स्मृतियों में बचा रहेगा शहर

>> 30 August 2015

अपना क्या है?
वो शहर या गाँव जहाँ पैदा हुआ और फिर जिसे पीछे छोड़ शहर में जा बसा मेरा भरा पूरा परिवार. या वो शहर जहाँ पिता साथ ले आये थे माँ, भाई और बहन के साथ. जहाँ पला बढ़ा, अपनी स्कूल ख़त्म की. या वो बाद का शहर जहाँ मैं अपने परिवार के साथ फिर से जा बसा और अपनी किशोरावस्था से युवावस्था की ओर चलते चले जाने वाले रस्ते पर भटकते हुए संभला. या वो शहर जहाँ अपना प्रोफेशनल कोर्स करने जा बसा और अपने तीन बरस बिताये. फिर बाद के बरसों में जहाँ ज़िन्दगी को जीने लायक बनाने के लिए संघर्ष करने के लिए जा पहुँचा वो बड़ा शहर. जहाँ भाग दौड़ मची रहती है. और जिस शहर से वापस में फिर से एक छोटे शहर जा पहुँचा ये सोच कि कम स कम वहां दो वक़्त की रोटी का इंतेज़ाम तो है. या ये शहर जहाँ आज में बिस्तर पर लेटा हुआ अपने बीत गए दिनों को सोच रहा हूँ.

आखिर अपना है क्या? वो बीत गया वक़्त जो अलग अलग शहरों में बंटा हैं. जिसके साथ बहुत से दुःख और कुछ सुख जुड़े हुए हैं. या वे चेहरे जो मिले और पीछे छूटते चले गए, उनके अपने अपने शहरों में. वो दोस्ती के किस्से, वो आरामतलबियां, वो ठहाके, वो उनका बुरे वक़्त में साथ न देना या कुछ भले चेहरों का आगे बढ़ गले लगा लेना.

वो हर शहर के साथ चिपकी माँ की याद, भाई बहन के साथ बिताये वक़्त की थपकियाँ या अपने इश्क़ की मीठी बातें-मुलाकातें.

बहुत कुछ है समेटने के लिए,  कहने के लिए और ये किस्सा यूँ ही चलता ही रहता है. एक तितली मन के आँगन के फूलों पर बार बार आती है और मैं हर बार ही विस्मय बोध से भर जाता हूँ. मेरे भीतर का रिक्त पड़ा संसार किसी पुराने दृश्य से बार बार भर उठता है. कोई पुराना बचपन का राग स्मृतियों में बज उठता है.

और बीत गए शहर हर दफा ही मेरे सामने आ खड़े होते हैं. कोई चौराहा, कोई किसी शहर की दुकान, किसी बस या ऑटो की सीट पर बैठा मैं, किसी शहर की दीवार पर लगे फिल्मों के पोस्टर, किसी शहर के ठेले पर खड़ा बिरयानी खाता मैं,  या किसी दुसरे शहर के किसी ठेले पर खड़ा छोले कुल्चे खा दिन का कोटा पूरा कर महीने को हाथों में समेटता मैं, किसी शहर के ढाबे में बैठा रूखे तंदूरी आलू परांठे खाता मैं.

किसी शहर में अपनी सरकारी नौकरी की खबर पाकर शाम के समय में झूमता मैं या अपने प्रोफेशनल दोस्तों द्वारा उनके किराये के कमरों से निकाल दिया गया रात के अँधेरे में खड़ा मायूसी में डूबा मैं.

असल में सब कुछ ही तो अपना है. कुछ कुछ हिस्सा हर शहर ने, हर ख़ुशी ने, हर गम ने स्मृतियों में ले रखा है. स्मृतियों का एक अपना संसार है. हम उसमें कुछ भी घटा बढ़ा नहीं सकते. मैं उसमें बसने वाले दुखों से पीछा नहीं छुड़ा सकता. मैं जब तब सामने आ खड़े होने वाले सुखों की लहरों से खुद को भिगोने से नहीं रोक सकता.

शहर दर शहर, हम असल में फ़िल्टर होते चले जाते हैं. हर शहर हम में से कुछ निचोड़ लेता है. शायद इंसान होते रहना ही बचा रह जाता है. यदि हम में बची रह गयी है चेतना तो हम खुद को थोडा बचा कर रख पाते हैं. और इन्हीं सब में कहीं बचा रह जाता है शहर थोडा थोडा. बचपन के पैदा हुए शहर से लेकर हमारे आज के शहर तक.

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