विचार, सौन्दर्यबोधता और दुनियादारी
>> 06 January 2011
दो दिन से जाड़ा खाने को दौड़ता है । त्वचा डर कर सुन्न हुई जाती है । उस पर से तुर्रा ये कि पेट-खातिर काम को भी जाना है । अन्यथा कभी-कभी लगता है कि बंधन और अपने स्वभाव का छत्तीस का आँकड़ा है । क्या मुक्त होकर भी मुक्ति हासिल होती है ? हज़ूर तभी तरक्क़ी ना कर सके - तरक्क़ी ? तो मन के संदेह को मजबूत किया और घर पड़े रहे ।
रात भर नींद ग़ालिब थी और विचारों ने आ घेरा - जागते रहे । दूर ....ते....रहो ... आवाजें आती रहीं । और स्टेशन तो जैसे सर के पास जान पड़ा । लगता रहा जैसे कमरे में नहीं वेटिंग रूम में सुस्ता रहे हैं और रेलें रेंगती हुई कान से निकलती रहीं ।
कभी-कभी सोचता हूँ - क्या मैं वही इंसान हूँ जिससे लोग इतनी आशाएँ रखते थे ! और जिन्हें अब मैं मरुस्थल में घूमता सा जान पड़ता हूँ । खैर कोई कब तक दूसरों के लिये जिये जाएगा - असल में तो वह मरना ही है । और बार-बार मरकर, अपनी तो रूह भी कराहने लगी है । सोचता हूँ थोड़े समय उसे छुट्टी दे दूँ ।
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कुछ रोज़ से दोस्त का फ़ोन आया करता है - उसके समय पर उसके अरमानों पर सही ना उतर पाने का मलाल रहता है - और शर्म भी महसूस होने लगती है । क्या किया जाये ? जानता तो वह भी सब कुछ है । फिर भी दुनियावी आदमी बना है । खैर वह तो बरसों से ही दुनिया को ओढ़ कर चलने लगा है - आज फिर विचार आया, पैसा बुरी बला है ।
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क्या इंसान सौ प्रतिशत शुद्ध रह सकता है ? लगता तो नहीं - दूसरों की अपेक्षाओं पर खरा उतर पाने की कोशिशों में अपना आप शेष ही कितना रह पाता है । शुद्धता तो दूर की कौड़ी है । एकरसता जीवन को नीरस करती जाती है । मुक्तता में सुकून अवश्य रहता होगा ।
मुक्त जीवन - सुकून भरे दिन और मनमाफ़िक क्रियाकलाप......आह !
रात भर नींद ग़ालिब थी और विचारों ने आ घेरा - जागते रहे । दूर ....ते....रहो ... आवाजें आती रहीं । और स्टेशन तो जैसे सर के पास जान पड़ा । लगता रहा जैसे कमरे में नहीं वेटिंग रूम में सुस्ता रहे हैं और रेलें रेंगती हुई कान से निकलती रहीं ।
कभी-कभी सोचता हूँ - क्या मैं वही इंसान हूँ जिससे लोग इतनी आशाएँ रखते थे ! और जिन्हें अब मैं मरुस्थल में घूमता सा जान पड़ता हूँ । खैर कोई कब तक दूसरों के लिये जिये जाएगा - असल में तो वह मरना ही है । और बार-बार मरकर, अपनी तो रूह भी कराहने लगी है । सोचता हूँ थोड़े समय उसे छुट्टी दे दूँ ।
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कुछ रोज़ से दोस्त का फ़ोन आया करता है - उसके समय पर उसके अरमानों पर सही ना उतर पाने का मलाल रहता है - और शर्म भी महसूस होने लगती है । क्या किया जाये ? जानता तो वह भी सब कुछ है । फिर भी दुनियावी आदमी बना है । खैर वह तो बरसों से ही दुनिया को ओढ़ कर चलने लगा है - आज फिर विचार आया, पैसा बुरी बला है ।
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क्या इंसान सौ प्रतिशत शुद्ध रह सकता है ? लगता तो नहीं - दूसरों की अपेक्षाओं पर खरा उतर पाने की कोशिशों में अपना आप शेष ही कितना रह पाता है । शुद्धता तो दूर की कौड़ी है । एकरसता जीवन को नीरस करती जाती है । मुक्तता में सुकून अवश्य रहता होगा ।
मुक्त जीवन - सुकून भरे दिन और मनमाफ़िक क्रियाकलाप......आह !
6 comments:
मुक्त जीवन - सुकून भरे दिन और मनमाफ़िक क्रियाकलाप......आह !
वाह !!
जीवन सरल रहे, उसी में आनन्द है।
मुक्त जीवन -फुरसत के दिन -एक दिवा स्वप्न !
मुक्त जीवन - सुकून भरे दिन और मनमाफ़िक क्रियाकलाप......आह ....
पर ये सब बातें अब सपनों की बाते हैं ... ऐसा कहाँ हो पाटा है अनिल जी ...
आपको नया साल मुबारक हो ..
आदमी बन कर दुनिया में रहना भी कितना कठिन काम है ना !
sach hi to kaha....waise jada bahut hai....
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