मन का पोस्टमार्टम !!
>> 14 January 2011
कभी-कभी एकांत स्वंय में मुझे समाहित कर लेना चाहता है । जैसे मैं स्वंय एकांत हो चला होऊँ । जैसे तालाब का शांत पानी अपने एकांत में मौन खड़ा रहता है । क्या यह ऊब और इच्छा के मध्य कुछ है ? या केवल एकांत में मौन का दुरूह आभास । या केवल मन की छलना !
देर शाम...
राष्ट्रीय राजमार्ग २ पर खड़ा मैं और मेरा अपना स्वंय । ट्रकों की लम्बी कतार शोर मचाती बारी-बारी से जा रही है । तेज़ नुकीली हवा की कुछ कतरने त्वचा को भेदती सी, स्नायुओं में दौड़ती झुरझुरी, सिगरेट का जलना और धुएँ का हवा में पसर जाना । रिक्त राजमार्ग - दौड़ती, बलखाती, चमचमाती रोशनियाँ और मार्ग को रौंदती गाड़ियाँ । जैसे मन की रिक्त सतह पर कोई विचार चीरता सा गुजर गया हो और दिल के कम्पनों में इज़ाफा कर गया हो ।
कभी कभी बहुत उलझनें होती हैं, अपने स्वंय से ! इतनी व्याकुलता आकस्मिक तो नहीं ।
देर रात...
मन के अँधेरे में विचार जुगनू की तरह जगमगाया । लिखने और ना लिखा पाने के मध्य मूड का द्वन्द । कलम-कॉपी सिरहाने रख, बाजुओं को तकिया बना सुस्ताता रहा । एकाएक एक याद बह आयी । उसका चेहरा आँखों के सामने आ खड़ा हुआ ।
अंतिम बार का मिलना, यह जानकार कि इसके बाद फिर कभी मिलना ना होगा । उसका ऑटो-रिक्शा में बैठना । मेरा उसके गालों को थपथपाना । उसकी किनोरों का भीग जाना । मेरा उन्हें उँगलियों से पौंछ देना और स्वंय के गालों पर आँसुओं का लुढ़क आना । फिर उससे कहना अपना ख़याल रखना । रिक्शे का आगे बढ़ जाना । मेरा दूर तक टकटकी लगाए देखते रहना । और फिर दृश्य का अदृश्य हो जाना ।
लेटे-लेटे उसकी बहुत याद आई और मन बहुत उदास हो गया । जीवन जो अब विश्रंखलित है, वो होती तो अवश्य ही इसका कुछ और रूप होता । उस आन्तरिक आत्मीयता का अनुभव फिर ना जाने कब होगा !
...
मन को जब अपनी दास्ताने-हयात सुनाता हूँ तो ना जाने वह कितना कुछ समझ पाता होगा । और फिर यह ज़िक्र केवल स्वंय के लिये ही तो नहीं होता, उसकी(मन) ख़ुशी और उदासी भी तो इसमें शामिल है । मन को थपथपाया कि सो जाओ बर्खुरदार । कब तक जागते रहोगे । देखा तो मन फिर ना जाने किन जानी-अन्जानी राहों की ओर भटक चला ।
देर शाम...
राष्ट्रीय राजमार्ग २ पर खड़ा मैं और मेरा अपना स्वंय । ट्रकों की लम्बी कतार शोर मचाती बारी-बारी से जा रही है । तेज़ नुकीली हवा की कुछ कतरने त्वचा को भेदती सी, स्नायुओं में दौड़ती झुरझुरी, सिगरेट का जलना और धुएँ का हवा में पसर जाना । रिक्त राजमार्ग - दौड़ती, बलखाती, चमचमाती रोशनियाँ और मार्ग को रौंदती गाड़ियाँ । जैसे मन की रिक्त सतह पर कोई विचार चीरता सा गुजर गया हो और दिल के कम्पनों में इज़ाफा कर गया हो ।
कभी कभी बहुत उलझनें होती हैं, अपने स्वंय से ! इतनी व्याकुलता आकस्मिक तो नहीं ।
देर रात...
मन के अँधेरे में विचार जुगनू की तरह जगमगाया । लिखने और ना लिखा पाने के मध्य मूड का द्वन्द । कलम-कॉपी सिरहाने रख, बाजुओं को तकिया बना सुस्ताता रहा । एकाएक एक याद बह आयी । उसका चेहरा आँखों के सामने आ खड़ा हुआ ।
अंतिम बार का मिलना, यह जानकार कि इसके बाद फिर कभी मिलना ना होगा । उसका ऑटो-रिक्शा में बैठना । मेरा उसके गालों को थपथपाना । उसकी किनोरों का भीग जाना । मेरा उन्हें उँगलियों से पौंछ देना और स्वंय के गालों पर आँसुओं का लुढ़क आना । फिर उससे कहना अपना ख़याल रखना । रिक्शे का आगे बढ़ जाना । मेरा दूर तक टकटकी लगाए देखते रहना । और फिर दृश्य का अदृश्य हो जाना ।
लेटे-लेटे उसकी बहुत याद आई और मन बहुत उदास हो गया । जीवन जो अब विश्रंखलित है, वो होती तो अवश्य ही इसका कुछ और रूप होता । उस आन्तरिक आत्मीयता का अनुभव फिर ना जाने कब होगा !
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मन को जब अपनी दास्ताने-हयात सुनाता हूँ तो ना जाने वह कितना कुछ समझ पाता होगा । और फिर यह ज़िक्र केवल स्वंय के लिये ही तो नहीं होता, उसकी(मन) ख़ुशी और उदासी भी तो इसमें शामिल है । मन को थपथपाया कि सो जाओ बर्खुरदार । कब तक जागते रहोगे । देखा तो मन फिर ना जाने किन जानी-अन्जानी राहों की ओर भटक चला ।
13 comments:
अच्छी प्रस्तुति ....अंतर्मन में झांकने की कोशिश ....... सच कहाँ आसान है मन की थाह ले पाना.....
मन से निपट लेना तो निपट लेना ही जैसा है।
असल में हम खुद भी तो केवल और केवल मन के अनुसार ही चलते हैं. मन ने चाहा तो किसी को याद किया, मन ने कहा कि अब याद करने से क्या फ़ायदा? तो ये भी मान गये. मन की दशा बड़ी निराली है अनिल जी. बढिया पोस्टमार्टम.
gazab hai dost... bah gaya..
"एकाएक एक याद बह आयी"
.............आपके साथ इन ख्यालों की नदी में बहना अच्छा लगा.....आप अपने आते जाते विचारों को जिस प्रकार शब्दों में ढालतें है उसने प्रभावित किया......शुभकामनाएं .
मन को थपथपाया कि सो जाओ बर्खुरदार । कब तक जागते रहोगे । देखा तो मन फिर ना जाने किन जानी-अन्जानीराहों की ओर भटक चला .............ऐसा ही होता है मन...........
मन को बस में करना , उसको समझाना बहुत मुश्किल होता है ... यदि कर लो तो क्या बात है ..
मन बड़ा चंचल है ..इसको समझना ..किसी रहस्य से कम नहीं ..बहुत सारगर्भित प्रस्तुति ..शुक्रिया आपका
अबुझ है मन भी..उन्ही रास्तों पर भागता है..जहाँ कांटेदार तारें जड़ी होती हैं..और पैर लुहलुहान कर फिर वापस लौट आता है..पराजित!!
@ Apoorv
Smile for you :)
Very very nice Anil..... You really frame words in such a beautiful manner, that makes people more attached
क्या कहूँ अनिल जी ……………हमेशा की तरह निशब्द हूँ।
अनिल जी ... हमारा मन तो आपको पढ़ते पढ़ते ही भटकना शुरू हो गया ... बहुत कमाल का लिखते हो ...डोर ले जाते हो ... पढ़ते पढ़ते साथ हो रहा शोर भी शीरे धीरे कम होता जाता है ,... सम्मोहन है आपके लिखे में ...
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