दिन के अँधेरे और रात के उजाले में
>> 02 March 2011
वे क़र्ज़दारी के दिन थे . मैं उससे उधार माँगे किसी कीमती लम्हे में अपनी मोहब्बत बयाँ करता और वो कहती "देखो मैं अपनी पोटली से इन बेशकीमती लम्हों को तुम्हें सौंप तो रही हूँ मगर याद रखना जब वापस माँगू तो उँगलियों पर गिन कर देना" और मैं उसके तकादे पर अपने होठों से चुप्पी लगा देता. हाथों की लकीरों से वे लम्हे पीछे छूट गए . और हमारी क़र्ज़दारी से लोगों को रश्क़ होता है .
सूने पड़े रेलवे ट्रैक के किनारे रखे पत्थर पर बैठा मेरा अपना स्वंय, सर के ऊपर फैलते धुएँ को देखता है और मुझसे कहता है - बस करो मियाँ ये सुबह से सातवीं है . और मैं उसे दिलासा देता "सब्र करो, इतनी भी जल्दी क्या है, ज़रा सुलगने दो अरमानों को, राख पर पैर रख कर मिलकर आगे चलेंगे ." उसकी यारबाजी से बहुत मोहब्बत है . कम-स-कम वो झूठी दिलासा नहीं देता . मैं उसका हाथ खींचता हुआ, अपने दावत खाने पर ले आया . तो बर्खुरदार ने आठवीं पर कुछ नहीं कहा .
फिर ना जाने किस बात पर वो रूठकर चल दिया . ढलती शाम के मुहाने से होते हुए, हमने रेलवे पुल पर मिलकर खाक़ छानी . कुछ बेतरतीब सी बातों को सुलझाया, कुछ किस्सों को दोहराया और पिछवाडा झाड़ते हुए वापस चल दिए . रेल, ट्रैक को चीरती सी दूर कहीं जाकर गुम हो गयी . और उसके पीछे की शेष, कुछ हवा की कतरने, हमारे गले से लिपटकर चली आयीं . पास के ही सुस्ताते कैंटीन पर दो चाय सुडकीं और उससे अपना गला छुडाते हुए आगे बढ़ आये .
देर रात कलम लिखवाने पर आमादा थी . और नींद का कोसों पता नहीं, तो उठे और तकिये पर पीठ को टिका कर सोचा किये . उस पर से तुर्रा ये कि बत्ती गोल . करवटें बदलते-बदलते जब रहा नहीं गया तो मोमबत्ती का हाथ पकड़ कलम की हसरत पूरी करते रहे . फिर ख़याल आया कि जाड़ा पास खिसक आया है . जानते हैं कि अंतिम विदाई पर जाने वाले गले से कुछ ज्यादा ही लिपटते हैं . रजाई को थपथपाकर जगाया और खुद घोड़े बेचकर सोने चल दिए . सोते-सोते ख़याल आया - आज अच्छी यारबाजी की .
सूने पड़े रेलवे ट्रैक के किनारे रखे पत्थर पर बैठा मेरा अपना स्वंय, सर के ऊपर फैलते धुएँ को देखता है और मुझसे कहता है - बस करो मियाँ ये सुबह से सातवीं है . और मैं उसे दिलासा देता "सब्र करो, इतनी भी जल्दी क्या है, ज़रा सुलगने दो अरमानों को, राख पर पैर रख कर मिलकर आगे चलेंगे ." उसकी यारबाजी से बहुत मोहब्बत है . कम-स-कम वो झूठी दिलासा नहीं देता . मैं उसका हाथ खींचता हुआ, अपने दावत खाने पर ले आया . तो बर्खुरदार ने आठवीं पर कुछ नहीं कहा .
फिर ना जाने किस बात पर वो रूठकर चल दिया . ढलती शाम के मुहाने से होते हुए, हमने रेलवे पुल पर मिलकर खाक़ छानी . कुछ बेतरतीब सी बातों को सुलझाया, कुछ किस्सों को दोहराया और पिछवाडा झाड़ते हुए वापस चल दिए . रेल, ट्रैक को चीरती सी दूर कहीं जाकर गुम हो गयी . और उसके पीछे की शेष, कुछ हवा की कतरने, हमारे गले से लिपटकर चली आयीं . पास के ही सुस्ताते कैंटीन पर दो चाय सुडकीं और उससे अपना गला छुडाते हुए आगे बढ़ आये .
देर रात कलम लिखवाने पर आमादा थी . और नींद का कोसों पता नहीं, तो उठे और तकिये पर पीठ को टिका कर सोचा किये . उस पर से तुर्रा ये कि बत्ती गोल . करवटें बदलते-बदलते जब रहा नहीं गया तो मोमबत्ती का हाथ पकड़ कलम की हसरत पूरी करते रहे . फिर ख़याल आया कि जाड़ा पास खिसक आया है . जानते हैं कि अंतिम विदाई पर जाने वाले गले से कुछ ज्यादा ही लिपटते हैं . रजाई को थपथपाकर जगाया और खुद घोड़े बेचकर सोने चल दिए . सोते-सोते ख़याल आया - आज अच्छी यारबाजी की .
5 comments:
यारबाजी और आवारगी का आनन्द ही कुछ और है।
"मैं उससे उधार माँगे किसी कीमती लम्हे में अपनी मोहब्बत बयाँ करता और वो कहती "देखो मैं अपनी पोटली से इन बेशकीमती लम्हों को तुम्हें सौंप तो रही हूँ मगर याद रखना जब वापस माँगू तो उँगलियों पर गिन कर देना""
अमाँ यार…… ऐसे साहूकार का पता हमें भी बता देते तो कु्छ बेशकीमती लम्हें हम भी उधार माँग लेते :)
पहली बार कुछ कह रहा हूँ आपसे पर आपके लिखे से यारबाजी पुरानी है। :)
ahem ahem...ise pagalpan kahte hain...lekin wo kahte hain na. " Deewana hone mein kya hai, muskil hai pagal ho jana :
Lage raho
आवारगी का आनन्द ही कुछ और है। धन्यवाद|
रंग-पर्व पर हार्दिक बधाई.
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