आरजुओं के फूल मन के आँगन में खिलते हैं

>> 10 July 2015

आरजुओं के फूल हर रोज़ ही मन के आँगन में खिल उठते. और मन बावरा हो झूमता.

उन दिनों भावनाओं का समुद्र जो उमड़ता तो फिर ठहरने का उसमें सब्र ही न होता.दिल कहता कि ये जो मन की कोमल सतह पर हर रोज़ ही उग आती हैं और दिन ब दिन बढती है चली जाती हैं. इन्हें किस तरह से थामूं या कि उगने दूं और फिर किसी एक रोज़ उससे कह दूं कि "तुम जो पास होती हो तो फिर कुछ भी और पा लेने की इच्छा बची नहीं रह जाती".

मैं हर आने वाले नए दिन में अपने दिल को टोकता लेकिन वह तो जैसे पतंग बन हवाओं में उड़ता ही रहता. उन क्षणों में फिर उस अनुभूति को महसूसने के सिवा और कुछ नहीं होता. हरदम ही उसकी मुस्कराहट, उसका चलना, उसका बोलना सामने आ आ खड़ा होता. और फिर दिल चारों खाने चित्त हो जाता.

दिल पतंग सा, रखकर काँधे पे आरजुएं, उसके दुपट्टे सा फिजाओं में उड़ता फिरता. उड़ता ही फिरता.

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