फिर मिलेंगे !
>> 10 February 2010
लगता नही था ये क्रिसमस ईव से पहले का दिन है । ठीक उसका दिसम्बर न लगने जैसा । जब तक कोई खुद से न कहे कि यह दिसम्बर है । सड़क का एक छोर आते-आते पुल पर ख़त्म होता था । सड़क कहाँ ? शायद पगडण्डी कहना ठीक हो । जो वह पहले कही जाती रही थी । पुल के नीचे नदी सुस्त सी बही जा रही थी । लगता था जैसे बेमन बही जा रही हो । सुबह की पीली धूप पेड़ों के शिखरों पर से छितरकर पुल पर आ रही थी । फिर से याद हो आया था कि यह दिसम्बर है, क्रिसमस ईव से पहले का दिन ।
समय जो बेपरवाह सा अचानक आ जमा हुआ था । ठीक दो शब्दों के बीच विराम की तरह । विराम से पहले का समय जो बीत गया था-बीता हुआ समय । विराम के उस ओर-आने वाला समय और मध्यस्थ में खड़ा हुआ ये समय । ठीक पुल पर खड़ा हुआ, नदी के साथ बहता हुआ और पीली धूप के साथ उतरता हुआ ।
पास ही की दुकानों पर भीड़ रेंगने लगी थी । क्रिसमस ईव से पहले की भीड़ । हँसती हुई, खिलखिलाती हुई, चुप सी, खामोश सी, बातें करती हुई, मद्धम-मद्धम बहती सी । क्रिसमस के दिसम्बर का एहसास कराती सी ।
आते जाते लोगों के चेहरों में से एक चेहरा यूँ ही ऊपर उठ कर कहता सा जान पड़ता है-'हम फिर मिलेंगे ।' चहरे...शब्द...फिर चेहरे...फिर शब्द । उसके शब्द मेरे पास थे । उन सिक्कों की तरह जिन्हें बच्चे बार-बार अपनी जेबों से निकालकर देखते हैं कि 'सलामत तो हैं ।'
यह समय था और इसके परे वह बीता हुआ समय, जब उसने कहा था-'हम फिर मिलेंगे ।' आज ही के दिन, इसी पुल पर । यह कोई वादा नही था । बस उस समय के शब्द थे । जिन्हें मैं स्मृति पर से उलट-पलट कर के छू कर देख रहा था -'हम फिर मिलेंगे ।'
बीते हुए पाँच वर्षों के बाद भी वहाँ सर्दियों का वह मलिन आलोक मौजूद था । जैसे वे पाँच वर्ष कुछ भी नही । होते हुए भी आज उनका होना कुछ न था । ठीक स्मृति पर से बीते हुए समय की तरह ।
मैं सोचता हूँ- अगर मैं चाहूँ तो याद कर सकता हूँ । सब कुछ । नही, शायद सबकुछ नही । उसका चेहरा नही । उसका वो चेहरा तो उस बीते हुए समय के साथ चला गया होगा । बीता हुआ चेहरा । और जो आने वाला समय है, उसके साथ का वो चेहरा मैं याद कैसे कर सकता हूँ । याद तो हमें वही रहता है जो बीत गया है । बीते हुए समय के साथ बीता हुआ ।
काफी समय था जो आकर पास जमा हो गया था । बीता हुआ समय भी और आने वाला समय भी, जिसे मुझे बीते हुए समय में परिवर्तित करना था । मुझे एक ही समय में अपने दो चेहरे नज़र आ रहे थे । एक वो जो बीते हुए समय के साथ था और एक वो जो आने वाले समय के साथ जुड़ा हुआ था ।
मैं जब सोच से परे इस ओर आया तो देखा कि बीते हुए समय के साथ पुल बारिश में नहा चुका था । मैं सोच और पानी से भीग चुका था । बारिश के बाद मौसम खुल गया था । ज्यादा नही । उतना ही, जिसके होने से शहर की छतें धुल जाती हैं और एक उजलापन नज़र आता है । स्वच्छ और उजला आलोक फ़ैल गया था ।
सहसा मेरे कंधे पर पीछे से किसी ने हाथ रखा । एक ठिठका हुआ हाथ, जो उस नीरव आलोक में मौजूद था । ठीक मेरे कंधे पर । महसूस किया हुआ सा । ठीक बीते हुए समय के जैसा । जिसे हम बाद में महसूस कर सकते हैं ।
वो हाथ वही थे जो मेरे पीछे मुड़ने के साथ ही उस आने वाले समय को साथ ले आये थे । उस समय में अब मैं था, वो थी । आस-पास शब्द तैरने लगे थे -'हम फिर मिलेंगे ।' बीते हुए शब्द । जो उसके आने के साथ ही बीते हुए हो गये थे ।
दो नन्ही आँखें मुझे उसके आँचल के पीछे से निहारती दिखीं । एक क्षण वह मुझे सहमा सा निहारता रहा । उसका चेहरा उत्सुक और बहुत उजला सा था । उत्सुक, शायद मेरी पहचान की खातिर । अगले क्षणों में मुझे ज्ञात हो चला था कि वह उसका लड़का है । चार बरस से कुछ कम । यह उसकी उम्र रही होगी । वह अब वहाँ मौजूद थी, उन शब्दों के साथ -'हम फिर मिलेंगे ।' वह शब्द जो बीते हुए समय की निशानी थे और इस वर्तमान समय की सच्चाई ।
आसमान में जगह-जगह कुछ दूरी पर बादल के सफ़ेद टुकडे मौजूद थे -खरगोश की शक्ल के । बिलकुल उसी की तरह के सफ़ेद, उजले । पुल की ओर आने वाली सड़क पर बारिश के बाद के चहबच्चे जमा हो गये थे । चारों ओर एक नीरव आलोक था । धूप और बारिश के बीच का आलोक ।
जब दो इंसान एक साथ बैठे हों । एक ही समय में, अपनी किसी पुरानी पहचान के साथ, तो जरूरी नही वह कुछ कहें । क्योंकि वह फिर सिर्फ कहना भर रह जाता है । होता कुछ नही है । न कहने के इस पार और न कहने के उस पार । न तो वे शिकायत करते और न ही कोई कारण जानना चाहते कि ऐसा क्यों हुआ ! सब कुछ उस चुप सी ख़ामोशी तले दबा रह जाता है और फिर हवा में भाप की तरह उड़ जाता है ।
मैं पुनः उसी पुल पर से उस पगडण्डी सी सड़क पर उन दोनों को जाते हुए देख रहा हूँ । पुल पर से उतरते हुए वे दोनों एक पल के लिये मुड़े थे । तब उस नन्हे हाथ ने खिलखिलाते हुए कहा था -'हम फिर मिलेंगे ।' अपनी अभी के इस बीते हुए वक़्त के साथ की पहचान की खातिर कहे गये वे शब्द -'हम फिर मिलेंगे ।'
सूरज दूर पेड़ों की ओट में छुपने लगा था । धीरे-धीरे उतरता हुआ । अलविदा कहने से पहले मुस्कुराता सा हुआ । सर्दियों के दिसम्बर का वह उतरता हुआ सूरज आने वाली चाँदनी को मद्धम-मद्धम फैला रहा था ।
मैं वही खड़ा था । उसी पुल पर से उस पगडण्डीनुमा सड़क पर उन्हें जाते हुए देखता हुआ । शब्द फिर से अब बीते हुए वक़्त के साथ जुड़ गये थे -'हम फिर मिलेंगे ।'
* फोटो गूगल से
27 comments:
हम फिर मिलेंगे ........ इन दो शब्दों में रची आपकी कहानी ..... कोमल भावनाओं का संगम है .... बहुत मधुर एहसास जगाती हुई कहानी .... लाजवाब अनिल जी ..........
nice
ऐसी कहानियां रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कहानी लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी...वाह.
नीरज
चेहरे...शब्द...फिर चेहरे...फिर शब्द shabdo ka jadu hai apke pass
acchi story..phir milenge yahi to ek asha rahti hai sabko....
achi story hai.... aap ne sunset point suna hai? kuch kuch intzaar vaisa he hai.... fir milne ka...
aapka lekhan bahut hi accha aur pathak ko khud se jodalene wala hai...Shubkamnae!!
Phir jarur milenge...
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
भावुक रचना।
abe rulayega kya..gr8 story with lot of emotions
वाह!
भावुक मन को छूती हुई रचना... फ़िर मिलेंगे कभी कभी एक लम्बे अन्तराल का नाम भी हो सकता है... चंद पक्तिया याद आ गई आपकी रचना पढ कर
मेरी मंजिल है कहां
मेरा ठिकाना है कहां
सुबह तक तुझ से विछड कर
मुझे जाना है कहां
सोचने के लिये.. इक रात का मौका दे दे
उसके शब्द मेरे पास थे । उन सिक्कों की तरह जिन्हें बच्चे बार-बार अपनी जेबों से निकालकर देखते हैं कि 'सलामत तो हैं ।'
wah kahun ya ah samajh mein nahi aa rha ...
अनिल भाई, बच्चे ने "मामा" कहा आपको ?
यह तो हुई मजाक की बात
आपने ठान ही लिया है की एक बेहतर लेखक बन्ने का तो यह मैं भी महसूस कर रहा हूँ कि आप बहुत सही जा रहे हो ... संभावनाएं उजागर हो रही हैं... घटनाएँ होती नहीं दिख रही और वो परदे हटा कर देखती है कितना कुछ बदल गया !!!
ांअपकी हर कहानी लाजवाब इस लिये होती है कि भावनाओं का प्रवाह बहुत निर्बाध गति से चलता है पाठक को भावनाओं मे छोद कर कहानी तो चली जाती है मगर पाठक उसके तिल्लिसिम से बाहर निकलने के लिये संघर्ष करता रहता है लाजवाब अनिल जी बधाई स्वीकार करें
waah kya baat hai ...bhai tussi great ho... bahut achchi wording kiya hai yaar ...bahut achcha laga padhke
kuchh vakyaansh dil me utar gaye .bahut umda lekhan. badhayi.
मैं तो बस ये चाहता हूँ कि वो पुल सलामत रहे...फिर आपका लेखन तो है हीं
अनिल जी , बहुत ख़ूबसूरती से आपने अपनी कलम चलाई है ... दिन और रात के बीच के समय को बड़े अच्छे अंदाज़ में पेश किया है ... एक छोटा सा इंतज़ार बस महज पांच साल का ... एक पुल है समय के दरमियाँ और उसके नीचे नदी सुस्त सी बही जा रही थी । लगता था जैसे बेमन बही जा रही हो ।यहाँ सर्दी के समय में जब सब कुछ जम गया है , नदी का सुस्त होना अच्छा लगा .....
"समय जो बेपरवाह सा अचानक आ जमा हुआ था । ठीक दो शब्दों के बीच विराम की तरह । विराम से पहले का समय जो बीत गया था-बीता हुआ समय । विराम के उस ओर-आने वाला समय और मध्यस्थ में खड़ा हुआ ये समय । ठीक पुल पर खड़ा हुआ, नदी के साथ बहता हुआ और पीली धूप के साथ उतरता हुआ ।" गुज़रे कल और आने वाले समय के बीच का विराम ने मुझे भी कुछ देर के लिए विराम दिया और सोचने पर मजबूर किया ...
कहने का अंदाज़ निराला है
...प्रभावशाली व प्रसंशनीय !!!
आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया कि आपने अपना समय निकाल कर इसे पढ़ा और अपनी राय दी .
its nice to read you...........
www.cumandshare.blogspot.com
मैं पुनः उसी पुल पर से उस पगडण्डी सी सड़क पर उन दोनों को जाते हुए देख रहा हूँ । पुल पर से उतरते हुए वे दोनों एक पल के लिये मुड़े थे । तब उस नन्हे हाथ ने खिलखिलाते हुए कहा था -'हम फिर मिलेंगे ।' अपनी अभी के इस बीते हुए वक़्त के साथ की पहचान की खातिर कहे गये वे शब्द -'हम फिर मिलेंगे ।'
सूरज दूर पेड़ों की ओट में छुपने लगा था । धीरे-धीरे उतरता हुआ । अलविदा कहने से पहले मुस्कुराता सा हुआ । सर्दियों के दिसम्बर का वह उतरता हुआ सूरज आने वाली चाँदनी को मद्धम-मद्धम फैला रहा था ।
मैं वही खड़ा था । उसी पुल पर से उस पगडण्डीनुमा सड़क पर उन्हें जाते हुए देखता हुआ । शब्द फिर से अब बीते हुए वक़्त के साथ जुड़ गये थे -'हम फिर मिलेंगे ।'
Behad sundar katha!
बहुत खूबसूरती से एहसासों को उकेरा है...पढ़ना अच्छा लगा..
अनूठे अंदाज़ के शुभकामनायें !
Hi,
Very touching story....
normally i am not comment on any story till it not touch your heart deeply and let you thing for a while...
Good show man...
Anuj
waah.........bahut gahare hriday se kahaa hai maine ye ek shabd....!!
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