स्मृतियों के कैनवस पर से उड़ते रंग
>> 21 October 2010
बरस शायद उन्नीस सौ अठासी,
आँगन के एक ओर खड़े अशोक की पत्तियों में लुका छुपी करती हुई गिलहरी, आँख बचाकर माँ के हाथों धूप में फैली मक्का के दाने ले दौड़ती है और पुनः अशोक की हरियाली में विलीन हो जाती है । मैं किताब छोड़ उसके पीछे दौड़ता हूँ और उसे डराने का प्रयत्न करता हूँ । माँ स्वेटर के फन्दों से एक नज़र हटाकर मुस्कुरा देती है । मैं वापस लौट किताब थाम लेता हूँ ।
एक बूढा नीम अपनी आधी ममता हम पर उडेलता है और बाकी की उसके आँगन में । पिछले दफा होली के मौके पर उसकी एक सूखी टहनी को काटने से रोकने के लिए, उसके चचा जान ने कितना हंगामा काटा था । जिसकी भरपाई बाद के दिनों में उन्होंने अपने बरामदे की दीवार पर बेल को चढ़ा कर की थी । अब मालूम चलता है कि चचा जान अपनी भतीजी को लेकर कितने पजेसिव थे ।
वो क्वार्टर नंबर सी-पचहत्तर ग्यारह बरस पीछे छूट गया ।
और वो आधे बूढ़े नीम की दीवानी, न मालूम कहाँ....
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वो दूसरी में मेरे साथ था, फिर तीसरी में दोस्त बना और चौथी में जिगरी यार । इंटरवल में कहानी सुनाता था और उसके लंच बॉक्स के खट्टे आम के अचार का जायका बरसों ज़बान से नहीं उतरा । वो मेरी माँ के हाथों बनी खीर के चाहने वालों में से एक था ।
पाँचवी में ड्राइंग में अव्वल आता था और उन्हीं दिनों में मैडम ने भविष्यवाणी की थी "सुनील तुम एक रोज़ बहुत आगे जाओगे" ।
छटवीं के बाद वो दोस्त हाथों में टॉर्च लिए सिनेमा हॉल के अँधेरे में खो गया ।
वो बरस उनीस सौ तिरानवे था....
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वो पाँच में से तीन विषय में डिस्टिंक्शन लाया था और बाकी दो में चन्द कदम पीछे रह गया था । आईआईटी जिसकी चाहत थी और कुछ कर दिखाना जिसका ख्वाब । वो ख्वाब किताबों के खर्च और फीस का बंदोबस्त न हो पाने के भय तले दब कर शहीद हो गया । जब तब याद हो आता है अपना ही कोई ख्वाब था ।
वो बरस उन्नीस सौ निन्यानवे था....
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चार दीवारें थीं, दो अलमारियाँ, तीन तख़्त और हम पाँच । वो छोटा था जो लगते-लगते एकदम से बहुत बड़ा लगने लगा था । जहाँ शोर था, हँसी की गूँज थी, बेपरवाह पड़ी एक और किताबें थीं और मेरे संग की चार शक्लें ।
जिसमें सुबह की ठिठोली थी और देर रात तक की महफ़िल । वो बहुत अपना था । उसमें रहने वालीं, उस बरस की पाँच शक्लें, न जाने कहाँ-कहाँ, अलग-अलग, भागती-दौड़ती, मशीनों की तरह इस्तेमाल होतीं, बहुत कहीं आगे चली गयीं ।
वो कमरा नंबर एस-सोलह बहुत पीछे छूट गया ।
वो इक्कीसवीं सदी की छटवीं सालगिरह थी....
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वो मेरा सबसे प्यारा ख्वाब थी, जो एकाएक ही कहीं से आकर मेरी आँखों में बस गयी । उसकी बातें जैसे माँ की लोरी, उसका हँसना जैसे ठंडी हवा के झोंके का गालों को थपथपा जाना । और उसका करीब होना दुनियाभर की कामयाबी ।
वो लड़की किसी प्लेटफॉर्म पर छूट गयी ।
वो मेरे खाली हाथ रह जाने का बरस था....
सब कुछ पीछे छूट जाता है । रहती हैं तो स्मृतियाँ....जिसमें बीते वक़्त के पन्ने बहुत तेज़ फडफडाते हैं । जैसे स्वंय को मुक्त कर देना चाहते हों ।
कौन जाने, एक पवित्र स्मृति किसी रोज़ धुंधली होती हुई मिट जाए....
16 comments:
जीवन ऐसे विछोहों का नाम भी है।
जब स्मृतियाँ इतनी अज़ीज़ हों, दिल के इतने क़रीब तो उनकें रंग कैन्वस से यूँ उड़ा नहीं करते... अभी तक हर स्मृति से जुड़ा बरस तक याद है आपको और यकीन से कह सकते हैं वो सारी ख़ास तारीखें भी याद होंगी :) ... ये पवित्र स्मृतियाँ धुंधली भले ही हो जाएँ पर मिटा नहीं करतीं...
Aaj aapke lekhan ne anaayaas aankhen nam kar deen...
duniya bahut choti hai, kahin kisi roz, kisi mod par kaun si yaad saamne aa kar khadi ho jaaye, kaun jaanta hai.
बहुत सुन्दर शब्द चित्र है भा ई ।
कोई शब्द होता जों इन्हें सार्थक करता तो एक शब्द में कह जाती.....लेकिन यहाँ तो पग-पग में वो लम्हात हैं जिन्हें एक बार फिर जीने को जी चाहता है.....काश! हम बीता वक़्त जी पाते.....ऐसा रेखाचित्र है जिसे तारीफ करने नहीं बल्कि महसूस करने की जरूरत है
बेहद मासूमियत भरी है इन यादो मे।
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (22/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
ख़ूबसूरत यादें..... ये कभी भुलाई नहीं जा सकती.
Very nice collection of memories.yaaden aur bas yaden ........
यादें मिटती नहीं |बहुत अच्छी प्रस्तुति बधाई |
आशा
काव्यात्मक भाषा में लिखा गया सुंदर संस्मरण।
स्मृतियों के रंग भले कितने ही फ़ीके या धुंधला जाए पर वे कभी बीतते नहीं और उन की खुश्बुए हमारे जीवनों में सदैव बसी रहती हैं. जिस तरह फ़ूलों के मुर्झानें के बाद भी उनकी खुश्बु हवाओं में बनी रहती है. बेहद खूबसूरती से पिरोई गई सुदर प्रस्तुति. आभार.
सादर
डोरोथी.
बहुत अच्छा तरीका है आप के लिखने का मैं तो आपका फैन हो गया..
पूरे काल खंड को जैसे केनवस में उतार दिया है .... बोलता हुवा केनवस ...
बेहद खूबसुरत .... फ़िर से ज़ी लिया बीता वक्त आपकी इस लेख में !!! धन्यवाद अनिल ..
मेरे खुदा ! मैं उसे भूलने ना पाऊँ कभी,
दुआएं सच भी अगर हों, तो बे असर रखना....
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