उलझा उलझा बचपन

>> 07 July 2015

मन पर बने घावों के निशाँ कभी नहीं मिटते. बचपन की स्मृतियों में उलझा वो बच्चा रह रहकर याद हो आता है जिसे कभी ये समझ नहीं आता था कि वो कौनसी बातें रहती होंगीं जिनको लेकर उसकी माँ आये दिन पिटा करती है. वो बच्चा भरे हुए स्कूल में बेहद अकेला डरा डरा घूमा करता. न जाने कौनसी उधेड़बुन में लगा रहता. उसे घर जाने से डर लगा करता. वो असल में स्कूल की चाहरदीवारी में खुद को कैद कर लेना चाहता.
जहाँ बच्चे स्कूल की टनटन से ख़ुशी में झूम झूम उठते वो सहम जाया करता. वो पतंगों को देख पतंग बन कहीं दूर उड़ जाना चाहा करता. लेकिन ये उसकी चाहना भर ही रह जाया करती जो कभी पूरी न हुआ करती.
वो सोचा करता कि तीसरी मंज़िल से अपने हाथ फैलाये चिड़ियों की तरह कूदे और यहाँ से कहीं दूर निकल जाये और जब वापस आये तो माँ के पास कोई दुःख न हो और नाहीं घावों के निशाँ.
वो मन भर रो लेना चाहा करता किन्तु उसका मन कभी न भरता. हर जगह थी तो केवल रिक्तता. और मन पर बने उसके घावों के निशाँ दिन ब दिन गहरे होते ही चले जाते. होते ही चले जाते.
बचपन कभी धुन्धलाता नहीं वो केवल बड़प्पन में पीछे से रह रह झाँकता रहता है.

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