एनोदर डे ऑफ़ माय लाइफ

>> 14 March 2009

हर किसी की जिंदगी में एक वक्त ऐसा आता है .....जब एक पल को अचानक से ऐसा महसूस होता है.... कि आज तो हो जाता दी एंड .....सारी सुध बुध खो जाती है उस पल तो ....न जाने उस पल पर कोई कंट्रोल नही होता .....उस पल ऐसा लगता है मानो दिल कह रहा हो "Another day of my life"

हाँ शायद मुझे भी उस पल कुछ ऐसा ही लगा था ...... जब मैं अपने अन्य दो दोस्तों के साथ आगरा से मुंबई के लिए ट्रेन में बैठ रवाना हुआ था ........ और मस्ती करते हुए जब हम मुंबई पहुंचे थे ....तो हमारा स्वेटर पहने हुए वहां की सड़कों पर होटल के लिए टहलना अजीब लगा था एक पल को .....झटपट हम लोगों ने अपने स्वेटर उतार अपने बैगों में रख लिए थे ...... मुझे अच्छी तरह याद है कि हम लोगों का परीक्षा केन्द्र अलग अलग था .....मेरा परीक्षा केन्द्र "मलाड " में पड़ा था ..... चूंकि हम लोगों ने रात काटने के लिए होटल CST रेलवे स्टेशन के पास लिया था ....सुबह होटल से निकलते वक्त यही तय हुआ था कि वापस CST रेलवे स्टेशन पर मिलना है ......

मैं अपने परीक्षा केन्द्र से परीक्षा देकर वापस स्टेशन को चल दिया ......... अब चूंकि मलाड से CST रेलवे स्टेशन तक पहुँचने के लिए दो बार ट्रेन बदलनी पड़ती थी ............मैंने लेते देते में टिकट खरीदी और जब प्लेटफोर्म पर पहुँचने के लिए सीडियों से उतार रहा था ............तो गाड़ी जाने को हुई ....मैं भागता हुआ अपने बैग को सँभालते हुए ...जो कि मेरे गले में लटका हुआ था .....और उसका वजन इतना कि बमुश्किल मुझसे लादा जा रहा था .....भागकर छूटती हुई ट्रेन में भीड़ के बीचों बीच एक पैर सीढ़ी पर रखा ........लेकिन एक पैर हवा में ही रह गया .....कई जतन किए कि इस बेचारे दूसरे पैर को भी अन्दर कर लूँ .........उस पर मेरे बैग ने मुझसे दुश्मनी की ठान ली थी .....मेरे उस बाहर निकले हुए एक पैर में और बैग में ना जाने क्या सलाह मशवराह हुआ ...कि वो मेरे शरीर का बेलेंस, डिस्बेलेंस करने पर उतारू हो गए ......

मैंने लाख जतन किए पर मैं ख़ुद को संभाल ना सका ....गाड़ी पूरी रफ़्तार पकड़ चुकी थी ..........मेरा हाथ छूट गया और मैं बैग समेत नीचे गिरा ....ठीक उस जगह जहाँ प्लेटफोर्म ख़त्म होता है ........मेरा सिर पटरी के पास था बस एक हाथ दूर ...मेरे शरीर का बाकी का हिस्सा बैग समेत पटरी से बहुत दूर था .........मेरे सिर के ऊपर से ट्रेन आवाज़ करती हुई निकल रही थी ......... मेरा दिमाग बिल्कुल सुन्न था .....मुझे कुछ सूझ नही रहा था ........अच्छा हुआ कि दिमाग काम नही किया ...कहीं अगर धोखे से भी उस पल उठने की जुर्रत करता तो मेरा काम उसी पल तमाम हो जाता .................खैर मुझे कोई चोट नही आई ........मैंने ट्रेन के चले जाने पर ख़ुद को महसूस किया ....मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था ........और मेरा बैग दूर पड़ा था ........मैं उठा ....देखता हूँ कि स्टेशन पर खड़े सभी लोग मुझे ही देख रहे हैं .........सभी मुझे घूर रहे थे .........कोई कह रहा था कि गाँव से आया है क्या ...अभी मर जाता तो .........कोई कहता अबे इतनी जल्दी क्या थी .....दूसरी ट्रेन पकड़ लेता ........कोई कुछ कहता तो कोई कुछ ......

मैं बैग संभाले हुए चुपचाप प्लेटफोर्म पर बढे जा रहा था .........और सबकी निगाहें मुझे घूर रही थी ......एक ने पूँछा कि कहाँ जा रहे थे .....मैंने स्टेशन कर नाम बताया ......वो बोला पागल है क्या ...ये ट्रेन नही जाती ... बगल वाले प्लेटफोर्म से जायेगी वो ट्रेन तो ...... उस पल यूँ लगा मुझ पर घडों पानी गिर पड़ा हो .......अब क्या कहता जल्दबाजी में जान से खेल चुका था .......... उस पल लगा कि जान बची तो लाखों पाये ...लौट के बुद्धू घर को आए ....

हाँ ये वही पल था जब मुझे महसूस हुआ कि मेरा दिल कुछ कह रहा है ज़ोर ज़ोर से धड़क धड़क कर ....."Another Day of my Life"
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13 comments:

PD 14 March 2009 at 14:42  

क्या क्या करते रहते हो भाई??

सुशील छौक्कर 14 March 2009 at 17:20  

जल्दबाजी मत किया करें अनिल भाई।

रश्मि प्रभा... 14 March 2009 at 18:35  

baap re........sach hai,kai baar doosri zindagi ka anubhaw hota hai,tabhi to maa ki hidayten hoti thi,sambhal ke beta....

रंजना 14 March 2009 at 19:51  

Baap re Baap.....Bhaiya aisi galti ab kabhi na kijiyega...

रंजू भाटिया 15 March 2009 at 09:12  

सही है जान बची सो लाखों पाए .जल्दबाजी से देर भली

दर्पण साह 15 March 2009 at 10:01  

MUJHE TO TITLE SE HI GULZAAR SAAB KI GHAZAL YAAD HO AIE:
Din kuch aise guzarta hai koi,
Jaise ehsaan utarta hai koi...

lekin poora post padhne ke baad laga ki iska title hoan chahiye tha:
DIE ANOTHER DAY !!
:)
BADA DARAWANA ANUBHAV.
Apke to ab bhi rongte khade ho jate hone?
Waise ek baat bataiye 'GAON SE AIYE THE KYA?' hehehehe :)

azdak 15 March 2009 at 10:55  

एनोदर? काहे भाई? बड़े अनादर से कहना पड़ रहा है कि कम से कम हेडि़ग में यूं न लिखते! लिखते ही तो फिर एनोदर क्‍यों, ऐनोदर क्‍यों नहीं, या ऐनक उधर जैसा कुछ? अनादर?

prabhat gopal 15 March 2009 at 11:35  

romanchak laga, lekin afsos ke sath. hamesha dhiraj se kam karie.

दिगम्बर नासवा 15 March 2009 at 12:50  

हमेशा की तरह........प्रभावी और rochak लिखा
मजा aa गया

समयचक्र 15 March 2009 at 14:52  

बहुत बढ़िया संस्मरण बढ़िया . लिखते रहिये.

Prem Farukhabadi 15 March 2009 at 23:25  

achchha likhte ho. keep it up.

Neha Dev 16 March 2009 at 07:38  

अनिल लिखा तो आपने ठीक है पर इसे याद रखना. मेरी कविता पर टिप्पणी करने के लिए धन्यवाद !

hem pandey 16 March 2009 at 21:42  

इस तरह की जल्दबाजी कभी भी ,किसी ने नहीं करनी चाहिए. आप का सौभाग्य आपको बचा ले गया.

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