मैं लिखता हूँ क्यों
>> 10 July 2015
न लिखना जब गुनाह सा लगने लगे, तब तब लिखता हूँ. मैं लिखता हूँ काले
अँधेरे उजियारों में, मैं लिखता हूँ अधूरे दिनों की पूरी रातों में.
जब भरम पिघल जाये और कानों को गलाने लगे, तब तब लिखता हूँ. मैं लिखता हूँ उगे हुए सूरज में जी सकने के लिए, मैं लिखता हूँ आत्मा से नज़र भर मिलाने के लिए.
जब रोना सुकूँ लगने लगे और हँसना एक बहुत बड़ा गम, तब तब लिखता हूँ. मैं लिखता हूँ कि लिखा जा सके प्रेम में डूबे महबूब का गम, कि टूटे पंख लिए परिंदा कोई जब भरता है अपने दिल में उड़ने की अभिलाषाएं. मैं लिखता हूँ कि लिखना रचता है मेरी अभिलाषाओं का संसार.
जब भरम पिघल जाये और कानों को गलाने लगे, तब तब लिखता हूँ. मैं लिखता हूँ उगे हुए सूरज में जी सकने के लिए, मैं लिखता हूँ आत्मा से नज़र भर मिलाने के लिए.
जब रोना सुकूँ लगने लगे और हँसना एक बहुत बड़ा गम, तब तब लिखता हूँ. मैं लिखता हूँ कि लिखा जा सके प्रेम में डूबे महबूब का गम, कि टूटे पंख लिए परिंदा कोई जब भरता है अपने दिल में उड़ने की अभिलाषाएं. मैं लिखता हूँ कि लिखना रचता है मेरी अभिलाषाओं का संसार.
जब तलब उठती हो और बुझायी न जा सके उसकी जलती लौ. मैं लिखता हूँ.
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