बारिशों का शहर

>> 10 July 2015

ये शहर बारिशों का सा शहर जान पड़ता है. जागती रातों में जब बाहर खिड़की के मुहाने पर खड़े केले के पत्तों पर बारिशों का संगीत बजता है तो लगता है तुम्हें यहीं होना चाहिए था. जो तुम होतीं तो मैं बाँट सकता अपने भीतर भर आये सुख के कुँए को पूरा पूरा.

जब सबका सवेरा सो जाता है तब उगने लगता है मेरे भीतर रचे संसार का सूरज. जो तुम होतीं तो मैं बाँटता अपने धूप का आँगन.

बारिशें थमतीं नहीं अक्सर. यहाँ पेड़ों की शाखों पर बजती है कोई धुन रह रहकर. कि जो तुम होतीं तो गीत कोई गुनगुनाता मैं.

मैं हूँ शामिल इन सब में लेकिन फिर भी मुस्कुराती नहीं आँखें, कि तुम बिन सब कितना अधूरा है.
यहाँ हर रोज़ ही बरसता है बादल, कि ये शहर बारिशों का सा शहर जान पड़ता है.

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