दिन के अंतिम मुहाने पर रखा तेरी चाहत का तिलिस्म
>> 30 November 2012
दिन कोई उदास कर देने वाली नज़्म थी . रह रह कर तेरी यादों के स्वर गूँज
उठते थे . उन भिन्न भिन्न स्वरों के मध्य ऐसा प्रतीत होता कि जैसे कोई बासी
याद आ अटकी हो . मैं बेतरहा प्रयत्न करता कि उसे दूर छिटक फैंकू किन्तु यह
संभव ना था .
दिन के अंतिम मुहाने पर रखा तेरी चाहत का तिलिस्म मुझे बाँधे रहा .
मैं इन दिनों जहाँ हूँ वहाँ बेचैनियाँ हैं . इतनी कि फुर्सत के लम्हे भी काटते हैं मुझको . मैं हर बीत गए पल को कितना भी मुड़ कर देखूँ किन्तु मैं तुम्हें वहाँ नहीं पाता . तुम हज़ारों किलोमीटर दूर जहाँ रहती हो वहाँ से कोई सुकून का इक टुकड़ा मुझे भेज दो .
सुकून की करवटें जो छोड़ आया था मैं . उसमें एक हिस्सा मेरा भी है . बिस्तर की सिलवटों में जो कई दिन उलझें हैं . उनमें से इक दिन ही भेज देना . बालकनी में उलझी होगी तारों पर जो कॉफ़ी के मध्य की हँसी . उसका एक टुकड़ा भेज देना . और भेज देना...वो बेपरवाह रातों की किस्सागोई .... वो एहसासों की गठरी . और वो तेरी बाहों का दुनिया .
दिन के अंतिम मुहाने पर रखा तेरी चाहत का तिलिस्म मुझे बाँधे रहा .
मैं इन दिनों जहाँ हूँ वहाँ बेचैनियाँ हैं . इतनी कि फुर्सत के लम्हे भी काटते हैं मुझको . मैं हर बीत गए पल को कितना भी मुड़ कर देखूँ किन्तु मैं तुम्हें वहाँ नहीं पाता . तुम हज़ारों किलोमीटर दूर जहाँ रहती हो वहाँ से कोई सुकून का इक टुकड़ा मुझे भेज दो .
सुकून की करवटें जो छोड़ आया था मैं . उसमें एक हिस्सा मेरा भी है . बिस्तर की सिलवटों में जो कई दिन उलझें हैं . उनमें से इक दिन ही भेज देना . बालकनी में उलझी होगी तारों पर जो कॉफ़ी के मध्य की हँसी . उसका एक टुकड़ा भेज देना . और भेज देना...वो बेपरवाह रातों की किस्सागोई .... वो एहसासों की गठरी . और वो तेरी बाहों का दुनिया .
6 comments:
sahi... mijaaz roomani ho rakha h aaj kal :D
दिन ढलते ही सूरज शरमा कर लाल हो जाता है..
बिस्तर की सिलवटों में जो कई दिन उलझें हैं . उनमें से इक दिन ही भेज देना . बालकनी में उलझी होगी तारों पर जो कॉफ़ी के मध्य की हँसी . उसका एक टुकड़ा भेज देना .
बेहतरीन शब्द विन्यास ....सुन्दर रचना।
अनुपम भाव ...
चाहत का तिलिस्म...काश कभी टूटे न..
अनु
वाह!
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