खिड़कियाँ-2
>> 17 June 2015
बात वैसे तो कल की ही सी है लेकिन है तो. जब वह स्कूल के डिबेट कम्पटीशन
में हिस्सा लिया करती और अक्सर जीत ही जाया करती. कितना कुछ तो पढ़ा हुआ
होता था उसका. जब उसकी दोस्त पूंछा करती कि कहाँ से इतना सब लाती है दिमाग में.
लेकिन उसे उन सब बातों पर हंसी सी आती. कितनी भोली और स्वच्छंद हँसी हुआ
करती थी उसकी. ऐसा उसके चाहने वालों ने उसे कितनी दफा तो कहा था.
क्या वे दिन उसने भुला दिए हैं. नहीं नहीं भूली नहीं है वो. यदि भूल गयी होती तो आज यूँ स्मृतियों में कैसे आ धमकते. फिर ये कैसा अकेलापन है जो इतने बंद दरवाज़ों के भीतर भी अपने पैर पसार लेता है. क्या उसने बीते सात सालों में यही कमाया है. सात सालों का अकेलापन. ऐसी क्या वजहें हैं जो कि उसके अकेलेपन को और भी बढाती चली जाती हैं. पहले तो वो ऐसी कभी नहीं थी. फिर वह क्या था जो दिन ब दिन उसमें घुलता चला जा रहा था. एक अजीब सा नशा जो उसे अपनी गिरफ़्त में लेता ही चला जा रहा था.
पीछे रह गए 21 बरसों में कितना कुछ तो था. क्या उसमें से कुछ पल चुरा कर वो अपने पास नहीं रख सकती. 21 बरस में वह कितना कुछ हो जाना चाहती थी. क्या से क्या बन जाना चाहती थी. एक पत्नी और एक माँ तो बनना ही था. इससे उसे कभी इंकार कहाँ था. लेकिन ख्वाब यूँ परिंदे बन उड़ जायेंगे, और किसी शाख पर जा बैठेंगे उसने कभी ना सोचा था.
क्या एक भली लड़की होना इतना भर है कि वह कंक्रीटों के जंगल के किसी उगा दिए पेड़ की शाख पर बिठा दी जाये. क्या इतनी भर है ज़िन्दगी कि सातवें माले पर रहकर अपना आने वाला पूरा का पूरा जीवन बिता दिया जाए. इस इंतजार में कि एक दिन होगा. उसमें सुबह होगी, दोपहर होगी, शाम और फिर एक रात. और इस तरह से एक नया दिन उग आएगा. पुराने किसी नए दिन को काट फैंक कर. वो नए दिन का इंतजार करेगी. और इस तरह का इंतजार कब तलक तो इंतजार कहलाता रहेगा. फिर एक दिन ऐसा भी तो आता है जब किसी भी बात का, किसी भी दिन का, किसी भी शख्स का, किसी भी ख़ुशी का, किसी भी सुबह का कोई इंतजार नहीं बचा रहता. बचा रहना भी कितना बचाए रखा जा सकता है. एक दिन खर्च हो ही जाता है. दिन, प्रतीक्षाएँ, प्रतीक्षाओं में बीतती दोपहरें, शामें और इसी तरह बीत जाते हैं सालों साल. और खिडकियों के इस पार से उस पार यूँ ही बदलता रहता है समय.
कभी कभी रतिका सोचती कि क्या उसे अरुण से कोई शिकायत है. नहीं ऐसा तो कहीं से भी ज्ञात नहीं होता कि वह अरुण से दुखी है. वह तो अपनी सीधी सपाट जिंदगी जी रहा है. जैसा इस संसार के अधिकतर लोग जी लेते हैं अपनी जिंदगी वह भी एक दिन पूरी कर ही लेगा इस उम्मीद में कि मैं भी किसी एक रोज़ खड़ी मिलूंगी उस आखिरी के पल की उस सीमा रेखा पर जहां कहा जाता है कि हाँ हमने जी ली है अपनी ज़िंदगी. क्या जीना इतना भर है.
क्या वे दिन उसने भुला दिए हैं. नहीं नहीं भूली नहीं है वो. यदि भूल गयी होती तो आज यूँ स्मृतियों में कैसे आ धमकते. फिर ये कैसा अकेलापन है जो इतने बंद दरवाज़ों के भीतर भी अपने पैर पसार लेता है. क्या उसने बीते सात सालों में यही कमाया है. सात सालों का अकेलापन. ऐसी क्या वजहें हैं जो कि उसके अकेलेपन को और भी बढाती चली जाती हैं. पहले तो वो ऐसी कभी नहीं थी. फिर वह क्या था जो दिन ब दिन उसमें घुलता चला जा रहा था. एक अजीब सा नशा जो उसे अपनी गिरफ़्त में लेता ही चला जा रहा था.
पीछे रह गए 21 बरसों में कितना कुछ तो था. क्या उसमें से कुछ पल चुरा कर वो अपने पास नहीं रख सकती. 21 बरस में वह कितना कुछ हो जाना चाहती थी. क्या से क्या बन जाना चाहती थी. एक पत्नी और एक माँ तो बनना ही था. इससे उसे कभी इंकार कहाँ था. लेकिन ख्वाब यूँ परिंदे बन उड़ जायेंगे, और किसी शाख पर जा बैठेंगे उसने कभी ना सोचा था.
क्या एक भली लड़की होना इतना भर है कि वह कंक्रीटों के जंगल के किसी उगा दिए पेड़ की शाख पर बिठा दी जाये. क्या इतनी भर है ज़िन्दगी कि सातवें माले पर रहकर अपना आने वाला पूरा का पूरा जीवन बिता दिया जाए. इस इंतजार में कि एक दिन होगा. उसमें सुबह होगी, दोपहर होगी, शाम और फिर एक रात. और इस तरह से एक नया दिन उग आएगा. पुराने किसी नए दिन को काट फैंक कर. वो नए दिन का इंतजार करेगी. और इस तरह का इंतजार कब तलक तो इंतजार कहलाता रहेगा. फिर एक दिन ऐसा भी तो आता है जब किसी भी बात का, किसी भी दिन का, किसी भी शख्स का, किसी भी ख़ुशी का, किसी भी सुबह का कोई इंतजार नहीं बचा रहता. बचा रहना भी कितना बचाए रखा जा सकता है. एक दिन खर्च हो ही जाता है. दिन, प्रतीक्षाएँ, प्रतीक्षाओं में बीतती दोपहरें, शामें और इसी तरह बीत जाते हैं सालों साल. और खिडकियों के इस पार से उस पार यूँ ही बदलता रहता है समय.
कभी कभी रतिका सोचती कि क्या उसे अरुण से कोई शिकायत है. नहीं ऐसा तो कहीं से भी ज्ञात नहीं होता कि वह अरुण से दुखी है. वह तो अपनी सीधी सपाट जिंदगी जी रहा है. जैसा इस संसार के अधिकतर लोग जी लेते हैं अपनी जिंदगी वह भी एक दिन पूरी कर ही लेगा इस उम्मीद में कि मैं भी किसी एक रोज़ खड़ी मिलूंगी उस आखिरी के पल की उस सीमा रेखा पर जहां कहा जाता है कि हाँ हमने जी ली है अपनी ज़िंदगी. क्या जीना इतना भर है.
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