ड्योढ़ी पर खड़ी शाम
>> 06 October 2010
उस रोज़ जब ट्रेन प्लेटफोर्म पर आने को थी और तुम्हारी पलकें गीली होने को, तब मैं उसके छूट जाने की दुआ कर रहा था । तुम्हारे हाथों को थामे, ठहर जाने को मन कर रहा था । मगर अब ये मुमकिन नहीं कि तुम्हें मालूम हो कि उस रोज़ मैं वहीं छूट गया था । उसी बैंच पर, तुम्हारे आँसुओं में भीगा, अंतिम स्पर्श से गर्माता । और हर बार ही उस प्लेटफोर्म पर से गुजरते हुए, मैंने उसको वहीं पाया है । यूँ कि तुम आओगी और कहोगी 'अरे तुम अभी यहीं हो' ।
कई दफा खुद को टटोलता हूँ और जिस्म के लिहाफ़ को झाड कर फिर से जीने के काबिल बना लेता हूँ । मुई रूह के बगैर कब तलक कोई जिए जाएगा । सुनो, कभी जो गुजरों उधर से तो एक दफा उसको अलविदा कह देना । जैसे रूठे बच्चे को मनाता है कोई । शायद आखिरी की ट्रेन से मुझे आकर मिले कभी ।
कई बरस बीते हैं, साथ जिए बगैर । कुछ तो मैं भी जीने का सलीका सीखूँ । चन्द ज़ाम से गुजर सकती हैं रातें, मगर बीते बरस नहीं गुजरते । हर शाम ही तो आकर खड़े होते हैं ड्योढ़ी पर । हर सुबह ही तो छोड़ जाते हैं तनहा । हर दफा पी जाता हूँ वो पीले पन्ने, जिन पर लिखी थीं तुम्हारे नाम की नज्में ।
दोस्त नहीं देते अब तुम्हारे नाम की कस्में । हर रोज़ ही भूल जाते हैं और भी ज्यादा, कि कभी तुम भी थीं उनका हिस्सा । अब नहीं करते फरमाइश, उस किसी बीते दिन की । चुप ही आकर सुना जाते हैं, जाम में उलझा कर कई किस्से । यूँ कि सुनाया करते हों किसी महफ़िल में मुझे लतीफे की तरह ।
जानता हूँ हक़ यादों की पोटली में मृत होगा कहीं । और मैं उसमें जान फूँकने की बेवजह कोशिश नहीं करूँगा । मगर फिर भी प्लेटफोर्म की उस बैंच पर से गुजरते हुए, कभी तुम सुनना उसको । जो हर दफा कहता है मुझसे 'काश उसने मेरा हाथ थामा होता....'
17 comments:
बहुत भड़िया प्रस्तुति
बहुत बेहतरीन..
वाह लाजवाब ...
बरस बिताने नहीं, जी लेने को हैं। या पा लें उन्हें या नये को स्थान दे दे। अर्धसत्य बन कर खिचाव बढ़ता ही है।
Sach dost har beette din k sath bhulte jate hain aur bhi zyada aur unka bhulna yaad ko aur bhi gehra karta jata h... badhiya prastuti
पोस्ट पढ़ कर गुलज़ार साब की ये ग़ज़ल अनायास ही याद आ गयी -
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख़ से लम्हें नहीं तोडा करते
जिसकी आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन
ऐसे तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते
शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा
जाने वालों के लिये दिल नहीं थोड़ा करते
लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो
ऐसे दरिया का कभी रुख नहीं मोड़ा करते
वक़्त की शाख़ से लम्हें नहीं तोडा करते
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
बेहतरीन..
रोज़ भूलते है हम उनको थोड़ा-थोड़ा और कुल मिलाकर वो और ज्यादा, और ज्यादा होता जाता है... सच में कोई बिछड़ जाए, फिर भी यादें नहीं बिछड़ा करतीं.
बहुत बढ़िया लिखते हैं आप ..दिल कहीं लफ़्ज़ों में खो सा जाता है ..पहले भी लिखा था एक रिदम में पढ़ा जाता है आपका लिखा शुक्रिया
अनिल जी
आज बहुत दिन बाद फिर उसी रिदम मे लिखा है जिसके लिये आप जाने जाते हैं………………इस प्रवाह के लिये कुछ भी कहने मे असमर्थ हूँ………………।बस इतना ही कि दिल मे उतर गयी एक टीस के साथ्।
वाह डूब कर लिखते हैं आप कहानी में कविता का सा एहसास होता है .
और हाँ मुझे शीर्षक बेहद अच्छा लगा.
बहुत बांधे रखने लायक लिखा है आपने , इसी बहाने गुलज़ार साहब की ग़ज़ल भी पढने को मिली . आपकी गद्य नुमा कविता के लिए सुझाव भी ...वक्त की शाख से लम्हे नहीं तोड़ा करते ...मगर ये अहसास तो हर बार उन्हीं लम्हों का रुख हैं मोड़ा करते ...
फिर एक बार भाषा की तारीफ करूंगा ।
जानता हूँ हक़ यादों की पोटली में मृत होगा कहीं...
क्या शानदार प्रयोग है अनिलकांत जी. बहुत बढिया.
I love the way that you write.Emotion khojne nahi pad rahe...wo to bah rahe hain... Truely good one! :-)
आपके ब्लॉग पर पहली बार आये .. आप बहुत अच्छा लिखते हैं ...खुशबू और नजाकत एक साथ बिखेरते हैं
behad umdah massa Alla
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