कोई दम में आतिशफ़िशाँ फटेगा कभी ?
>> 07 December 2009
कभी कभी मन करता है कि कई दिनों तक और कई रातों तक सोता रहूँ । इतना कि इस सोते रहने की सोच से निजात मिले । हर गम और हर परेशानी उस सोते हुए दिन रात में घुल जाए, चाहे कितने भी बुरे से बुरे स्वप्न आयें और मैं उन्हें देखूं, ख़ुद को मरते हुए, जीते हुए, तडपते हुए, सहमते हुए, सकुचाते हुए, लड़खड़ाते हुए, घबराते हुए । जब मैं उठूँ तो वह फिर से रह रहकर मुझे याद न आए ।
मन करता है कि किसी पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी पर चढ़ कर वहाँ खड़ा हो जाऊँ और ज़ोर ज़ोर से चिल्ला चिल्ला कर अपना गला फाड़ लूँ । उस चिल्लाहट में मैं अपना वो सब गुस्सा, आक्रोश निकाल देना चाहता हूँ जो इतने सालों से मेरे अन्दर भरा हुआ है । जो लावा की तरह मेरी रगों में बह रहा है । मैं चाहता हूँ कि दूसरी पहाड़ों की चोटियाँ भी मेरे वह दर्द भरे, रोते हुए, चिल्लाते हुए स्वर सुनें और मुझे वापस करें । मैं चाहता हूँ उन्हें सुनना कि कैसे लगती है वो घुटन, वो आक्रोश, वो तड़प सुनने में, जो भरी है कई बरसों से मेरे अन्दर।
चाहता हूँ कि दौड़ता रहूँ-दौड़ता रहूँ और जब तक दौड़ता रहूँ जब तक कि मेरे कदम थक कर चूर नहीं हो जाते । चाहता हूँ कि साँसों के हाँफने की आवाज़ सुनूँ । मैं उसमें भी वो बसी हुई सहमी सी, दबी हुई सी बातें सुनना चाहता हूँ, जो मैंने कभी किसी कारण तो कभी किसी कारण न कह पायी ।
मैं जी भर के रोना चाहता हूँ, कई बरसों का जमा किया हुआ रोना । जो मैंने अपने बड़क्क्पन में, ये जताते हुए नही रोया कि मैं कमजोर नहीं हूँ, कि मैं बड़ा हूँ सबसे तो मैं कैसे रो सकता हूँ, कि मेरा रोना इन सबसे सहन नहीं होगा । पर मैं रोना चाहता हूँ बेतहाशा, इतना कि जो कभी फिर से रोने का मन ना करे ।
हाँ माँ मैं थक कर चूर हो जाता हूँ तो मन करता है कि फिर से बच्चों जैसा बनकर तुम्हारे गले से लिपट खूब रोयूं और कहूँ कि माँ "आई एम सॉरी" मैं तुम्हारे लिए इतना भी ना कर सका । मैं तुम्हारे हाथों से ढेर सारी मार खाना चाहता हूँ, कम से कम वो दर्द तो उस मार में जाता रहेगा । मैं चाहता हूँ कि कई कई दिन यूँ ही तुम्हारे पास रहूँ, तुम से ढेर सारी बातें करूँ, बचपन से लेकर अब तक की सभी बातें। वो बातें जो आज तक मैंने किसी से नहीं की । वो बातें जिन्हें कहने से मैं डरता हूँ, जो मैंने अपने "बेस्ट फ्रैंड" से भी नहीं कह पायीं ।
मन करता है माँ कि उस पुलिस अफसर के सामने खड़ा होकर उसे अपने दिल की सारी बातें कह डालूं और कहूँ कि बिना सहारे के जिंदगी जीने का सहूर क्या होता है ज़रा बताये । कैसे जी जाती है जिंदगी बिना पैसे, एक एक रोटी के लिए मोहताज़ होकर । मैं जानना चाहता हूँ उससे कि कैसे अच्छी अच्छी बातें कर सकता है कोई बुरे वक्त में भी । मैं उसी के लहजे में उसे एक लंबा भाषण देना चाहता हूँ, उसे घंटों अपने ऑफिस के बाहर खड़ा करके फिर अन्दर आने पर ढेर सारी उसूलों की बातें बताना चाहता हूँ।
मैं हर उस इंसान से उसी की वाली चालाकी की अदा से उसे चालाकी दिखाना चाहता हूँ और फिर उसे जी भर कर मुंह चिढाना चाहता हूँ । मैं चाहता हूँ कि वो बुरा माने और फिर दिखाने के लिए ये करे कि उसे बुरा नहीं लगा । मैं देखना चाहता हूँ उसके चेहरे पर उसी के जैसी चालाकी चलने के बाद के भाव ।
मैं आत्महत्या करने की सोचना चाहता हूँ और वो डर भी महसूस करना चाहता हूँ, मैं ये भी बताना चाहता हूँ कि बिना सफलता पाये मर जाने से मैं बहुत डरता हूँ । मैं डरता हूँ कि लोग मुझे डरपोंक, भगौड़ा और हारा हुआ कहेंगे । इस बात को अच्छी तरह जानते हुए भी मैं आत्महत्या के बाद के हालात देखना चाहता हूँ । लेकिन इन सबके बावजूद मैं आत्महत्या नहीं करना चाहता । मैं कोई भी ऐसी मौत नहीं चाहता जिसके बाद मैं कमज़ोर कहलाऊं ।
मैं तुमसे कह देना चाहता हूँ कि मैं तुमसे बहुत बहुत प्यार करता हूँ, उतना ही जितना कि बचपन में किया करता था । उतना हीं जितना कि तुम्हारा पल्लू पकड़ पीछे छुप जाने पर और खुशी से गले लग जाने पर जताता था । मैं कोई ऐसा ढंग खोजना चाहता हूँ जिससे मैं आसानी से सब कुछ बयाँ कर सकूँ...हर वो एहसास जो दबा कुचला है
मैं कहना चाहता हूँ माँ कि तुमने जितने भी ख्वाब देखे हैं, उन्हें पूरा करना चाहता हूँ । मैं कहना चाहता हूँ माँ, कि मैं कभी कभी बहुत उदास होता हूँ । हाँ माँ, मैं कह देना चाहता हूँ कि मेरे अन्दर बहुत कुछ ऐसा है, जो धीरे धीरे ज़मा होता रहा है-होता रहा है, पर आज तक दिल खोलकर किसी को भी नहीं कह सका...किसी को भी नहीं ।
जानती हो माँ मुझे ख़ुद को भी बताने में कभी कभी सोचना पड़ता है कि मेरे अन्दर क्या क्या है, जो बयाँ नहीं हुआ है । मैं दिल खोलकर बिना दिमाग की सुने, सब कुछ बयाँ कर देना चाहता हूँ...हर वो एहसास जो वर्षों से मेरे अंदर क़ैद है
* आतिशफ़िशाँ = ज्वालामुखी
16 comments:
आपने फ़िर भावुक कर दिया ....हर बार की तरह ....
अच्छा किया जो आपने आत्मा की आवाज डायरी में साफ-साफ लिख दिया
कम से कम मुझे यह पता तो चला कि ऐसा सोंचने वाले और भी हैं
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कभी कभी मन करता है कि कई दिनों तक और कई रातों तक सोता रहूँ..........
मन करता है कि किसी पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी पर चढ़ कर वहाँ खड़ा हो जाऊँ और ज़ोर ज़ोर से चिल्ला चिल्ला कर अपना गला फाड़ लूँ.....
चाहता हूँ कि दौड़ता रहूँ-दौड़ता रहूँ और जब तक दौड़ता रहूँ जब तक कि मेरे कदम थक कर चूर नहीं हो जाते और साँसों के हाँफने की आवाज़ सुनूँ ...
---शायद बेचैनी इसी को कहते हैं।
ऐसे बहुत सी बातें है जो हम सोचते है करने को परन्तु वही है की सोचना और करना दोनों अलग लग चीज़ है आज की दुनिया में हर चीज़ पा जाना संभव नही..बहुत अच्छी अच्छी बातें कर रहे है अनिल जी..बढ़िया लगा आपके विचार भरी यह प्रस्तुति..
विशेष का माँ का खुद के भावनाओं से बाँधना..वो तो एक अलग ही अनुभूति है..सब से परे...
दिल की बेचैनी हमें भी झकझोर गई.........ना नींद हो लम्बी, ना सही-पर थकान दूर हो,माँ से किये वायदे पूरे हों
अनिल जी आप बहुत भावुक हो कर लिखते हैं और दूसरों के दिल मे भी कुछ पिघलने लगता है। माँ से करीब शायद कोई हो नहीं सकता इस तरह मा से अपने दिल की बात कर उन्सान खुध को हल्का महसूस करता है चाहे मा पास न भी हो। बहुर अच्छी लगी आपकी ये रचना शुभकामनायें
माँ के लिए अपनी फीलिंग्स को बड़ी ही नरमाहट से कह गये हो आप . कई बार जो अनकहा रह जाता उसे लिख देना आसान होता है . काश ! हम माँ के लिए ऐसा पूरी शिद्दत से समर्पण कर पाते. तभी तो मैंने लिखा है . कुछ इस तरह -- 'मैं और वो' में ---
मुझे एसी में
नींद आती है ,
उसके पास टेबल फेन है
जो आवाज़ करता है ।
मैं ऊंचे दाम के
जूते पहनता हूँ ,
उसके पास
बरसाती चप्पल है ।
मैं हँसता हूँ
वो रो देती है,
मैं रोता हूँ
वो फ़ुट पड़ती है !
मैं, मैं हूँ
वो मेरी माँ है ।
[] राकेश 'सोऽहं'
आपने बेहतरीन शब्दों से सजी हुईं पंक्तियाँ पेश की हैं .
आपका बहुत बहुत शुक्रिया
काफी भावनाप्रद।
आज एक अंतराल के बाद आ पाया तुम्हारी दायरी पढ़ने{हाँ, तुम्हारे सारे पोस्ट मुझे एक बेहतरीन डायरी लगते हैं, अनिल}...तो लगा कि ये सारी बातें जो मैं कहना चाहता था, तुमने कह डाली।
jaane kyon ye sab, lagta hai jaise meri diary se uthaye gaye hon... shandaar lekhan...
अनिल जी,
आप ने जो अपने अन्दर का गुबार हम सब के साथ साँझा किया है उसे पढ़ कर तो यही लगता है की हम सभी
अपने अन्दर एक ऐसा आतिशफ़िशाँ ही तो लिए बैठे है. लिख कर अपने मन की अभिव्यक्ति को शब्दों के जाल में खोने की
कोशिश जारी रहती है. आप के इस आतिशफ़िशाँ को पढ़ कर तो यही लगता अभी आप के अन्दर लिखने के लिए बहुत कुछ है.
लिखते रहें आप बहुत के मन को अपने से साँझा कर लेते है.
आशु
आशु जी, देवेंद्र जी, अजय जी, विनोद जी, रश्मि जी, निर्मला जी, मनोज जी, गौतम जी, अंबरीश जी आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया
हमेशा की तरह लाजवाब ......... मन से सीधे मन में जाती ............ आपकी कलाम का जादू हमेशा की तरह चल रहा है ....
Hmmm....A new beginning !!!!
Y to hide na ?? ..be expressive always !!
Cheers !!!
"मैं आत्महत्या करने की सोचना चाहता हूँ और वो डर भी महसूस करना चाहता हूँ, मैं ये भी बताना चाहता हूँ कि बिना सफलता पाये मर जाने से मैं बहुत डरता हूँ । मैं डरता हूँ कि लोग मुझे डरपोंक, भगौड़ा और हारा हुआ कहेंगे । इस बात को अच्छी तरह जानते हुए भी मैं आत्महत्या के बाद के हालात देखना चाहता हूँ । लेकिन इन सबके बावजूद मैं आत्महत्या नहीं करना चाहता । मैं कोई भी ऐसी मौत नहीं चाहता जिसके बाद मैं कमज़ोर कहलाऊं ।"
bhai ye kya gajab likh diya.. shayad maine ye likha hai, aapne nahi..
अगर आपने लिखा है तो प्रशांत भाई बस ये समझ लीजिए कि अपुन भी ऐसेईच सोचता है कभी कभी
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