तुम्हारे बिना मैं सूखी नदी हूँ

>> 12 May 2011

कल शाम जब रेल प्लेटफोर्म को छोड़ चली गयी, बाद उसके मुझे उदासियों ने आ घेरा. और फिर हर नए सैकण्ड लगने लगा कि तुम मुझसे दूर, बहुत दूर चली जा रही हो. हालांकि हम एक ही शहर में होते हुए भी रोज़ कहाँ मिल पाते थे किन्तु फिर भी ना जाने क्यों यह कैसा सिलसिला है जो थमता ही नहीं. शाम बीती और फिर रात भर दम साधे तुम्हारी आवाज़ की प्रतीक्षा करता रहा. उन बेहद निजी पलों में कई ख़याल आते और चले जाते रहे.

तुम्हारी बहुत याद आई.

सुबह बेहद वीरान और उदासियों से भरी हुई सामने आ खड़ी हुई. मन किया कि कहीं भाग जाऊं, कहाँ ? स्वंय भी नहीं जानता. जिस एकांत में तुम्हारी खुशबू घुली हुई हो और मैं पीछे छूट गयी तुम्हारी परछाइयों से लिपट कर स्वंय को जिंदा रख सकूँ. उस किसी एकांत की चाहना दिल में घर करने लगी है. देर सुबह आई तुम्हारी आवाज़ की खनक, मेरे बचे रहने को इत्मीनान कराती रही .

तुम्हारी सादगी के भोलेपन पर अपनी जिंदगी लुटा देने को मन करता है. और बाद उसके जब तुम कहती हो कि मेरे साथ का हर लम्हा तुम्हें मेरे पास होने का एहसास दिलाता है. सोचता हूँ कितने तो बेशकीमती लम्हें होंगे जो पास होने का एहसास दे जाते हैं. मेरी उदासियों के साए में उन जगमगाते रौशन कतरों को शामिल कर दो. मैं भी तुम्हारे पीछे इन दिनों को जी सकूँ. नहीं तो सच में, तुम बिन मर जाने को जी चाहता है.

तुम मेरे वजूद में इस कदर शामिल हो जैसे तुम्हारे बिना मैं कोई सूखी नदी हूँ.

5 comments:

vandana gupta 12 May 2011 at 16:30  

जो इस तरह अन्तस मे उतर गया हो उसके बिना तो ऐसे अहसास होना लाज़िमी हैन्।

kshama 12 May 2011 at 21:03  

Gadya hoke kavita padhne ka ahsaas ho raha hai....!

प्रवीण पाण्डेय 12 May 2011 at 21:31  

सूखी नदी तो वह रास्ता सा बनी बैठी रहती है जिसका अस्तित्व कोई जलप्रवाह आकर शीतल कर दे।

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