दायरा
>> 13 February 2011
दूर जाती सड़क पर से उतरते हुए धूल भरा कच्चा रास्ता प्रारम्भ हो जाता था . गाँव के किशोर एवं युवा उस छोर पर आसानी से दिख जाते थे . उनके मध्य स्त्रीलिंग की बातें हुआ करतीं . विषय कम ही बदलते और यदि ऐसा होता भी तो वह स्त्रीलिंग से पुल्लिंग हो जाते थे . उनका संसार घर की देहरी से निकल, रामदीन पंसारी की दुकान से होकर, गाँव के सभ्य व्यक्तियों की असभ्य योजनाओं से गुजरता हुआ, देर रात की छुप कर पढ़ी जाने वाली सस्ती अश्लील किताब तक जाता था .
चोपड़ा और ज़ोहरों के फ़िल्मी गाँव की तरह वे सभी खुशहाल नहीं थे और ना ही उतना भाईचारा जिसे देखकर लोग गाँव का सुख अनुभव करते . वहाँ हर घर में दूध की नहर नहीं बहती थी और हर आदमी ट्रैक्टर पर नहीं घूमता था . शहर जाने का किराया बहुत लगता था . आँगन में तुलसी नहीं उगा करती थी और पीपल पर भूत रहा करते थे . गाँव के लोग अनपढ़ या कम पढ़े लिखे थे और वे शहर से आये कौन बनेगा करोडपति के किस्से सुनकर बहुत खुश होते थे . वे पुरानी कहावत सुनकर खुश रहते थे कि भारत एक कृषि प्रधान देश है .
किशोर और युवाओं का मन जब गाँव में ऊब जाता तो वे शहर से आये मुरारी के चबूतरे पर पहुँच जाते . जो शहर के स्कूल में चपरासी था . मुरारी बताते हुए खुश होता था कि उसके स्कूल में एक बच्चे की फीस चार हज़ार रुपये है और दाखिले के समय एक लाख नगद . वह एक हज़ार घर पर भेजता था और बचे हुए दो हज़ार से शहर में अपना खर्चा चलाता था .
सरकार ने रोज़गार गारंटी योजना बना दी थी . जिससे गाँव की आबादी गाँव में ही रहे . वे एक खूँटे से बँधे थे . जिसकी रस्सी का अपना एक दायरा था . वे अधिक से अधिक परिधि को स्पर्श कर सकते थे किन्तु उसके बाहर नहीं जा सकते थे . उन्हें उतनी खुराक नहीं मिलती थी कि वे रस्सी तोड़ सकें और जल्दी से आत्महत्या का उन्हें शौक नहीं था . जिंदा रहने जितनी परिधि थी .
यह एक ऐसी व्यवस्था थी, जिसके अंतर्गत इस बात का ध्यान रखा जाता था कि स्वतंत्र पशु रेंकते हुए, कीमती उग आये क्षेत्र में प्रवेश न कर जाएँ और फिर उन्हें लाठियां भांजनी पड़े . अतः वे जीवित रह सकें इतना उस परिधि में रहने दिया जाता था . असंतुष्टि की भावना उत्पन्न होने से मालिकों का बर्बर रूप सामने आने का खतरा था . इससे सामजिक सौहार्दय बिगड़ने की समस्या खड़ी हो सकती थी .
हाँ, कटाई और बुआई के समय उन्हें विशेष रूप से बुलाया जाता था . उस समय वे उन कीमती क्षेत्र में परिश्रम करते स्वंय को किस्मत का धनी समझते थे . कार्य समापन पर उन्हें जाने को कह दिया जाता था . फिर भी यदि कोई रुकना चाहे तो उसे खदेड़ कर उस क्षेत्र से दूर कर दिया जाता था .
दुस्साहस करने वाले पशुओं के लिए चौकीदार रखा जाता था . जिसको बन्दूक दे दी जाती थी . उसके बूढा होने या मर जाने पर, उसी के जैसे को पुनः रख लिया जाता था . रखने के लिए सिफारिशें चलती थीं .
यह एक व्यवस्थित समाज था . जिसको संतुलित रखने की बागडोर कीमती हाथों में थी . वे हाथ वर्षों से इस कार्य में दक्ष थे . कब पुचकारना है और कब चाबुक चलाना है .
सड़क पक्की होने की घोषणा थी और घोषणा को अमल में लाने की घोषणा थी .
चोपड़ा और ज़ोहरों के फ़िल्मी गाँव की तरह वे सभी खुशहाल नहीं थे और ना ही उतना भाईचारा जिसे देखकर लोग गाँव का सुख अनुभव करते . वहाँ हर घर में दूध की नहर नहीं बहती थी और हर आदमी ट्रैक्टर पर नहीं घूमता था . शहर जाने का किराया बहुत लगता था . आँगन में तुलसी नहीं उगा करती थी और पीपल पर भूत रहा करते थे . गाँव के लोग अनपढ़ या कम पढ़े लिखे थे और वे शहर से आये कौन बनेगा करोडपति के किस्से सुनकर बहुत खुश होते थे . वे पुरानी कहावत सुनकर खुश रहते थे कि भारत एक कृषि प्रधान देश है .
किशोर और युवाओं का मन जब गाँव में ऊब जाता तो वे शहर से आये मुरारी के चबूतरे पर पहुँच जाते . जो शहर के स्कूल में चपरासी था . मुरारी बताते हुए खुश होता था कि उसके स्कूल में एक बच्चे की फीस चार हज़ार रुपये है और दाखिले के समय एक लाख नगद . वह एक हज़ार घर पर भेजता था और बचे हुए दो हज़ार से शहर में अपना खर्चा चलाता था .
सरकार ने रोज़गार गारंटी योजना बना दी थी . जिससे गाँव की आबादी गाँव में ही रहे . वे एक खूँटे से बँधे थे . जिसकी रस्सी का अपना एक दायरा था . वे अधिक से अधिक परिधि को स्पर्श कर सकते थे किन्तु उसके बाहर नहीं जा सकते थे . उन्हें उतनी खुराक नहीं मिलती थी कि वे रस्सी तोड़ सकें और जल्दी से आत्महत्या का उन्हें शौक नहीं था . जिंदा रहने जितनी परिधि थी .
यह एक ऐसी व्यवस्था थी, जिसके अंतर्गत इस बात का ध्यान रखा जाता था कि स्वतंत्र पशु रेंकते हुए, कीमती उग आये क्षेत्र में प्रवेश न कर जाएँ और फिर उन्हें लाठियां भांजनी पड़े . अतः वे जीवित रह सकें इतना उस परिधि में रहने दिया जाता था . असंतुष्टि की भावना उत्पन्न होने से मालिकों का बर्बर रूप सामने आने का खतरा था . इससे सामजिक सौहार्दय बिगड़ने की समस्या खड़ी हो सकती थी .
हाँ, कटाई और बुआई के समय उन्हें विशेष रूप से बुलाया जाता था . उस समय वे उन कीमती क्षेत्र में परिश्रम करते स्वंय को किस्मत का धनी समझते थे . कार्य समापन पर उन्हें जाने को कह दिया जाता था . फिर भी यदि कोई रुकना चाहे तो उसे खदेड़ कर उस क्षेत्र से दूर कर दिया जाता था .
दुस्साहस करने वाले पशुओं के लिए चौकीदार रखा जाता था . जिसको बन्दूक दे दी जाती थी . उसके बूढा होने या मर जाने पर, उसी के जैसे को पुनः रख लिया जाता था . रखने के लिए सिफारिशें चलती थीं .
यह एक व्यवस्थित समाज था . जिसको संतुलित रखने की बागडोर कीमती हाथों में थी . वे हाथ वर्षों से इस कार्य में दक्ष थे . कब पुचकारना है और कब चाबुक चलाना है .
सड़क पक्की होने की घोषणा थी और घोषणा को अमल में लाने की घोषणा थी .
8 comments:
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (14-2-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
सड़क पक्की होने की घोषणा थी और घोषणा को अमल में लाने की घोषणा थी .
Aah! Ghoshana ke baad aur ghoshna!
Halaat kaafee darawnw lagte hain!Aur aalekh sashakt!
सही पोस्ट है इस बार..बदलते माहौल की झलक के संग..गांव की इसी सड़क पर एक बहुत प्रभावी कविता स्वप्निल आतिश की भी पढ़ी थी कुछ वक्त पहले..इसमे यह पैरा खासा व्यंजनात्मक लगा
यह एक ऐसी व्यवस्था थी, जिसके अंतर्गत इस बात का ध्यान रखा जाता था कि स्वतंत्र पशु रेंकते हुए कीमती उग आये क्षेत्र में प्रवेश न कर जाएँ और फिर उन्हें लाठियां भांजनी पड़े . अतः वे जीवित रह सकें इतना उस परिधि में रहने दिया जाता था . असंतुष्टि की भावना उत्पन्न होने से मालिकों का बर्बर रूप सामने आने का खतरा था . इससे सामजिक सौहार्दय बिगड़ने की समस्या खड़ी हो सकती थी .
वैसे किसी आगामी बड़ी कहानी की पूर्वपीठिका लगी मुझे यह...ऐसा क्या?
ना अनिल कान्त झूठ मत बोलो भाई, गाँव कितना तो सुन्दर होता है...
सरसों के खेत, लाल पीली पगड़ियां, गुलाबी मुट्यारिनें और गिटार बजाता एक अदद शाहरुख़ खान और गन्ने के खेत विच टमाटर के साथ साथ कोक !
वे पुरानी कहावत सुनकर खुश रहते थे कि भारत एक कृषि प्रधान देश है .
Krishi? What does that mean talk about blackberry dude. :-)
वैसे किसी आगामी बड़ी कहानी की पूर्वपीठिका लगी मुझे यह...ऐसा क्या?
इससे सामजिक सौहार्दय बिगड़ने की समस्या खड़ी हो सकती थी ...
वाकई रोमांचित करता है पैरा .
बडडी सहजता से उक्रा है गाँव का सत्य।
गाँव के उस सत्य को उकेरा है जो एक बड़ी आबादी के सोच से बाहर है. इस सत्य के साथ जीती हुई युवा पीढ़ी का भविष्य ही हमें पतन की गर्त में ले जाएगा . सड़क सिर्फ पास होती है बनती कभी नहीं है.
गाँव के उस सत्य को उकेरा है जो एक बड़ी आबादी के सोच से बाहर है. इस सत्य के साथ जीती हुई युवा पीढ़ी का भविष्य ही हमें पतन की गर्त में ले जाएगा . सड़क सिर्फ पास होती है बनती कभी नहीं है.
आपके अन्दाज़ से इतर पोस्ट. बढिया है ये भी.
Post a Comment