनाते थे

और वो जब माँ टिफिन में खाना रखकर स्कूल भेजा करती थी ...तो कैसे हम दोस्त लोग अपनी अपनी टेबल के नीचे ही टिफिन खोलकर ...एक एक टुकडा खाते थे ...बड़ा मज़ा आता था ...आधा तो इंटरवल के आने से पहले ही चट कर जाते थे .....अब याद आता है तो हंसी आती है ....कि बचपन भी क्या अजीब चीज़ थी ....क्या दौर था ...क्या आजादी थी ...खुलकर जीने की ... बस स्कूल जाओ ...स्कूल से आओ ...और माँ के आँचल तले जिंदगी बिताओ ....अब तो माँ का चेहरा देखे बिना भी कभी कभी महीनो बीत जाते हैं .... कभी वो दिन भी हुआ करते थे ...जब सुबह शाम हम बस फरमाइशें करते रहते थे ...और माँ हमारी हर फरमाइश पूरी करती रहती थी ...

एक दोस्त हुआ करता था मेरा ....मेरे बचपन का हमसफ़र....दिल का साफ़ ....बिलकुल नेक और शरीफ .... हम साथ साथ स्कूल में रहते और साथ ही खाना खाते .... बहुत चाहता था मुझे ...और हम मैदान में क्रिकेट भी साथ खेलते थे ....बहुत अच्छा लगता था उसके साथ रहना ...हम बिल्कुल पक्के दोस्त हुआ करते थे .... कभी कभी हम आपस में होम वर्क भी शेयर किया करते थे....और खाना तो कौन किसका खाता था पता ही नहीं चलता ..... पर जब हम पाँचवी से छटवीं क्लास में पहुंचे तो कुछ दिन तक तो वो साथ रहा

लेकिन कुछ रोज़ बाद उसका आना बंद हो गया ....मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था ...उसकी बहुत याद आती थी ... कई दिनों तक मैं उदास रहा ...वो नहीं आया ...एक रोज़ मैं घुमते घामते ....पूंछते पांछ्ते उसके घर पहुँच गया ...वो मुझे देख कर बहुत खुश हुआ ...पर उसके घर के हालात अच्छे नहीं थे

उसने बताया कि अब वो स्कूल नहीं आ सकेगा ...अब वो अपने पिताजी के साथ सिनेमा हॉल जाया करेगा ...वही नौकरी करेगा ....उसकी इस हालत पर मुझे अच्छा नहीं लग रहा था ...दुःख हो रहा था ....उसका चेहरा बहुत मायूस था ...एक दुःख साफ़ झलक रहा था कि अब वो पढ़ नहीं सकेगा .....उस रोज़ मैं मायूस और सुस्त क़दमों से घर वापस लौटा ....कई दिनों तक मेरा कोई दोस्त नहीं बना ...हमेशा सोचता रहता कि कितना होशियार था वो ..पर गरीबी ने उसे पढने नहीं दिया ....और शायद उसके बाप ने भी ....मैं जानता था कि वो भी बड़े होकर सफल और बड़ा आदमी बनता ....लेकिन अब उसे वहां सिनेमा हॉल में ड्यूटी बजानी पड़ेगी .....

कई रोज़ बाद मैं उसके घर फिर गया पर वो मिला नहीं ...वो ड्यूटी पर गया हुआ था ...मैं जब भी उससे मिलने जाता वो न मिलता ...उसके ड्यूटी का टाइम बदल जाता था ....मैं हर बार उदास होकर वापस लौटा ...फिर धीरे धीरे मैंने जाना बंद ही कर दिया ....पर जैसे जैसे मैं बड़ा हुआ ...मैं यही सोचता कि कब गरीबी कम होगी ..कब लोग शिक्षित हो सकेंगे ..भर पेट खाना खा सकेंगे ....कब उस मेरे दोस्त की तरह के बच्चे स्कूल में रहकर पूरी पढाई कर सकेंगे ....मगर अफ़सोस कुछ ज्यादा बदलाव नहीं आया ...आज भी जब देखता हूँ तो कोई न कोई बच्चा काम करते हुए मिल जाता है ....

उसके लिए बचपन की यादें क्या होती होंगी ...दिल सोचकर भी घबराता है ....कभी कभी सोचते हुए पलकें भी गीली हो जाती हैं ...आज जब मैं अपनी माँ से दूर हूँ ....उनका चेहरा तक देखने को नसीब नहीं होता ...जब तब 1-2 महीने बाद घर जा पाता हूँ ...तब लगता है कि इंसान और इंसान की मजबूरियाँ भी बड़ी अजीब चीज़ होती हैं .... जिंदगी कब किससे क्या क्या कराये पता नहीं चलता ....

अभी अभी ऐसा लगता है कि जैसे बारिश हो रही हो और वो मेरा दोस्त बारिश में भीगता हुआ मुझे हाँथ देकर बुला रहा हो ...कि आ चल खेलते हैं ...चल एक दौड़ लगाते हैं .....मगर फिर दूजी ही ओर वो बारिश अजीब सी लगती है...मेरी पलकें बिना बारिश में जाए भी गीली हो जाती हैं
-----------------------------------------------------------------------



Read more...

इसे ख़त मत समझना ...क्योंकि ख़त में तो

>> 23 April 2009


तुम हमेशा कहती थी न कि मैं तुम्हें कभी ख़त क्यों नहीं लिखता ....पता है क्योंकि मुझे कभी तुम से प्यारा ख़त लिखना आया ही नहीं ...सच ही तो है ...तुम जब लिखा करती थी ....तो उस ख़त में वो रात होती थी ....जिसे जुदाई में तुमने मुझसे दूर बिताया होता ....वो ढेर सारी बातें होती ...जो तुम बिस्तर पर करवटें बदलते हुए मुझसे कहना चाहती थीं ...और देखो तुम कितनी खूबसूरती से अपने दिल का हाल बयां कर देती थीं ....सच ही तो है ....तुम्हारे ख़त में सब कुछ होता था ....दर्द, प्यार, एहसास, विरह की वेदना, साथ होने का एहसास, दूरियों का हिसाब किताब .....और तुम्हारी भीनी भीनी सी - मीठी सी मुस्कराहट .....

पता है कल ना जाने इस दिल को क्या सूझी ....दिल के दरमियाँ किसी पुराने ख़त का जिक्र आ गया ....जब हाथ तकिये के नीचे गया तो ...आँखों की नमी फैली हुई दिखी ....नहीं नहीं मैं रो कैसे सकता हूँ ....तुमने मना जो किया था .....फिर ना जाने क्या ख्याल आया .....तुम्हारी वो मासूम सी प्यारी सी जिद पूरी करने को मन किया .....आखिर तुम्हे ख़त लिखना चाहा ....तुम ही तो कहा करती थीं ....कि मुझे कभी ख़त लिखना .....सोचा कि क्या मैं लिख पाउँगा ....फिर ना जाने क्यूँ कदम उस डायरी तक गए और उसके किसी पन्ने पर मेरी कलम रुक सी गयी ....क्या लिखूं ....एहसास ...दर्द...ख़ुशी ....उन पलों की यादें ...मुलाकातें ...मुस्कुराहटें ....भीगी पलकें ....मिलन की ख़ुशी ....या तुम्हें दूर जाते देख ...दिल के टूटने की आवाजें ......क्या लिखूं

शायद तुम सोच रही होगी कितना बुद्धू है ...इसे इतना भी नहीं आता ....याद है तुम्हें जब एक बार तुम मेरे इंतजार में उस पार्क की बैंच पर बैठी थीं ....और मेरे आने पर तुम ने खफा होने का बहाना किया था ....उस रोज़ का दिया हुआ वो गुलाब .....तुम्हें सबसे ज्यादा पसंद था ना .....कैसे मैं तुम्हें मना रहा था ....और कुछ ना सूझने पर ...तुमने कहा था कितने बुद्धू हो .....मैं तुमसे कभी खफा हो सकती हूँ भला .....और मैं मुस्कुरा दिया था .....

आज मैं अकेला हूँ ....फासले हैं हमारे दरमियाँ ....बस यादें हैं ....तुम्हारी दी हुई चीज़ें ....जो आज भी महफूज़ हैं ....जब दिल भर आता है तो उन्हें निकाल निकाल देखता हूँ ....कल रात को तुम्हारा दिया हुआ वो पहला गुलाब किताबों के दरमियाँ मिला ....वो सूखा हुआ गुलाब भी गीली गीली मुस्कराहट बिखेर रहा था .....जो उस रोज़ तुमने इस गुलाब के साथ मुझे दी थीं .....हाँ वो शर्माना तुम्हारा ....और कहना कि हाँ तुम मुझे बहुत चाहती हो ....कितनी क्यूट लग रही थीं तुम ....और मेरे कहने पर जब तुमने अपनी आँखों से मेरी आँखों में झाँखा था .....उस रोज़ की वो खूबसूरती ......तुम्हारी चाहत आज भी बयां करती है

और तुम्हारे कहने पर ....कि तुम्हें इजाज़त फिल्म बहुत पसंद है ....मैंने जब देखा उसे .....कितनी करीब लगी ....हाँ आज भी जब तब उसे देख लेता हूँ ....पर अब वो रुला देती है .....ना जाने क्यूँ ....पर चन्द रोज़ बाद फिर दिल कहता है ...और फिर देख इन पलकों को भिगोता हूँ .....हाँ मैं खुश तो हूँ .....खुश ही तो हूँ .....

हाँ जानता हूँ कि तुम्हें पसंद है मेरी मुस्कराहट ....मुस्कुराती हुई आँखें ....और वो जो लिखी थीं चन्द नज्में .....पर सच कहूं ....तुम्हारे चले जाने पर जैसे वो सब जाता सा रहा ....वो हंसी ...वो मुस्कराहट ...वो तराने ....सब कुछ .... याद है तुम्हारी कही हुई वो बात .... तुम खुश होती हो ये देख कि मैं खुश हूँ ....मेरी मुस्कराहट पर तुम फ़िदा हो ..... पर सच तुम्हारे कुछ ख़त हंसा देते हैं ....तो कुछ रुला देते हैं ....

उन खतों के दरमियाँ ....तुम्हारी यादें हैं ....ये सोच उन यादों को पढता हूँ ....तुम्हारे होठों की मुस्कराहट ...हर ख़त पर अपना जादू बिखेरे हुए है ....वो तुम्हारे होठों के निशान आज भी वैसे ही हैं .... जैसे इस दिल पर हैं ....पर इसे ख़त न समझना ...क्योंकि ख़त में लिखना होता है हाले दिल ....हर रोज़ के एहसास ....फासलों की कहानी ....यादों की रौशनी ....और भी बहुत कुछ ....तुम्हें तो पता ही है ....कि मैं खुश हूँ तो तुम खुश हो ....तुमने ही कहा था ...तो कैसे लिख दूं फासलों की दास्ताँ ....दिल की कहानी...आँखों का हर रोज़ गीला होना ..इन लबों का सच ....
कैसे धड़कता है अब ये दिल ....कैसे वो सब ख़त ...वो यादें ....रोज़ रोज़ आकर दरवाजा खटखटाती हैं .....हर रोज़ उन्हें साथ लेकर घर से निकलता हूँ ....और रोज़ देर रात ...फिर से एक नयी याद आ जाती है इस जहन में .....

हाँ इसे ख़त मत समझना ....क्योंकि ख़त में तो लिखना होता है .....
----------------------------------------------------------------------



Read more...

तुमसे पहली मुलाक़ात और तुम्हारी वो मुस्कराहट

>> 22 April 2009

बुझता नहीं चिराग मोहब्बत का
जब से जला है इस सीने में

कमबख्त दिल आज भी उसके नाम पर धड़कता है


कुछ मुलाकातें अपना असर छोड़ जाती हैं ...जो इस दिल पर हमेशा अपना कब्जा किये रहती हैं ....यादें भी ना खूब होती हैं ...बस दिमाग की हार्ड डिस्क में एक बार स्टोर हो जाती हैं ....तो बस हो जाती हैं ...कमबख्त इन्हें फोर्मेट भी नहीं मारा जा सकता ....शायद कहीं तुम अगर मेरी ये बातें सुन रही होगी ...तो बहुत जोरों से हँस रही होगी ....पर सच तुम्हें हँसते देख दिल को सुकून मिलता है ....मुझे तुम्हारी हँसी गिरते हुए झरने सी लगती है ....या उस बच्ची की मुस्कराहट की तरह ....जिसे चोकलेट देने पर वो मुस्कुराती है ...खुश होती है .....बिल्कुल मासूम हँसी ....हाँ तुम तुम ऐसे ही तो मुस्कुराया करती थीं

याद है तुम्हें जब तुम मुझसे पहली बार मिली थीं ....उस रोज़ तुमसे मिलने के लिए क्या नहीं किया था .....तुम भी ना ...जब चलती ट्रेन में तुम्हारा एस.एम.एस. मिला था ...और तुम पुँछ रही थीं ...कि मेरा बोगी नंबर और सीट नंबर क्या है .....और मैं कैसे बिना सोचे समझे ...उस बीच स्टेशन पर उतर गया था ....भोपाल स्टेशन की वो शाम मुझे आज भी याद है ....जब मैं अपना सूटकेस ले बाहर तुम्हारे आने का इंतज़ार करने लगा था ...कि बस तुम अब आओगी ...और तुम्हारे आने पर तुम्हारे मुस्कुराते चेहरे को देख दिल को जो राहत मिलेगी ...वो सचमुच बहुत कीमती होगी ...और कैसे मैंने उस रोज़ अपने सामने से उस ट्रेन को जाने दिया था ...वो ट्रेन जिसमें मेरा रिज़र्वेशन था ....बिना कुछ सोचे समझे

और कैसे जब मैंने तुम्हें फ़ोन किया था ....उस रेलवे स्टेशन के टेलीफोन बूथ से ...और पूँछा था कि तुम आई क्यों नही ...और तुमने कैसे कहा था ...कि वो तो मैंने ऐसे ही पूँछा था ...उफ़ तुम्हारी अदा ...मेरी तो साँस अटक गयी थी .....पर तुम कितनी क्यूट निकली ...तुमने कैसे बहाना बना अगले रोज़ आने का वादा किया था ...सच तुम्हारी वो अदा आज भी मुझे बहुत प्यारी लगती है ....तुम मेरे लिए ...कैसे बिना परवाह किये ...उस बस के लम्बे सफ़र से ...मुझसे मिलने आयीं थी ....उस रोज़ तुम मुझे दिल के बेहद करीब मालूम हुई थीं ...हाँ वो एहसास ही तो है ...जो आज भी जिंदा है

मैं कैसे चश्मा लगाये ...स्टाइल मारता हुआ ...अपनी अटैची पर बैठ तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था ....और जब तुम वहाँ पहुँची थी ...तुम्हारी वो मुस्कराहट ...तुम्हारी वो सादगी ....और तुम्हारे होठों के साथ तुम्हारी वो मुस्कुराती आँखें ...आज भी मेरे जेहन में हैं ....लाख कोशिश करने पर भी पल पल मेरी आँखों के सामने ...तुम्हारी वो आँखें आ जाती हैं ...और दिल को एक सुकून दे जाती हैं ...और कभी कभी इन पलकों को गीला कर जाती हैं

उस रोज़ का दिया हुआ तुम्हारा वो कागज़ मैंने आज भी संभाल कर रखा है ....पता नही क्यों अब वो बहुत कीमती हो गया है ...और सच में उसकी कीमत बढती ही जा रही है .....याद है मुझे जब तुम मेरे सामने बैठी थीं ...कितनी खुश थीं तुम ....आज तक मुझसे मिलकर उतना खुश कोई नही हुआ ...जितना उस रोज़ तुम हुई थीं ....और तुम्हारे माथे पर वो हल्की हल्की बूँदें बहुत प्यारी लग रही थीं ...जो मुझसे मिलने की चाह में ....तुम्हारी जल्दबाजी ने पैदा कर दी थी

और वो मुस्कुराते हुए कहना तुम्हारा कि स्टाइल बहुत मारते हो ....अब तो अन्दर हैं हम ...अब तो चश्मा उतार दो ...और जब मैंने चश्मा उतार दिया था ....तो तुम कैसे शरमा रही थीं ...कैसे बार बार मेरी नज़रों से अपनी नज़रें चुरा चुरा कर ...मेज पर रखे उस फूलदान को देखे जा रही थीं ....और मेरे कहने पर कि क्यों इतनी शरमा रही हो ....तो तुम कैसे शर्माते हुए मुस्कुरायी थीं ....उफ़ तुम्हारी वो मोहक मुस्कराहट कैमरे में कैद कर लेने का मन किया था ....तुम्हें पता है आज भी मेरे दिल की एक अलमारी में वो मोहक मुस्कराहट छुपा कर रखी हुई है ....और दूजी अलमारियों में तुम्हारी तमाम यादें छुपा कर रखे हुए हूँ

और जब तुमने कहा था कि आज की इस मुलाक़ात पर ...कुछ याद रखने वाली बात लिख कर दो ...तुम्हें पता है उस रोज़ की ...मेज से उठाये हुए उस कागज़ पर बनी तुम्हारी पेंटिंग आज भी मेरे पास रखी हुई है ....जब बहुत याद आती है तो उसे देख जी बहला लेता हूँ ....और जब चलते हुए हम दोनों साथ थे ...पता है मुझे किस तरह तुमने मुझे इस बात का एहसास भी नही होने दिया ...और 400 रुपये मेरी जेब में ये कहकर रखे थे कि तुम्हें जरूरत होगी इसकी ...मैं जानती हूँ कि तुम्हारे पास पैसे ख़त्म हो गए होंगे ....

उस रोज़ जब तुमसे बिछड़ रहा था.... तो सच दिल बहुत जोरों से धड़क रहा था ....पता नही क्यों .....और कैसे मैंने तुम्हारे गालों पर हाथ रख कहा था ....कि अपना ख्याल रखना ...और तुम मुस्कुरा दी थीं ....पता है मुझे तुम्हारे वहाँ से चले जाने पर तुम बहुत रोयी होगी .... जानती हो ....मैं उस मोड़ पर अटैची पर बैठ ...तुम्हारे इन आँखों से ओझल हो जाने तक तुम्हें देखते रहा था ......जब कभी ख्वाबों में खुद को वहीँ उसी मोड़ पर बैठा हुआ देखता हूँ ....
मैं तुम्हें आज भी बहुत याद करता हूँ ....
---------------------------------------------------------------------------



Read more...
Related Posts with Thumbnails
www.blogvarta.com

  © Blogger template Simple n' Sweet by Ourblogtemplates.com 2009

Back to TOP