धूप का टुकड़ा
>> 15 December 2010
वे दिसंबर के अंतिम दिन थे । निपट अकेले, खुद में सिमटे हुए . कभी-कभी स्वंय को भरोसा दिलाना होता कि यह दिसंबर है . ठीक जनवरी से पहले का दिन, जब अगले वर्ष का प्रारम्भ हो जायेगा और लोग एक दूसरे को बधाईयाँ देते नहीं थकेंगे . बच्चे अपने हाथों से बने ग्रीटिंग्स को अपने बस्तों में, किताबों के मध्य रखकर स्कूल ले जायेंगे और अपने प्रिय मित्र को देंगे .
एक गुनगुनी सुबह धूप का एक टुकड़ा छतों पर से उतरता हुआ, आँगन में ठहर गया था . कई ठंडी सुबहों के बाद एकाएक धूप का खिलखिलाना भ्रम पैदा करता, कि जैसे यह बसंत का कोई एक दिन हो . और लोग अपने घरों से धीमे-धीमे बाहर निकल कर छतों, पार्कों और खाली पड़ी सड़कों पर सैर कर रहे हों . बच्चे गुब्बारे लेकर दौड़ लगा रहे हों और फेरी वाला आवाज़ दे रहा हो . आवाज़ सुनकर औरतें घरों से बाहर झाँक रही हों और एकाएक उसके आस-पास भीड़ एकत्रित हो जाए .
मैं भी गुनगुनी धूप के चक्रव्यूह में आ गया और देखते ही देखते हाथ में किताब थामे, सामने के पार्क की बैंच पर जा बैठा . सामने बच्चे एक लम्बे अरसे से उछल-कूद में व्यस्त दिखे . वे पेड़ों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते . दौड़ते-दौड़ते थक जाते तो उनमें से कोई और दौड़ लगा लगाकर उनके छूने की चेष्टा करता . मैं दूसरे पृष्ठ की तीसरी पंक्ति पर था कि एक रंगीन स्कार्फ हवा में तैरता हुआ मेरे कंधे पर आ गिरा . एक आवाज़ सुनाई दी "एक्सक्यूज मी", मैं निगाहें उठाता हूँ और उसको पहली दफा देखता हूँ . बीते दिन की सर्दी के चिन्ह उसकी नाक पर अब भी मौजूद थे. जैसे कह रहे हैं देखो मैं यहाँ हूँ . मुझे देखकर वह थोड़ी मुस्कुराई और अपने स्कार्फ की ओर इशारा करते हुए, मेरे कंधे को देखने लगी . मैंने उसे स्कार्फ वापस करते हुए, उसका शुक्रिया रख लिया .
वो हमारी पहली मुलाकात थी और उस मुलाकात पर केवल इतना हुआ था कि उसने चलते हुए, मुझसे कहा था "आप भी पढने का शौक रखते हैं " और उत्तर के बिना चली गयी . उसके चले जाने पर, अगले कई पलों तक उसका एहसास होता रहा . और स्मृतियों में उसका "भी" कैद हो गया . उस "भी" के मायने क्या हो सकते थे . मैं इस उधेड़-बुन में लगा रहा . और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि शायद उसको भी पढने का शौक होगा .
कई बार ऐसा होता है कि आप एकाएक किसी ऐसे शख्स से टकरा जाते हैं जो पहली नज़र में ही आपकी तबियत का लगने लगता है . जैसे कि उस ऊपर वाले ने उसे ख़ास तौर पर आपके पास भेजा हो . फिर आपके भीतर उसके प्रति आकर्षण पैदा होता है . शायद आकर्षण की पहली बूँद जो उस ऊपर वाले ने दिखाई थी, आपकी इच्छा को बढाती है . उसके बारे में सब कुछ जान लेने की इच्छा . और या तो आप इच्छा के विरुद्ध जाते हैं या इच्छा की दिशा में तेज़ दौड़ लगाते हुए उसके पास पहुँचाने का प्रयास करने लगते हैं .
मैं इच्छा के विरुद्ध दौड़ना चाहता था . क्यों ? किसलिए ? मैं स्वंय इस बात को नहीं जानता था किन्तु आकर्षण की वह बूँद मुझे भी दिखाई दी थी . तेज़ सितारों सी चमकती हुई . अपने बीच में खिले उस चाँद को पा लेने की चाहत जगाती सी . जो कि बेहद खूबसूरत होता है . मैं उसके उलटी दिशा में चल निकला था . किन्तु होता यह नहीं, होता यह है कि जब आप इच्छा के विरुद्ध चलते हैं उसकी उलटी दिशा में दौड़ना चाहते हैं, तब एक अन्य आकर्षण बल आकर आपको घेर लेता है और वह इच्छा आपको प्रबल आकर्षण बल से अपनी ओर खींचने लगती है .
अगली चार सुबहों तक मैं उसके ख़याल को परे धकेलता रहा . जैसे कि सर्दियों के बाद की उस खिलखिलाती धुप का कोई अस्तित्व न हो . फिर अगले रोज़ से ही वह स्कार्फ मुझे सपनों में भी गिरता दिखाई देने लगा . एक बार नहीं अनेकों बार वह स्कार्फ गिरा और हर बार ही वह मेरे कंधे पर आ ठहरता . और वह स्कार्फ को लेने मेरे सामने आ खड़ी होती .
और फिर उन प्रबल आकर्षण बालों वाली सुबहों के बाद एक बेहद रूमानी सुबह वह दिखाई दी . जब मैं उस बैंच के पास पहुँचा तो वह, पहले से ही वहाँ मौजूद थी . उसकी निगाहें ठीक किताब के पृष्ठ की किसी पंक्ति पर चिपकी हुई थीं . मैंने उससे कुछ भी कहे बिना . बैंच का आधा बचा भाग ले लिया . कई पलों के बाद उसने एकाएक गर्दन उठायी . "अरे आप" मुझे देखकर उसके कहे हुए पहले शब्द यही थे . उस रोज़ किताबों की इतनी बातें हुईं कि मुझे उसकी जानकारी से रश्क होने लगा था और न चाहते हुए मैंने उससे कहा था "मुझे आपके साहित्यिक तजुर्बे से रश्क हो उठा" . इस बात पर वह खिलखिला उठी थी, जैसे कि मुझे हल्का कर देने चाहती हो कि नहीं ऐसा तो कुछ भी ख़ास नहीं है . मैं भी उतना ही जानती हूँ, जितना बाकी के सब . उसने कुछ किताबों की अदला बदली के लिए अगला सुबह को चुना था . जोकि क्रिसमस ईव का दिन था .
उसके चले जाने के बाद, आने वाली सुबह के ख्याल ने मुझे आ घेरा था . जब कि आसमान रंगीन गुब्बारों से घिरा होगा . बच्चे यहाँ-वहाँ हर कहीं दिख जायेंगे . औरतें-आदमी और बच्चे अपने नए कपड़ों में सड़कों को भर देंगे और उस पल लगेगा ही नहीं कि, यह सर्द दिसंबर का कोई एक दिन है . जहाँ अब तक सब अपने-अपने घरों में दुबके हुए पड़े रहते थे . केवल बच्चे सर्दियों की छुट्टियों से पहले ठिठुरते हुए, स्कूल बसों में सवार होकर घरों से रवाना होते थे और धुंध में ही वापस आकर घरों में दुबक जाते थे .
मैं उसके चले जाने के बाद से, उसके पुनः आ जाने की प्रतीक्षा करने लगा था . यह क्या था ? किसलिए था ? इस ख़्याल ने मेरे ओठों पर मुकुराहट ला दी थी .
आगे जारी....
18 comments:
बडा खूबसूरत ख्याल है …………अब तो आगे की प्रतीक्षा है।
Ab to aapke saath,saath hamebhi aage ka intezaar hai!
बहुत दिनों बाद आपने कुछ लिखा है पर वाही अंदाज़, वाही शैली .... पहली पंक्ति पर आते ही कब पोस्ट ख़तम हो जाती है पता नहीं चलता .... मस्त लिखते हैं आप अनिल जी ..
यह सर्द दिसंबर का कोई एक दिन है . जहाँ अब तक सब अपने-अपने घरों में दुबके हुए पड़े रहते थे . केवल बच्चे सर्दियों की छुट्टियों से पहले ठिठुरते हुए, स्कूल बसों में सवार होकर घरों से रवाना होते थे और धुंध में ही वापस आकर घरों में दुबक जाते थे .
कुछ लोगों यूँ ही मिलकर दिल में निशां छोड़ जाते हैं की उनके आने के प्रतीक्षा मन करता रहता है ....
मैं उसके चले जाने के बाद से, उसके पुनः आ जाने की प्रतीक्षा करने लगा था . यह क्या था ? किसलिए था ? इस ख़्याल ने मेरे ओठों पर मुकुराहट ला दी थी .
बहुत सुमधुर ख्यालों की बानगी का सुन्दर चित्रण.......बधाई
कई बार ऐसा होता है कि आप एकाएक किसी ऐसे शख्स से टकरा जाते हैं जो पहली नज़र में ही आपकी तबियत का लगने लगता है . जैसे कि उस ऊपर वाले ने उसे ख़ास तौर पर आपके पास भेजा हो
सच्ची बात ..खूबसूरत अहसासों की खूबसूरत बानगी.
Very Nice
अनिल भैया आपको बहुत मिस किया..आप लिखते रहते हैं तो अच्छा अच्छा सा लगता है...आपकी रचनायें कहीं न कहीं अपने जीवन से जुडी लगती हैं....
एक बार फिर मन को छू गयी..
और हाँ मेरा पता बदल गया है एक बार देख लीजियेगा....
इस कहानी के बारे में अभी से नहीं कहना चाहती .अभी शुरुआत है हो सकता है कहानी आगे चल के प्रभावित कर पाए अभी समान्य सी भूमिका जैसी लग रही है.पर जितना आपको आज तक पढ़ा है आपकी कहानियों में एक विशेष प्रकार का भावनात्मक माहौल बना रहता है.एक घटना का मात्र ब्योरा नहीं लगती कला की श्रेणी में आ जाती है.
जीवन में आयी हर सुन्दर घटना का मर्म ढूढ़ने में ही तो जीवन निकल जाता है।
बहुत खूबसूरती से कहानी का ताना बाना बुना है ....आगे जानने की जिज्ञासा है ...अब इंतज़ार के सिवाय कर क्या सकते हैं ?....
कई दिनों के बाद आपके ब्लॉग में कुछ नया पढ़ने को मिला है. वैसे आपकी कोई भी रचना जितनी बार भी पढू, नई-सी ही लगती है. आपके शब्दों का जादू ही कुछ ऐसा है.
बड़े दिनों बाद फिर वही रूमानियत भरी पोस्ट, ताजी-ताजी हवा के झोंके सी...
कई बातें तो दिल पर सीधे अटैक कर गयीं, जैसे शुक्रिया रख लेने वाली बात या 'भी' पर अटक जाने वाली बात, पर ये बात तो मुझे बहुत अच्छी लगी---
"किन्तु होता यह नहीं, होता यह है कि जब आप इच्छा के विरुद्ध चलते हैं उसकी उलटी दिशा में दौड़ना चाहते हैं, तब एक अन्य आकर्षण बल आकर आपको घेर लेता है और वह इच्छा आपको प्रबल आकर्षण बल से अपनी ओर खींचने लगती है ."
सौ प्रतिशत सही जी. भुक्तभोगी हैं हम :-)
कई बार ऐसा होता है कि आप एकाएक किसी ऐसे शख्स से टकरा जाते हैं जो पहली नज़र में ही आपकी तबियत का लगने लगता है
सुन्दर. अभी केवल पढूंगी.
ये वही खूबसूरत ख्याल था जो बडे होते हुये बच्चे अक्सर देखने लगते हैं। सुन्दर पोस्ट। बधाई।
करिए आप भी इंतजार और हम भी करते हैं अगली पोस्ट का इंतजार।
यह गुनगुनी धूप मुझे भी बहुत आकर्षित करती है ... मेरे कविता संग्रह का नाम भी है " गुनगुनी धूप में बैठकर "
अनगिन आशीषों के आलोकवृ्त में
तय हो सफ़र इस नए बरस का
प्रभु के अनुग्रह के परिमल से
सुवासित हो हर पल जीवन का
मंगलमय कल्याणकारी नव वर्ष
करे आशीष वृ्ष्टि सुख समृद्धि
शांति उल्लास की
आप पर और आपके प्रियजनो पर.
आप को सपरिवार नव वर्ष २०११ की ढेरों शुभकामनाएं.
सादर,
डोरोथी.
जय श्री कृष्ण...आपका लेखन वाकई काबिल-ए-तारीफ हैं....नव वर्ष आपके व आपके परिवार जनों, शुभ चिंतकों तथा मित्रों के जीवन को प्रगति पथ पर सफलता का सौपान करायें .....मेरी कविताओ पर टिप्पणी के लिए आपका आभार ...आगे भी इसी प्रकार प्रोत्साहित करते रहिएगा ..!!
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