संभव है तुम्हें ये निरर्थक लगे
>> 20 November 2009
संभव है तुम्हें यह निरर्थक लगे
कि
शाम होते ही लौट आते हैं
अँधेरे काले खौफनाक साये
और तुम होते हो
अपने घरों में बेपरवाह
ये सोचते हुए
कि हम सुरक्षित हैं
जब सोचे जाते हैं
दुनिया को मनमाने ढंग से
चलाये जाने के लिए
प्रजातंत्र की चाशनी में लिपटे हुए
राजनीतिक हथकंडे
और तुम थिरकते हो मदहोश होकर
अपने महबूब की बाँहों में
किसी डिस्को या बार की रंगीनियों में
लगाते हुए कहकहे
जब फैंके जाते हैं
सुबह की रोशनी में
संसद के अन्दर
गांधीनुमा नोटों के बण्डल
और दिखाए जाते हैं तीखे तेवर
कि संसद पर हमला
हम कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे
तुम रिमोट का बेहतरीन इस्तेमाल करते हुए
बढ़ जाते हो अपने गंतत्व पर
जहाँ आधुनिक गालियों से भरा समाज
करता है तुम्हारा इंतजार
संभव है तुम्हें ये निरर्थक लगे
कि
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु
कभी इस देश का हिस्सा थे
12 comments:
कितनी गहरी बात कह गये...
वाकई एक पूरी जमात तैयार है जिन्हें यह सब निरर्थक लगे....
भावपूर्ण रचना!!
bahut behtareen...kavita...
गहरी और सटीक रचना . अनिल जी बधाई .....
aapke shabd ander tak asar kar gaye......sansad kam wo to drame ka manch jyada hai....Gandhi,bhagat, sukhdev, chandrashekar ki baatein sir kisse kahaniya hi lagte hai
आपकी कविता का अलग महत्व है, यह हमारे सोंदर्यबोध को धक्का गेती है, उसे तोड़ती है। इसीलिए ऐसी कविताओं का अपना एक अलग महत्व है।
तुम रिमोट का बेहतरीन इस्तेमाल करते हुए
बढ़ जाते हो अपने गंतत्व पर
जहाँ आधुनिक गालियों से भरा समाज
करता है तुम्हारा इंतजार
bahut kuch kah gaye aap apni is rachna main.
समाज के एक बड़े हिस्से को नंगा कर दिया अनिल भाई,बहुत ही करारा तमाचा है ये लेकिन अफ़सोस इसे वो लोग महसूस नही कर पा रहे हैं जिनके लिये ये है।
behtareen
अत्यन्त सुंदर रचना! बहुत बहुत बधाई इस उम्दा रचना के लिए!
सही कहा आपने, कुछ लोगों के लिए ये वाकई निर्रथक हो सकता है।
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क्या है कोई पहेली को बूझने वाला?
पढ़े-लिखे भी होते हैं अंधविश्वास का शिकार।
अच्छी कविता
kitna sundar kahaa aapne . ghar ke bahar bhi duniya hai pr usaki kisaki prwah yadi san se ye sb kuchh milta rhe . tabhi tow hm dino din bipdaaon men ghire jaa rhe hain .
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