तूने जो ना कहा वो मैं सुनता रहा

>> 09 July 2009

फैज़ मियाँ एक शेर कहते हैं...उनकी वाली लड़की अपनी सहेलियों के साथ उधर से गुजर रही है...उस झुंड में से एक लड़की 'स्टूपिड' सा कुछ कह कर जा रही है...मैं वहीँ खान साहब की चाय की दुकान पर चाय की आखिरी चुस्की ले रहा हूँ...लड़की के 'स्टूपिड' कहने से फैज़ मियाँ बुरी तरह आहत हैं...

इन लड़कियों में 'नजाकत और नफ़ासत' तो रही ही नहीं कहते हुए वो मेरे ही बैंच पर बैठ जाते हैं...खान साहब कहते हैं...अरे दौर तो हमारा था जब 'नजाकत और नफ़ासत' तो लड़कियों की पहचान हुआ करती थी...पर तब हम लोग भी ऐसे ना थे...हम उनकी तारीफ भी बड़े प्यार से किया करते थे...आज के लोंडों की तरह नहीं जी फब्तियां कसते हैं...छेड़छाड़ करते हैं...और बलात्कार जैसी घटनाएं होती हैं...तब ये सब ऐसा नहीं था...मोहब्बत अगर होती थी तो उसका भी एक लम्बा दौर चलता था और शराफत कायम थी...

अरे खान साहब आप तो बस अपना दौर सुनाने लगते हैं...हम कौन सा उसे छेड़ रहे थे...मैं कहता हूँ खान साहब फैज़ मियाँ इश्क में हैं...खान साहब मुस्कुरा जाते हैं...अरे कब से...यही कोई पिछले एक बरस से और आपने गौर नहीं किया...इनकी वाली ने इन्हें कुछ नहीं कहा...वो तो कोई सरफिरी थी जो इन्हें 'स्टूपिड' कह कर चली गयी...

तभी वो छोटा सा बच्चा आ जाता है दुकान पर जिसे खान साहब हर रोज़ मुफ्त में नाश्ता कराते हैं और चाय पिलाते हैं...और यही क्रम पिछले 2-3 बरस से चल रहा है...तभी एक ग्राहक उस लड़के के बारे में खान साहब से पूँछता है...किस धर्म का है लड़का...खान साहब उस आदमी की तरफ मुस्कुरा कर देखते हैं और कहते हैं..."गरीब और भूखे का कोई धर्म नहीं होता"...ये तो धर्म और मजहब के ठेकेदारों के बनाये हुए चोंचले हैं...धर्म और मजहब के नाम पर तो बस उन ठेकदारों और नेताओं के घर ही आबाद हुए हैं...

मैं अपनी ही बैंच पर बैठे फैज़ से कहता हूँ...क्यों फैज़ मियाँ तो बात कहाँ तक पहुँची...अमां यार तुम तो रहने ही दो...ये नहीं कि दोस्त की कोई मदद करो...यहाँ हमारी जान पर बनी है तुम्हें दिल्लगी की सूझ रही है...सिगरेट को जलाते हुए मैं कहता हूँ...यार तुम कहो तो जान दे दूँ पर उससे कुछ हासिल तो हो...पर आज फैज़ मियाँ कुछ संजीदा से जान पड़ते हैं...पास ही खड़े अपने अब्बा जान के दिए हुए स्कूटर को उठाते हैं...स्टार्ट करते हैं...और उस पर मेरे पीछे बैठने का इंतजार करते हैं...मैं उठता हूँ और उनके साथ स्कूटर पर बैठ जाता हूँ....

शाम का समय है खाना खाने के बाद मैं कमरे में बैठा सिगरेट सुलगा लेता हूँ...फैज़ मियाँ बड़े अपसेट से दिखाई जान पड़ते हैं जो कमरे में ही हैं पर इस बात का इल्म उन्हें जरा भी नहीं कि उस कमरे में मैं भी हूँ...अचानक वो होश में आते हैं और मेरे हाथ से सिगरेट ले खुद धुएं छोड़ने लगते हैं...कहते हैं यार चल रात का शो देखने चलते हैं...मैंने कहा कौन सी...वो बोले 'दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे'...अबे 20 दफा तो दिखा चुका है वो फिल्म...तो 21 वीं दफा और सही..वो बाहर जाकर स्कूटर स्टार्ट कर लेता है...और बार बार स्कूटर की तेज़ आवाज़ देता है...मैं जाकर उसके पीछे बैठ जाता हूँ...अबे कपडे तो पहन लेने दिया कर...अबे वहां कौन सा मेरा निकाह पढ़ा जा रहा है...जो तैयार होगा...

सिनेमा हॉल के अन्दर बैठा मैं आधा सोते और आधा जागते हुए फिल्म देखता हूँ...फिल्म खत्म हो गयी...बाहर निकल कर अब मैं स्कूटर स्टार्ट करता हूँ...फैज़ मियाँ पीछे बैठे हैं...कुछ दूरी चलने पर फैज़ मियाँ कहने लगते हैं...रोक यार...क्यों क्या हुआ...हर बार की तरह आज इनका मन गंभीर है...रास्ते की उस बैंच पर बैठ वो सिगरेट सुलगा लेते हैं...

उनकी गंभीरता देखते हुए मैं कहता हूँ क्या हुआ फैज़ मियाँ...क्यों उखड़े हुए हो...कुछ नहीं यार...बस जी भर गया...रिहाना है जो कि प्यार तो करती है लेकिन कबूल नहीं करती...उसके पीछे 1 बरस बीत गया...अब दिल नहीं लगता...जिंदगी बोझ सी जान पड़ती है...मैं जानते हुए भी मुस्कुराते हुए कहता हूँ अच्छा तो उसका नाम रिहाना है...पर आज फैज़ मियाँ कुछ ज्यादा ही गंभीर जान पड़ते है...अच्छा ठीक है...तुझे पूरा यकीन है कि वो तुझ से प्यार करती है...हाँ उसकी आँखों में साफ़ झलकता है...कभी सामने पड़ जाती है तो ऐसे कतराती है जैसे महबूबा हो...मैं कहता हूँ...अच्छा मियाँ तो बात यहाँ तक पहुँच चुकी है...आँखें भी पढ़ी जाने लगी...यार खामखाँ की बातें ना करो, कुछ उपाय बताओ क्या करूँ...मैं उसके हाथ से सिगरेट लेकर धुंआ छोड़ता हूँ...और सोचने की मुद्रा में...ह्म्म्म्म सोचना पड़ेगा...तो तुझे पूरा यकीन है कि वो तुझ से प्यार करती है...हाँ भाई जान हाँ....

यार 'आदि' कुछ आईडिया सोच...कुछ कर यार...अच्छा ठीक है फिल्मों वाले आईडिया का उल्टा करते हैं...क्या मतलब...कुछ लड़कों को गुंडा बनने के लिए तैयार कर ले...क्या मतलब है बे तेरा...अरे उनसे ये कहना कि वो रिहाना के सामने आकर तेरी मार लगायें...अबे क्या बक रहा है...देख सीधा सा मतलब है अगर वो तुझे पिटता देखेगी तो उसका दिल जरूर पसीजेगा...और तेरे पास जरूर आएगी...चाहे तेरे घायल होने के बाद ही क्यों ना आये...

अबे आईडिया पूरा फ़िल्मी है...अरे फैज़ मियाँ आजमा कर तो देखो...कभी कभी फ़िल्मी आईडिया भी काम कर जाते हैं...यार कहीं बेइज्जती ना हो जाये 'आदि'...अबे प्यार पाने के लिए ये सब ना सोचो...और वैसे भी कौन सी तुझे इज्जत कंधे पर टांग कर घूमना है जो कोई ले लेगा...चल ठीक है देखते हैं इस आईडिया को भी...

पैसे की कोई कमी ना थी फैज़ मियाँ के पास...उनके अब्बा हजूर पुराने रईश थे...तो अपने ही जान पहचान के लड़के से 8-10 लोंडों का इंतजाम उन्हें खिला पिला कर कर लिया...अब बारी थी उस सुबह की जब इस कहानी को अंजाम देना था...मैं और फैज़ मियाँ, खान साहब की दुकान पर चाय की चुस्कियां ले रहे थे...तभी 7-8 लड़को का झुंड आया और दूसरी तरफ से रिहाना और उसकी सहेलियों आ रही थीं...उन लड़कों ने आव देखा ना ताव और आकर फैज़ मियाँ का कोलर पकड़ कर उठा लिया...यही है और फैज़ मियाँ को पीटने लगे...पहले दो चार थप्पड़ पड़ने तक तो मैं खामोश रहा...और उसे अपने किये गए प्लान का हिस्सा समझ रहा था...लेकिन वो लड़की जो फैज़ मियाँ को 'स्टूपिड' कहती थी वो मुस्कुरा रही थी और उन लड़कों में से 1 लड़का उस लड़की से बात कर रहा था...हालांकि रिहाना का हाल बहुत बुरा था...उस से ये सब देखा नहीं जा रहा था...मैं समझ गया कि पासा उल्टा पड़ गया है...मैं भागते हुए फैज़ मियाँ को बचाने को दौड़ा...वो अपने साथ हॉकी लेकर आये थे...उन्होंने हॉकी से फैज़ मियाँ की पिटाई शुरू कर दी...मेरे बीच बचाव करते हुए उन्होंने मुझे भी धुनना शुरू कर दिया

काफी पिटाई करने के बाद वो फैज़ मियाँ को डराने के लिए अपने साथ लाये चाकू को हाथ में लेकर धमकाने के उद्देश्य से कहने लगे साले फिर कभी छेड़ेगा लड़कियों को...मैं उसकी तरफ दौड़ा...ये सब क्या है...उसने डराने के लिए चाकू चलाया...और इस आपाधापी में चाकू मेरी जांघ पर लग गया...वो लड़के सब डर कर भागने लगे...फैज़ मेरी तरफ लपका...मेरी टांग से खून बहने लगा...रिहाना भी दौड़ती हुई आई...फैज़ चीख चीख कर कहने लगा भागते कहाँ हो...छोडूंगा नहीं तुम सबको...उसने मुझे उठाकर कंधे पर डाला...ऑटो वाले को जल्दी से बुलाकर उसमें बिठा अस्पाल ले जाने लगा...रिहाना, फैज़ और मेरी तरफ देख रही थी...उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे...फैज़ के मुंह से रिहाना के लिए निकला मैं तुम्हें कभी माफ़ नहीं करूँगा

अस्पताल ले जाकर मुझे टाँके लगाये गए...शायद में बेहोश हो गया था...जब होश आया तो खुद को अस्पताल के कमरे के बैड पर पाया...फैज़ कुर्सी पर बैठा हुआ था...फैज़ ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा यार मुझे माफ़ कर दे ये सब मेरे चक्कर में हो गया...मैं मुस्कुरा दिया...तभी वो लड़के वहां पहुँच गए जो असल में फैज़ ने ये सब नाटक करने के लिए बुलाये थे लेकिन उनके पहुँचने से पहले वो उस लड़की के बुलाये हुए भाई बंधू वहाँ पहुँच गए...लड़कों ने कहा कि यार फैज़ जब हम आधा घंटे बाद वहां पहुंचे तो हमे पता चला कि ये सब हुआ है...फैज़ चुप रहा...फैज़ की आँखें गीली थी...मैंने कहा कि कोई नहीं अब जो हो गया सो हो गया...कुछ देर बाद वो लड़के चले गए...तभी रिहाना उस कमरे में आई...डरती हुई..सहमी सी...फैज़ उस पर चीख पड़ा...क्यों आई हो यहाँ...यही देखने कि जिंदा है या मर गया...वो रोने लगी...मुझे कुछ नहीं पता इस सबके बारे में...ओह तुम्हें नहीं पता...तो ये गुंडे कहाँ से आ गए...अरे वो उस बेवकूफ की कारिस्तानी है...मुझे तो कुछ पता भी नहीं था...चली जाओ यहाँ से...मुझे अपनी शक्ल भी नहीं दिखाना...

वो मेरे पलंग पर बैठ गयी...मैंने मुस्कुराते हुए रिहाना को देखा...अपने साथ लाये फल रिहाना ने मेज पर रख दिए...आई ऍम सॉरी...ये सब मेरी वजह से हो गया...फैज़ कमरे से बाहर चला गया...रिहाना ने पास ही रखा दूध का गिलास और दवा मुझे दी...रिहाना काफी देर तक बैठी रही और फिर कल आउंगी का कह कर चली गयी...1 रोज़ में फैज़ का मूड भी थोडा ठीक हो गया...

अगले रोज़ रिहाना आई और पिछले रोज़ की तरह ही दूध का गिलास उठा कर दवा खाने के लिए बोली...मैं बोला मैं नहीं खाऊंगा जब तक मुझे एक बात नहीं बताओगी आप...क्या...सच सच बताना आपको मेरी कसम है...हाँ ठीक है सच सच बताउंगी लेकिन पहले दवा तो खा लीजिये...मैंने कहाँ नहीं पहले बताओ...क्या आप हमारे फैज़ मियाँ से प्यार करती हैं...वो बस हल्का सा मुस्कुरा दी...कुछ बोली नहीं...मैंने मुस्कुराते हुए बोला क्या आप हमारी भाभी बनेंगी...फैज़ बोला क्या यार...मैंने हंसते हुए कहा...अरे यार जब गाडी यहाँ तक पहुँच ही गयी है तो बात पूरी कर ली जाए ना...और हम सब हंसने लगे...ठहाकों से पूरा कमरा गूंजने लगा...और मैं बोला भाई हमारे फैज़ मियाँ तो आप पर दिलो जान से मरते हैं....क्यों फैज़ मियाँ...अरे बोलो ना...हाँ...हाँ बोलो ना...और फिर पहली आवाज़ आई रिहाना की हाँ और उसके बाद फैज़ मियाँ की हाँ भाई हाँ....और इस तरह फैज़ मियाँ के इश्क की दास्ताँ शुरू हुई

29 comments:

विनोद कुमार पांडेय 9 July 2009 at 13:52  

waah bhai..

rihana aur faij miyan ki ishk ki dastaan badhe hi mohak andaaj me..

maja aa gaya bhai..
bahut bahut badhayi..

anil 9 July 2009 at 14:10  

बहुत बढ़िया अच्छी कहानी सुनाई धन्यवाद

दिगम्बर नासवा 9 July 2009 at 14:30  

ishq की mohak daastaan ................. मज़ा आ गया हमेशा की तरह

सदा 9 July 2009 at 15:44  

बहुत ही बेहतरीन ।

Bhavya.B 9 July 2009 at 15:59  

Nice post.another feather in your crown.

राज भाटिय़ा 9 July 2009 at 16:20  

चलिये फ़ैंज भाई की तो बन गई, हमारी तरफ़ से बधाई दे, बहुत सुंदर लगी आप की यह राम कहानी

निर्मला कपिला 9 July 2009 at 16:56  

बहुत बडिया कहानी है बहुत बहुत बधाई आपके फैज़ मियांम को

रंजन (Ranjan) 9 July 2009 at 17:54  

बहुत अच्छी प्रस्तुती..

Udan Tashtari 9 July 2009 at 18:12  

इश्क और मुश्क-उतर ही आता है! बेहतरीन!

Vaibhav 9 July 2009 at 19:10  

भगवान् आप को सारी खुशियाँ दे, दो प्यार करने वाले दिलो को मिला कर बड़ा नेक काम किया आपने (कहानी में ही सही)

Sim 9 July 2009 at 20:45  

You create magic with your words..nice post!

Anonymous,  9 July 2009 at 23:04  

बढ़िया है अनिल बाबु !!

Unknown 10 July 2009 at 00:13  

sabhi paatron se achha kaam karaa liya aapne .......
waah
waah !
_________badhaai !

mehek 10 July 2009 at 02:25  

waah,ye ishq bhi ....bahut hi sunder bhav ke saath likha hai.badhai.

Anil Pusadkar 10 July 2009 at 10:15  

छा गये अनिल बाबू।

मथुरा कलौनी 10 July 2009 at 11:34  

कहु ही रोचक किस्‍सा है। पिछले साल बेंगलोर में मैंने अपने एक नाटक 'कब बक रहें कुँवारे' का मंचन किया था। नाटक का विषय कुछ इसी प्रकार का था। नाटक की एक कव्‍वाली का आनंद उठाइये
http://www.youtube.com/watch?v=CXmHdtq8y5o

Ria Sharma 10 July 2009 at 12:54  

चलिए तो आपने फैज़ मियां की गड्डी पार लगा ही दी ..
कीमत थोड़ा ज्यादा थी पर दोस्ती में सब माफ़ ह्म्म्म..:)

गौतम राजऋषि 10 July 2009 at 14:22  

इश्क की दास्तान है प्यारे
अपनी-अपनी जुबान है प्यारे

सुशील छौक्कर 10 July 2009 at 15:35  

वाह जी वाह आप तो सच्ची कहानी अच्छी बुन लेते है। बहुत बढिया।

Smart Indian 10 July 2009 at 17:02  

बेहतरीन कहानी. यह इसक नहीं आसाँ....

रंजना 10 July 2009 at 17:48  

बाप रे.....बड़ी भारी है यह इश्के दास्तान.....

लाजवाब लिखा है.....सीन बाई सीन ......

Science Bloggers Association 10 July 2009 at 18:20  

दिल को छू लेने वाली दास्तान।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

vikram7 11 July 2009 at 13:27  

अच्छी कहानी .बधाई

Razi Shahab 11 July 2009 at 15:48  

बहुत ही बेहतरीन
धन्यवाद

SFA 12 July 2009 at 22:56  

bhai ye faiz bhai ki to naiya paar lag gayi....hamari bhi lagao hum to aapke bhai hai ...

sujata sengupta 13 July 2009 at 11:36  

the setting of the story is so perfect, it reminded me of places like bhopal, lucknow, and the characters are very endearing and believable, great story Anil, abhi kitaab likhne ke bare mein socho!!

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