हमारे हिस्से की उम्र
>> 23 March 2011
बीते कई रोजों से ख़याल आ-आ कर लौटते रहे और मन हर दफा ही उन्हें टटोलता रहा कि क्या यह बीच आ गए फासलों का एक क्रम है या केवल रिक्त मन की सतह पर सागर की लहरों की तरह थपथपा कर चली जातीं बीते पलों की यादें .
यूँ तो ख़त लिखने का रिवाज़ सा ख़त्म हो गया है किन्तु यह मन न जाने क्यों आपका ख़याल आते, हर दफा ही कोरे कागजों की ओर ताकने लगता है. जानता हूँ इस बात पर आप मुस्कुरा उठेंगीं . वैसे एक बात और है, बीते सालों में मैंने कई-कई दफा ख़त लिखना चाहा किन्तु हर दफा ही यह सोच कर रह जाता कि आखिर कोई उतना हकदार भी तो हो जिसको कि ख़त लिखे जा सकें . जो उनकी अहमियत को समझे और मन के उस निजी स्पेस से निकले खयालातों, द्वन्द और सच्चाइयों को उसी स्तर पर उनकी स्पर्शता का अनुभव कर सके . और शब्दों के माध्यम से उनका वह स्पर्श एक हाथ से दूसरे हाथ में पहुँच कर बचा रह सके .
उन शब्दहीन कागजों को जब छूता हूँ तो अपनी कम उम्र का ख़याल हो आता है . जानता हूँ आपकी और मेरी उम्रों में एक दशक का फासला है, किन्तु यह मध्य आ खड़ी हो जाने वाली दीवार तो नहीं . हर दफा, हर बात यूँ उम्रों पर ही तो नहीं छोड़ी जा सकती - है न ? वैसे आपको नहीं लगता, कई दफा हमें हमारी तबियत का इंसान यूँ अचानक से आ मिलता है कि हम उस एक पल यकीन नहीं करते या यकीन नहीं करना चाहते, कि भला कोई हू-ब-हू ऐसा कैसे हो सकता है . और हम वक़्त की नदी के अलग-अलग किनारों पर खड़े-खड़े उसके सूख जाने की राह तकते हैं .
यकीन मानिए कि आपके प्रति मेरा प्रेमी जैसा आकर्षण नहीं बावजूद इसके कि अभी छः रोज़ पहले ही मैंने हम दोनों के साझे जानकार से कहा था कि अगर आप मेरी हम उम्र होती तो यकीनन मैं आपके मोह में पड़ जाता . हाँ आप सही समझ रही हैं - प्रेमिका रूपी मोह . जानता हुँ मेरी इस बात पर आप खिलखिलाकर हँस रही होंगी और सोच रही होंगी कि इन पंक्तियों का किसी को साझेदार बना लें . और मिलकर खूब देर तक हँसें . मत करियेगा, हर किसी में साझेदार बनने जितनी समझ नहीं होती .
और हाँ इस से एक कदम आगे जाकर अब आप यह मत सोचने बैठ जाइएगा कि यहाँ हमारी उम्रों की खाई है . बल्कि मैं अपने निष्कपट मन से आपसे अब सब साझा कर सकता हूँ . उन सभी कोनों को बुहार सकता हूँ जहां अब तक ना जाने कितने खयालात जमा होते रहे हैं . ताकि वहाँ रिक्त स्पेस बचा रह सके . नहीं तो एक बोझ बना रहता है . और हम उसे अधिक से अधिक एक कोने से उठा दूसरे कोने में धकेल देते हैं .
वैसे पिछली दफा आपने अपने बारे में मेरी राय जाननी चाही थी . तब कुछ कह ना सका था या यूँ कहिये मन नहीं हुआ था . अभी-अभी सोचा तो - "आप दिमाग से कुछ-कुछ उलझी हुईं और दिल से बेहद सुलझी हुई स्त्री हैं ."
14 comments:
Aapki is post ne hame to uljhan me daal diya!
अहा, सुलझन से उलझन।
ये तो ग़लत बात हुई ना अनिल जी... उसे कह रहे हैं "हर किसी में साझेदार बनने जितनी समझ नहीं होती" और ख़ुद पूरी दुनिया को साझेदार बना लिया :)
ख़त ख़ूबसूरत भी है और सच्चा भी और शब्दों के माध्यम से आपका यह स्पर्श उस तक यकीनन पहुँचा होगा...
खतों की अपनी ही खुश्बू होती है सबसे जुदा..यादें संभली रहती है उनकी तहों में चुप चाप..
वक़्त की नदी न कभी सूखी न सूखेगी..किनारो की किस्मत में अलग अलग बहना ही रहता है...
आनंद भये गोपाल !
हम तो लास्ट लाइन पर मर मिटे जी ...... "आप दिमाग से कुछ-कुछ उलझी हुईं और दिल से बेहद सुलझी हुई स्त्री हैं ."पता है कही बार सुलझे सिरों में गिरहें होती है....बारीकी की वजह से दिखाई नहीं देती ....एक लाइन या आ गई " खुद में उलझी-उलझी है बार बालों को सुलझाये :-)
हर किसी में साझेदार बनने जितनी समझ नहीं होती .
क्या बात है अनिल जी. सही है. अच्छा लगा ये स्वगत कथन.
haqeeqat se qareeb is kahaanee ka behtareen jumla
हर किसी में साझेदार बनने जितनी समझ नहीं होती .
sach hai
बेजान कागज में जान डालने क हुनर कोइ आपसे सीखे साहब……। पर अब उन्हे मना कर के आपने खुद कई साझेदार बना लिये… वैसे हमारी समझ पर भरोसा करने का शुक्रिया। :)
.....aap ki to har baat achhi hoti h.
ख़ूबसूरत!
khat accha hai,
खत लिखते रहिये
apka likhne ka andaaz kaafi juda hai or isme kuch nayapan bhi hai......... padhkar achcha lagta hai.
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