प्रतीक्षा मन के धरातल पर रेंगती रहती

>> 09 July 2015

लड़का बेरोज़गारी से जूझते दिनों में घंटों उसकी प्रतीक्षा करता. घंटे पहले सेकंड से प्रारम्भ होते और फिर ऐसे कई कई सेकंड प्रतीक्षाओं के जुड़ मिनटों में तब्दील हो जाते और ये पहाड़ी रास्तों से दुर्गम मिनट ऐसे आगे बढ़ते जैसे घंटों की खोज़ की जानी हो. और ये काम इन्हीं को सौंपा गया हो.
सुबहें पहले दोपहरों में तब्दील होने में आनाकानी करतीं और फिर शाम तक पहुँचने में उन पर सुस्ती छा जाती. लड़का हर आने जाने वाली विभिन्न किस्मों की गाड़ियों को देखता और ये जानते हुए भी की शाम होने में अभी इतना समय है जितने में वो उस सामने के पार्क में उतनी ही बार बेवजह एक जगह से उठ चहलकदमी करता हुआ दूसरी जगहों पर बैठ सकता है जितनी दफा वो पहले ये सब कर चुका है. उन गाड़ियों में रह रहकर उसके होने का आभास होता.
वो दीवारों पर लगे फिल्मों के पोस्टर देखता और उनसे जोड़ मन ही मन नई नई कहानियां बुनता, उन्हें उधेड़ता और फिर से बुनने में लग जाता. हालाँकि उसने उनमें से कोई भी फ़िल्म नहीं देखी थी फिर भी सोचता कि कभी किसी रोज़ अगर लड़की ने कहा कि चलो ये फ़िल्म देखते हैं तो फिर वो क्या करेगा. उसे किस तरह मना करेगा की वह यह फ़िल्म नहीं देख सकता क्योंकि वह अपने मन में इसे कई कई दफा पहले देख चुका है. यह एक तरह की पीड़ा है कि आप जैसा सोचते रहे हों वो वैसा न निकले. और वो इस नई पीड़ा से नहीं जुड़ना चाहता था.
कभी कभी लड़की जल्दी आ जाती तो लड़का वहीँ अपनी उसी बनायीं हुई दुनियां में अटक रहता. जब लड़की उसे बाहर हाथ पकड़ वापस अपनी दुनिया से ला जोड़ती तब उसे एहसास होते कि पीछे वो प्रतीक्षाओं की अंतहीन लड़ियाँ तोड़ कर बाहर लाया गया है.
वो होता इस संसार में किन्तु पीछे रह गए रचाये हुए संसार की स्मृतियाँ उसका पीछा करती ही रहतीं.
कहते हैं प्रतीक्षा मन के धरातल पर रेंगती हुई दूरियां नापती है.

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