एक स्कूटर की आत्मकथा

>> 06 November 2009

'खड-खडर-खडर' नीचे से आवाज आना शुरू हो गयी जो कि जाहिर है कि मिश्रा जी के स्कूटर की थी. थोडी देर में वो आवाज अपनी जवानी पर आ गयी और मिश्रा जी ठीक वैसे ही स्कूटर का कान अमैठने लगे जैसा गाँव के मास्टर जी कक्षा में खड़े लड़के के कान इस एवज में अमैठते हैं कि उसने 'कै निम्मा अठारह' का जवाब नहीं दिया और शांत खड़ा खड़ा जमीन को ताकता या आसमान को क्योंकि ठीक सरकार की तरह स्कूल की कक्षा के ऊपर भी छत नहीं थी, तो वो छत को ना ताक कर आसमान को ताकता है.

हाँ तो मिश्रा जी स्कूटर का कान अमैठते हैं और उस भरी पूरी कॉलोनी को पता चल जाता है कि 5 बज गए. पिछले 20 बरस से रोज़ का यही क्रम था और यही समय इसीलिए कालोनी की दीवारों, कुत्तों और इंसानों को भी ठीक वैसे ही आदत पड़ गयी थी जैसे कि चुनाव के आते ही मोहल्ले के बढे-बूढों को पैर छुलवाने की आदत पड़ जाती है.

कई बार लोगों ने कहा कि ये स्कूटर बेच दो और नया कोई साधन जुगाड़ कर लो. पर मिश्रा जी ठीक वैसे ही उस स्कूटर का इस्तेमाल आँख, कान और नाक बंद करके करते जा रहे थे जैसे हमारे देश के नेता हर बार चुनाव के लिए वही पुराना भाषण और भाषण देने का तरीका इस्तेमाल करते आ रहे थे और देकर जीत जीत कर संसद और विधान सभाओं की शोभा बढा रहे थे. नेता भी खुश, उस भाषण को देने में और सुनने वाले भी खुश, उस भाषण को सुनने में. न नेताओं को नया भाषण लिखवाना पड़ता और ना ही जनता को नया भाषण होने की वजह से ध्यान लगाना पड़ता.

कॉलोनी में ही रहने वाली श्रीमती दुबे ने अपने लड़के को आवाज दी उठ जा चिंटू जा दूध ले आ. क्या मम्मी अभी समय ही क्या हुआ है. पाँच बज गए और कितने बजे उठेगा देख तो मिश्रा अंकल स्कूटर ले जा रहे हैं. उनके इस बात के कहने के बाद ना चिंटू ने पूंछा कि आपको कैसे पता कि पाँच बज गए और ना ही श्रीमती दुबे ने कहा कि उन्हें कैसे पता कि पाँच बज गए. सारी कॉलोनी और कॉलोनी वासियों को पूरे 20 बरस से पता था कि मिश्रा जी सुबह 5 बजे ही अपना स्कूटर निकाल कर दूध लेने जाते हैं और वहाँ से नीम के पेड़ से दातुन तोड़ कर लाते हैं. उनका दूध लाना इतना ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं था जितना कि नीम का दातुन लाना. ये कॉलोनी वाले भी जानते थे और वो दूध वाला भी कि मिश्रा जी उनके चबूतरे पर लगे नीम के पेड़ की वजह से यहाँ दूध लेने आते हैं.

उस रामदीन दूध वाले के पडोसी ठीक वैसे ही रामदीन से और उसके नीम के पेड़ से चिड़ते थे जैसे कि किसी नेता के किसी क्षेत्र से हर बार सांसद चुने जाने पर उसके विपक्षी नेता चिड़ते हैं. हर बार विपक्षी नेताओं की तरह जो कि उस क्षेत्र में जाकर हर बार चुनाव से पहले वोट के लिए गिडगिडाते हैं कि फलां नेता में क्या धरा है. हम उससे ज्यादा सुविधाएं देंगे, कम खायेंगे, बहुत विकास करेंगे, हर चौथे दिन अपने इस क्षेत्र में जीतने पर भी आयेंगे, दुःख दर्द सुनेंगे और उन्हें दूर करेंगे. रामदीन के पडोसी भी मिश्रा जी को बहकाते, फुसलाते और उनसे अनुनय विनय करते. लेकिन मिश्रा जी टस से मस नहीं होते. ना मिश्रा जी बदले पिछले 20 बरस से और ना ही उनका स्कूटर.

इन 20 बरसों में उस स्कूटर ने कई कारनामे किये थे. जिसमें 7 दुर्घटनाओं के केस थे. जिनमें कि या तो सामने वाला टूटता या फिर मिश्रा जी टूटते और अगर इन दोनों में से कुछ ना हो पाया तो स्कूटर टूटता. इसके साथ साथ इस मुएँ स्कूटर की वजह से उनकी धर्मपत्नी इन 20 बरसों में कई बार रूठ रूठ कर अपने मायके बैठ जाती. हालांकि ये स्कूटर उन्हीं की शादी में दहेज़ स्वरुप उनके पिताजी ने मिश्रा जी को दिया था.

बात ये नहीं थी कि मिश्रा जी को स्कूटर से ज्यादा प्यार था और धर्मपत्नी जी से कम बल्कि बात कुछ और ही थी. इसके पीछे बात ये थी कि कई बार मिश्रा जी अपनी धर्मपत्नी जी को अपने साथ ले जाते स्कूटर पर बिठाकर और कहीं रास्ते में भीड़ के आने पर धर्मपत्नी के अचानक स्कूटर से उतर जाने पर मिश्रा जी उन्हें वहीँ भूल से छोड़ आते. जब उन्हें पता चलता कि अरे धर्मपत्नी जी तो पीछे ही रह गयीं खड़ी हुईं कहीं 10 या 20 या 30 किलोमीटर. इधर मिश्रा जी इस मामले में भुलक्कड थे कि धर्मपत्नी जी पीछे बैठी हैं कि नहीं और उधर श्रीमती मिश्रा जी भी अपनी आदत की पक्की थीं कि कहीं जाम लगने की स्थिति में वो फ़ौरन उतरकर खड़ी हो जाती थीं. तो इस तरह कई बार वो रूठ जाती और अपने मायके चली जाती.

एक बार तो दोनों अपने मायके और ससुराल से वापस आ रहे थे कि बीच रास्ते में कहीं श्रीमती जी उतर गयीं और मिश्रा जी 20 किलोमीटर स्कूटर खींच लाये. तब श्रीमती जी भी नयी नयी थी और उनका गुस्सा भी नया नया. बस श्रीमती जी ने 20 किलोमीटर पीछे रह गए अपने मायके में फ़ोन लगाया कि मैं फलां जगह खड़ी हूँ मुझे ले जाइए. बस जब आगे के 20 किलोमीटर खड़े मिश्रा जी को पता चलता तो वो परेशान वापस दौड़ते और उनकी धर्मपत्नी जी मिलती उनके मायके. इस तरह से श्रीमती का रूठना 6 महीने से प्रारंभ होकर अब जाकर धीरे धीरे इतने सालों में शांत हो चला था. ठीक उसी तरह जैसे कि जनता ने आदत डाल ली है भ्रष्टाचार को सहने की, नेताओं के सही न होने की, पुलिस की घूसखोरी की और टीवी चैनलों में समाचार की जगह किसी अन्य कार्यक्रम की झलकियाँ देखने की.


इधर स्कूटर भी पिछले कुछ सालों से कई बार टूटा चुका था, बन चुका था और इस्तेमाल किया जा रहा था. ठीक वैसे ही जैसे हमारी सरकार टूटती है फिर कुछ पैसे खर्च करके बनती है और उसी तरह सुचारू रूप से चलती रहती है. कॉलोनी के लोग भी उस स्कूटर को झेलने के उसी तरह आदि हो गए थे जैसे हमारे देश की जनता टूटी फूटी सरकार को झेलने की आदत डाल लेती है.

भले ही पीठ पीछे कितनी ही बातें करे और अलग अलग समूहों में मिश्रा जी के टूटे फूटे स्कूटर की बुराइयां होती हों और हंसी उडाई जाती लेकिन सब फिर उसी तरह शांत पड़ जाते जैसे कि जनता हमारे देश के भ्रष्टाचार, पुलिस के रवैये, सरकार की दशा, महंगाई और बिजली पानी की समस्याओं के लिए आपस में गला फाड़ फाड़ कर चर्चाएं करते हैं और समूह से अलग होने पर अपने घर में बैठ टीवी देखती है, गाने सुनती है, सप्ताह के अंत में घूमने जाती है, अच्छा खाना खाती है और आराम से सो जाती है.

हर बार स्कूटर के ख़राब होने पर मिश्रा जी मैकेनिक के पास जाते और कोई न कोई बहाना बनाकर उसकी मरम्मत करवा कर उसे उसी तरह सुचारू रूप से चलाने लगते. ठीक वैसे ही जैसे कि हमारे नेतागण लाख बुराइयां होने पर भी हमारी सरकार के टूटने-बिखरने पर पैसा लगाकर, बातें बनाकर, लालच से, वादों से, दूर के सपने दिखा दिखा कर अपनी टूटी फूटी सरकार को या तो बचा ले जाते हैं या फिर से उसकी मरम्मत कर सुचारू रूप से चलाने लगते हैं.

कई बार पेट्रोल महंगा हुआ और कॉलोनी वासियों ने मिश्रा जी को हिदायत दी कि इसे बेच दो और नया खरीद लो काहे इसमें पैसे लगाते हो. ये तो सही एवरेज भी नहीं देता और परफॉर्मेंस की तो बात ही मत करो. मिश्रा जी भी मुंह में पान दबाकर टका सा जवाब देते हैं कि भैया हमें क्या बढ़ते हैं तो बढ़ने दो, हमारा पेट्रोल का खर्चा तो सरकारी खाते में जाता है. ठीक वैसे ही जैसे सरकार और उसके चलाने वालों की दावतों, मीटिंगों, और चाल चलन का खर्चा सरकारी खाते में जाता है.

तो मिश्रा जी का स्कूटर चला आ रहा है और चलता रहेगा जब तक जान में जान है. मिश्रा जी भी खुश, कॉलोनी वाले भी खुश कि सुबह 5 बजे का पता चल जाता है और कुत्ते भी खुश कि बेवजह भौंकना नहीं पड़ता.

18 comments:

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) 6 November 2009 at 21:22  

तो मिश्रा जी का स्कूटर चला आ रहा है और चलता रहेगा जब तक जान में जान है. मिश्रा जी भी खुश, कॉलोनी वाले भी खुश कि सुबह 5 बजे का पता चल जाता है और कुत्ते भी खुश कि बेवजह भौंकना नहीं पड़ता.


hahahahahahha

गिरिजेश राव, Girijesh Rao 6 November 2009 at 22:27  

स्कूटर के बहाने मुहल्ला सभ्यता की जाँच पड़ताल और सम सामयिक नागरिक प्रवृत्तियों पर परिचर्चा (मैं गम्भीर शब्दों का प्रयोग कर रहा हूँ कि नहीं?) अच्छी लगी।
देखिए मिश्रा जी जैसे चरित्र उस जमाने में हर मुहल्ले में पाए जाते थे। मेरी एक बड़ी कविता के सह नायक ऐसे ही थे। कविता दिल्ली भेजी थी मय लौटान लिफाफे के साथ - छपने के लिए! न छपी न वापस आई। ये बताइए आप उस समय दिल्ली में तो नहीं थे? ..अब सोने का समय हो गया है। इस जमाने के मिश्रा जी अभी अभी अपनी बाइक से घर के सामने से निकले हैं।

प्रकाश पाखी 6 November 2009 at 22:48  

स्कूटर पुराण दिल को प्रसन्न कर गया.मिश्रा का स्कूटर और मिश्रा जी हर मोहल्ले में मिलते है.

Anonymous,  6 November 2009 at 23:11  

'लापतागंज' देखते हैं क्या ?? देखियेगा..... मज़ा आता है.. ऐसे ही कई कैरेक्टर उसमे है...


मज़ा आया पढ़ कर

Anil Pusadkar 7 November 2009 at 11:15  

इस गुलाबी हो चले रोमेंटिक मौसम मे सौंदर्य रस से हास्य रस की ओर। हा हा हा हा हा,मज़ा आ गया अनिल बाबू।

दिगम्बर नासवा 7 November 2009 at 12:46  

मिश्र जी जैसे बहुत से लोग हम सब के आस पास बिखरे हुवे हैं ..........आपने ऐसे बहुत से लोगो की दास्ताँ लिखी है .... बधाई

गौतम राजऋषि 7 November 2009 at 13:41  

रोचक दास्तान अनिल..."कै निम्मा अठारह" पे कुछ याद हो आया तो देर तक हँसता रहा।

रश्मि प्रभा... 7 November 2009 at 13:45  

मिश्रा जी का स्कूटर तो मस्त अलार्म है !

सुशील छौक्कर 7 November 2009 at 13:58  

वाह अनिल भाई एक और कमाल। कुछ टिप्स हमें भी दे दीजिए जी ऐसा सब लिखने के लिए।

Rajeysha 7 November 2009 at 14:47  

तो मिश्रा जी का स्कूटर चला आ रहा है और चलता रहेगा जब तक जान में जान है. मिश्रा जी भी खुश, कॉलोनी वाले भी खुश कि सुबह 5 बजे का पता चल जाता है और कुत्ते भी खुश कि बेवजह भौंकना नहीं पड़ता.
जि‍न्‍दगी कि‍तनी मशीनी हो गई है ना?

richa 7 November 2009 at 15:35  

मिश्रा जी की स्कूटर पे सवार होके सरकार और नेताओं पर क्या खूब कटाक्ष करा है अनिल जी... और वो पांच बजे का अलार्म भी बहुत बढ़िया था... हमारे घर के आस पास भी ऐसे बहुत से अलार्म हैं :-)

sanjay vyas 7 November 2009 at 22:35  

rochak, mazedaar.aise charitr har mahalle kee shaan hai.inhen aapne behtareen abhivyakti dee hai.

राहुल पाठक 9 November 2009 at 16:11  

Anil bhai bahut pada hai tumhara blog...almost every post..bahut hi acha likhte ho ..khaskar tumhare bachpan ki lovestory pad kar bahur hi maja aata hai
मेरी नन्ही सी गुमनाम मोहब्बत (बचपन के दिनों से) ko kam se kam 10 bar pad chuka hu....aur jitne bar bhi padta hu hontho per mukan aa hi jati hai..

aisa lagta hai fir se bachpan ji arhe hai tumhare post ke sath....

विधुल्लता 10 November 2009 at 20:09  

अनिल कान्त जी बेहद रोचक लगी आपकी ये स्कूटर समस्या ...भाषा को सटीक ढंग से इस्तेमाल किया गया है आपके इस लेख में .....इस लेख को ..एक स्कूटर की आत्म कथा में तब्दील कर दीजिये ....इसकी रोचकता में चार चाँद लग जायेंगे

mark rai 12 November 2009 at 13:42  

kaaphi achcha laga.....ye scooter ki samsyaa.........

Neha 15 November 2009 at 09:31  

bahut hi badhiya likha aape...haesha ki tarah...jis tarah mishra ji ka scootar ek alarm hai...usi tarah hamaare ghar ke paas bhi ek van ka alarm hai...kam se kam mishraji logo ko 5 baje a aabhaas to karate hain....ye...benaamji to din me kai-kai baar alaarm sunate rahte hain.....aapke mishraji ko yahaan bhe dijiye...kam se kam subah ki walk jaldi ho jaya karegi.............aapki amulya tippani ke iye dhanyawaad

निर्मला कपिला 16 November 2009 at 21:15  

बहुत दिन से सोच रही थी कि आपकी कोई पोस्ट क्यों नहीं आयी मगर इस पोस्ट पर नज़र ही नहीं गयी। सकूटर के माध्यम से आस पास की कहानी लाजवाब शुभकामनायें

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