काँच का शहर और रंगीन सपने
>> 04 January 2011
अपने शहर से अभी तक अपनापन नहीं हो पाया था । ना जाने हम दोनों के बीच ऐसी क्या दूरियाँ थीं जो हम एक-दूसरे से यूँ अनमने से रहते रहे । इस दफा जब घर को गया तो लगा जैसे वो शहर बाहें फैलाए खड़ा है । गोया कि मेरे ही इंतज़ार में हो ! अब खासा लगाव सा होने लगा है । वैसे भी जब अपने पास की चीज़ें पुरानी पड़ती जाती हैं, हमें उससे अतिरिक्त मोह होता जाता है ।
देखा जाए तो फिरोज़ाबाद बुरा शहर नहीं है, यहाँ सुविधायें और चमक-दमक ना सही - रोटी सबको नसीब है ।
********************************
एक्सप्रेस को चीटी की चाल से चलवाते हुए और उसके एक्सप्रेस होने पर लानत भेजते हुए किसी तरह घर को पहुँचे । अबकी दफा यार लोगों ने ऐसे दुआ-सलाम की, गोया कि बरसो बिछड़ने के बाद मिले हों । खूब यारबाजी की, सड़कों की खाक छानी और सिगरेट पिये । जीने का सलीका भूलकर बेफिक्री भी अच्छी चीज़ है । चार दिन मज़े में कटे ।
**********************************
माँ को अम्मी जान कहकर पुकारने में स्वंय को अजीब ख़ुशी हासिल होती है । इस दफा सारी शर्मो-हया ताक़ पर रखकर बेशर्म बनकर जिये । माँ से गप्प मारते रहे, उनकी बचपन की छोटी-छोटी बातें सुनते रहे । और जब वे शांत हो जाती तो याद दिलाते अरे हाँ -तब क्या हुआ था अम्मी जान जब आप वहाँ थीं या कि जब आप ब्याह कर आयी थी तो कितने लोगों के लिये चक्की पीसनी होती थी । या कि जब आप अपने बचपन की दोस्त से रूठ जाया करती थीं तो कैसे निभती थी ।
माँ का जीवन भी कितना निस्वार्थ है, जैसे स्वंय का कुछ है ही नहीं-जो कुछ है हम सब के लिये, घर के लिये । वे उसी में इतनी खुश दिखती हैं । स्थिर, शांत, डेडिकेटेड और स्वंय के त्याग के कहीं कोई चिन्ह नहीं । सच में माँ बहुत बड़ी हैं - बहुत बड़ी ।
**********************************
बीते दिनों में आये जमा मेल भी क़र्ज़ का सा एहसास कराते हैं । किसको-किसको जवाब लिखूँ और क्या ? ना जाने क्यों लोग रस्म अदायगी करते रहते हैं गोया कि हम जानते ही ना हों कि नया साल आ गया है । और न जाने किस बात पर इतना खुश हो लेते हैं ? कोई लौटरी लग गयी या दुनिया बदल गयी ? खैर, अपनी तो नहीं लगी ।
*********************************
बरसों से स्मृतियों में कैद छोटी-छोटी घटनायें, जो वक़्त के साथ-साथ और अधिक मैच्योर होती जाती हैं - को लिखने में अजीब नशा सा आता है । जैसे कि चार गिलास बीयर पीकर स्वंय को हल्का महसूस करने लगा होऊं ।
सुनसान पड़ी सडकें भी खासा आकर्षित करती हैं-खासकर रात में यूँ ही निकल पड़ना खासा सुकून देता है । तो दिली ख्वाहिश को अंजाम देने दोस्त को साथ लिये चल दिये (अकेले तो हरदम चलते हैं !) । काफी देर तक जिंदगी और समझदारी की बातें होती रहीं । समाज और दुनियाँ की समस्याएँ नहीं सुलझीं - लौट आये । मिलकर सिगरेट पिये और फिर उसको बिस्तर तक पहुँचा कर खुद जागते रहे । ये लिखने और जागते रहने का मर्ज़ हमने ही अपनी जान को लगा रखा है । नहीं तो देखो दुनिया घोड़े बेच कर, अपनी-अपनी रजाइयों में दुबकी पड़ी है ।
देखा जाए तो फिरोज़ाबाद बुरा शहर नहीं है, यहाँ सुविधायें और चमक-दमक ना सही - रोटी सबको नसीब है ।
********************************
एक्सप्रेस को चीटी की चाल से चलवाते हुए और उसके एक्सप्रेस होने पर लानत भेजते हुए किसी तरह घर को पहुँचे । अबकी दफा यार लोगों ने ऐसे दुआ-सलाम की, गोया कि बरसो बिछड़ने के बाद मिले हों । खूब यारबाजी की, सड़कों की खाक छानी और सिगरेट पिये । जीने का सलीका भूलकर बेफिक्री भी अच्छी चीज़ है । चार दिन मज़े में कटे ।
**********************************
माँ को अम्मी जान कहकर पुकारने में स्वंय को अजीब ख़ुशी हासिल होती है । इस दफा सारी शर्मो-हया ताक़ पर रखकर बेशर्म बनकर जिये । माँ से गप्प मारते रहे, उनकी बचपन की छोटी-छोटी बातें सुनते रहे । और जब वे शांत हो जाती तो याद दिलाते अरे हाँ -तब क्या हुआ था अम्मी जान जब आप वहाँ थीं या कि जब आप ब्याह कर आयी थी तो कितने लोगों के लिये चक्की पीसनी होती थी । या कि जब आप अपने बचपन की दोस्त से रूठ जाया करती थीं तो कैसे निभती थी ।
माँ का जीवन भी कितना निस्वार्थ है, जैसे स्वंय का कुछ है ही नहीं-जो कुछ है हम सब के लिये, घर के लिये । वे उसी में इतनी खुश दिखती हैं । स्थिर, शांत, डेडिकेटेड और स्वंय के त्याग के कहीं कोई चिन्ह नहीं । सच में माँ बहुत बड़ी हैं - बहुत बड़ी ।
**********************************
बीते दिनों में आये जमा मेल भी क़र्ज़ का सा एहसास कराते हैं । किसको-किसको जवाब लिखूँ और क्या ? ना जाने क्यों लोग रस्म अदायगी करते रहते हैं गोया कि हम जानते ही ना हों कि नया साल आ गया है । और न जाने किस बात पर इतना खुश हो लेते हैं ? कोई लौटरी लग गयी या दुनिया बदल गयी ? खैर, अपनी तो नहीं लगी ।
*********************************
बरसों से स्मृतियों में कैद छोटी-छोटी घटनायें, जो वक़्त के साथ-साथ और अधिक मैच्योर होती जाती हैं - को लिखने में अजीब नशा सा आता है । जैसे कि चार गिलास बीयर पीकर स्वंय को हल्का महसूस करने लगा होऊं ।
सुनसान पड़ी सडकें भी खासा आकर्षित करती हैं-खासकर रात में यूँ ही निकल पड़ना खासा सुकून देता है । तो दिली ख्वाहिश को अंजाम देने दोस्त को साथ लिये चल दिये (अकेले तो हरदम चलते हैं !) । काफी देर तक जिंदगी और समझदारी की बातें होती रहीं । समाज और दुनियाँ की समस्याएँ नहीं सुलझीं - लौट आये । मिलकर सिगरेट पिये और फिर उसको बिस्तर तक पहुँचा कर खुद जागते रहे । ये लिखने और जागते रहने का मर्ज़ हमने ही अपनी जान को लगा रखा है । नहीं तो देखो दुनिया घोड़े बेच कर, अपनी-अपनी रजाइयों में दुबकी पड़ी है ।
6 comments:
ना तो कभी सिगरेट फूंकी, ना बियर पी के कभी खुद को हल्का महसूस करा... ना ही कभी अपने शहर से दूर रहे की वापस जाने पर कोई यूँ बाहें फैलाए इंतज़ार में खड़ा हुआ मिले... फिर भी जाने क्यूँ बड़ी अपनी सी लगी ये पोस्ट... शायद स्मृतियों में क़ैद छोटी छोटी घटनाओं को यूँ लिखते रहने का नशा सांझा है...
कितने प्यारे हैं जिंदगी के रंग।
---------
मिल गया खुशियों का ठिकाना।
वैज्ञानिक पद्धति किसे कहते हैं?
यही है ज़िन्दगी।
सोती दुनिया,
रोती सड़कें,
लिखते रचना,
अरमां भड़कें।
Behad achha likhte hain aap!
एक छोटा सा सुझाव है,
आप हिंदी में लिखते हैं, और वो भी अधिकतर शुद्ध हिंदी होती है, उसमे अंग्रेजी के कुछ शब्द न मिलाएं (जैसे Mature), कुछ बहावे में बाधक से जान पड़ते हैं |
Post a Comment