इकरारे मोहब्बत
>> 09 July 2015
ठीक ठीक तो नहीं बता सकता कि कब उसे देख मेरे दिल की हार्ट बीट अपने
नार्मल बेहवियर की शक्लो सूरत बदलना सीखी थी लेकिन इतना तय था कि वो फरवरी
की धूप सी लगने लगी थी.
मैं जिस इंस्टिट्यूट में चन्द रोज़ पहले पढ़ाने के लिए दाखिल हुआ था. वो बाद के दिनों में उन्हीं क़तारों में शामिल हो गयी जिनका में हिस्सा था. बच्चों की वे कतारें हमें हमारा स्पेस देतीं. और तब उन्हीं क्षणों में एक छोर को छोड़ दूजे को पकड़ने के मध्य में हीं उसकी आँखें मेरी चोर निगाहों को पकड़ लेतीं. मैं जान कर ये जतलाता कि अभी के बीत गए क्षणों में जो भी और जितना भी भर हुआ था उसमें मेरा कोई कसूर नहीं है.
मैं जिस इंस्टिट्यूट में चन्द रोज़ पहले पढ़ाने के लिए दाखिल हुआ था. वो बाद के दिनों में उन्हीं क़तारों में शामिल हो गयी जिनका में हिस्सा था. बच्चों की वे कतारें हमें हमारा स्पेस देतीं. और तब उन्हीं क्षणों में एक छोर को छोड़ दूजे को पकड़ने के मध्य में हीं उसकी आँखें मेरी चोर निगाहों को पकड़ लेतीं. मैं जान कर ये जतलाता कि अभी के बीत गए क्षणों में जो भी और जितना भी भर हुआ था उसमें मेरा कोई कसूर नहीं है.
जब वो कॉरिडोर से गुजरती तो दिल अपनी नार्मल स्पीड छोड़ देता. वो सीधे सपाट
हाईवे को छोड़ प्यार की पगडण्डियों पर चलने लगता. जिसके दोनों और दूर तक
फैले बसंती सरसों के फूल खिल उठे हैं. और वो पगडंडियों से होता उनमें उसकी
शक़्लें तलाशने लगता.
ये इतना भर होता तो भी दिल अपने आप को संभाल लेता लेकिन जब वो अपनी मुस्कुराहटों के फूल बिखेर देती तो लगता जीवन बस यही है. कितना सुखद और कितना मासूम.
जब घड़ी आखिरी के क्षणों के लिए टनटनाने लगती तो दिल उदासियों से भर उठता. फिर उसके बाद की दोपहरें कहीं किसी किताब के किसी पन्ने पर अटक जातीं और शामें बेवजह के ख्यालों से गुजरती हुई उसकी यादों को समेट लातीं. रातें बेचैनियों में शामिल ख़ुशी में करवटें बदलतीं. और जब सुबहें सिरहाने आ मेरे दिल को टटोलतीं तब वो उस कॉरिडोर में टहलने को चला जाता जहाँ किसी बीते दिन में वो मुझे देख कर भी न देखना जता रही थी.
दिन तब धीमे धीमे महीनों में तब्दील होते चल दिए थे और मेरा कॉन्ट्रैक्ट ख़त्म होने की कगार पर था. वो वहां स्थायी थी और मैं अस्थायी. तब मेरे दिल ने मुझसे सवालात करने प्रारम्भ कर दिए थे. जिनके उत्तर मुझे उलझा दिया करते. और जब उलझने बहुत बहुत बढ़ गयीं तब मैंने स्वंय से ही जवाब जानना चाहा था. क्या इक़रार करना इतना दुरूह है.
और इन्हीं सवालों और जवाबों की कशमकश से जूझता में उसके सामने था. वे बिल्कुल आखिरी के दिन थे और तब उन्हीं क्षणों में मैंने दिल की राह पर चलते चलते उससे कहा था "तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो".
वो मुस्कुरायी थी और उन फ्रीज़ हो जाने वाले क्षणों में उसने कहा था "मैं जानती हूँ".
अबकी दफा मुस्कुराने की बारी मेरी थी.
वे क्षण स्मृतियों के धरातल पर बीज़ बनकर गिरे और बाद के दिनों में उनमें हर रोज़ ही नई नई किस्मों के तमाम फूल खिलते ही गए. खिलते ही गए.
ये इतना भर होता तो भी दिल अपने आप को संभाल लेता लेकिन जब वो अपनी मुस्कुराहटों के फूल बिखेर देती तो लगता जीवन बस यही है. कितना सुखद और कितना मासूम.
जब घड़ी आखिरी के क्षणों के लिए टनटनाने लगती तो दिल उदासियों से भर उठता. फिर उसके बाद की दोपहरें कहीं किसी किताब के किसी पन्ने पर अटक जातीं और शामें बेवजह के ख्यालों से गुजरती हुई उसकी यादों को समेट लातीं. रातें बेचैनियों में शामिल ख़ुशी में करवटें बदलतीं. और जब सुबहें सिरहाने आ मेरे दिल को टटोलतीं तब वो उस कॉरिडोर में टहलने को चला जाता जहाँ किसी बीते दिन में वो मुझे देख कर भी न देखना जता रही थी.
दिन तब धीमे धीमे महीनों में तब्दील होते चल दिए थे और मेरा कॉन्ट्रैक्ट ख़त्म होने की कगार पर था. वो वहां स्थायी थी और मैं अस्थायी. तब मेरे दिल ने मुझसे सवालात करने प्रारम्भ कर दिए थे. जिनके उत्तर मुझे उलझा दिया करते. और जब उलझने बहुत बहुत बढ़ गयीं तब मैंने स्वंय से ही जवाब जानना चाहा था. क्या इक़रार करना इतना दुरूह है.
और इन्हीं सवालों और जवाबों की कशमकश से जूझता में उसके सामने था. वे बिल्कुल आखिरी के दिन थे और तब उन्हीं क्षणों में मैंने दिल की राह पर चलते चलते उससे कहा था "तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो".
वो मुस्कुरायी थी और उन फ्रीज़ हो जाने वाले क्षणों में उसने कहा था "मैं जानती हूँ".
अबकी दफा मुस्कुराने की बारी मेरी थी.
वे क्षण स्मृतियों के धरातल पर बीज़ बनकर गिरे और बाद के दिनों में उनमें हर रोज़ ही नई नई किस्मों के तमाम फूल खिलते ही गए. खिलते ही गए.
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